गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

मेरी कहानियाँ - माचिस की डिबिया


माचिस की डिबिया  
चंद्र मौलेश्वर प्रसाद  

उसके सिर पर बिखरे हुए सफेद बाल, चेहरे की झुर्रियां और झुकी हुई कमर बता रहे थे कि वह जीवन के अंतिम पड़ाव पर खड़ा है।  धीरे-धीरे पग बढ़ाते हुए वह पनवाड़ी की दुकान पर पहुँचा।  सिगरेट और माचिस की डिबिया खरीद कर उसी मंद चाल से घर की ओर लौटा।  घर के सामने बने चबुतरे पर धीरे से बैठ गया।  इतने में ही उसकी साँस फूल रही थी।  चबूतरे पर बैठकर पीछे खिसकते हुए उसने दिवार से पीठ टेक दी।  बंद मुट्ठी खोल कर अपने हथेली में पड़ी माचिस की डिबिया को वह घूरने लगा।

मुस्कुराते हुए वह बड़बड़ाने लगा- "साली ये ज़िन्दगी भी माचिस की डिबिया की तरह कभी तरो-ताज़ा रही होगी।"  फिर, उसने डिबिया खोलकर उसमें से कुछ तिलियाँ निकाली।  एक के बाद एक तिली जलाता रहा और देखता रहा कि किस तरह तिली घिसने से डिबिया की कोर पर लकीरें पड़ती जा रही हैं। फिर वह बड़बड़ाने लगा-

"इसी तरह तो एक के बाद एक लकीर मेरे दिल पर पड़ती रही।  माँ का साया पैदा होते ही उठ गया।  माँ का दूध भी नहीं पी पाया था मैं। अभी होश सम्भाला भी न था कि दूसरी माँ का दुलार.... हुँ...हुँ ... दुत्कार मिला।  थोड़ा बड़ा हुआ तो शराब के नशे में धुत बाप चल बसा।  अभी खेलने-कूदने के दिन ही थे कि पेट की खातिर काम पर लग गया।  सेठ की झिड़कियां सुनते... थप्पड़ खाते बड़ा हुआ।  रोज़ एक नया घाव दिल पर लकीर कर जाता....।"

जीवन की एक-एक घटना को याद करते हुए उसने माचिस की एक-एक तिली जला दी और उससे पड़ते लकीरों को देखता रहा।  फिर बड़बड़या- "इतनी सारी लकीरें कि अब और लकीरों के लिए जगह  ही नहीं बची... चलो झेल ली पूरी ज़िन्दगी।"

अब उसकी डिबिया में एक तिली बच गई थी।  उसने सिगरेट मुँह में लगाया और माचिस की अंतिम तिली डिबिया पर घिस कर सिगरेट सुलगाई।  लम्बी कश खींच कर उसने धुआँ छोड़ा; मानो अपने दिल पर लगे घाव की लकीरों को वह उस धुएँ में उड़ा रहा हो।

उसके मुँह से अनायास निकला- "साली सारी जिंदगी घुआँ हो गई।"   


19 टिप्‍पणियां:

सञ्जय झा ने कहा…

apne hisse ki tili log khud jala lete hain aur jab
kuch bachta nahi to log-bag khali hue machis ko phoonk dete hain.........

pranam.

ZEAL ने कहा…

शायद जीवन का यही दस्तूर है !

विशाल ने कहा…

कविता सी लगी आप की लघुकथा.लेकिन बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति.
सलाम.

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

किसी की जिन्‍दगी धुआँ हो जाती है तो किसी की धार। ऐसा ही है।

डॉ टी एस दराल ने कहा…

काश कि दिल के घाव सिगरेट के धुएं में उड़ सकते ।

Arvind Mishra ने कहा…

:) क्या खूब लघुकथा !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जीवन धुँआ सा लगता है कभी।

बेनामी ने कहा…

बहुत खूब.
मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद.

वैसे ''हर फ़िक्र को धुएँ में उडाता चला गया.''

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

जीवन की सच्चाई बयां करती हुई बहुत ही सुंदर प्रस्तुति. .
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है

Luv ने कहा…

There is sumthing about morning tea/ smoke and getting all philosophic, isn't it?

Loved the story.

राज भाटिय़ा ने कहा…

वाह जी बहुत सुंदर ढंग से आप मे जिन्दगी का यह रुप भी दिखाया, धन्यवाद

amit kumar srivastava ने कहा…

this is the FACT ,sir.

Satish Saxena ने कहा…

आज आप यह गाना सुने ...आनंद आएगा !

MAIN ZINDAGI KA SAATH NIBHATA CHALA GAYA

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

बहुत खूब ! लघु कथा में जिन्दगी का माचिस की डिबिया से तुलनात्मक संवाद बहुत भाया !

शिवा ने कहा…

चन्द्रमौलेस्वर जी नमस्कार,
जीवन के अंतिम पड़ाव भी माचिस की तरह ही तो है ....बहुत सुंदर ...

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

कहानी काफ़ी रोचक है आदि से अन्त तक पाठक में जिज्ञासा जगाती हुई रोचक कहानी।

केवल राम ने कहा…

जिन्दगी का दस्तूर यही है ..कोई जलने से पहले जला लेता है तो कोई जल कर भी नहीं जलता ....बस यही फर्क है .....बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

वाह .....
अपने लघु रूप में भी कितनी बड़ी लगी ये कहानी .......
एक पूरी मुकम्मल कहानी .....
माचिस की तीली के बिम्ब ने आकर्षित किया ....

Pratik Maheshwari ने कहा…

वाह.. बेहतरीन रचना..
सिगरेट को ज़िन्दगी से बखूबी बाँधा है..
अच्छा लगा...