tag:blogger.com,1999:blog-28126072688125992332024-03-17T19:07:58.267+05:30कलम‘मेरी दीवानगी पर होशवाले बहस फ़रमायें’चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.comBlogger210125tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-63608197460729043412012-02-26T19:52:00.000+05:302012-02-26T19:52:48.497+05:30अवकाश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: center;"><span style="background-color: red; font-size: large;"><span style="color: #eeeeee;">आदरणीय ब्लागर मित्रो,</span></span></div><div style="text-align: center;"><span style="background-color: red; color: #eeeeee; font-size: large;">अस्वस्थ होने के कारण शायद अंतरजाल पर न आ पाऊँ । इसलिए कुछ समय के लिए शायद आप से भेंट न हो। स्वास्थ लाभ करके पुनः आपसे सम्पर्क स्थापित करूंगा। तब तक के लिए विदा:)</span></div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com37tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-38497986257948964552012-02-22T16:03:00.001+05:302012-02-22T17:15:07.625+05:30कुछ उजाले, कुछ अँधेरे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJ0wWyEt47qGYl1hZwSDcDXAMZdXy2v6-hjkIhbjA-p_jdrglglxJG8-uazT921TnmEy0v9jkfoWD1rz60cGVwa2ucHKokgRlV5QefSu7DxvxVDaN_Y2xTOTsw1Qu-5rlRbQYjiymvpa0z/s1600/scan0008.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJ0wWyEt47qGYl1hZwSDcDXAMZdXy2v6-hjkIhbjA-p_jdrglglxJG8-uazT921TnmEy0v9jkfoWD1rz60cGVwa2ucHKokgRlV5QefSu7DxvxVDaN_Y2xTOTsw1Qu-5rlRbQYjiymvpa0z/s320/scan0008.jpg" width="212" /></a></div><br />
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<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #f6b26b;">कुछ उजाले, कुछ अंधेरे</u></b></span></div><br />
<div style="text-align: justify;">बैकुंठ नाथ पेशे से वास्तुविद भले ही हों, पर हृदय से एक रचनाकार हैं जिनकी अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें उनके गीतों, कविताओं और कहानियों की अभिव्यक्ति हुई है। ‘कुछ उजाले, कुछ अँधेरे’ उनका नवीनतम कथा संग्रह है जिसमें इक्कीस कहानियाँ संग्रहित हैं। इन कहानियों से गुज़रते हुए पाठक को महसूस होगा कि लेखक एक सफल पर्यटक के अलावा पैनी दृष्टि का मालिक भी है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जैसा कि कहानी संग्रह के शीर्षक से पता चलेगा कि इन कहानियों में जीवन की आशा-निराशा, अमीरी-गरीबी, प्रेम-घृणा जैसी मनोवृत्तियों को कहानीकार ने उजागर किया है। अधिकतर कहानियों में गरीबी की विवशता और प्रेम के विविध रूपों का चित्रण मिलता है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">बैकुंठ नाथ की कहानियों में गरीब की विवशता के साथ उसकी आस्था, आशा और आदर्श की झलक भी मिलती है। कहानी ‘तुम बिन को भगवान’ में उस गरीब के चरित्र की झलक मिलती है जो पहले किसी धनवान के यहाँ काम करता था और अब रिक्शा चला रहा है। जब वह धनवान उसी रिक्शा में चढ़ कर अपने गंतव्य को पहुंचता है तो वह अपने पुराने मालिक को पहचान कर पैसे लेने से इंकार कर देता है, भले ही उसका परिवार एक दिन की रोटी से चूक जाएगा। </div><div style="text-align: justify;">गरीब बच्चे का परिवार भले ही एक कमरे में रहता हो पर जब वह अपनी पुस्तक में डाइनिंग रूम, किचिन, लाइब्रेरी आदि का वर्णन पढ़ता है तो उसे अपने भविष्य के प्रति आशा जागती है और वह सपने देखता है जो शायद कभी पुरे नहीं होंगे। इसी को कहानीकार ने अपनी कहानी ‘आशा जीवन का सोपान’ में सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। बेज़बान, हमसे कुत्ते अच्छे हैं, दीन्हिं लखै न कोय, छाबड़ीवाला, चुपके लागे घाव ऐसी ही कुछ कहानियां हैं जिनमें गरीबी से जुड़ी समस्याओं को कहानीकार ने उजागर किया है। इनमें एक कहानी ‘गरम कमीज़’ भी है जिसे पढ़कर लगता है कि बैकुंठ नाथ ने इसे गोगोल की कहानी ‘द कोट’ से प्रभावित होकर लिखा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">प्रेम के विविध रूप पर लिखी कई कहानियाँ इस कृति में मिलेंगी। नैतिकता-अनैतिकता, क्षणिक से लेकर गम्भीर प्रेम, सच्चा प्रेम और दैहिक प्रेम पर लिखी गई कहानियों पर लेखक एक स्थान पर बताते हैं कि "समय परिचय करा देता है। परिचय मित्रता में बदल जाता है और मित्रता अक्सर प्रेम में परिवर्तित हो जाती है। परिचय घटनाओं की देन है- समय की संधि है; मित्रता एक मार्ग है और प्रेम सम्भवतः लक्ष्य।"[विदाई- पृ.१३१] </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">‘चारदीवारी’ एक ऐसी कहानी है जिसमें एक ब्याहता किराएदार की दोस्ती मकानमालिक की जवान बेटी से हो जाती है। बात आगे बढ़ने से पहले उस व्यक्ति को अपने परिवारवालों के पास से पत्र मिलता है कि उसकी जवान लड़की किसी के साथ भाग गई है। वह पछतावे की आग में जलते हुए उस लड़की को सारी बात बता देता है। प्रेम का एक वह रूप भी है जो किसी को प्रेमिका की सुंदरता को देख कर आजीवन साथ निभाने के सपने देखता है। एक कला का विद्यार्थी एक सुंदर सहपाठिनी के चित्र बनाता रहता है। उसे एक चित्र पर पुरस्कार भी मिलता है। वह लड़की उसके पास आती है और उसके अधिक चित्र देखना चाहती है। लड़का उसे अपने घर ले जाकर कई चित्र बताता है जो उस पर केंद्रित हैं। लड़की उसके प्रेम से द्रवित हो जाती है और अपने मोजे निकाल कर उसके ‘कोढ’ के निशान बताती है जिसके बाद प्रेमी का प्रेम काफ़ुर हो जाता है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">रीत गई अँखियां, नदी-हवा-घटा, बीहू गीत, बिदाई आदि कुछ प्रेम कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनका निष्कर्ष पाठक पर छोड़ दिया गया है। दूसरी ओर कुछ ऐसी कहानियाँ जैसे सिनेमा की बलिवेदी पर, कुआँ और हड़ताल इस संग्रह में मिलेंगी जिनमें व्यक्ति बिना सोचे समझे ही कुछ कर बैठता है- जैसे आवेश में कुएँ में कूद कर प्राण त्याग देना या हड़ताल के समय किसे हानि पहुँचाई जा रही है इस सोच को भी ताक पर रख देना आदि।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इन कहानियों पर अपनी अनुभूति अभिव्यक्त करते हुए कहानीकार बैकुंठ नाथ कहते हैं कि "मैं जब समाज को देखता, परखता, विचारता, दुलारता या नकारता सा समाज के प्रति लिखता हूं... तो मुझे ऐसा लगता है जैसे उजालों और अँधेरों में खड़ा देखता रह जाता हूँ। मेरे सामने विरह-मिलन समान रूप धारण कर लेते हैं। दिवा-निशा में कुछ भेद नहीं रहता। ... न जाने कैसे मैं उजालों को अनुभव करने लगता हूँ, अँधेरों को तराशने लगता हूँ। कुछ उजालों को पकड़े, कुछ अंधेरों को थामे मैं मूक सा खड़ा रह जाता हूँ।" इन्हीं कुछ अनुभवों को तराश कर लिखी गई कहानियों से गुज़रते हुए पाठक कहीं उजालों से चकाचौंध हो जाएगा तो कहीं अंधेरों में उजाले की तलाश करेगा!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><i>पुस्तक परिचय:</i></div><div style="text-align: justify;"><i>पुस्तक का नाम: कुछ उजले कुछ अँधेरे</i></div><div style="text-align: justify;"><i>लेखक: बैकुंठ नाथ</i></div><div style="text-align: justify;"><i>प्रकाशक: सिमिरन प्रकाशन</i></div><div style="text-align: justify;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ए-१, परिक्रमा फ़्लैट्स</i></div><div style="text-align: justify;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बोपल, अमदाबाद-३८००५८</i></div><div style="text-align: justify;"><br />
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</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-7578511274304838762012-02-19T22:00:00.000+05:302012-02-19T22:00:52.197+05:30एक खयाल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9U78E0Eg2e5tMY2adI8LuRA38oVXIhn0lmIcbJPo2hexJ8G4ymcSCQxhU9XoeLe4RdsqrZh_zjwTJpfBgiUqGgm9zli_eLoMFQQyE-MxTQPoU2Bc_aIvMwcurA7UCxfcZBJSMxyw8LuGi/s320/small_vs_big_wrestling.jpg" /> </div><div style="text-align: center;"><b style="font-size: xx-large;"><u style="background-color: orange;">बड़ा</u></b></div><br />
<div style="text-align: justify;">सदियों पहले कबीरदास का कहा दोहा आज सुबह से मेरे मस्तिष्क में घूम रहा था तो सोचा कि इसे ही लेखन का विषय क्यों न बनाया जाय। कबीर का वह दोहा था-</div><div style="text-align: justify;"><i><br />
</i></div><div style="text-align: center;"><i>बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड खजूर</i></div><div style="text-align: center;"><i>पथिक को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥</i></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">यह सही है कि बड़ा होने का मतलब होता है नम्र और विनय से भरा व्यक्ति जो उस पेड की तरह होता है जिस पर फल लदे हैं जिसके कारण वह झुक गया है। बड़ा होना भी तीन प्रकार का होता है। एक बड़ा तो वह जो जन्म से होता है, दूसरा अपनी मेहनत से बड़ा बनता है और तीसरा वह जिस पर बड़प्पन लाद दिया जाता है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अपने परिवार में मैं तो सब से छोटा हूँ। बडे भाई तो बडे होते ही हैं। बडे होने के नाते उन पर परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां भी थीं। पैदाइशी बड़े होने के कुछ लाभ हैं तो कुछ हानियां भी हैं। बड़े होने के नाते वे अपने छोटों पर अपना अधिकार जमा देते हैं और हुकुम चलाते हैं तो उनके नाज़-नखरे भी उठाने पड़ते हैं। उनके किसी चीज़ की छोटे ने मांग की तो माँ फ़ौरन कहेगा- दे दे बेटा, तेरा छोटा भाई है। छोटों को तो बड़ों की बात सुनना, मानना हमारे संस्कार का हिस्सा भी है और छोटे तो आज्ञा का पालन करने लिए होते ही हैं। परिवार में बडे होने के नुकसान भी हैं जैसे घर-परिवार की चिंता करो, खुद न खाकर भी प्ररिवार का पोषण करो आदि। अब जन्म से बडे हुए तो ये ज़िम्मेदारियां तो निभानी भी पड़ेंगी ही।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जन्म से बडे कुछ वो सौभाग्यशाली होते हैं जो बड़े घर में पैदा होते हैं। वे ठाठ से जीते हैं और बडे होने के सारे लाभ उठाते हैं। बडे घर में जन्मे छोटे भी बडे लोगों में ही गिने जाते हैं। इसलिए ऐसे लोगों के लिए पहले या बाद में पैदा होना कोई मायने नहीं रखता। उस परिवार के सभी लोग बडे होते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">दूसरी श्रेणी के बड़े वो होते हैं जो अपने प्ररिश्रम से बडे बन जाते हैं। एक गरीब परिवार में पैदा होनेवाला अपने परिश्रम से सम्पन्न होने और बुद्धि-कौशल से समाज में ऊँचा स्थान पाने वाले लोगों के कई किस्से मशहूर हैं ही। ऐसे लोगों को ईश्वर का विशेष आशीर्वाद होता है और उनके हाथ में ‘मिदास टच’ होता है। वे मिट्टी को छू लें तो सोना बन जाय! अपने बुद्धि और कौशल से ऐसे लोग समाज में अपना स्थान बनाते है और बड़े कहलाते हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ऐसे बडों में भी दो प्रकार की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। कुछ बडे लोग अपने अतीत को नहीं भूलते और विनम्र होते है। उनमें अभिमान नाममात्र को नहीं होता। इसलिए समाज में उनका सच्चे मन से सभी सम्मान करते हैं। दूसरी प्रवृत्ति के बडे लोग वे होते हैं जो शिखर पर चढ़ने के उसी सीड़ी को लात मार देते हैं जिस पर चढ़कर वे बडे बने रहना चाहते हैं। वे अपने अतीत को भूलना चाहते हैं और यदि कोई उनके अतीत को याद दिलाए तो नाराज़ भी हो जाते हैं। इन्हें लोग सच्चे मन से सम्मान नहीं देते; भले ही सामने जी-हुज़ूरी कर लें पर पीठ-पीछे उन्हें ‘नया रईस’ कहेंगे। ऐसे बड़े लोगों के इर्दगिर्द केवल चापलूस ही लिपटे रहते हैं। कभी दुर्भाग्य से जीवन में वे गिर पडे तो उनको कोई साथी नहीं दिखाई देगा। सभी उस पेड के परिंदों की तरह उड़ जाएंगे जो सूख गया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">तीसरी श्रेणी के बड़े वो होते हैं जिन पर बड़प्पन लाद दिया जाता है। इस श्रेणी में धनवान भी हो सकते हैं या गुणवान भी हो सकते हैं या फिर मेरी तरह के औसत मध्यवर्गीय भी हो सकते हैं जिन्हें कभी-कभी समय एक ऐसे मुकाम पर ला खड़ा कर देता है जब वे अपने पर बड़प्पन लदने का भार महसूस करते हैं। हां, मैं अपने आप को उसी श्रेणी में पाता हूँ!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मैं एक मामूली व्यक्ति हूँ जिसे अपनी औकात का पता है। मैं अपनी क्षमता को अच्छी तरह से परक चुका हूँ और एक कार्यकर्ता की तरह कुछ संस्थाओं से जुड़ा हूँ। जब मुझे किसी पद को स्वीकार करने के लिए कहा जाता है तो मैं नकार देता हूँ। फिर भी जब किसी संस्था में कोई पद या किसी मंच पर आसन ग्रहण करने के लिए कहा जाता है तो संकोच से भर जाता हूँ। कुछ ऐसे अवसर आते हैं जब मुझे स्वीकार करना पड़ता है तो मुझे लगता है कि मैं उस तीसरी श्रेणी का बड़ा हूँ जिस पर बडप्पन लाद दिया जाता है। इसे मैं अपने प्रियजनों का प्रेम ही समझता हूँ, वर्ना मैं क्या और मेरी औकात क्या। क्या पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा! मुझे पता है कि बड़ा केवल पद से नहीं हो जाता बल्कि अपने कौशल से होता है। ऐसे में मुझे डॉ. शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव की यह कविता [बहुत दिनों के बाद] बार बार याद आती है--</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><i>बड़ा को क्यों बड़ा कहते हैं, ठीक से समझा करो</i></div><div style="text-align: center;"><i>चाहते खुद बड़ा बनना, उड़द-सा भीगा करो</i></div><div style="text-align: center;"><i>और फिर सिल पर पिसो, खा चोट लोढे की</i></div><div style="text-align: center;"><i>कड़ी देह उसकी तेल में है, खौलती चूल्हे चढ़ी।</i></div><div style="text-align: center;"><i><br />
</i></div><div style="text-align: center;"><i>ताप इसका जज़्ब कर, फिर बिन जले, पकना पड़ेगा</i></div><div style="text-align: center;"><i>और तब ठंडे दही में देर तक गलना पड़ेगा</i></div><div style="text-align: center;"><i>जो न इतना सह सको तो बड़े का मत नाम लो</i></div><div style="text-align: center;"><i>है अगर पाना बड़प्पन, उचित उसका दाम दो!</i></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-76515602519442515672012-02-16T19:01:00.000+05:302012-02-16T19:01:09.445+05:30मजाज़ की कविता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: center;"><img alt="Mother calms the sad daughter Stock Photo - 9626488" border="0" class="compImg" src="http://us.123rf.com/400wm/400/400/tatyanagl/tatyanagl1105/tatyanagl110500320/9626488-mother-calms-the-sad-daughter.jpg" style="background-color: white; color: #1a1a1a; font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; font-size: 12px; max-height: 400px; max-width: 400px; text-align: left;" title="Mother calms the sad daughter Stock Photo" /> </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><b><u>गुरुदयाल अग्रवाल के माध्यम से</u></b></div><div style="text-align: justify;"><b><u><br />
</u></b></div><div style="text-align: justify;">कई दिनों बाद गुरुदयाल अग्रवाल जी की कविता आई... मेरा मतलब है उनके द्वारा चयनित कविता, जिसकी भूमिका भी उन्होंने लिखी है। तो अब मैं और क्या कहूं? मैं तो कुछ नहीं कहूंगा, हां, डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी के विचार से आपको अवगत करा सकता हूँ। उनका मानना है-</div><div style="text-align: justify;"></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 13px; text-align: -webkit-auto;"><i>कविता तो सचमुच अच्छी है , और सच्ची भी है.</i></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 13px; text-align: -webkit-auto;"><i>लेकिन एक संकेत इसमें छिपा है कि हिंदू माताएं अपनी नासमझ बेटियों को गुड़ियों से खेलने की उम्र में मंदिर और पूजा में ठेल देती हैं जबकि उन्हें इनके अर्थ और विधि का कुछ भी पता नहीं होता है. पता नहीं कि उस महान शायर ने गोद के बच्चों को कभी देवमूर्तियों को प्रणाम करते देखा था कि नहीं. मैंने देखा है. इसीलिए मुझे यह कविता हिंदू धर्म का मखौल उडाती प्रतीत होती है. प्रगतिवादी नज़रिए से यही ठीक भी है कि बच्चे के स्वविवेक के विकसित होने से पहले उसे आस्तिक बनाना अन्धविश्वास फैलाना ही है.<span style="font-size: 10pt;"> </span></i></div><br />
<div style="text-align: justify;"><i><br />
</i></div><div style="text-align: justify;">गुरुदयाल अग्रवाल जी कहते हैं--</div><div style="text-align: justify;"></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;">कुछ शायरों की गजलो की pocket books अक्सर पढ़ता रहता हूँ! इनमें एक मजाज साहब भी हैं. इन <wbr></wbr>गजलो के बीच में एक कविता भी है जो मैंने कभी पढ़ी नहीं. हमेशा छोड़ दिया करता था कि मजाज कविता क्या लिखेंगे. कल ऐसे ही इसको पढ़ लिया और <wbr></wbr>तबसे ही अफसोस हो रहा कि पहले क्यों नहीं पढ़ी. बहुत लज्जा सी लग रही है. हाँ पढ़कर आप को सुनाने का लोभ <wbr></wbr>संवरन नहीं कर पा रहा हूँ. </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;">लीजिये हाजिर है:</div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> इक नन्ही-मुन्नी सी पुजारिन </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> पतली बाहें, पतली गर्दन </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> भोर भये मन्दिर आई है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> आई नहीं है माँ लाई है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> वक्त से पहले जाग उठी है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> नींद अभी आँखों में भरी है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> ठोड़ी तक लट आई हुई है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> यूँही सी लहराई हुई है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> आँखों में तारों की चमक है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> मुखड़े <wbr></wbr>पर चाँदी की झलक है</div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> कैसी सुंदर है क्या कहिये </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> नन्ही सी इक सीता कहिये </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> धूप चढ़े तारा चमका है</div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> पत्थर पर इक फूल खिला है</div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> चाँद का टुकड़ा, फूल की डाली </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> कमसिन, सीधी भोली भाली </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> कान में चांदी की बाली है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> हाथ में पीतल की थाली है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> दिल में लेकिन ध्यान नहीं है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> कैसी भोली और सीधी है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> मन्दिर की छत देख रही है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> माँ बढ़कर चुटकी लेती है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> चुपके-चु<wbr></wbr>पके हंस देती है </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> हंसना रोना उसका मजहब </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> उसको पूजा से क्या मतलब </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> खुद तो आई है मन्दिर में </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> मन उसका है गुडिया-घर में </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;">वाह मजाज साहब वाह, आफरीन </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"> </div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-58841051426022814642012-02-13T18:53:00.000+05:302012-02-13T18:53:31.003+05:30गंभीरता से न लें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://wzus1.ask.com/r?t=p&d=us&s=a&c=p&app=a16&dqi=&askid=&l=dir&o=1712&sv=0a5c4074&ip=b752dc6d&id=D85262F101EF83B4A8A8602FF675B2E3&q=buildings+on+fire&p=2&qs=8&ac=903&g=45e7FoVfQQkEP2&cu.wz=0&en=pi&io=18&ep=&eo=&b=img&bc=&br=&tp=d&ec=20&pt=%0A%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%0A%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%0A%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20&ex=&url=http%253A%252F%252Fwww.airefrig.com%252Fbuilding.html&u=http://images.ask.com/fr?q=buildings+on+fire&desturi=http%3A%2F%2Fwww.airefrig.com%2Fbuilding.html&initialURL=http%3A%2F%2Fimages.ask.com%2Fpictures%3Fq%3Dbuildings%2Bon%2Bfire%26qsrc%3D8%26o%3D1712%26l%3Ddir%26qid%3DD85262F101EF83B4A8A8602FF675B2E3%26frstpgo%3D%26page%3D2%26jss%3D1&fm=i&ac=903&fsel=2&ftURI=http%3A%2F%2Fimages.ask.com%2Ffr%3Fq%3Dbuildings%2Bon%2Bfire%26desturi%3Dhttp%253A%252F%252Fwww.airefrig.com%252Fbuilding.html%26imagesrc%3Dhttp%253A%252F%252Fwww.airefrig.com%252Fimages%252Ffire.jpg%26thumbsrc%3Dhttp%253A%252F%252Fmedia4.picsearch.com%252Fis%253FHCPsOSyxK4yOiT6ElfDao_vRJVDjYFe8XAIvG7Pte8w%26o%3D1712%26l%3Ddir%26thumbuselocalisedstatic%3Dfalse%26thumbwidth%3D128%26thumbheight%3D77%26fn%3Dfire.jpg%26imagewidth%3D200%26imageheight%3D121%26fs%3D8%26f%3D2%26fm%3Di%26fsel%3D2%26ftbURI%3Dhttp%253A%252F%252Fimages.ask.com%252Fpictures%253Fq%253Dbuildings%252Bon%252Bfire%2526page%253D2%2526o%253D1712%2526l%253Ddir%2526pstart%253D&qt=" id="r18" style="background-color: white; font-family: 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; font-size: 13px; text-align: left;" target="_blank"><img border="0" hspace="0" id="image18" src="http://media4.picsearch.com/is?HCPsOSyxK4yOiT6ElfDao_vRJVDjYFe8XAIvG7Pte8w" style="border-bottom-width: 0px; border-color: initial; border-image: initial; border-left-width: 0px; border-right-width: 0px; border-style: initial; border-top-width: 0px; clip: rect(0px 115px 100px 0px); left: 0px; position: absolute; top: 0px;" vspace="0" /></a><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; font-size: 13px; text-align: left;"></span></div><div style="text-align: center;"><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; font-size: 13px; text-align: left;"></span></div><div style="text-align: left;"></div><div style="text-align: center;"><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; font-size: 13px; text-align: left;"></span></div><br />
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<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #e06666;">आग</u></b></span></div><br />
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<div style="text-align: justify;">आज के समाचार पत्र में पढ़ा कि नगर के सितारा होटल में आग लग गई। उसी के निकट एक मित्र का घर है, तो चिंता हुई कि हालचाल पूछ लें। फ़ोन पर उन्होंने बताया कि उस हादसे के वे चश्मदीद गवाह रहे हैं। भयंकर आग की लपेटें देखकर वे दूर जा खड़े हुए और वहाँ की गतिविधियों को देखते रहे। लोग इधर उधर भाग रहे थे। होटल से बाहर निकलने वाले अपने अज़ीज़ों की तलाश कर रहे थे तो कुछ उनकी खोज में फिर अंदर जाने की जुस्तजू में थे जिन्हें वहाँ के कर्मचारी रोक रहे थे। समाचार से पता चला कि कोई हताहत नहीं हुआ है और सभी सुरक्षित है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">हमारे मित्र बता रहे थे कि इस हादसे की प्रतिक्रियाएं भी वहाँ ऐसी मिलीं कि इस गम्भीर परिस्थिति में भी व्यक्ति हँसने को मजबूर हो जाता है। जिन लोगों के परिजन मिल गए वे खुश थे और उन्हें किसी अन्य की कोई चिंता नहीं थी। दर्शकों में खड़े लोग भी उस आग को एक तमाशे की तरह देख रहे थे। एक ने कहा कि हमारी फ़ायर ब्रिगेड को तैयार रहना चाहिए, इतनी देर लगा दी [इसकी सूचना देने की उन्होंने कोई पहल नहीं की, केवल ज़बानी जमा खर्च करते रहे]। एक ने अपने मित्र के कांधे पर हाथ रखते हुए कहा कि आग की इतनी लम्बी कतार मैं तो पहली बार देख रहा हूँ! [उसके चेहरे पर ऐसी आनंद की लहर दिखाई दे रही थी मानो उसे इतना अच्छा दृश्य अपने जीवन में पहली बार देखने को मिल हो।]</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मुझे पुरानी कहावत याद आई कि किसी का घर जलता है तो कोई हाथ सेंक लेता है। तभी तो, दुष्यंत ने भी कहा था- </div><div style="text-align: center;"><i>खडे हुए थे अलावों की आँच लेने को</i></div><div style="text-align: center;"><i>सब अपनी-अपनी हथेली जला के बैठ गए॥ </i></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">आग भी किसिम किसिम की होती है। एक वो आग है जो अपने आगोश में आई हर चीज़ को जला कर राख कर देती है, तो एक वो आग भी होती है जो सीने में सुलगती है और अरमानों को जला देती है। तभी तो किसी दिलजले शायर ने कहा था- सीने में सुलगते हैं अरमान, आँखों में उदासी छायी है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">एक ऐसी आग भी होती है जो एक को जलाती है तो दूसरे को ठंडक पहुँचती है। यह त्रिकोणीय प्रेम में अधिक देखने को मिलता है। यह आग भारतीय फ़िल्मों की आधारशिला मानी जाती है। तभी तो महमूद ने अपनी एक फ़िल्म में गाया भी था- ‘अजब सुलगती हुई लकड़ियाँ है ये जगवाले, जले तो आग लगे, बुझे तो धुआँ करे’। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">रिश्तों में एक वो आग भी होती है जो महिलाओं में अक्सर सुलगती देखी गई है।[स्त्री-सशक्तीकरण का दम भरनेवालों से क्षमा माँगते हुए, वर्ना मैं उनके प्रकोप की आग में झुलस जाऊँगा।] सास-बहू ही क्या, ननंद-भावज, जेठानी-देवरानी... सभी में यह आग कभी न कभी देखी गई है, भले ही अदृश्य रूप में हो।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वैसे तो आग लगाने-बुझाने के काम अनादि काल से चला आ रहा है और ऐसे लोगों के कुलदेवता नारद जी को माना जाता है। घर की छोटी-मोटी झड़पों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय लड़ाइयों में भी ऐसे लोगों की एक अहम भूमिका देखी गई है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस लगाऊ-बुझाऊ काम को ‘डबल क्रास’ का नाम दिया जाता है। कुछ मसाले के साथ इधर की उधर और उधर की इधर लगा दो और तमाशा देखो। इसे ही तो कहते हैं- आम के आम, गुठलियों के दाम।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">कवियों और शायरों ने भी इस आग का बहुत लाभ उठाया है। किसी उर्दू शायर ने इश्क की हिमाकत को क्या खूब बयान किया है- </div><div style="text-align: center;"><i>ये इश्क नहीं आसां, बस इतना ही समझ लीजे। </i></div><div style="text-align: center;"><i>इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। </i></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">हमारे हिंदी के अज़ीम शायर दुष्यंत कुमार ने भी तो कहा है- </div><div style="text-align: left;"><span style="text-align: center;"><i> मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही</i></span></div><div style="text-align: center;"><i>हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी ही चाहिए।</i></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">आग के इन विविध आयाम में जो कुछ छूट गया है, उसे मित्रगण अपनी टिप्पणियों के माध्यम से भर देंगे, ऐसी आशा है। इस बीच, दुष्यंत ने सितारा होटल के मालिक को एक ट्रेड सीक्रेट भी बता गए हैं-</div><div style="text-align: justify;"><i><br />
</i></div><div style="text-align: center;"><i>थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो</i></div><div style="text-align: center;"><i>कल देखोगे कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे॥</i></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-55627040212564755252012-02-08T19:51:00.000+05:302012-02-08T19:51:55.284+05:30World Hindi Secretariat, Mauritius<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3-dFfbTBAs7CfSKJSy-13qzbBdv4fjGp8jV4g9gAOtt2n1pNPqltBxh9WHhaAad2rbVBWnZuI-5I4LMXyKprEZxGYkFVfY2bRdzGzKEG8N98yoUpRc-pznfJxvyjV66D-QtIDMZF-Kg3X/s1600/scan0003.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3-dFfbTBAs7CfSKJSy-13qzbBdv4fjGp8jV4g9gAOtt2n1pNPqltBxh9WHhaAad2rbVBWnZuI-5I4LMXyKprEZxGYkFVfY2bRdzGzKEG8N98yoUpRc-pznfJxvyjV66D-QtIDMZF-Kg3X/s640/scan0003.jpg" width="476" /></a></div><br />
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<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b style="background-color: yellow;">हिंदी की जानकारी देती- विश्व हिंदी पत्रिका-२०११</b></span></div><br />
<div style="text-align: justify;">विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस हर वर्ष विशेषांक के रूप में विश्व हिंदी पत्रिका का वार्षिक अंक निकालती है जिसमें विश्व में हो रही हिंदी गतिविधियों की जानकारी मिलती है। इस वर्ष के ‘विश्व हिंदी पत्रिका-२०११’ में भी समस्त विश्व में हिंदी भाषा की गतिविधियों की जानकारी दी गई है। इस पत्रिका की छपाई आर्ट पेपर पर की गई है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में रखने योग्य कही जाएगी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">‘विश्व हिंदी पत्रिका-२०११’ को पाँच खण्डों में बाँटा गया है। पहले खण्ड में हिंदी को लेकर दस विभिन्न देशों के लेखकों के लेख दिए गए हैं। दूसरे खण्ड में सूचना प्रौद्योगिकी और विश्व में हिंदी पर चर्चा की गई है। तीसरे खण्ड ‘विश्व में हिंदी: विविध आयाम’ के अंतर्गत विभिन्न देशों में चल रही भाषा गतिविधियों कि जानकारी वहाँ के सात विद्वानों ने दी है। ‘डायस्पोरा साहित्य के इतिहास पर विशेष आलेख’ के अंतरगत विश्व के साहित्यिक परिवेश की चर्चा पाँच विद्वानो ने की है और अंत में ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी निबंध प्रतियोगिता २०१० के विजेताओं के तीन निबंध’ संकलित हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"> लेखों में सब से प्रथम हिंदी के उस मूधन्य लेखक का लेख है जो अब हमारे बीच नहीं है। फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के ने जीवाकी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में १९६८ में दिए गए भाषण को उद्धृत किया गया है जिसमें उन्होंने हिंदी भाषियों को यह स्मरण कराया कि भाषा के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी उन पर है और केवल अंग्रेज़ी ्व अन्य भाषाओं से बैर रख कर हिंदी का भला नहीं हो सकता। उन्होंने कहा था- "हम हिंदी के प्रश्न को प्रचार तथा आंदोलन का विषय बनाकर वास्तविकता का ध्यान नहीं रखते। कठोर सत्य यह हि कि हिंदी प्रांतों में हिंदी और उसके साहित्य का समादर नहीं किया जाता है। बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि प्रांतों के बुद्धिजीवी अपनी भाषा पर जितना गौरव करते हैं, अपने साहित्य से जितना प्रेम रखते है, उतना हम हिंदी वाले नहीं करते।’ इस खण्ड के अन्य रचयिता हैं डॉ. सुरेंद्र गम्भीर, प्रो. तेज कृष्ण भाटिया, डॉ. महावीर सरन जैन, डॉ. हीरालाल बाछोतिया, डॉ. कामता कमलेश, अजामिल मताबदल, धनराज शंभु, राकेश कुमार दुबे, प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी और राज हीरामन।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अंतरजाल के आगमन के बाद लेखन का नया माध्यम प्रचलित हो गया है। हिंदी भाषा में अभिव्यक्ति का नवीनतम माध्यम ब्लागिंग है जो अल्पावधि में बहुत प्रचलित हो गया है। ब्लागिंग [चिट्ठा] करने वाले को ब्लागर कहा जाता है जिसे हिंदी में चिट्ठाकार का नाम दिया गया है। यह विधा शिशु अवस्था में है और अपना अस्तीत्व ढूँढ रही है। इसी मुद्दे को लेकर दूसरे खण्ड में प्रसिद्ध ब्लागर बालेंदु शर्मा दधीच ने ‘हिंदी ब्लॉगिंग:कुछ पुनर्विचार’ में अपने विचार व्यक्त करते हुए बताते हैं कि "हिंदी ब्लागिंग के भीतर और बाहर एक सवाल बार-बार उठाया जाता है कि क्या ब्लागिंग लेखन साहित्य है? इसी से जुड़ा एक अन्य प्रश्न भी चर्चा में रहता है कि हिंदी ब्लागिंग ने हिंदी साहित्य में कितना योगदान दिया है?" जहाँ वे यह तो मानते हैं कि हिंदी ब्लागिंग ने एक बड़ा योगदान इंटरनेट को समृद्ध करने में दिया है, वहीं वे यह भी कहते हैं-"जहाँ तक साहित्य और ब्लागिंग का मुद्दा है, सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। हिंदी ब्लागिंग में उस किस्म के स्तरीय तथा उत्कृष्ट लेखन की मात्रा कम है, जिसे ‘साहित्य’ की श्रेणी में गिना जा सके।" यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि जितना आज साहित्य के नाम पर छप रहा है क्या वह उच्च कोटि का है या जैसा किसी प्रसिद्ध साहित्यकार ने कहा है आज हिंदी में ९०प्रतिशत कूडा ही छप रहा है!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अंतरजाल के आगमन के बाद अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने भी अपने पर वेब पत्रकारिता के माध्यम से अपने पर फैलाए हैं। इसी मुद्दे को लेकर अनुभूति-अभिव्यक्ति’ वेब पत्रिका की संस्थापक डॉ. पूर्णिमा वर्मन ने अपने लेख में वेब पत्रकारिता के अतीत और भविष्य के साथ आज की स्थिति का भी जायज़ा लिया है। अपने लेख ‘वेब पत्रकारिता:कल आज और कल’ में वे बताती हैं कि चिन्नै से निकलने वाला दैनिक ‘हिंदू’ सब से पहले १९९५ में वेब पर अपना पत्र डाला था और उसके बाद मुम्बई के टैम्स ऑफ़ इंडिया का अंतरजाल संस्करण १९९६ से आने लगा। आज हैदराबाद का दैनिक ‘स्वतंत्र वार्ता’ भी अंतरजाल पर उपलब्ध है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">‘विश्व में हिंदी:विविध आयाम’ खण्ड में हंगरी, स्पेन, ऑस्ट्रेलिया, बेलारूस आदि में हो रही हिंदी की गतिविधियों की जानकारी दी गई है। इसी खण्ड में केंद्रीय हिंदी संस्थान, हैदराबाद की डॉ. अनिता गांगुली ने अंडमान निकोबार द्वीप-समूह की हिंदी पर चर्चा की है और कुछ उदाहरण देकर बताया है कि वह मुख्यधारा के कितने करीब है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">आज साहित्य को खानों में बाँटा जा रहा है- जैसे स्त्री विमर्श, दलित साहित्य या मुस्लिम साहित्य आदि। इसी मुद्दे को लेकर डेनमार्क में बसी श्रीमती अर्चना पैन्यूली का मानना है कि "इसी कडी में प्रवासी हिंदी साहित्य को भी जोड़ लिया जाए तो विसंगति तो नहीं है मगर लक्षणों के आधार प्र साहित्य की यह खेमेबाज़ी कई साहित्यकारों को सीमा तक ही ठीक लगती है। अधिकांश प्रवासी लेखक स्वयं के लिए एक ‘प्रवासी लेखक’ क लेबल गुच्छ समझते हैं। जब लेखकों और लेखन के बारे में चर्चा होती है तो स्वयं को प्रवासी लेखक खेमे में पाना उन्हें क्षुब्ध करता है।’</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इस पत्रिका के प्रधान सम्पादक डॉ. पूनम जुनेजा ने अपने सम्पादकीय में हिंदी की स्थिति पर निष्कर्ष निकालते हुए कहा है कि "अन्य एशियाई देश जैसे कि चीन, जापान, कोरिया आदि ने भी संसार के विभिन्न देशों में अपनी भाषाई पहचान बनाई ह। इसके बावजूद कि हिंदी जननेवालों की संख्या विश्व में तीसरे स्था न पर है; भारत और मॉरिशस से इतर देशों में चीनी, जापानी इत्यादि की हस्ती अधिक बुलंद है।" इसी क्रम में पत्रिका के संपादक डॉ.गंगाधर सिंह सुखलाल ने हिंदी सैनिकों को अगली पंक्ति में सामने आने का आह्वान किया है। वे यह मानते हैं कि युवा पीढ़ी को सैनिकों की तरह एकनिष्ठ होकर हिंदी की सेवा में रत रहने पर ही हिंदी विश्व की भाषाओं में अपना नाम दर्ज करा सकती है और एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप मेम संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा बन सकती है। इसके लिए अभी समय भले ही हो पर समय को फिसलने भी नहीं देना होगा। जैसा कि मॉरिशस के प्रसिद्ध कवि सोमदत्त बखोरोज़ी ने कहा है-</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><i>कुरुक्षेत्र में युद्ध जारी है</i></div><div style="text-align: center;"><i>हे अर्जुन</i></div><div style="text-align: center;"><i>गांडीव को हाथ से फिसलने न दो!</i></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><b><u>पुस्तक परिचय</u></b><br />
<br />
पुस्तक का नाम: विश्व हिंदी पत्रिका-२०११<br />
प्रधान संपादक : डॉ. पूनम जुनेजा<br />
संपादक : गंगाधर सिंह सुखलाल<br />
प्रकाशक : विश्व हिंदी सचिवालय<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>स्विफ़्ट लेन, फ़ारेस्ट साइड<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मॉरिशस<br />
</div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-13585065634746800922012-02-05T16:43:00.000+05:302012-02-05T16:43:50.556+05:30Looking back- Guy De Maupassant<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: center;"><img align="center" alt="Castle Mheer by kind permission of www.castles.nl" src="http://www.guide-to-castles-of-europe.com/images/mh4.jpg" style="background-color: white; font-family: Verdana, Geneva, Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 13px; text-align: -webkit-auto;" />p</div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: left;"></div><div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><u style="background-color: #d5a6bd;">अतीत में झाँकते हुए...</u></span></div><div style="text-align: right;"><i>मूल : गाइ द मोपासाँ</i></div><div style="text-align: right;"><i>अनुवाद: चंद्र मौलेश्वर प्रसाद</i></div><div style="text-align: justify;">"अच्छा बच्चो, सोने का समय हो गया है, अब जाकर सो जाओ।"</div><div style="text-align: justify;">राजकुमारी ने अपने दो पोतियों और एक पोते को दुलारते हुए कहा। पादरी क्यूरे की गोद से उतरकर बच्चों ने दादी को ‘शुभरात्री’ कहा और अपने शयनकक्ष की ओर चल पड़े।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"आप बच्चों से बहुत प्यार करते हैं मोन्सियर क्यूरे?" राजकुमारी ने पूछा।</div><div style="text-align: justify;">"बहुत प्यार।"</div><div style="text-align: justify;">"तो क्या आपको नहीं लगता कि अकेले जीना कितना कठिन है?" राजकुमारी ने अपनी आँखें पादरी क्यूरे के चेहरे पर जमाते हुए पूछा।</div><div style="text-align: justify;">"हाँ, कभी कभी... पर मैं तो रोज़मर्रा के जीवन के लिए नहीं बना था।"</div><div style="text-align: justify;">"आप क्या जानते हैं रोज़मर्रा जीवन के बारे में?"</div><div style="text-align: justify;">"ओह! मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं तो पादरी बनने के लिए पैदा हुआ था।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">राजकुमारी की नज़रे अभी भी पादरी क्यूरे के चेहरे पर जमी हुई थी। उसने पूछा-"चलो मोन्सियर क्यूरे, यह बताओ कि तुमने सारे सुख-सुविधाओं को छोड़कर विवाह और पारिवरिक जीवन का त्याग क्यों किया? आप न तो आध्यात्मिक और न ही धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। आप न तो आशावादी हैं न निराशावादी... तो फिर, आपके जीवन में ऐसा क्या घट गया जो जीवन को प्रेरणा देनेवाले पारिवारिक बंधन को त्याग कर एकल जीवन का फैसल करना पड़ा। क्या आपके जीवन में ऐसी कोई गम्भीर दुखद घटना घटी जिसने आपको इस ओर प्रेरित किया?"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">पादरी क्यूरे ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे सकुचाते हुए कमरे में टहलने लगे। ऊँचा पूरा व्यक्तित्व, सुगठित कद-काठी का यह व्यक्ति पिछले बीस वर्षों से पड़ोस के संत अंतोनी के गिरजे में पादरी रहा है। पड़ोस के सभी लोग उन्हें आदरभाव से देखते हैं। अपनी सज्जनता, शांत स्वभाव और सहायक प्रवृत्ति के कारण इस पादरी का गाँव में बहुत सम्मान था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वृद्धा राजकुमारी रोशर के महल में अपने तीन पोते-पोतियों के साथ रहती थी। पुत्र और पुत्रवधु के अचानक मृत्यु के बाद इन बच्चों के देखरेख की ज़िम्मेदारी उन पर आ गई थी। वह जानती थी कि पादरी क्यूरे अच्छे स्वभाव के व्यक्ति हैं। इसलिए वह अपने महल में उन्हें आने का आमन्त्रण दे चुकी थी। अब पादरी क्यूरे हर गुरुवार की शाम राजकुमारी के महल में भोज के लिए आते और देर रात तक अपनी बीती बातें याद करते बिताते थे। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अचानक राजकुमारी ने ज़ोर देकर कहा-"मोन्सियर क्यूरे, आज समय आ गया है कि आपको मेरे सामने अपना कन्फ़ेशन करना होगा।"</div><div style="text-align: justify;">पादरी क्यूरे ने अपनी बात दोहराते हुए कहा-"मैं तो आम जीवन के लिए नहीं बना था। सौभाग्यवश इसका अहसास मुझे समय पर हो गया और मैं समझता हूँ कि मेरा निर्णय सही निकला।" </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">कुछ देर रुककर उन्होंने कहना शुरू किया-"मेरे माता-पिता सम्पन्न थे और चाहते थे कि मैं भी जीवन में बहुत बड़ा आदमी बनूँ। इसके लिए उन्होंने छोटी सी उम्र में ही मुझे एक अच्छे बोर्डिंग स्कूल में भर्ती कराया। लोगों को क्या पता कि एक नन्हा-सा बालक कितना दुखी होता है अपने घर से दूर, अकेला रह कर, बिना प्रेम के! रोज़मर्रा जीवन कुछ के लिए अच्छा हो सकता है पर कुछ के लिए कष्टदायी भी। बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं, जितना लोग समझते हैं, शायद उससे कहीं अधिक, और यदि उनके लिए इस छोटी-सी आयु में प्रेम के द्वार बंद हो जाते हैं तो वे अधिक भावुक हो जाते हैं। इसकी अति उनके मानसपटल पर इतने गहरे उतरती जाती है कि कभी-कभी यह भयानक मानसिक रूप ले लेती है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"मैंने कभी कोई खेल नहीं खेला; मेरा कोई मित्र नहीं था। मुझे हर समय घर की याद सताती रही। रातों को बिस्तर पर पड़ा रोता रहता और घर की छोटी छोटी यादों को उकेरता रहता- वो यादें, जो शायद किसी के लिए कोई मायने भी नहीं रखती हों पर मेरे लिए अमूल्य थीं। धीरे धीरे मैं भीतर से टूट गया और छोटी से छोटी अड़चन भी बडी कठिनाई लगने लगती। मैं बहुत दुखी था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"इनका परिणाम यह हुआ कि मैं उदास और आत्मकेंद्रित, एकल और मित्ररहित रह गया। इसका दुष्प्रभाव मेरी सोच और मानसिकता पर पड़ने लगा। बच्चे बहुत जल्दी भावुक हो जाते है। उन्हें संरक्षण और प्रेम की उस समय तक अधिक आवश्यकता होती है जब तक वे समझदार न हो जायें। परंतु इन बातो को कौन समझता है!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"मेरे जीवन में भी यही हुआ। मैं घर की याद में घुटता रहा। धीरे-धीरे मेरी मानसिकता में यह नासूर की तरह पनपने लगा। कोई घर कि बात करता तो मैं रो पड़ता। वो बच्चे सचमुच भाग्यशाली होते हैं जो संवेदनहीन होते हैं और उन्हें किसी भी बात का कोई असर नहीं होता।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"मैं सोलह वर्ष का हुआ। अब मुझे हर बात भावुक कर देती थी और मैं अत्यादिक शर्मीला हो गया था। जानता था कि भाग्य के थपेड़ों के आगे मेरा कोई बस नहीं है, मैंने हर संबंध से अपने को अलग कर लिया। हर छोटी घटना में मुझे बड़ी आशंका दिखाई देने लगी। उज्ज्वल भविष्य की आशा या प्रसन्नता की बात सोंचना तो दूर, हर समय मैं भयभीत और आशंकित रहने लगा। मुझे अहसास हुआ कि मुझे इस परिस्थिति से उबरना चाहिए। परीक्षा के बाद जब मुझे छः माह की छुट्टी मिली तो अपने भावी जीवन के बारे में सोचने का मौका मिला। एक छोटी-सी घटना ने मुझे अपने आप को समझने में सहायता की।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"पेडों से घिरा वेर्डियर्स एक छोटा सा गाँव है जहाँ मेरा घर है। मैं अपने घर से निकल कर अकेला ही पास के जंगल की खुली हवा में घूमने लगा। मेरे माता पिता अपने व्यवसाय में ही व्यस्त थे। उन्हें मुझसे बात करने की भी फ़ुर्सत कहाँ! मैं इस जंगल में घूमते हुए अपने दिवास्वप्नों में खो गया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"एक शाम जंगल में घूमकर जब मैं घर की ओर लौट रहा था तो एक कुत्ता मेरी ओर तेज़ी से दौड़ कर आने लगा। उसे देखकर मैं रुक गया। वह भी मुझसे दस कदम दूर रुक गया और दुम हिलने लगा। फिर डरते-डरते धीरे-धीरे आत्मसमर्पण की मुद्रा में मेरी ओर बढ़ने लगा। उसकी दयनीय आँखें, उसका डरते-डरते मेरे हाथों को चाटना मुझे अभिभूत कर गया। मैंने उसे थपथपाया तो उसका भय दूर हुआ। वह मेरे पीछे-पीछे घर तक आया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"यह पहला जीव था जिसने मुझे प्यार दिया और मैं भी उसको दिलोजान से चाहने लगा। सैम- हाँ, मैंने उसे यही नाम दिया था, मेरे पास ही रहने लगा और साये की तरह साथ लगा रहा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"एक दिन मैं और सैम सड़क के किनारे चल रहे थे। दूर से एक चार घोड़ोंवाली बग्गी दौड़ी आ रही थी। कोचवान घोड़ों पर कोड़े बरसा रहा था तो घोडे और तेज़ दौड़ने लगे। घोड़ों और बग्गी की आवाज़ से चौंक कर सैम सड़क के उस पार से मेरे पास आने के लिए दौड़ पड़ा; परंतु वह मुझ तक नहीं पहुँच सका। वह घोड़ों और बग्गी के बीच में फंस गया। देखते ही देखते वह सड़क पर लोट रहा था और दर्द से कराहने लगा। दौड़कर जब मैं उसके पास पहुँचा तो देखा कि उसका पेट फट चुका और पिछले दोनों पैर कुचल गए हैं। वह मेरी ओर दयनीय आँखों से देख रहा था और मैं बेबस था; कुछ भी तो नहीं कर सका अपने सैम के लिए। उसने कराहते हुए मेरी गोद में दम तोड़ दिया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"इस हादसे के बाद मैं अपने कमरे में एक माह तक बंद रहा। एक शाम पिताजी कमरे में आये और कुछ उत्तेजित स्वर में कहने लगे-"एक छोटी सी बात का इतना बतंगड़ बना रहे हो! यदि तुम्हारी पत्नी या बच्चे की मौत जैसी दुखद घटना हो जाय तो तुम क्या करोगे?"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"अचानक मुझे झटका लगा और मैं अपने आप को समझने लगा। मैंने जाना कि रोज़मर्रा के जीवन में इतनी दुखद घटनाएँ होती रहती हैं और यदि मैं अपनी इस भावुकता के कारण इन्हें सहन नहीं कर पाया तो क्या होगा! मुझे किसी भोग-विलास की चाह नहीं थी। तब मैंने निश्चय किया कि मुझे इस क्षणभंगुर खुशी को हमेशा के लिए तजना होगा। जीवन छोटा है, तो क्यों न मानव जाति की सेवा में इसे लगाया जाय और दूसरों के दुख दूर करने में अपना जीवन समर्पित कर दें।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इतना कह कर पादरी क्यूरे चुप हो गये। कुछ देर बाद खुद ही कहने लगे-"मैं सही था। मै इस सांसारिक जीवन के लिए नहीं बना हूँ।" राजकुमारी चुपचाप सुनती रही। बहुत देर तक वह भी कुछ नहीं बोली। लम्बी चुप्पी के बाद राजकुमारी ने कहा-"मेरे लिए तो, यदि ये पोता-पोतियाँ नहीं होते, तो शायद मेरा जीना ही दूभर हो जाता।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">बातों में देर रात बीत चुकी थी। पादरी क्यूरे उठे और अपने शयन कक्ष की ओर चल दिये। ऊँची-पूरी काया को जाते हुए राजकुमारी देखती रहीं और उनके मस्तिष्क में ऐसी कई सारी बातें आती रहीं जो युवा भी नहीं सोच सकते थे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-71296600894586175282012-02-03T18:45:00.000+05:302012-02-03T18:45:52.695+05:30अमृत महोत्सव<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWdzxtcZRlq_Q8X1ndIkDUgqBm2A2UasmZDLbw3WoNSZ9j8Ozhg8iJfBqVLD0MjM5NkFtRKIiRHfTQ4Ef14oOaWGBMOHwdwWW7VUgy3IYQU93Pxc2pudDEPApjMnLV4buKAFItoDmhQqBH/s1600/scan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWdzxtcZRlq_Q8X1ndIkDUgqBm2A2UasmZDLbw3WoNSZ9j8Ozhg8iJfBqVLD0MjM5NkFtRKIiRHfTQ4Ef14oOaWGBMOHwdwWW7VUgy3IYQU93Pxc2pudDEPApjMnLV4buKAFItoDmhQqBH/s640/scan.jpg" width="476" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><u style="background-color: #ffd966;">डॉ.गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ का अमृत महोत्सव</u></span></div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">कोई व्यक्ति जब ७५ वर्ष की आयु पर पहुँचता है तो उसके अपनों के लिए यह एक पर्व का अवसर बन जाता है। ऐसा ही अवसर था वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ का अमृत महोत्सव जो जबलपुर में ४ नवम्बर २०११ को सम्पन्न हुआ। उनका साहित्यिक फलक इतना विस्तृत था कि इस अवसर पर निकाले गए अभिनंदन ग्रंथ की पृष्ठ संख्या ४०० तक पहुँच गई। इस अभिनंदन ग्रंथ के सम्पादक हैं आचार्य भगवत दूबे और सम्पादक मंडल के अन्य सदस्य हैं प्रो. जवाहरलाल ‘तरुण’, डॉ.राजकुमार ‘सुमित्र’, डॉ. हरिशंकर दुबे तथा राजेश पाठक ‘प्रवीण’।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">जबलपुर को भारत की संस्कारधानी का नाम दिया गया है। इस अभिनंदन ग्रंथ के संपादकीय में आचार्य भगवत दूबे कहते हैं कि ‘महर्षि जाबालि की तपोभूमि यह नर्मदांचली संस्कारधानी जबलपुर प्रचुर सारस्वत संपदा से सदैव सम्पन्न रही है। जबलपुर का यह सौभाग्य है कि यहाँ संस्कृत के उद्भव विद्वान महाकवि राजशेखर, प्रसिद्ध वैयाकरण श्री कामता प्रसाद ‘गुरु’, राष्ट्रभक्ति की संवाहिका कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान, शताधिक नाटकों के रचयिता हिंदी के प्रबल पक्षधर सांसद सेठ गोविंददास, कृष्णायन के रचयिता पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र, कविवर रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ एवं व्यंग्यविधा के जनक श्री हरिशंकर परसाईं जैसे सुविख्यात सृजनधर्मी हुए हैं।... उन्हीं में से एक हैं ‘कादम्बरी’ संस्था के अध्यक्ष, शिक्षाविद एवं यशस्वी साहित्यकार डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ जो साहित्य की गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं के पारंगत पुरोधा है।"</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ न केवल एक उच्च कोटि के शिक्षक रहे, बल्कि अपनी कलम का लोहा मनवा चुके हैं, साथ ही वे सामाजिक कार्यों में भी अपना योगदान दे रहे हैं। वे प्रसिद्ध सामाजिक संस्था रोटरी क्लब तथा संस्कारधानी की प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था ‘कादम्बरी’ के अध्यक्ष हैं। इस अभिनंदन ग्रंथ से डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ के बहुआयामी व्यक्तित्व का पता चलता है।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">हम डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ की लम्बी आयु के साथ साथ उनके स्वस्थ व सानंद जीवन की कामना करते हैं।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><br />
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</div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-55796978327084935792012-01-30T18:39:00.001+05:302012-01-31T18:28:37.898+05:30मुम्बई का एक नज़ारा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><img alt="Boot Polish" data-rmconst="rm3678439936" id="primary-img" itemprop="contentURL" src="http://ia.media-imdb.com/images/M/MV5BMTcwODQ5NzQ3Nl5BMl5BanBnXkFtZTcwODE2NDUyMg@@._V1._SX640_SY247_.jpg" style="background-color: #eeeeee; border-bottom-style: none; border-color: initial; border-image: initial; border-left-style: none; border-right-style: none; border-top-style: none; border-width: initial; color: #333333; font-family: Verdana, Arial, sans-serif; font-size: 13px; text-align: -webkit-center;" title="Boot Polish" /><br />
<div style="text-align: center;"><i style="background-color: #fff2cc;">चित्र :बूटपालिश [२००७] से साभार</i></div><br />
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<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #e06666;">बूटपालिश वाला</u></b></span></div><br />
<div style="text-align: justify;">रेल व्यवस्था मुम्बई शहर की जीवनरेखा कही जाती है। हर अपरिचित व्यक्ति इस व्यवस्था को देखकर आश्चर्यचकित रह जाता है। इतनी तेज़ी से आती जाती रेलगाडियों के बावजूद स्टेशनों पर भीड़ जस की तस नज़र आती है। ऐसे में किसी ट्रेन में विंडो सीट मिलना एक प्रतियोगिता जीतने जैसा होता है। एक दिन मैंने भी यह प्रतियोगिता जीती और बैठ गया ट्रेन की विंडो सीट से बाहर का नज़ारा झांकने। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">रेलवे ट्रैक के समीप बने स्लम की लगातार कतार देख कर लगा कि मुम्बई दो छोरों का शहर है जहाँ ऊँची अट्टालिकाओं के साथ ये झोपड़पट्टियां भी है। सम्पन्न लोग उन अट्टालिकाओं में रहते हैं तो गरीब इन झोपड़ियों में रहकर उनकी सेवा करते हैं! शायद यह आज के हर बड़े शहर की विडम्बना है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मुम्बई की ट्रेन में बैठे नज़ारे देखने का एक अलग ही अनुभव होता है। गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी नहीं कि ‘आक्रमण’ के नाद के साथ लोग ट्रेन में घुसने लगते हैं। यह महाभारत सीरियल की प्रेरणा का असर है। यह आक्रमण दोतरफ़ा होता है। ट्रेन में घुसने वाले लोगों को भीतर की ओर ठेलते रहते हैं तो भीतर से उतरने वाले बाहर की ओर ज़ोर लगाते रहते हैं। इस ठेलम्ठेल में कुछ उतरने वाले नहीं उतर पाते और कुछ चढ़नेवाले छूट जाते हैं। जो उतर नहीं पाया वह अगले स्टेशन के लिए तैयार रहता है तो जो नहीं चढ़ पाया वह अगले ट्रेन की प्रतीक्षा में।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वैसे तो दूसरी ट्रेन कुछ ही मिनट में आ जाएगी। इन चंद घडियों में फिर भीड जस की तस हो जाती है। अभी जो स्टेशन खाली दिख रहा था कुछ ही मिनिट में फिर भर जाता है। फिर वही ‘आक्रमण’ और वही ठेलम्ठेल का सिलसिला...।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मुम्बई के रेलवे स्टेशन पर दो खास तरह के व्यवसाई दिखाई देते हैं। ये व्यवसाई अपने हुनर में बडे तेज़ होते हैं। एक हैं- तेल-मालिश चम्पी करने वाले और दूसरे हैं बूट पालिश वाले। बूट पालिश का ज़िम्मा छोटी आयु के बच्चे निभाते हैं। मैं अपनी विंडो सीट से बैठा-बैठा एक ऐसे ही बच्चे को देख रहा था। ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी थी केवल दो मिनट के लिए पर इतने अल्प समय की झलक ने ही मेरे मानस पटल पर एक अमिट छाप छोड़ दी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">प्लेटफ़ार्म के एक कोने में लकडी के छोटे से डिब्बे को स्टूल बना कर एक बारह-तेरह वर्ष का बालक बैठा था। उसके सामने एक और डिब्बा रखा था जिसपर एक व्यक्ति अपना पैर रखे हुए था। वह बालक बड़े मनोयोग से एक छोटी-सी डिब्बी से पालिश निकाल कर बडी नज़ाकत से जूते पर मल रहा था। पालिश अच्छी तरह जूते पर फैला देने के बाद वह अपने कंधे पर रखे कपडे को पट्टी की तरह मोड़ कर उस जूते पर रगड़ने लगा। लो, जूता चमचमाने लगा। फिर, जूते के चारों ओर एक ब्रश को बड़ी सलाहियत से घुमाने लगा। काम समाप्त हुआ तो जूते को हल्के से ठोका। ग्राहक समझ गया कि उसके एक जूते का काम हो गया है। उसने दूसरा पाँव उस स्टूल पर रख दिया। फिर उसी तन्मयता से वह बालक पालिश लगाने लगा। अब ट्रेन खिसक चली थी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जब तक निगाह जाती, मैं उसी नज़ारे को देखता रहा। वह बालक- जिसके कंधे पर शायद परिवार की ज़िम्मेदारी थी, जिसके कंधे पर मैंने वह कपड़ा देखा जो उसकी रोज़ी-रोटी का अभिन्न अंग था, उसी कंधे पर वह अचकन थी जो जगह जगह पालिश के रंग बिखेर रही थी, वह अचकन जिसकी उम्र तमाम हो चुकी थी पर उस बालक के युवा कंधों को ढाँपे थी और वह युवा हो रहे कंधे परिवार का बोझ उठाने शायद अभी परिपक्व नहीं हुए थे!!!!!!! </div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-88046696724916827552012-01-25T17:50:00.000+05:302012-01-25T17:50:25.308+05:30ज़रा सोचिये<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span style="background-color: #ea9999; font-size: x-large;"><u>लोकतंत्र - कितना सफल</u></span></div><br />
<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><i><span style="color: red; font-size: large;"><b>एक और बनता ही जा रहा था </b></span></i></div><div style="text-align: center;"><i><span style="color: red; font-size: large;"><b>निर्माण का हिन्दुस्तान</b></span></i></div><div style="text-align: center;"><i><span style="color: red; font-size: large;"><b>दूसरी ओर गिरता ही जा रहा था </b></span></i></div><div style="text-align: center;"><i><span style="color: red; font-size: large;"><b>ईमान का हिंदुस्तान॥</b></span></i></div><div style="text-align: center;"><i><span style="color: red; font-size: large;"><b><br />
</b></span></i></div><div style="text-align: center;"><i><span style="color: red; font-size: large;"><b>[केदारनाथ अग्रवाल]</b></span></i></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">हिंदुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम और विभाजन के बाद भारत को जब गणतंत्र घोषित किया गया, तब जनता में एक नया उत्साह और उल्लास था कि उन्हें सच्चे मायनों में आज़ादी मिल गई है; अब वो अपनी तकदीर के मालिक हैं और अपने भविष्य का मार्ग खुद ही तय करेंगे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">भारतवासियों ने अपने राजनैतिक जीवन के लिए लोकतंत्र का मार्ग चुना, जब कि उनके एक और बड़े पड़ोसी देश चीन ने साम्यवाद का रास्ता अपनाया। लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी और कदाचित सब से बड़ी कमज़ोरी भी, यह है कि उसका नागरिक राजनैतिक स्वतंत्रता में सांस लेता है, पर वह निरंकुश हो जाता है। उसे साम्यवादी घुटन का सामना नहीं करना पड़ता है। नतीजा यह होता है कि राजनैतिक तौर पर वह जागरूक तो रहता है पर अपनी स्वतंत्रता पर किसी प्रकार के अंकुश को सहन नहीं करता और अपने दायित्व को भुला बैठता है। इसका एक प्रमाण है भारत का वह आपातकालीन युग जब राजनैतिक स्वतंत्रता को कुछ अवधि के लिए दबाया गया था यद्यपि उसका परिणाम यह हुआ कि उन नेताओं को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत के लोकतंत्र की नींव बहुत मजबूत है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अब सवाल यह है कि लोकतंत्र के अंतरगत भारत ने कितनी राजनैतिक , आर्थिक तथा सामाजिक सफलता प्राप्त की है। भारत एक कृषि प्रदान देश है तथा उसकी अधिकतम जनता गाँवों में रहती है जो मेहनत मज़दूरी करके अपना उदर-पोषण करती है। ऐसे नागरिकों को शिक्षा के अधिक अवसर नहीं मिल पाते, फिर भी राजनैतिक दृष्टि से वे काफी परिपक्व साबित हुए हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">भारत के हर चुनाव में जनता ने यह प्रमाणित कर दिया है कि वे राजनीतिक तौर पर कितने जागरूक हैं और उन्हें अच्छे-बुरे नेता की परख है। यह और बात है कि इन नेताओं ने जनता के साथ विश्वासघात किया हो। झूठे आश्वासन और सुनहरे ख्वाबों के चुनावी वादों को वे वास्तविकता का जमा पहनाने में असफल रहे। चुनावी वादे केवल वादे बनकर रह गए। जब यही वादे हर चुनाव में दुहराए जाने लगे तो लोगों ने इन नेताओं को सत्ता से उखाड़ फेंका। लोकतंत्र में यदि नेता जनता की सेवा न करें और अपनी सत्ता को न सम्भाल सके तो इसमें जनता का कोई दोष नहीं हो सकता। वो तो सत्ता के भूखे नेताओं की साजिशों का परिणाम मात्र कहा जाएगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">यदि भारत के लोकतंत्र और पड़ोसी चीन के साम्यवाद पर एक नज़र डालें, तो कोई भी यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि चीन ने भारत के मुकाबले में अधिक तरक्की की है, परंतु किस मूल्य पर! यदि इसे सच भी मान लिया जाए तो भी यह गौरतलब है कि उस देश की प्रगति के लिए जनता को क्या कीमत चुकानी पड़ी और क्या वहाँ के आम नागरिक उस प्रगति का फल भोग रहे हैं? यह एक लम्बी बहस का विषय हो सकता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">भारत में छः दशक से चले आ रहे लोकतंत्र पर यदि एक दृष्टि डालें तो यह कहा जा सकता है कि देश प्रगति के पथ पर अग्रसर रहा है यद्यपि किसी भी देश के इतिहास में यह अवधि कोई लम्बी अवधि नहीं मानी जाती। फिर भी, इतना तो आश्वस्त हुआ जा सकता है कि इस अवधि में भारत अपने एक सौ से अधिक करोड़ लोगों के लिए अन्न उत्पादन करता है, उसे विदेशों से अब खाद्यान्न आयात करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। औद्योगिक क्षेत्र में वह काफ़ी आगे बढ़ गया है और संसार के दस औद्योगिक देशों में भारत की गिनती होती है। उच्च शिक्षा तथा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत का योगदान संसार भर में अधिकतम रहा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इस लोकतंत्र को सब से बड़ा आघात तब लगा जब नेताओं के भ्रष्ट चरित्र से देश लूटा जाने लगा और यह नासूर फैलते-फैलते अब इस देश के चरित्र को खाए जा रहा है। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार अन्य देशों में नहीं है पर हमारा कानून इतना अक्षम साबित हो रहा है कि भ्रष्टाचारी यह जान चुके हैं कि कोई भी उनका बाल बांका नहीं कर सकता है। दूसरी ओर हाल ही में चीन के कुछ नेताओं को भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर गोली मार कर इन्साफ़ किया गया। यदि ऐसे कड़े कानून भारत में भी नहीं बनाए जाते हैं तो भ्रष्टाचार इस देश को पतन के कगार पर ला खड़ा करेगा। तब भी जनता क्या इसी प्रकार मूक असहाय दर्शक की भाँति देखती रहेगी? </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अंततः यह कहा जा सकता है कि लोकतंत्र को जनता ने सफल बनाया है पर इस लोक और तंत्र को चलानेवालों ने मिलकर उसे विफल कर दिया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-61107056831123205432012-01-23T17:27:00.000+05:302012-01-23T17:27:26.872+05:30शुद्ध हास्य<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #f9cb9c;">लोकार्पण पिपासा</u></b></span></div><br />
<div style="text-align: justify;"><i><span style="color: red;">डिस्क्लेमर: इस लेख के सभी पात्र काल्पनिक हैं। यदि ऐसा कोई पात्र इस धरती पर चलता फिरता दिखाई दे तो उसकी ज़िम्मेदारी लेखक पर नहीं है :)</span></i></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">हाल ही में तिरबेनी परसाद से रास्ते में भेंट हुई थी। उन्होंने बताया कि वे एक पुस्तक रच रहे हैं जिसका शीर्षक है ‘महापुरुषों की कारस्तानी’। फिर उन्होंने उसके प्रकाशन में आने वाली कठिनाइयों का भी ज़िक्र किया। मैं जानता था कि तिरबेनी परसाद उन रचनाकारों में से हैं जो आपको किसी भी नुक्कड़ पर ठोक के भाव मिल जाते हैं। वे यदाकदा रास्ते में मिल जाते थे तो मेरा हस्बे-आदत यही प्रश्न रहता है- क्या नया लिख डाला! तब वे अपनी नई रचना के बारे बताते और बात कभी हास-परिहास तक भी पहुँच जाती।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अब देखिए ना, जब उन्होंने अपनी नई पुस्तक ‘महापुरुषों की कारस्तानी’ के बारे में बताया तो निश्चय ही मेरा पूछना लाज़मी था- अरे तिरबेनी बाबू, आपको इनकी कारस्तानियों के बारे में कैसे पता चला जिसको हमारे मीडिया के खोजी कुत्ते भी नहीं सूंघ सके; उन्हें तो ऐसी कारस्तानियों की गंध तो सब से तेज़ लग जाती है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">उन्होंने बड़े राज़दाराना इस्टाइल में बताया कि यही तो घुंडी है। हम ठहरे इन महापुरुषों के चमचे जो उनके घर में तो क्या, हमाम में भी घुस जाते हैं। इनके बारे में हमसे ज़्यादा और कौन जाने है भला।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">‘सो तो ठीक है, पर ऐसी पोशीदा बातें तो आम पब्लिक में बताना कापीराइट का उल्लंघन होगा।’ </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">‘अरे नहीं सा’ब, यही तो असली फ़ंडा है। हमारे महापुरुष तो जानते हैं कि ऐसी ही बातें उन्हें समाचार में बनाए रखती हैं।’ </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मैंने पूछा कि प्रकाशक कौन है? उन्होंने प्रकाशन की कठिनाइयों का विस्तार से वर्णन करना शुरू किया। उन्होंने बताया- ‘पहले तो प्रकाशक मिलते नहीं और मिलते हैं तो उनका डिमांड बड़ा होता है। यह कहाँ का इन्साफ़ है कि हम लिखो भी और छापने के लिए उन्हें पैसा भी दो। अब हमें अपना पैसा लगाना ही है तो हम ही प्रकाशक बन जाते हैं। इसलिए हमने अपनी पत्नी गंगा बाई के नाम से गंगा प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्था खोल रखी है। इसी प्रकाशन से अपनी सारी पुस्तकें निकलेंगी।’</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">कुछ दिन बाद तिरबेनी परसाद फिर निक्कड़ पर मिल गए। मैंने उनकी पुस्तक की अवस्था के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि अभी वह गर्भावस्था में ही है। कुछ और कारस्तानियों का बखान उसमें आना है, इसलिए उसकी छपाई पूरी नहीं हो पाई है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">राह चलते एक दिन तिरबेनी बाबू सिर झुकाए चिंतामग्न आ रहे थे। मुझे देखते ही तपाक से हाथ मिलाया और बताया कि पुस्तक तो छप गई है। अब लोकार्पण की चिंता में ही भटक रहा था और आप ही के बारे में सोच रहा था। अच्छा हुआ आपसे समय पर भेंट हो गई।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">कहिए, मैं क्या सेवा कर सकता हूँ?</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ऐसा है सा’ब, आप तो बडी-बडी गोष्ठियों की अध्यक्षता करते रहते हैं, और साहित्य के बडे तोपों से आपका परिचय है; तो क्यों न आप इस पुस्तक के बढिया लोकार्पण का जुगाड़ करें। आप ही उस समारोह की अध्यक्षता कर लीजिए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">यह तो ‘आ बैल मुझे मार’ की स्थिति हो गई। मैं जानता हूँ कि तिरबेनी बाबू बड़े चिपकू हैं और पीछा नहीं छोड़ेंगे। मैंने कहा कि मुझे अध्यक्षता करने में कोई ऐतेराज़ नहीं है पर सवाल यह है कि इसका संयोजन कौन करेगा? </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">‘मैं तो चाहता था कि आप ही सारे कार्यक्रम की रुपरेखा बनाएं और अतिथियों को बुलाने का ज़िम्मा भी लें।’</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मैंने कहा कि यह सब मुझ से नहीं होगा। मेरी अपनी ज़िम्मेदारियां ही बहुत हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">‘नहीं साब, आपको मेरी खातिर तो इतना करना ही पड़ेगा। आपका नाम रहेगा तो लोकार्पण धूम से हो जाएगा, इतना तो साहित्य का बच्चा बच्चा जानता है।’ </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मरता क्या न करता, मैं ने कहा कि आप हाल बुक करा लीजिए, मंच पर आसीन अथितियों के लिए अच्छे से स्मृतिचिह्न ला लीजिए। संचालन के लिए वर्माजी को बुला लीजिए और संयोजन का काम शर्मा जी को सौंप दीजिए। आपका काम सफल हो जाएगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अब क्या था, तिरबेनी बाबू की बांछे खिल गई। मार्गदर्शन के लिए आभार प्रकट किया और भावी कार्यक्रम की सफलता का अरमान लेकर चले गए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">आखर वो दिन भी आ गया। बहुत सारे लोग इस लोकार्पण के लिए पदार्पण करने लगे। तिरबेनी बाबू प्रसन्न थे कि कार्यक्रम सफल जा रहा है। अंत में उन्होंने चमकीली पन्नी में लिपटे पुस्तकों का बंडल लोकार्पणकर्ता को दिया। उस बंडल से चार पुस्तकें निकली और मंच पर आठ अतिथि थे। अब लोकार्पणकर्ता किंकर्तव्यविमूढ़ थे। उनकी समस्या यह थी कि किस को पुस्तक दें और किसको नहीं। इस झंझट से छुटकारा पाने के लिए एक पुस्तक उठाई और दर्शकों को दिखा दिया। क्लिक, क्लिक... फोटो खींचे गए और दर्शकों ने ताली बजाई। तिरबेनी बाबू ने मंचासीन अतिथियों को स्मृतिचिह्न दिए। कार्यक्रम समाप्त हुआ। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">दर्शकों को निराशा हुई कि ताली बजाने के एवज़ में उन्हें चाय तक नहीं मिली। अतिथियों ने कार्यक्रम की समाप्ति के बाद अपने स्मृतिचिह्न का अनावरण किया तो निराश हुए कि उसमे सड़कछाप पच्चीस रुपये का फ़ोटोफ़्रेम था। सब के चेहरे मुर्झा गए। किसी का चेहरा खीला था तो वो तिरबेनी परसाद का था जिन्हें लोकार्पण की सफलता की प्रसन्नता थी। आखिर हींग लगी न फिटकरी, रंग चोखा जो हो गया था।</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-41452004971168793852012-01-19T22:51:00.000+05:302012-01-19T22:51:56.310+05:30घुटने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img alt="" src="http://comps.fotosearch.com/bigcomps/RBL/RBL013/a01443.jpg" style="background-color: white; text-align: center;" /> </div><br />
<span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #8e7cc3;">ये घुटने है या बला!</u></b></span><br />
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<div style="text-align: justify;"> दिल्ली के सुप्रसिद्ध डॉ. टी.एस.. दराल- ब्लाग जगत के लिए किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपनी चिकित्सा के तजुर्बे से वे मानव घुटने के बारे में बताते हैं कि " इन्सान में बुढ़ापा सबसे पहले घुटनों में ही आता है । इसीलिए :</div><div style="text-align: justify;">* ४० + होते होते आपके घुटनों की व्यथा एक्स रेज समझने लगते हैं ।</div><div style="text-align: justify;">* ५० + होने पर आपको भी आभास होने लगता है ।</div><div style="text-align: justify;">* ६० + होने पर सब को पता चल जाता है कि आपके घुटने ज़वाब दे चुके ।</div><div style="text-align: justify;">* ७० + होकर आप भी भाइयों में भाई बन जाते हैं क्योंकि अब तक सब एक ही किश्ती के सवार बन चुके होते हैं ।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जब मैं घुटने के बारे में सोंचने लगा तो मुझे बुढापे की चिंता तो नहीं हुई क्योंकि बूढ़ा तो हो ही गया हूँ फिर भी मेरे घुटने अभी तक ढोने में सक्षम हैं। मैं जितना सोचता गया, उतना ही इस ‘घुटने’ के कई रूप सामने आने लगे। कुछ रूप जो मस्तिष्क में घूम रहे हैं, उन्हें यहाँ उँडेल देता हूँ :)</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इन घुटनों के कारण कभी महिलाओं को सज़ा भी भुगतनी पड़ती है। आप को याद होगी वह घटना जब सूडान की एक ईसाई किशोरी को घुटने की लंबाई तक की स्कर्ट पहनने को एक जज ने अभद्र करार देते हुए उसे 50 बार कोड़ा मारने की सजा सुनाई है। पता नहीं मिनि स्कर्ट पहनने पर कितने कोड़े पड़ते!!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ऐसे में घुटने टेकने के सिवाय चारा भी क्या हो सकता है! घुटने तो हमारे खिलाडी भी खेल के मैदान में यदाकदा टेक ही देते हैं। जब वेस्ट इंडीज़ से भारत हारा था तो यह समाचार पढ़ने को मिला था-</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">"भारतीय बल्लेबाजों ने कब्रगाह बनी फिरोजशाह कोटला की पिच पर बेहद निराशाजनक प्रदर्शन करते हुए वेस्टइंडीज के खिलाफ पहले क्रिकेट टेस्ट के दूसरे दिन आज यहां घुटने टेक दिए ।" अब ऑस्ट्रेलिया में जो हश्र हो रहा है, उसका अनुमान आप भी लगा ही सकते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><br />
<div style="text-align: justify;"> इसी प्रकार जब गायक दलजीत ने कुछ अभद्र शब्दों का प्रयोग किया तो उसे माफ़ी मांगनी पड़ी थी। तब यह समाचार देखने में आया था कि अपने गीतो में औरतों के प्रति अपमानजनक शब्दों का इस्तमाल करने पर दलजीत ने अखिरकार मांफी मांग ली हैं। पंजाब केसरी के दफ्तर में विशेष तौर पर आए दलजीत ने घुटने टेक कर मांफी मांगते हुए कहा कि उसने कभी भी औरतों के लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तमाल नही किया।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">आजकल चिकित्सा क्षेत्र ने इतनी तरक्की कर ली है कि घुटने बदल दिए जा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या घुटने बदलने के बाद व्यक्ति की चाल भी बदल गई है। घुटने की सर्जरी में तो चार-छः लाख रुपये लग ही जाते हैं। पर ऑपरेशन के बाद ठीक से चलते देखा नहीं गया। अपने अटल बिहारी वाजपेयी को ही लें। वह ऑपरेशन से पहले काफी ठीकठाक चलते थे। अब तो बेचारे बिस्तर पकड़ चुके हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इस लेख को लिखने के असली मकसद पर अब आते हैं। आपने इसी ब्लाग पर एक निमंत्रण देखा होगा कि यहाँ हैदराबाद लिटरेरी फ़ेस्टिवल २०१२ का आयोजन हो रहा है। इस आयोजन के आखरी दिन एक हिंदी काव्य गोष्ठी हुई जिसमें एक ‘युवा’ कवि ने अध्यक्षता की। युवा इसलिए कहा जा रहा है कि वे बिना किसी सहायता के अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुँच गए। अन्य दो कवि और एक कवयित्री ऐसे थे जिन्हें पकड कर मंच पर चढ़ाना पड़ा था। कारण.... वही.... घुटने का दर्द!!!!!!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com23tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-58121655129697444692012-01-17T16:14:00.000+05:302012-01-17T16:14:25.730+05:30एक मुद्दा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: yellow;">संयुक्त परिवार क्यों टूट रहे हैं?</u></b></span></div><br />
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<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><img alt="एकल परिवार से बेहतर संयुक्त परिवार " class="imgborder" height="141" src="http://www.samaylive.com/pics/article/international-f_1305433097.jpg" style="background-color: white; border-bottom-color: rgb(224, 224, 224); border-bottom-style: solid; border-bottom-width: 1px; border-image: initial; border-left-color: rgb(224, 224, 224); border-left-style: solid; border-left-width: 1px; border-right-color: rgb(224, 224, 224); border-right-style: solid; border-right-width: 1px; border-top-color: rgb(224, 224, 224); border-top-style: solid; border-top-width: 1px; color: #993300; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 7px; margin-right: 7px; margin-top: 0px; padding-bottom: 2px; padding-left: 2px; padding-right: 2px; padding-top: 2px; text-align: left; word-spacing: 2px;" title="एकल परिवार से बेहतर संयुक्त परिवार " width="320" /></div><div style="text-align: center;"><span style="background-color: #fce5cd;">संयुक्त परिवार का यह चित्र ‘समय-live' से साभार</span></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">आजकल एकल परिवार का चलन हो चला है और संयुक्त परिवार लुप्त होने के कगार पर हैं। एक समय था जब संयुक्त परिवार भारत की जीवन पद्धति का अभिन्न अंग था। तो फिर, अब यह बदलाव कैसा?</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">यह सच है कि आजकल संयुक्त परिवार का चलन कम होता जा रहा है। इसका कारण न तो कोई सामाजिक उथल-पुथल है और ना ही पाश्चात्य सभ्यता पर इसका भांडा फोडा जा सकता है। इसका मुख्य कारण हमारी अर्थव्यवस्था में बदलाव दिखाई देता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">भारत एक कृषि-प्रधान देश था और परिवार के उदर-पोषण का मुख्य स्त्रोत। कृषि के लिए ज़्यादा हाथों की आवश्यकता होती थी तो सारा परिवार इसी में जुट जाता था। तब परिवार की परिभाषा के अंतरगत चाचा, भाई, भतीजे, पुत्र-पौत्र सभी आ जाते थे। औद्योगिकरण ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, परिवार बँटने लगे। कृषि में भी मशीनों ने हाथों का काम ले लिया जिसके कारण हाथों की ज़रूरत कम होने लगी। तब परिवार में सम्पन्नता के साथ बेरोज़गारी भी बढ़ने लगी। चाचा-भतीजे अब भार लगने लगे। रोज़गारी के लिए वे गाँव छोड़कर शहर की ओर जाने लगे। परिवार में बँटवारा होने लगा और संयुक्त परिवार आहिस्ता आहिस्ता बिखरने लगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">स्वतंत्रता मानव प्रकृति का अभिन्न अंग है। जब पालन पोषण की निर्भरता नहीं रही तो हर सदस्य अपनी स्वतंत्रता के लिए छटपटाने लगा। हर सदस्य की आकांक्षाएँ व अपेक्षाएँ बढ़ने लगी और यह मानसिकता हर पुरुष में पनपने लगी कि वह परिवार का अर्थ सिर्फ़ ‘मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे’ समझने लगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">कदाचित अर्थशास्त्री इसे प्रकृति के उस नियम का अनुसरण कहेंगे, जहाँ कोई भी इकाई बढ़ते-बढ़ते चरम सीमा पर पहुँच कर फिर सिमटने लगती है। गठन और विघटन एक प्राकृतिक प्रक्रिया जो है!!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-23755585133908894912012-01-14T22:27:00.002+05:302012-01-14T22:27:58.209+05:30सूचनार्थ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-ujXxmZGjVwU/TxCS3eOWn4I/AAAAAAAAI3I/Gcl7C0xgATY/s1600/IMG_0001.jpg" style="background-color: white; color: #1155cc; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;" target="_blank"><img border="0" height="640" src="http://3.bp.blogspot.com/-ujXxmZGjVwU/TxCS3eOWn4I/AAAAAAAAI3I/Gcl7C0xgATY/s640/IMG_0001.jpg" style="border-bottom-width: 0px; border-color: initial; border-image: initial; border-left-width: 0px; border-right-width: 0px; border-style: initial; border-top-width: 0px;" width="483" /></a> <br />
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-hCNYjAqMC8A/TxCTHUGIcYI/AAAAAAAAI3Q/CkwAsBe7loI/s1600/IMG_0002.jpg" style="background-color: white; color: #1155cc; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;" target="_blank"><img border="0" height="640" src="http://4.bp.blogspot.com/-hCNYjAqMC8A/TxCTHUGIcYI/AAAAAAAAI3Q/CkwAsBe7loI/s640/IMG_0002.jpg" style="border-bottom-width: 0px; border-color: initial; border-image: initial; border-left-width: 0px; border-right-width: 0px; border-style: initial; border-top-width: 0px;" width="488" /></a> <br />
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-VUW0ADf2Z9U/TxCTbAWdduI/AAAAAAAAI3Y/X9DWhIGSceg/s1600/IMG_0003.jpg" style="background-color: white; color: #1155cc; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;" target="_blank"><img border="0" height="640" src="http://4.bp.blogspot.com/-VUW0ADf2Z9U/TxCTbAWdduI/AAAAAAAAI3Y/X9DWhIGSceg/s640/IMG_0003.jpg" style="border-bottom-width: 0px; border-color: initial; border-image: initial; border-left-width: 0px; border-right-width: 0px; border-style: initial; border-top-width: 0px;" width="481" /></a> </div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-73077822392097907022012-01-14T22:27:00.000+05:302012-01-14T22:27:32.531+05:30सूचनार्थ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-ujXxmZGjVwU/TxCS3eOWn4I/AAAAAAAAI3I/Gcl7C0xgATY/s1600/IMG_0001.jpg" style="background-color: white; color: #1155cc; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;" target="_blank"><img border="0" height="640" src="http://3.bp.blogspot.com/-ujXxmZGjVwU/TxCS3eOWn4I/AAAAAAAAI3I/Gcl7C0xgATY/s640/IMG_0001.jpg" style="border-bottom-width: 0px; border-color: initial; border-image: initial; border-left-width: 0px; border-right-width: 0px; border-style: initial; border-top-width: 0px;" width="483" /></a> <br />
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-hCNYjAqMC8A/TxCTHUGIcYI/AAAAAAAAI3Q/CkwAsBe7loI/s1600/IMG_0002.jpg" style="background-color: white; color: #1155cc; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;" target="_blank"><img border="0" height="640" src="http://4.bp.blogspot.com/-hCNYjAqMC8A/TxCTHUGIcYI/AAAAAAAAI3Q/CkwAsBe7loI/s640/IMG_0002.jpg" style="border-bottom-width: 0px; border-color: initial; border-image: initial; border-left-width: 0px; border-right-width: 0px; border-style: initial; border-top-width: 0px;" width="488" /></a> <br />
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-VUW0ADf2Z9U/TxCTbAWdduI/AAAAAAAAI3Y/X9DWhIGSceg/s1600/IMG_0003.jpg" style="background-color: white; color: #1155cc; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;" target="_blank"><img border="0" height="640" src="http://4.bp.blogspot.com/-VUW0ADf2Z9U/TxCTbAWdduI/AAAAAAAAI3Y/X9DWhIGSceg/s640/IMG_0003.jpg" style="border-bottom-width: 0px; border-color: initial; border-image: initial; border-left-width: 0px; border-right-width: 0px; border-style: initial; border-top-width: 0px;" width="481" /></a> </div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-52844738181466218852012-01-13T21:59:00.000+05:302012-01-13T21:59:17.212+05:30अंधविश्वास???<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><b><u style="background-color: #ea9999;">भूत प्रेत : अंधविश्वास या सत्य?</u></b></span></div><div style="text-align: center;"><img src="http://www.ghost-videos.info/misc/images/ghost/ghosts.jpg" /> </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">भारत के कई प्रदेशों से यदा-कदा जादू-टोने के समाचार मिलते रहते हैं। ऐस भी हुआ है कि जादू-टोना करने या करवाने के आरोप में गाँववालों ने जान भी ले ली है। भूत-प्रेत और साया भगाने के लिए तांत्रिकों के पास जाकर टोना-टोटका भी किया जाता है। इस अंधविश्वास को दूर करने के लिए कुछ समाज-सेवी संस्थाएं अभियान भी चला रही हैं। पर क्या यह मात्र अंध-विश्वास है या इसमें कुछ तथ्य भी है? भारत में ही नहीं, विश्व के अन्य देशों में भी भूत-प्रेत होते हैं या नहीं, यह चर्चा का विषय बना हुआ है। हाल ही में ब्रिटेन के शाह एडवर्ड के राजमहल में एक साया घूमता देखा गया था। इसकी पुष्टि वहाँ के कर्मचारियों ने भी की है। कहा जाता है कि इस राजमहल में शाह की एक पत्नी का सिर काटकर हत्या कर दी गई थी। तब से उसका साया यदा-कदा वहाँ देखा जाता रहा है। इस मामले को सुलझाने के लिए तांत्रिकों को बुलाया गया था। इन तांत्रिकों को वहाँ पैरा-सैकॉलोजिस्ट कहा जाता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">पूर्व में भी कई देशों में कुछ ऐसी ही विचित्र घटनाओं के समाचार मिलते रहे हैं जिनको साधारण ज्ञान-विज्ञान द्वारा समझ पाना कठिन है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर एक विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और बाईस यात्री मारे गए थे। जब हवाई जहाज़ का मलबा साफ करके निकाला जा रहा था तो एक ऊँचे कद के व्यक्ति ने वहाँ आकर पूछा कि क्या उन्हें उसका बस्ता मिला है जिसमें उसके ज़रूरी कागज़ात थे? वह बेचैनी से बार-बार यही प्रश्न दोहरा रहा था। आधे घंटे के बाद जब कर्मचारियों ने मलबे में से एक शब को निकाला तो वे डर कर भाग खड़े हुए क्योंकि वह शव उसी व्यक्ति का था जो उस बस्ते के बारे में पूछ रहा था!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अमेरिका जैसा विकसित देश भी ऐसी अनहोनी घटनाओं के समाचारों से नहीं बच सका है। सब से बड़ा आश्चर्य तो यह है कि वहाँ के राष्ट्रपति भवन [व्हैट हाउज़] में कुछ ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिसके साक्षी वहाँ पर निवास कर रहे विभिन्न राष्ट्रपति भी हैं। यह तो सर्वविदित है कि अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या की गई थी। कहते हैं कि कुछ खास मौकों पर उनका साया व्हैट हाउज़ में घूमता देखा गया है। उनका सबसे प्रिय स्थल है व्हैट हाउज़ की दूसरी मंज़िल पर स्थित शयन कक्ष। सन् १९३४ में जब फ़्रेंकलिन रूज़्वेल्ट राष्ट्रपति चुने गए थे, तब उन्होंने व्हैट हाउज़ की दूसरी मंज़िल पर स्थित उस कमरे को ही अपना शयन-कक्ष बनाना चाहा था। उस स्थान की सफ़ाई शुरू करने के लिए कर्मचारी जब वहाँ गए तो देखा कि राष्ट्रपति लिंकन एक काला सूट पहने, सोफ़े पर बैठे अपने जूतों की डोर बांध रहे हैं! जब रूज़्वेल्ट को इस बात की खबर मिली तो उन्होंने अपना शयन-कक्ष वहाँ बनाने का इरादा तर्क कर दिया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ऐसा नहीं है कि लिंकन के साए को सिर्फ रूज़्वेल्ट के कर्मचारी ही देख पाये थे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल, अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति ट्रूमैन, आइज़नहॉवर तथा केनेडी को भी इस साये से दो-चार होना पड़ा था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ऐसी कई घटनाएँ हैं जिन्हें किसी तर्क से समझा नहीं जा सकता। इसीलिए तो कहा जाता है कि जो इसमें विश्वास करते हैं उन्हें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती और जो विश्वास नहीं करते, उनके लिए कितने भी प्रमाण पर्याप्त नहीं होते॥</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-89267199144087580692012-01-06T20:54:00.000+05:302012-01-06T20:54:43.526+05:30गुरुदयाल अग्रवाल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><i style="background-color: #fff2cc;">आप लोगों को याद होगा कि कुछ अर्सा पहले मैंने एक पाठशाला के प्रश्न पत्र के माध्यम से वयोवृद्ध कवि एवं एक ज़िंदादिल इंसान से परिचय कराया था जिनका नाम है गुरूदयाल अग्रवाल। अग्रवालजी चलता फिरता कविता संग्रह है जिनके मस्तिष्क में न जाने कितनी कविताएं भरी पडी हैं। कविताएं धारा प्रवाह कहते हैं भले ही उन्हें कवि का नाम याद न हो। एक ऐसी ही कविता उनके मस्तिष्क में कौंध गई और उन्होंने इसे भेज दिया। यदि कोई इस कविता के मालिक का पता ढूंढ सके, तो हम उन्हें यह कविता लौटाने का ज़िम्मा लेते हैं। तब तक गुरुदयाल अग्रवाल की ज़बानी-बयानी जारी रहेगी।</i></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><br />
<div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: justify;"><b><u>गीत जग भर के दुखों की आत्मा है</u></b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b></b> </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> गीत जग भर के दुखों की आत्मा है</b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> प्यार हर <wbr></wbr>इंसान का परमात्मा है</b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b>बूँद ने अपनी नई दुनिया बसाई </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> जब सजाई सिन्धु की नगरी सजाई</b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b>इस हिमालय को बडप्पन जब मिला है</b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b>भूमी को जब आँख से गंगा पिलाई </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> इस जगत में हर किसी के प्रिय हैं अलग </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> किन्तु रचना हर किसी की प्रियतमा है </b> </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b></b> <b>गीत जग भर के दुखों की आत्मा है</b><div><b> प्यार हर इंसान का परमात्मा है</b></div></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> कुछ नयन इतने दुखी रोया न जाता<wbr></wbr> </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b>आंसुओं की गोद में सोया न जाता </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b>उन सभी का दर्द जिसने लिख दिया है </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b>वो समय की धार से धोया न जाता </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> <em> </em> </b><b> इस जगत में हर किसी के अहम हैं <wbr></wbr>अलग <em> </em> </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> किन्तु ज्ञान सबकी व्यक्तिवादी चेतना है</b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> गीत जग भर के दुखों की आत्मा है</b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> प्यार हर <strong>इंसान का परमात्मा है</strong></b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b><em> </em></b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b><em></em></b> </div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b><em>(इस जगत में हर किसी के अहम हैं अलग) यह मूल शब्द नहीं हैं. मूल शब्द याद ही नहीं आ रहे हैं अत: मैंने प्रयास किया है.</em></b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> गुरु दयाल अग्रवाल </b></div><div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif; font-size: 16px; text-align: -webkit-auto;"><b> </b></div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-79793846610424792642012-01-05T19:10:00.000+05:302012-01-05T19:10:59.295+05:30लेव टॉलस्टॉय - Leo Tolstoy-एक अनुवाद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #8e7cc3;">लम्बी कैद</u></b></span></div><div style="text-align: right;"><i style="background-color: #ffe599;">मूल: लेव निकोलविच टॉल्सटाय</i></div><br />
<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ईवान दिमित्रिच अक्सेनोव नाम का एक व्यापारी व्लादमीर नगर में रहता था। उसकी अपनी दो दुकानें और एक निजी मकान भी था। घुंघराले बाल, गोरा-चिट्टा रंग और गठित बदन वाला युवक अक्सेनोव एक हँसमुख और ज़िंदादिल इंसान था। लहर में आता तो पीता, गाता और नाचता था। लेकिन यह मौज-मस्ती उस समय बंद हो गई जब उसकी शादी हो गई और अब तो वह दो बच्चों का बाप भी बन गया था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ग्रीष्म शुरू हो रहा था तो अक्सेनोव ने सोचा कि व्यापार के लिए निज़नी मेले में जाया जाय। सवेरे उठते ही उसने सामान बाँधा और पत्नी को अलविदा कहा। यात्रा पर निकलने को था कि पत्नी ने टोका-"इवान दिमित्रिच, आज मत जाओ क्योंकि मैंने एक अजीब सपना देखा है।" अक्सेनोव ने हँसते हुए कहा-"अरे सपने भी कहीं सच होते हैं! चिंता मत करो, मुझे कुछ नहीं होगा। मैं जल्दी लौट आऊँगा।" पत्नी ने अपनी चिंता जतलाते हुए बताया कि उसने सपने में देखा कि वह जब लौटा तो उसके केश और दाढ़ी सफ़ेद हो चुके थे। अक्सेनोव ने कहा-"यह तो अच्छा शगुन है। तुम चिंता मत करो। मैं सारा सामान बेच कर तुम्हारे लिए एक अच्छा-सा उपहार ला दूँगा।" यह कह कर वह अपने परिवार से विदा लेकर यात्रा पर निकल पड़ा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">सफर में रात हो गई तो अक्सेनोव एक सराय में ठहर गया। वहाँ उसकी भेंट एक और सौदागर से हुई। दोनों ने मिलकर रात का भोज किया, कुछ देर गाना-बजाना चला और फिर सोने चले गए। सूर्य निकलने में अभी समय था। अक्सेनोव ने सोचा कि सफर लम्बा है, इसलिए मुँह-अंधेरे ही निकल जाना चाहिए। वह उठा और अपना सामान लेकर निकल पड़ा। पच्चीस मील का सफर तय करने के बाद गाड़ीवान ने एक सराय के पास गाड़ी रोकी और घोड़ों को पानी पीने और आराम करने छोड़ा। अक्सेनोव भी सुस्ताने के लिए बैठ गया और चाय पीने लगा। तभी एक और गाड़ी आकर रुकी। उसमें से एक अधिकारी और दो सिपाही बाहर निकले और अक्सेनोव से पूछने लगे कि वह कहाँ से आ रहा है। उसने बताया कि रात में एक सराय में रुका और एक सौदागर के साथ भोज किया था और मुँह-अंधेरे ही आगे की यात्रा के लिए निकल पड़ा। उसके बाद उनके प्रश्नों की झड़ी लग गई। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अधिकारी ने बताया कि उस सौदागर की हत्या हो गई है और संदेह की सूँई उसकी ओर है। उसकी तलाशी ली गई। सिपाहियों को उसके सामान से एक खून से सना छुरा मिला। यह देख अक्सेनोव चकित रह गया। उसे समझ में नहीं आया कि यह छुरा उसके सामान में कैसे आया। उसने कई दलीलें दीं, मिन्नतें कीं, परंतु कोई सुननेवाला नहीं था। सज़ा देकर उसपर कोड़े बरसाए गए और सैबेरिया के बंदीगृह में भेज दिया गया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अक्सेनोव की पत्नी को जब पता चला तो वह अपने बच्चों के साथ आई और जेल में उससे मिली। अक्सेनोव ने अपनी बेगुनाही के लिए त्सार से अपील करने का सुझाव रखा। पत्नी ने बताया कि उसके सारे प्रयास बेकार हो चुके हैं। रोते हुए उसने उस स्वप्न की याद दिलाते हुए कहा- "उस स्वप्न पर ध्यान देकर रुक जाते तो आज यह दिन न देखना पड़ता।... अब सच बताओ कि तुमने उसका खून क्यों किया?"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अक्सेनोव आश्चर्य से पत्नी की ओर देखता रहा। रुआँसा होकर उसने कहा-"तो क्या तुम भी मुझ पर शक कर रही हो! फिर तो ईश्वर ही मेरी बेगुनाही साबित कर सकते हैं।" उसके बाद अक्सेनोव चुप हो गया और अपने परिवार को अंतिम बार अलविदा कहा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अक्सेनोव ने सैबेरिया की जेल में छब्बीस वर्ष गुज़ारे। उसके बाल सन की तरह सफेद हो चुके थे और सफेद दाढ़ी लंबी व घनी होकर चेहरे पर बिखरी फैली थी। उसकी गठित काया भी क्षीण हो चुकी थी और अब वह झुक कर चलने लगा था। वह हमेशा प्रार्थना में लीन रहता। उसे किसी ने भी हँसते हुए नहीं देखा था। जेल में उसने जूते सीने का काम सीख लिया और इससे जो थोड़ी बहुत आय होती, उससे संत पुरुषों की पुस्तकें खरीद कर पढ़ता। हर रविवार को जेल की चर्च में नियमित रूप से जाता और प्रार्थना गीत में हिस्सा लेता था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जेल के सभी कैदी अक्सेनोव को पितामह या संत कह कर पुकारते थे। कभी किसी को कोई पत्र या निवेदन लिखना होता तो उसके पास पहुँच जाते और लिखा लेते थे। अधिकारी भी उसके शाँत स्वभाव से प्रभावित थे। एक दिन एक नया कैदी जेल में पहुँचा। साठ वर्ष का यह कैदी कद-काठी से तंदुरुस्त था। सब कैदी उसके पास पहुँचे और उसके जुर्म व जीवन के बारे में पूछने लगे। अक्सेनोव भी उसके पास बैठ गया। उसने बताया कि यह भी एक विड़म्बना है कि जुर्म करके वह बचता रहा पर अब जबकि उसने कोई जुर्म नहीं किया तो उसे जेल हो गई। वह अपने एक परिचित की गाड़ी से घोडा खोलकर बैठा और दूसरे शहर जल्दी पहुँचना चाहता था पर चोरी के आरोप में पकड लिया गया।</div><div style="text-align: justify;">"तुम कहाँ से आ रहे हो?" किसी ने पूछा।</div><div style="text-align: justify;">"व्लादमीर से। मेरा पूरा परिवार वहीं रहता है और मेरा नाम मकर सेमेनिच है।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अक्सेनोव ने सिर उठाकर देखा और पूछा-"यह बताओ कि क्या तुम अक्सेनोव नाम के व्यापारी परिवार को जानते हो?"</div><div style="text-align: justify;">"जानता हूँ! अरे, वह तो बड़ा प्रसिद्ध परिवार है; यद्यपि उनके पिता को सैबेरिया भेज दिया गया था। बुज़ुर्गवार, यह तो बताओ कि आप यहाँ कैसे?"</div><div style="text-align: justify;">"मैं यहाँ छब्बीस साल से अपने पाप का फल भोग रहा हूँ।"</div><div style="text-align: justify;">"किस पाप का फल?"</div><div style="text-align: justify;">"शायद यह भोगमान मुझे भोगना था, यही प्रभू की इच्छा है।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">एक कैदी ने बताया कि पितामह एक व्यापारी के खून के आरोप में यहाँ भेजे गए हैं जबकि वो निर्दोष हैं। मकर यह सुनकर अपनी जांघों पर हाथ मारते हुए कहा-"वाह! वाह! क्या बात है। पर तुम इतने बूढ़े कैसे पितामह?" मकर पर प्रश्नों की बौछार होने लगी- "तुम इतने चकित क्यों हो?.. क्या तुम इन्हें पहले से जानते हो?.. क्या तुमने उस हत्या के बारे में सुना है?"...</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मकर ने हंसते हुए कहा-"कई अफ़वाहें होती हैं। पर यह बात बहुत पुरानी हो गई है, भूल गया हूँ"।</div><div style="text-align: justify;">अक्सेनोव ने पूछा-"शायद तुमने सुना होगा कि किसने उस व्यापारी का खून किया था?"</div><div style="text-align: justify;">मकर ने फिर हँसते हुए कहा-"हो सकता है कि वही हत्यारा हो जिसके सिराहने रखी थैली में खून से सना छुरा मिला। वह चोर नहीं होता जो पकड़ा नहीं जाता, चोर तो वही होता है जो पकड़ा जाता है।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">यह सुनकर अक्सेनोव का संदेह पक्का हो गया कि उस व्यापारी की हत्या मकर ने ही की है। वह वहाँ से उठ कर चला गया। अब अक्सेनोव प्रतिशोध की आग में जल रहा था। उसे रात भर नींद नहीं आई। प्रार्थना करके भी वह अपने मन को स्थिर व शांत नहीं रख पा रहा था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">एक रात जब वह टहल रहा था तो उसे अपने पैरों के नीचे की धरती खिसकती लगी। कुछ देर के लिए वह रुक गया और देखने लगा कि क्या हो रहा है। थोडी देर में वहाँ से मकर निकला और अक्सेनोव को देखकर चौंक पड़ा। फिर उसने बताया कि वे धरती से सुरंग बना कर बाहर निकलने की तैयारी कर रहे हैं। उसने धमकी दी-"बूढे आदमी, मुँह बंद रखो। तुम भी बाहर निकल सकते हो। यदि मुँह खोलोगे तो इल्ज़ाम तुम पर आएगा और वो तुम्हें कोड़े मार-मार कर सीधे ईश्वर के पास पहुँचा देंगे।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">दूसरे दिन सिपाहियों ने मिट्टी के ढेर देखकर सब कैदियों की तलाशी ली और पूछताछ की। गवर्नर ने सभी से पूछा पर किसी ने मुँह नहीं खोला। अंत में गवर्नर ने अक्सेनोव के पास आकर कहा-"तुम सच्चे बूढे आदमी हो, ईश्वर को साक्षी रखकर कहो कि यह सुरंग किसने बनाई?"</div><div style="text-align: justify;">अक्सेनोव बहुत देर तक कुछ नहीं बोला, उसके होठ थरथरा रहे थे। उसके मस्तिष्क में एक ज्वार सा उठ रहा था। वह सोच रहा था कि उस व्यक्ति को क्या बचाना जिसने उसके जीवन को नर्क बनाया है। परंतु यदि वह बता भी देगा तो मकर मारा जाएगा पर उसे क्या मिलेगा? वह जैसे खो गया था। इतने में गवर्नर की आवाज़ उसके कानों में पड़ी- "सच सच बताओ, यह ज़मीन कौन खोद रहा था?" अक्सेनोव ने एक बार मकर की ओर देखा और कहा-"मैं नहीं कह सकता सरकार। ईश्वर की इच्छा नहीं है कि मैं कुछ कहूँ। आप जो चाहें मुझे सज़ा दे सकते हैं। मैं तो आपके हाथ में हूँ।" गवर्नर ने बहुत प्रयास किया पर अक्सेनोव ने मुँह नहीं खोला। हार कर विषय को वहीं छोड़ दिया गया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">उस रात अक्सेनोव अपने बिस्तर पर लेटा था और आँख लग ही रही थी कि उसे किसी के समीप आने का आभास हुआ। अंधेरे में उसने देखा कि मकर खड़ा है।</div><div style="text-align: justify;">"और क्या चाहते हो तुम मुझसे? अब क्या लेने आए हो?"</div><div style="text-align: justify;">मकर खामोश खड़ा रहा। अक्सेनोव उठकर बैठ गया।</div><div style="text-align: justify;">"चले जाओ यहाँ से वर्ना मैं गार्ड को आवाज़ दूँगा।" </div><div style="text-align: justify;">"मुझे क्षमा कर दो इवान दिमित्रिच।" मकर ने उसके पास झुक कर कहा।</div><div style="text-align: justify;">"किसलिए?"</div><div style="text-align: justify;">"मैं वही पापी हूँ जिसने उस व्यापारी की हत्या की थी और तुम्हारी थैली में वह छुरा छुपा दिया था। मैं तो तुम्हारी भी हत्या करना चाहता था पर बाहर कुछ आहट सुनकर खिड़की से भाग निकला था।"</div><div style="text-align: justify;">अक्सेनोव खामोश था। मकर अपने घुटनों के बल बैठ गया और क्षमा माँगने लगा। "इवान दिमित्रिच, मुझे क्षमा कर दो। मैं सबके सामने अपना गुनाह कबूल कर लूँगा और तुम्हें रिहाई मिल जाएगी। तुम अपने घर जा सकोगे। मुझे क्षमा कर दो दिमित्रिच।"</div><div style="text-align: justify;">"तुम्हारे लिए कहना सरल है मकर, मगर मैंने अपने जीवन के छब्बीस बरस दुख भोगा है। अब कहाँ जाऊँगा! मेरी पत्नी मर चुकी है, मेरे बच्चे मुझे भूल चुके हैं, अब तो कहीं नहीं जा सकता।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अपना सिर ज़मीन पर पटक-पटक कर मकर माफी मांगने लगा। "मुझे क्षमा कर दो इवान दिमित्रिच। मुझे उस समय भी इतना कष्ट नहीं हुआ था जब मुझपर जेल में कोड़े बरसाए गए थे। अब तुम्हारी चुप्पी उन कोड़ों से अधिक वेदना दे रही है। मुझ नीच पर दया करो और माफ़ी दे दो।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">फफक-फफक कर मकर रोने लगा। उसको रोता देख अक्सेनोव भी रोने लगा। "ईश्वर तुम्हें क्षमा करेंगे। शायद मैं तुमसे सौ गुना पापी हूँ।" यह कह कर उसका मन भी हल्का हुआ। उसे इस जेल को छोड़ कर जाने की कोई इच्छा नहीं थी, बस इच्छा थी तो केवल मृत्यु की।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मकर ने अपना जुर्म कबूल कर लिया और जब तक अक्सेनोव को रिहा करने का आदेश आता, वह चिर निद्रा में सो चुका था।</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-50274184046650843222011-12-31T07:17:00.000+05:302011-12-31T07:17:19.795+05:30ठंडक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #f1c232;">ठंडक कैसी कैसी</u></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कल ही की बात है जब मैं ब्लागदर्शन कर रहा था तो ब्लागगुरू बी.एस.पाब्ला जी का ब्लाग ‘ज़िंदगी के मेले’ पर उनका सफ़रनामा मिला। मोटर साइकल पर यात्रा करते हुए सुंदर चित्रों के साथ दिल दहलाने वाले ठंडक का वर्णन भी था। इस लेख के अंत में वे बताते हैं-</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"> ‘गरदन घुमा कर पीछे देखा तो मैडम जी चारों खाने चित्त धरती पर! हड़बड़ा कर मैं उतरा, गाड़ी खड़ी की और हाथ बढ़ाया कि उठो। लेकिन लेटे लेटे ही उलझन भरी आवाज़ आई ‘मेरे हाथ कहाँ हैं, मेरे पैर कहाँ हैं?’ तब महसूस हुआ कि बर्फीली ठण्डी हवाओं के मारे हाथ पैर ही सुन्न हो गए हैं।’ </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ठंड के विविध आयाम मस्तिष्क में घूमने लगे और सोंचते सोचते बात दिल को ठंडक पहुँचाने तक चली गई। ठंड में आदमी अकड जाता है तो शरीर सुन्न हो जाता है और जब हिमाकत में अकड़ जाता है तो मस्तिष्क सुन्न होगा। इस हिमाकत में वो क्या कर बैठे, कुछ पता नहीं, पर यदि उसकी हिमाकत कामियाब हो गई तो उसके दिल को ठंडक पहुँचेगी। </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हर व्यक्ति के लिए ठंड की व्याख्या भी अलग होती है। आमीर खान के लिए ठंडा मतलब कोका कोला! किसी हिरोइन के लिए गाने की सीन क्रिएट होगी और वो गाने लगेगी- मुझे ठंड लग रही है...। कभी हीरो भी ठंड की शिकायत में कांपते हुए कहेगा- सरका लो खटिया...। इस प्रकार फिल्मी दुनिया में भी ठंड का बडा रोल होता है, वैसे ही जैसे बारिश या बर्फ़ का! यह और बात है कि यह ठंड कभी अश्लीलता के बार्डर लाइन तक पहुँच जाती है और डायरेक्टर को ‘कट’ कहना पड़ता है और यदि वो चूक गया तो नकटा मामू सेंसर तो है ही। खलनायक की छाती में ठंडक उस समय पडती है जब वो किसी को ठंडा कर देता है। हीरो तो ठंडे मिजाज़ का होता ही है और उसे देख कर विलेन के हाथ-पाँव ठंडे पड़ जाते हैं। है ना, फ़िल्मों में ठंड के विविध आयाम!!!</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">साहित्य में भी ठंड ने अपना रोल अदा किया है। मुहावरों की शक्ल में ठंड का उपयोग आम बात है जैसे, आँख की ठंडक किसी भी प्रेमी को दिल की ठंडक पहुँचा ही देती है। जब प्रेमिका का बाप दिख जाता है तो प्रेमी को ठंडे पसीने छूटना स्वाभाविक बात ही कही जाएगी। हो सकता है कि प्रेम की पींगे बढ़ने के पहले ही उनके इस प्रेम-प्रसंग पर ठंडा पानी फिर जाय। यदि प्रेमिका को बाप के रूप में विलेन दिखाई दे तो बाप-बेटी के रिश्तों में ठंडक आ जाएगी। यह और बात है कि दो प्रेमियों को अलग करके बाप के कलेजे में ठंडक पड़ जाएगी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अब आप ठंडे दिमाग से सोचिए कि ठंड हमें कहाँ से कहाँ पहुँचा सकती है। ठंडे दिमाग के लिए चाहिए कुछ ठंडा- तो उठाइये ठंडा- यानि कोका कोला॥ </span></div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-87586842894407283912011-12-22T16:07:00.000+05:302011-12-22T16:07:48.539+05:30एक समीक्षा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7dxtV81cELc84x5Yntp91-aoRdymomLEV91Kk9HPoXLU-xB1Z37QD4cP8RH-4FU3VyesGkPrN_-O0lDYK1YRXcPW2lrrgsP8veXOWLLcSsIDzSyCWABOW67qpv88kw9pVmQUR32yGLtsS/s1600/scan0001.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7dxtV81cELc84x5Yntp91-aoRdymomLEV91Kk9HPoXLU-xB1Z37QD4cP8RH-4FU3VyesGkPrN_-O0lDYK1YRXcPW2lrrgsP8veXOWLLcSsIDzSyCWABOW67qpv88kw9pVmQUR32yGLtsS/s320/scan0001.jpg" width="224" /></a></div><br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #ea9999;">ऐतिहासिक उपन्यास- रानी लचिका</u></b></span></div><br />
<div style="text-align: justify;">ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर कई उपन्यास लिखे गए हैं और कई उपन्यासकारों को इनसे ख्याति प्राप्त हुई है। पृथवीवल्लभ, जय सोमनाथ, विराटा की पद्मिनी, विशाद मठ- ऐसे ही कुछ उपन्यास हैं जिन्हें आज भी बड़े चाव से पढ़ा जाता है। अनिरुद्ध प्रसाद ‘विमल’[१९५०] ने इतिहास के सहारे ही ‘रानी लचिका’ नामक उपन्यास रचा है, जिसमें ११वीं शताब्दी के जमुई, गिद्धौर, खड़गपुर, छोटानागपुर और संतालपरगना जैसे स्थानों पर खेतौरियों का शक्तिशाली साम्राज्य रहा। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इसी खेतौरी राजवंश की चौदहवीं पीढ़ी के प्रीतम सिंह वारप्पा की गद्दी पर १७९० में आसीन हुए। प्रीतम सिंह की पत्नी थी रानी लचिका जो देखने में इतनी सुंदर - मानो कोई अपसरा धरती पर उतर आई हो। राजा प्रीतम सिंह अपनी रूपसी पत्नी को निहार-निहार कर निहाल हुए जा रहे थे। रानी ने राजा को अपना राजधर्म याद दिलाया और उन्हें राजपाट में ध्यान लगाने को कहा। राजा अपनी पत्नी लचिका के बुद्धिकौशल का लोहा मान गए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">राजमाता चंद्रावती अब निश्चिंत थी कि पुत्र और पुत्रवधु राज्य की भलाई में कार्यरत हैं और इस शक्तिशाली राज्य में अमन-चैन से लोग जी रहे हैं। उनकी इच्छा थी कि शीघ्र ही एक पौत्र राजमहल में किलकारियाँ भरे, जिसके लिए उन्होंने रानी लचिका को योगिनी एकादशी व्रत रखने को कहा। रानी लचिका ने इस व्रत का निष्ठापूर्वक पालन किया और सिंहवाहिनी अष्टभुजा मां दुर्गा के आशीर्वाद से गर्भवती हुई। पंडितों को भावी राजकुमार के भविष्य की जानकारी के लिए बुलाया गया। उन्होंने राजकुमार के प्रतापी होने की भविष्यवाणी तो की, पर.... कुछ झिझक कर कहा कि उन पर संकट आएगा जिसका निवारण भी वे खुद ही करेंगे। यह जानकर राजमाता की चिंता कुछ दूर हुई।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">एक दिन जब रानी लचिका नौरंग सरोवर में स्नान कर रही थी तो पडोसी राज्य लखिमापुर का राजा जयसिंह देव पेडों की आड से उस सुंदरी को निहार रहा था। अपसरा जैसी सुंदरी को देख उसके होश उड़ गए। वह इस सुंदरी को प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठा। राजकाज छोड़कर वह गुमसुम रहने लगा। जयसिंह की पत्नी रानी जयमंती उसकी इस हालत को देख महामंत्री से मंत्रणा की और यही उचित समझा कि रानी लचिका को पटरानी बना कर लाया जाय। पर इसके लिए युद्ध करना अनिवार्य था और खेतौरी राजवंश अपने पराक्रम के लिए प्रसिद्ध था ही। छल की लड़ाई का सहारा लिया गया। कुटनी बुढिया माया को गुप्तचर बना कर भेजा गया और अचानक आक्रमण करके राजा प्रीतम सिंह और उसकी सेना को हलाक कर दिया गया। रानी लचिका को बंदी बना कर पालकी में लाया गया। राजमाता चंद्रावती और दो वर्षीय पौत्र बच निकले। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">रानी लचिका को राजमहल में रखा गया पर उसे तो अपने राज्य और पुत्र की याद आ रही थी। इधर राजा जयसिंह रानी लचिका का दिल जीतने को बेचैन था। स्थिति को देखते हुए रानी लचिका ने शर्त रखी कि वह व्रत रखते हुए बालिशानगर से लखिमापुर दान-पुण्य करते हुए पैदल जाना चाहती है और जब वह लखिमापुर पहुँचेगी तो वह जयसिंह को पति के रूप में स्वीकार कर लेगी। इसके लिए जयसिंह को सफर का सारा इंतेज़ाम करना होगा... डेरे-खेमे से लेकर दान-पुन तक का। राजा उसकी शर्त मान गया और आयोजन की तैयारी होने लगी। आयोजन इतना सरल नहीं था। डेरे-तम्बू लगाने में ही बरस बीत गया, फिर रानी के एक कोस पैदल चलने में एक वर्ष बीत जाता। जयसिंह अधीर होता पर वह बेबस था। आखिर उसे लखिमपुर पहुँचने में बारह वर्ष लगे जब तक युवराज चौदह वर्ष का योद्धा तैयार हो चुका था। गुप्तचर रानी लचिका से नियमित संपर्क बनाए रहे। जब रानी लचिका लखीमापुर पहुँची तो युवराज रणवीर ने अपनी सेना को लेकर आक्रमण किया और जयसिंह का वद्ध कर दिया। रानी लचिका की युक्ति सफल हुई।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इन उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार अनिरुद्ध प्रसाद ‘विमल’ ने इतिहास के पन्ने ही नहीं उकेरे बल्कि स्त्री-विमर्श, व्रत-त्योहार, कच्चे-पक्के भोजन की सूची जैसे कई मुद्दों से पाठक को परिचित कराया है। स्त्री-विमर्श पर बात करते हुई रानी लचिका के माध्यम से कहा गया है कि ‘स्त्रियाँ अपने को छिपाती हैं। त्याग करती हैं और पुरुष को उसके दायित्व का बोध कराती हैं। स्त्री अपनी सुकोमल कंचन काया और उदात्त प्रेमिल हृदय से पुरुष को प्रेम करती है।’[पृ.११] स्त्री का जीवन पुरुष के भाग्य के साथ बंधा होता है। तभी तो एक महिला पात्र कहती है-‘हम स्त्रियों का जीवन कुछ इस कदर पुरुषों के साथ बंधा होता है कि उसके बिना जीना और मरना दोनों कठिन। अधिकारों के इस संघर्ष में स्री हमेशा हारती रही है।.... लचिका हो या जयमंती, प्रताडित तो होगी आखिर स्त्री ही। विधाता ने हम स्त्रियों का भाग्य ही कुछ ऐसा लिख दिया है कि कोमलांगी और उदात्त सुकुमार भावनाओं की होकर भी हम कठोरतम जीवन जीने को विवश होते हैं।’[पृ.६५]</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वट सावित्री व्रत के बारे में उपन्यासकार बताते हैं कि पति की लम्बी उम्र की कामना करती स्त्रियाँ वट वृक्ष की विधिवत पूजा करती हैं। सोलहों श्रृंगार कर अंग-अंग में बत्तीसों आभरण, माँग में लक-दक गहरा सिंदूर पहन जब ब्याहता वटवृक्ष को लाल धागों से घेरती फेरे लगाती है तो देखते ही बनता है। गीतों में प्रार्थनाएं होती हैं- जब तक जीवित रहूँ यह सिंदूर माथे पर हो। कलकंठी महिलायें झुंड की झुंड मिलकर उच्च स्वर में मंगल गीत गाती हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इस उपन्यास के माध्यम से वारप्पा राज्य के राजस्व के बारे में बताया गया है। प्रचुर मात्रा में धन-सम्पदा, बेशकीमती हीरे, मोती, मूंगा, नीलम, पुखराज आदि पत्थरों के व्यापारी देश-विदेश से यहाँ आते रहते थे। ११वीं सदी से पूर्व वारप्पा पर नट राजाओं का शासन था। उस समय तक भारत में मुगल साम्राज्य की भी स्थापना नहीं हुई थी। जमुई, हवेली खड़गपुर से लेकर बारकोप तक जंगल ही जंगल थे।... लोकगाथाओं में वर्णित लखिमापुर आज का लक्ष्मीपुर है जो बौंसी से बारह कोस की दूरी पर है। चौरंगी चौक जिसे बालिशानगर भी कहा गया है। इसी लक्ष्मीपुर राज्य का राजा था जयसिंह देव।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इन ऐतिहासिक स्थानों से गुज़रते हुए इस उपन्यास में रानी लचिका की कहानी बड़े रोचक ढंग से बयान करने के लिए अनिरुद्ध प्रसाद ‘विमल’ को बधाई और आशा की जा सकती है कि इस उपन्यास को अन्य ऐतिहासिक उपन्यासों की तरह ऐतिहासिक दर्जा प्राप्त होगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><i>पुस्तक परिचय</i></div><div style="text-align: justify;"><i><br />
</i></div><div style="text-align: justify;"><i>पुस्तक का नाम : रानी लचिका</i></div><div style="text-align: justify;"><i>उपन्यासकार : अनिरुद्ध प्रसाद ‘विमल’</i></div><div style="text-align: justify;"><i>प्रथम संस्करण : २०११ ई.</i></div><div style="text-align: justify;"><i>मूल्य : १७५ रुपए</i></div><div style="text-align: justify;"><i>प्रकाशक : शब्दसृष्टि</i></div><div style="text-align: justify;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एस-६५८ए, गली नं.७,</i></div><div style="text-align: justify;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>स्कूल ब्लाक, शकरपुर</i></div><div style="text-align: justify;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>दिल्ली - ११० ०३२</i></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-30551901302776455132011-12-19T14:25:00.001+05:302011-12-19T16:09:04.462+05:30पैरोड़ी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: -webkit-auto;"><span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><i style="background-color: #fce5cd;">सब चीज़ें तक़सीम हुई तब-<br />
मैं घर में सबसे छोटा था<br />
मेरे हिस्से आई अम्मा</i></span></div><div style="text-align: -webkit-auto;"><span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><i style="background-color: #fce5cd;">- आलोक श्रीवास्तव</i></span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><i><br />
</i></span><br />
<span style="background-color: #b4a7d6; font-family: Mangal; font-size: large;">इन पंक्तियों को पढ़कर कुछ पैरोड़ी लिखने को मन किया ... तो आलोक भाई से क्षमा मांगते हुए प्रस्तुत है :-</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">देश में भ्रष्टाचार की धूम मची थी</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">नेताओं को मिली मलाई</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">जेल के हिस्से राजा आया</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">टुकड़े-टुकड़े हुए खादी के जब</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">बंटे कुर्ते नेताओं में</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">जन के हिस्से काजा आया</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">प्यार के किस्से में लैला-मजनूं</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">रोमियो-जूलियट चर्चा में</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">हीर के हिस्से रांझा आया</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">मेरे भाई की शादी में</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">उसे मिल गई दुल्हन</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">मेरे हिस्से बाजा आया</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">राजनीति की माया फैली</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">पंडित मुल्ला खाली हाथ</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">गज के हिस्से क्या-क्या आया</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"><br />
</span></div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-18804942350413156862011-12-11T22:16:00.000+05:302011-12-11T22:16:05.132+05:30दाढ़ी-मूँछ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #ead1dc;">दाढ़ी मूँछ का प्रभाव</u></b></span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #ead1dc;"><br />
</u></b></span></div><div style="text-align: justify;">हाल ही में हैदराबाद के वरिष्ठ व्यंग्यकार भाई भगवानदास जोपट जी से बुद्धिजीवियों की जानकारी के साथ-साथ मूँछ-दाढ़ी के संबंध में भी ज्ञान की श्रीवृद्धि हुई। उनका मानना है कि "बुद्धिजीवी को अलग से पहचाना जा सकता है क्योंकि ये दूसरों से अलग होते हैं। आमतौर से चेहरे पर विराजमान गम्भीर मनहूसियत और बढ़ी हुई फ़्रेंच दाढ़ी इन्हें सामान्य लोगों से अलग करती है।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जब दाढ़ी-मूँछ की बात आई तो एक पुराना किस्सा याद आया। कहते हैं कि एक बस्ती में दो शायर रहते थे जिनमें से एक के चेहरे पर दाढ़ी थी तो दुसरे के चेहरे पर रौबदार मूँछें। दोनों को अपनी शायरी के साथ-साथ अपने-अपने चेहरे पर भी बड़ा गुमान था। एक बार दोनों में बहस हो गई कि दाढ़ी अच्छी होती है या कि मूँछ। लम्बी बहस के बाद दोनों ने अपना तीर शे’र के रूप में छोड़ा जो इस प्रकार रहा-</div><div style="text-align: justify;">दाढ़ी वाले ने दाढ़ी पर कसीदा पढ़ दिया-</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><i><b>दाढ़ी वो दाढ़ी जिस दाढ़ी पे हो गुमां</b></i></div><div style="text-align: center;"><i><b>दाढ़ी शेरों के हुआ करती है बकरों के कहाँ॥</b></i></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अब मूँछ वाला शायर भी कहाँ पीछे हटने वाला था! उसने भी लाइन मिलाई-</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><i><b>मूँछ वो मूँछ जिस मूँछ पे हो गुमां</b></i></div><div style="text-align: center;"><i><b>मूँछें मर्दों के हुआ करती है हिजड़ों के कहाँ॥</b></i></div><div style="text-align: justify;">कहते हैं कि तब से यह चलन शुरू हो गया है कि लोग दाढ़ी-मूँछ एक साथ पालने लगे हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अब रही बात दाढ़ी-मूँछ के प्रभाव की, तो एक पुलिसवाले की याद आती है जो दशकों पहले हैदराबाद की सड़क के एक चौराहे पर खडा होता था। [उस समय लाल-पीली-हरी बत्ती का चलन नहीं था।] अपने काले भारी-भरकम चेहरे पर उन गलमूंछों के कारण वह उस चौराहे पर चलनेवालों के लिए आकर्षण का केंद्र भी बना रहा। इस रौबीले पुलिसवाले को आंध्र प्रदेश सरकार ने पुरस्कृत भी किया था और उसे ‘मूँछ भत्ता’ भी दिया जाता रहा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मूँछों का एक लम्बा इतिहास भी है। पुराने ज़माने में घनी कड़कदार मूँछे पाली जाती थी जिनको मोम आदि से संवारा और दमदार बनाया जाता था। ‘इतिहासकार’ बताते हैं कि मूँछों पर निंबू खडा करने की प्रतियोगिताएं भी हुआ करती थीं। हाय! अब न वैसी मूँछें दिखाई देती हैं न वैसे जवाँ मर्द!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">‘इतिहासकार’ यह भी बताते हैं कि मुस्लिम काल तक भारत में दाढ़ी-मूँछ का चलन अधिक रहा। अंग्रेज़ों के आगमन के साथ ही हमारी संस्कृति और सभ्यता के साथ पुरुष के चेहरे से दाढ़ी-मूँछ भी गायब होने लगे। तभी तो हैदराबाद के अंग्रेज़ रेसिडेंट किर्कपैट्रिक ने मुस्लिम नवाबों की तरह जब मूँछे रखना शुरू किया तो बात इंग्लैंड तक पहुँच गई कि कहीं वो मुसलमान तो नहीं हो गए हैं और नतीजा यह हुआ कि उन्हें इंग्लैंड लौटना पड़ा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">फिल्म जगत में भी मुग़लेआज़म की अकबरी मूंछों से लेकर करण दीवान व राजकपूर कट मूँछें प्रसिद्ध हुईं। यह अलग बात है कि करण दीवान को उतनी प्रसिद्धि नहीं मिली जितनी कि राज कपूर को। अब तो दाढ़ी-मूँछ देश या प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम पर भी जानी जाती हैं; जैसे, फ़्रेच, जर्मन या फिर लिंकन,लेनिन जैसी दाढ़ी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वैसे तो दाढ़ी-मूँछ बढ़ा लेना मर्द की खेती कही जाती है परंतु इनकी देखभाल करना सरल काम नहीं है। कैंची ज़रा फिसली नही कि दाढ़ी का संतुलन बिगड़ गया; ब्लेड की थोड़ी सी शरारत मूँछ का सफ़ाया कर देगी। ऐसी हालत में व्यक्ति बड़ी दयनीय स्थिति में पड़ जाता है। रुमाल से मुँह छिपाए घूमता है कि कहीं उसे सफ़ाई न देनी पड़े कि यह खैंची या ब्लेड की शरारत है न कि पत्नी से शर्त हारने का कारनामा! परंतु लोग भी बड़े शातीर होते हैं, एक रहस्यभरी मुस्कान से समझा देते हैं कि अंदर की बात वे जानते हैं॥</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-75619958351822524932011-12-09T15:18:00.000+05:302011-12-09T15:18:02.273+05:30चक्की- एक समीक्षा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgW7c7MhP1z8mIKenOex6sQ6R3GdlqtDQVk6nU2jagkNvfs3bhtYrPxwv7Me_BdYTU9cetvT3sL6j2jyOqF3TuWNdq-3Q0o2jp85V_AxEeMX1PmuG-orRBdAqJEEhJanXlMXd9BuvAQb-3B/s1600/scan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgW7c7MhP1z8mIKenOex6sQ6R3GdlqtDQVk6nU2jagkNvfs3bhtYrPxwv7Me_BdYTU9cetvT3sL6j2jyOqF3TuWNdq-3Q0o2jp85V_AxEeMX1PmuG-orRBdAqJEEhJanXlMXd9BuvAQb-3B/s320/scan.jpg" width="214" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="background-color: #fce5cd; font-size: x-large;"><u>महिला जीवन है एक ‘चक्की’</u></span></div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">एक संवेदनशील महिला अपने जीवन के इर्दगिर्द होते पारिवारिक घटनाओं को जब देखती है तो स्त्री पर होनेवाले प्रभावों को महसूस करती है। इन घटनाओं में कभी भोगा हुआ यथार्थ होता है तो कभी किसी अन्य महिला से सुनी-सुनाई या फिर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ी घटनाएँ होती हैं। ऐसी ही संवेदनशील महिला जब कलम की धनी हो तो वो इन घटनाओं को कागज़ पर उकेर लेती है। जीवन की इस पिसती चक्की में नारी की इन्हीं कुछ घटनाओं पर आधारित हैं तेलुगु की प्रसिद्ध लेखिका डॉ. मुदिगंटि सुजाता रेड्डी का कहानी संग्रह ‘चक्की’। डॉ. सुजाता रेड्डी ने अपनी सीधी-सादी शैली में स्त्री विमर्श पर लिखी बीस कहानियाँ इस पुस्तक में संग्रहित की है। इन कहानियों से प्रभावित होकर डॉ. बी.सत्यनारायण ने इन्हें हिंदी में अनुवाद किया है।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">‘चक्की’ की कहानियों में स्त्री के जीवन से जुडी कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों का जायज़ा भी लिया गया है। शीर्षक कहानी ‘चक्की’ में उस महिला की दयनीय स्थिति दर्शायी गई है जिसका पति अच्छा कमाता तो है पर परिवार की सुध नहीं लेता, केवल अपने पर सारा धन लुटाता है। परिवार चलाने के लिए कुछ रुपये दे देता है जो दाल-रोटी के लिए भी काफी नहीं होते। दूसरी ओर बढ़ते बच्चों की अपनी फरमाइशें होती हैं जिन्हें उसकी पत्नी अपना पेट काटकर पूरा करती है।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">स्त्री विमर्श का दूसरा जवलंत मुद्दा दहेज और अहम् का है। स्नेहलता देवी का पत्र, मोक्ष, न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति जैसी कहानियों में ब्याह और दहेज के मामलों पर प्रकाश डाला गया है। इन कहानियों के माध्यम से कहानीकार ने यह जतलाया है कि आज की नारी अपने पैरों पर खड़े होना चाहती है और अपने माता-पिता का बोझ नहीं बनना चाहती। दूसरी ओर पुरुष की यह प्रवृत्ति होती है कि किसी न किसी समय पत्नी पर यह ताना मारेगा कि ‘तेरे पिता ने क्या दिया... अंत में अंगूठा दिखा दिया ना!’[पृ.५९] आज की नारी पढ़-लिख कर अपना कैरियर खुद बनाना चाहती है और आर्थिक रूप से स्वतंत्र रहना चाहती है। यही संदेश देती है कहानी- स्नेहलता देवी का पत्र।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">प्रायः यह देखा गया है कि जब पति-पत्नी, दोनों कमाते है तो अहम् का टकराव हो जाता है। पुरुष चाहता है कि पत्नी अपनी कमाई भी पति के हाथ में रख दे और पत्नी अपनेआप को आर्थिक रूप से स्वतंत्र रखना चाहती है। लालच और अहम् की इन परिस्थितियों में कभी-कभी स्त्री अनिश्चितता के दोराहे पर खडी दीखती है। जैसे ‘मोक्ष’ कहानी की नायिका का यह सोचना कि ‘ऐसी स्थिति में यदि वह कुछ करने को कहे तो पति की बदनामी! बेइज़्ज़ती! वह जो कहेगा, वही मुझे करना है। नहीं तो उसका पुरुषाहंकार आहत होगा।’[पृ.६५]</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">युवा लड़कियों के लिए सड़कों पर घूम रहे रोड-रोमियो कभी कभी जी का जंजाल बन जाते है। इस संग्रह की कहानियाँ- रौडीइज़म और मेरा अपराध क्या है?, इन्हीं मुद्दों पर लिखी गई हैं। उनकी छेड़छाड में सड़क पर ऐसा भी हादसा हो सकता है कि महिला पूछ सकती है- मेरा अपराध क्या है?</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">इसे एक विड़म्बना ही कहा जाएगा कि जब किसी महिला में अपने ही घर-परिवार को छोड़ने की छटपटाहट हो और इसका कारण पुरुष ही नहीं, स्त्री भी हो सकती है। बुढ़ापे में जब बहू का राज होता है तो ‘आज़ादी’ कथा की सास को अपनी हमउम्र सखियों को घर बुलाने और हँसने बोलने की भी मनाही की जाती है। ऐसे में उसे वृद्धाश्रम की ओर मुँह करना पड़ता है। कुछ ऐसी ही छटपटाहट उस ‘बंदिनी’ माँ की होती है जो विदेश में अपनी पुत्री की संतान की देखरेख के लिए जाती है और उसे शिशु को चूमने-पुचकारने की भी मनाही होती है।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">स्त्री का सब से कठिन समय वह होता है जब वह विधवा हो जाती है और सामाजिक कार्यक्रमों में उसकी उपस्थिति वर्जिय मानी जाती है। किसी भी शुभकार्य में उसका आगे ठहरना अशुभ माना जाता है। इसी तरह के अंधविश्वासों का विरोध करती कहानियाँ है- उसकी अपनी बेड़ियां और न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">स्त्री विमर्श के संदर्भ में लेखिका ने महिला के उस पहलु को उजागर किया है जिसके चलते पुरुष तो ख्याति पाता है परंतु उसके पीछे खड़ी स्त्री के बलिदान को कोई नहीं देख पाता। उन्होंने इस कहानी संग्रह के प्राक्कथन में कहा भी है- ‘कहते हैं कि प्राचीन भारत में, समाज की बात हो या फिर परिवार की, स्त्री का सर्वत्र आदर होता था, उसे देवी समझा जाता था, उसकी पूजा की जाती थी। किंतु स्री को किसी पूजा की आवश्यकता नहीं है। उसकी भी अपनी एक हस्ती है, यह सोचकर ढंग से व्यवहार करें, यही काफ़ी है। लोग उसके अतित्व और उसकी अस्मिता की कद्र करें, यही काफ़ी है। एक ओर स्त्री की पूजा की गई और दूसरी ओर अनादि काल से उसे मोहिनी के रूप में देखा गया।’</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">आशा है कि स्त्री समस्याओं, इच्छाओं और अभिलाषाओं को समझने में ये कहानियाँ सही संदेश देने में सफल होंगी।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;">पुस्तक विवरण</div><div class="separator" style="clear: both;">पुस्तक का नाम : चक्की [कहानी संग्रह]</div><div class="separator" style="clear: both;">लेखिका : डॉ. मुदिगंटि सुजाता रेड्डी [तेलुगु]</div><div class="separator" style="clear: both;">अनुवादक : डॉ. बी. सत्यनारायण [हिंदी]</div><div class="separator" style="clear: both;">मूल्य : १५० रुपए</div><div class="separator" style="clear: both;">प्रकाशक : मिलिंद प्रकाशन</div><div class="separator" style="clear: both;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>४-३-१७८/२, कंदास्वामी बाग</div><div class="separator" style="clear: both;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सुल्तान बाज़ार, हैदराबाद-५०० ०९५</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both;"><br />
</div><br />
<div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-15460353157707230142011-11-25T17:15:00.000+05:302011-11-25T17:15:56.936+05:30एक पुराना लेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><b><u style="background-color: #ea9999;">समीक्षक की व्यथा</u></b></span></div><br />
<br />
<div style="text-align: justify;">समीक्षक के पास पुस्तक भेजते हुए हर रचनाकार यह आशा करता है कि उसकी कृति पर समीक्षा तुरंत ही किसी पत्र-पत्रिका में छप जाय। समीक्षक के पास पुस्तक का पैकेट आते ही पहले तो वह कवर को घूरेगा, उलट-पुलट कर देखेगा कि किस लेखक, कवि, निबंधकार, कथाकार या ‘कलाकार’ [वही, जो अन्य की सामग्री चुराकर पुस्तकाकार बना देता है] ने इसे भेजा है या फिर किस प्रकाशक ने उसे प्रेषित किया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वैसे तो, पहले से ही समीक्षक के पास पुस्तकों का अम्बार लगा रहेगा जिन पर समीक्षा लिखना शेष है। परंतु दाल-रोटी की जुगाड़ में अभी उसे इतना समय ही कहाँ मिल पाता है कि पावती की सूचना ही रचनाकार को दे सकें! उस पर समय-असमय लेखकों के पत्र आते हैं जिनमें समीक्षा के छपने की सूचना पहुँचाने का अनुरोध होता है। अब उस भले-मानुस को कैसे समझाएँ कि "भैय्ये, समीक्षा छपवाना तो दूर, अभी लिखना तक भी नहीं हो पाया है।"</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">यह तो सभी जानते हैं कि समीक्षा का काम एक ‘थैंकलैस जॉब’ है। लेखक की आलोचना करो और सुझाव दो कि ऐसे लेखन पर अपना पैसा बर्बाद न करें तो वह नाराज़ हो जाएगा। उसके लिखने की त्रुटियों पर प्रकाश डालें तो वह समझेगा कि यह समीक्षक तो मास्टरी कर रहा है। पुस्तक पर कुछ ठीक-ठाक लिख कर पत्र-पत्रिका को भेजो तो संपादक महोदय की डाँट आती है कि ऐसी घटिया पुस्तकों की समीक्षा हम नहीं छापते। इसीलिए तो कभी-कभी रद्दी लेखक की पुस्तक पर भद्दी समीक्षा लिखकर भेजना होता है तो छद्मनाम का सहारा लेना पड़ता है। ठीक है, सम्पादक महोदय हस्तलिपि देख कर समझ जाएँगे कि इस रद्दी समीक्षा के कुख्यात समीक्षक कौन हैं परंतु पाठक के आक्रोश से तो बचा जा सकता है। अब ऐसे छद्मलेखन को प्रो. सियाराम तिवारी जी जैसे विद्वान इसे<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>‘आत्मविश्वास का अभाव या दुष्टता-जनित भीरुता’ का नाम ही क्यों न दे लें, पर समीक्षक के लिए तो है यह कोलगेट की सुरक्षा-चक्र जैसा सुरक्षित उपाय।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">समीक्षा लिखने का समय नहीं हो तो आवरण पृष्ठ देखकर ही भाई लोग कुछ लिख देते हैं और लेखक को भेज देते हैं। फिर भी यह एक्स्पेक्ट किया जाता है कि हम ही उसे किसी पत्र पत्रिका में छपवाएं! छपवाएं ही नहीं बल्कि छपने के बाद उसकी ज़ेराक्स कॉपी भी उन्हें प्रेषित कर दें। लो भला! गरीबी में आटा गीला’ शायद इसी को कहते हैं। इस महँगाई के दौर में अपना समय निकाल कर समीक्षा लिखना, अपने पैसे लगाकर पत्र-पत्रिका को पोस्ट करना और सम्पादक की तुनुक मिज़ाज़ी का खतरा उठाना; और फिर, दुर्भाग्य से छप गई, तो उस समीक्षा की ज़ेरोक्स कॉपी करा कर, पोस्टेज लगा कर लेखक को भेजना! इन सब में खर्चा ही खर्चा और समय की बरबादी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">समीक्षा लिखने के लिए इधर पुस्तक लेकर बैठे नहीं कि उधर से पत्नी की सदा सुनाई पड़ती है कि नून, तेल, लकड़ी का प्रबंध करने मार्केट जाना है। तब खाली जेब में हाथ डालते हुए यह खयाल बड़ी शिद्दत से आता है कि समीक्षा लिखने से कुछ पैसे मिल जाते तो कितना अच्छा होता। समीक्षा लिखने की साधना भी पूरी होती और पेट-पूजा के सामान का जुगाड़ भी हो जाता!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">समीक्षक तो जानता है कि उसे कागज़-कलम का इंतेज़ाम भी अपने पैसे से ही करना है। समीक्षा-लेखन तो ‘घर फूँक तमाशा देख’ से कम नहीं है। शुरु-शुरु की समीक्षा-छपास की प्यास बुझने के बाद शायद हर समीक्षक के मन में यही बात उभर कर उठती है- बाज़ आए हम समीक्षा लिखने से..., फिर भी, छपास की प्यास कहाँ बुझ पाती है!!</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">/६जून२००४/</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-2812607268812599233.post-84460795271291043722011-11-17T17:36:00.001+05:302011-11-17T17:36:04.284+05:30राजनीति और राष्ट्रीय पहचान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"><i style="background-color: #fff2cc;">[हैदराबाद की प्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती विनिता शर्मा जी [shabdam1.blogspot.com] की सुपुत्री डॉ. गीतिका कोम्मुरि की पुस्तक पर एक समीक्षा प्रस्तुत है। इतनी चिंतनपरक पुस्तक की रचना के लिए डॉ. गीतिका कोम्मुरी और श्रीमती व श्री शर्मा जी को बधाई। आखिर कौन माता-पिता ऐसी संतान पर गर्व नहीं करेंगे! ]</i></span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"><i><br />
</i></span></div><div style="text-align: center;"><b><u><span class="Apple-style-span" style="background-color: yellow; font-size: large;">भारतीय पहचान और सुरक्षा की राजनीति</span></u></b></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://www.island.lk/modules/modPublication/article_title_images/1640741184-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="article_image" border="0" height="320" src="http://www.island.lk/modules/modPublication/article_title_images/1640741184-1.jpg" style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 19px; margin-top: 0px; padding-bottom: 10px; padding-left: 10px; padding-right: 10px; padding-top: 10px; text-align: center;" width="212" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">डॉ. गीतिका कोम्मुरि अमेरिका की कैलिफ़ोर्निया स्टेट विश्वविद्यालय में सामाजिक शास्त्र पढाती हैं और वे भारतीय होने के नाते भारत के सामाजिक व राजनीतिक परिवेश से अच्छी तरह परिचित भी हैं। उन्होंने गम्भीर शोध करके अपनी पुस्तक ‘इंडियन आयडेंटिटी नेरेटिव्स एण्ड द पोलिटिक्स ऑफ़ सेक्यूरिटी’ में ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए जिन की रुचि न केवल शोधार्थियों को बल्कि विदेश नीतिधारकों को भी आकर्षित करेगी।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">डॉ. गीतिका कोम्मुरि ने इस पुस्तक में देश-विदेश के अंतस्संबंधों की जानकारी देते हुए बताया है कि देश की अपनी पहचान, आपसी व्यवहार और राष्ट्रीय हितों का विश्लेषण करते हुए विदेश नीति निर्धारित की जाती है। भारत में दो प्रकार की राजनीतिक सोच पनप रही है। एक तो धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर है और दूसरे धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के पक्षधर। मोटे तौर पर यदि राजनितिक पार्टियों की दृष्टि से देखें तो कांग्रेस और धर्मनिरपेक्ष कहलानी वाली पार्टियां एक ओर हैं तो दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा सहयोगी दल।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">इस पुस्तक में सन् १९९०-२००३ तक के घटनाक्रम को लेकर विश्लेषण किया गया है, जिसमें भारत-पाकिस्तान के सम्बंधों में पड़ रहे प्रभाव की जांच भी की गई है। साथ ही पाकिस्तान को लेकर भारत-चीन के आपसी सम्बंधों पर भी विस्तार से चर्चा की गई है। पुस्तक के प्रथम छः अध्यायों में राष्ट्रीय पहचान और सुरक्षा की राजनीति पर विस्तृत चर्चा है जिससे पाठक को अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने में सहायता मिलेगी।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">भारत और पाकिस्तान की सब से बडी गांठ है कश्मीर समस्या जिसमें अब चीन भी जुड गया है। भारत के लिए यह केवल आंतरिक समस्या है। साठ वर्ष की यह समस्या अब केवल इस बहस पर आ कर टिकी है कि जम्मू और कश्मीर को कितनी स्वायतता दी जाय और कैसे दी जाय। भारत की राजनीतिक पार्टियों के भिन्न विचारधारा [धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक-सांस्कृतिक नीति] के बावजूद उनमें दो राय नहीं रह गई हैं कि अब जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">डॉ. गीतिका कोम्मुरी ने अपने विश्लेषण के तार स्वातंत्रयोत्तर समय से जोडा है परंतु उत्तर-साम्राज्यवादी सिद्धांत को दरकिनार करते हुए पाश्चात्य विद्वानों की धारणाओं पर अपने निष्कर्ष निकाले हैं। जब विदेश नीति की बात आती है तो हर राजनीतिक पार्टी जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के प्रति वही विचार रखती और वही कदम उठाती है जो शायद आम जनता की अभिव्यक्ति भी करती है। इसका जीता-जागता उदाहरण लेखिका ने यह दिया है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और १९९९ में कारगिल युद्ध समाप्त हुआ था तो इस युद्ध को पूर्ण युद्ध होने से न केवल रोका गया बल्कि वाजपेयी जी ने लाहौर का दौरा भी किया और सद्भावना बनाए रखने में योगदान दिया।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">इस पुस्तक से न केवल आम पाठक को राष्ट्रीय पहचान और विदेशी नीति व सुरक्षा संबंधी जानकारी मिलेगी बल्कि विदेश नीति के निर्धारकों और इस विषय पर कार्य कर रहे शोधार्थियों को भी इस पुस्तक से लाभ मिलेगा, ऐसी आशा की जा सकती है।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">पुस्तक परिचय:</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">पुस्तक का नाम : इंडियन आयडेंटिटी नेरेटिव्स एण्ड द पोलिटिक्स ऑफ़ सेक्यूरिटी</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">लेखिका : डॉ. गीतिका कोम्मुरि</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">मूल्य : ७९५ रुपये</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">प्रकाशक : सेज पब्लिकेशन्स</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"> नई दिल्ली, भारत॥</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
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</div></div>चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.com15