[ डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी [अध्यक्ष एवं प्रोफ़ेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा] से बुढ़ापे पर जब बात चल पड़ी तो उन्होंने सिमोन द बउवा की एक अंग्रेज़ी पुस्तक का ज़िक्र किया और बताया कि इसका अनुवाद अभी तक हिंदी में देखने में नहीं आया है। उन्होंने कहा कि क्यों न इस पुस्तक का सार-संक्षेप हिंदी पाठकों के बीच रखा जाय और फिर यह कार्य मुझे सौंपा। तो प्रस्तुत है ‘बुढ़ापे’ का पहला भाग।]
बुढ़ापा
कभी वृद्धों को समाज और परिवार में सम्मान मिलता था, तब वृद्धावस्था को कोई समस्या के रूप में नहीं देखा जाता था। उस समय भी एक फ़्रांसिसी महिला चिंतक एवं साहित्यकार सिमोन द बुउवा ने इस विषय पर चिंतन करने के लिए कलम उठाई थी। जब इस विषय पर उन्होंने अपने कुछ साथियों से बात की तो यह कहते हुए उनका मज़ाक उड़ाया गया कि क्या यह भी कोई विषय है!
सिमोन को लोग समझाने में लगे रहे कि बुढ़ापा कोई यथार्थ नहीं है। लोग युवा होते हैं - कुछ अधिक युवा या कुछ कम, पर कोई बूढ़ा नहीं होता। उन्होंने देखा कि साहित्य में महिलाओं, बच्चों और युवाओं को केंद्र में रख कर काफ़ी साहित्य रचा गया है परंतु वृद्धों पर यदाकदा ही कहीं चर्चा हुई है। उनकी समस्याओं पर कहीं प्रकाश नहीं डाला गया है। सिमोन ने इस विषय पर समाज को झंकझोड़ने के लिए अपनी कलम उठाने का निश्चय किया और उसका परिणाम है उनकी फ़्रेंच कृति ‘ला विल्लेस’ जिसका अनुवाद अंग्रेज़ी में पैट्रिक ओ ब्रैन ने ‘ओल्ड एज’ नाम से किया है।
अपनी पुस्तक में सिमोन कहती है कि
" बूढ़े लोगों के मामले में यह समाज न केवल दोषी है बल्कि अपराधी भी है। फ़्रांस की बारह प्रतिशत जनता पैंसठ वर्ष पार कर चुकी है और इतनी बड़ी संख्या गरीबी, अपेक्षा और निराशा झेल रही है। अमेरिका में भी लगभग यही स्थिति है। मानवीय संवेदनाओं के साथ इस आबादी से बर्ताव का कोई प्रावधान उन राजनेताओं के पास नहीं है जो यह मानकर चलते हैं कि इनका वजूद ही नहीं है, क्योंकि उनकी कोई राजनीतिक आवाज़ नहीं है। यदि वे इस आवाज़ को सुनते तो इन नेताओं को पता चलता कि यह भी मानवीय स्वर ही है। मैं इस आवाज़ को अपने पाठकों तक ले जाऊँगी। मैं यह बताऊँगी कि वे किस तरह जी रहे हैं, मैं यह बताऊँगी कि उनके मन-मस्तिष्क में क्या विचार आ रहे हैं, और जो कुछ मैं कहूँगी वह किसी मिथक या बुर्जुआ संस्कृति से लिप्त नहीं होगा।
"बुढ़ापे को समाज में एक ही तरह से नहीं देखा जाता है। प्रायः बचपन से युवावस्था में कदम रखने की आयु १८ से २१ वर्ष की मानी जाती है जबकि बुढ़ापे में कदम कोई किस आयु में रखता है, इसकी लकीर कहीं भी नहीं खींची गई है। जीवन भर उसके राजनीतिक हक एवं कानूनी दायित्व वही रहते हैं। कानून भी चालीस और सौ वर्ष की आयु वाले में कोई अंतर नहीं करता।"
आज भी कानून वही है, जिसका ताज़ा उदाहरण भोपाल गैस त्रासदी के अभियुक्त एण्डरसन को अब नब्बे की आयु पार करने के बावजूद कानूनी कटघरे में ठहराने की बात हो रही है! सिमोन यही अहसास दिलाना चाहती है कि युवावस्था में की गई गलती की सज़ा क्या बुढ़ापा ढो सकता है?
आज का युवा समाज यह समझता है कि वह बूढों का बोझ ढो रहा है और यह भूल जाता है कि यही वृद्ध अपनी युवावस्था में उन बच्चों का भरण-पोषण करके उन्हें युवा बनाया है। युवा यह भूल जाते हैं कि उनके शरीर में भी बुढ़ापा छुपा है। युवा यह भी भूल जाते हैं कि बुढ़ों में भी वही आशाएँ व आकांक्षाएँ होती हैं, वही ज़रूरतें होती हैं और वही संवेदनाएँ होती हैं जो उन युवाओं में हैं। आज के मज़दूर संगठन भी अपने कामगरों की मांगों को लेकर लड़ते हैं पर कोई उन वृद्धों की चिंता नहीं करता जो कभी कामगर थे और न वह मालिक ही सोंचता है कि यही वृद्धों ने इस संस्था के लिए अपना खून-पसीना बहाया था।
सिमोन पूछती हैं कि
"जब इन वृद्धों में वही ख्वाहिशें, वही संवेदनाएँ और वही आवश्यकताएं हैं जो युवाओं की हैं तो फिर क्यों दुनिया इनको घृणा की नज़र से देखती है? इन में वही प्रेम, वही ईर्ष्या, वही अच्छाई और वही कामेच्छा, वही आक्रोश, वही मानवीय गुण हैं तो फिर इन बूढ़ों को अलग करके क्यों देखा जाता है? उनसे यह आशा क्यों की जाती है कि वे सज्जनता की ही प्रतिमूर्ति बने रहें? उनके सफ़ेद बाल देख कर क्यों यह आशा की जाती है कि वह साधू ही हो?"
प्रायः यह सोच होती है कि बूढ़ा कोई ऐसी हरकत न करे जो युवा करके भी बच निकलता है। ‘बूढ़ा होकर भी उसे शर्म नहीं आती ऐसी हरकत करते हुए’ - अकसर ऐसे शब्द-बाण सुनने में आते हैं। कभी कभी बच्चे भी बूढ़ों को चिढ़ाते, मज़ाक उड़ाते देखे जाते हैं। जो हो, समाज बुढ़ापे को एक अलग ही दृष्टी से देखता है। तभी तो फ़ॉस्ट ने कहा था- "सभी यथार्थों में शायद बुढ़ापा ही एक ऐसा भ्रम है जो हमारे जीवन में सबसे लम्बे समय तक रहता है।" हम उस समय तक इस भ्रम में रहते हैं कि हम कभी बूढ़े नहीं होंगे जब तक हमें खुद बुढ़ापे का अहसास नहीं हो जाता। यह भ्रम उन कर्मचारियों में साफ झलकता है जो अवकाश प्राप्त करने जा रहे हैं। यद्यपि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि उन्हें एक निश्चित दिन अवकाश ग्रहण करना है; फिर भी जब अवकाश का समय आता है तो वे उदास हो जाते है।
बुढ़ापे की त्रासदी देखकर युवा यह कहते सुने गए हैं कि ‘इससे तो मौत अच्छी’। परंतु बुढ़ापे के दस्तक देने पर कोई आत्महत्या नहीं करता। वह बुढ़ापे की त्रासदी को झेलता है। बचपन से युवावस्था में कदम रखने पर यह डर रहता है कि उनसे खेल-खिलौने छूट जाएँगे परंतु यौवन के लाभ ऐसे होते हैं कि आयु के साथ वे इस डर को भुल जाते हैं। यौवन में बुढ़ापे की सोच भी एक विपत्ति लगती है परंतु क्या हम इस नियति को टाल सकते हैं? किसी वृद्ध को देखकर हम अपनेआप को यदि उसकी स्थिति में रखकर देखना शुरू कर दें तो शायद बुढ़ापे की त्रासदी को झेलने की मनःस्थिति में आ सकते हैं। तब बुढ़ापे में तिरस्कार की मानसिकता से आहत होने की प्रवृत्ति से बचा जा सकता है और परिस्थितियों से समझौता करना सरल हो जाता है।
बूढों को तिरस्कृत करके घर के किसी कोने में ‘फेंकने’ की बजाय उन्हें उचित सम्मान दिया जाना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो ऐसा समय भी आ सकता है जब समाज की जडें ही हिल जाय। सिमोन का मानना है कि
"गांधी जी ने जाति प्रथा को समाप्त करने का आंदोलन चलाया, चीन ने ज़मीनदारी प्रथा को नष्ट किया और नारी को आज़ाद किया। इसी प्रकार व्यक्ति को अपने अंतिम जीवन काल में भी मनुष्य बना रहने के लिए समाज को झंझोडने की आवश्यकता है। वृद्धावस्था की त्रासदी का निवारण कुछ कानून बनाने से नहीं होगा, वह भी ऐसे समाज में जहाँ मज़दूरों का शोषण है, जहाँ समाज में संस्कार और नैतिकता का पतन हो रहा है और मुट्ठी भर धनी गरीबों का शोषण कर रहे हों।"
बुढ़ापे को एक नई दृष्टि से देखने की आवश्यकता है, एक ऐसी दृष्टि से जिसमें संवेदना है और बूढ़ों के लिए आदर व सम्मान का जीवन देने की आकांक्षा है। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
10 टिप्पणियां:
बुढ़ापे की चिन्तनपूर्ण आख्या। सुन्दर अनुवाद।
लाइफ एक्सपेकतेंसी बढ़ने के साथ बुजुर्गों की संख्या भी बढ़ रही है । इससे समाज का उत्तरदायित्त्व भी बढ़ जाता है । सही है , युवा समाज को वृद्धो का यथा उचित ख्याल रखना चाहिए ।
युरोप मै तो फ़िर भी सरकार देख भाल करती है, क्योकि जब यहा युवा अपने बच्चो की देख भाल नही करते तो, बच्चे भी अपने मां बाप की देख भाल नही करते, लेकिन भारत मै तो सभी मां बाप अपने ब्च्चो का ही सोचते है देख भाल करते है फ़िर ऎसी ओलाद कहां से आने लगी जो मां बाप को बोझ समझे.... सच मै यह नालयक ओलाद ही है, इस से अच्छा ना हो
बढिया लगा पढना ।
इस आलेख में सार्थक शब्दों के साथ तार्किक ढ़ंग से विषय के हरेक पक्ष पर प्रकाश डाला गया है। विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है।
सही है। अच्छा सार-संक्षेप प्रस्तुत किया है। शुक्रिया है।
बढ़िया विषय चुना अनुवाद के लिए प्रसाद जी , मगर मुझे तो नहीं लगता कि इसमें सुधार आयेगा, बल्कि मैं समझता हूँ कि जिस तरह आज की सामजिक व्यवस्था सिकुड़े और न्यूक्लियर परिवारों के बीच पिस रही है, निकट भविष्य में यह और विकराल होगी ! इसलिए सभी बुढ्ढे लोगो को चाहिए कि अगर वे अपना वृधा जीवन सुखमय गुजारना चाहते है तो उन्हें राजनीति में उतर जाना पडेगा ! अब देखिये न घाट पर जाने को तैयार बैठे है फिर भी क्या ठाठ कर रहे है ये हरामखोर !
धन्यवाद इस आलेख के लिए. चिन्तन मांगता है यह आलेख.
एक बहुत आवश्यक मगर उपेक्षित विषय ! आपका आभार
बूढों को तिरस्कृत करके घर के किसी कोने में ‘फेंकने’ की बजाय उन्हें उचित सम्मान दिया जाना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो ऐसा समय भी आ सकता है जब समाज की जडें ही हिल जाय।
सच में ये एक चिंतन का विषय है .....आज जो बुजुर्गों की स्थिति बड़ी ही दयनीय है ....
उनकी तो और भी ज्यादा इनके पास दौलत नहीं ..... !!
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