बुढ़ापा और जीवविज्ञान [२]
[ डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी [अध्यक्ष एवं प्रोफ़ेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा] से बुढ़ापे पर जब बात चल पड़ी तो उन्होंने सिमोन द बउवा की एक अंग्रेज़ी पुस्तक का ज़िक्र किया और बताया कि इसका अनुवाद अभी तक हिंदी में देखने में नहीं आया है। उन्होंने कहा कि क्यों न इस पुस्तक का सार-संक्षेप हिंदी पाठकों के बीच रखा जाय और फिर यह कार्य मुझे सौंपा। तो प्रस्तुत है ‘बुढ़ापे’ का दूसरा भाग।]
विज्ञान की प्रगति जब से हुई है, वैज्ञानिकों का एक ध्येय यह भी रहा है कि आयु को वश में करके बुढ़ापे पर जीत हासिल की जाय। प्राचीन काल में विभिन्न रोगों के लिए औषधियों की खॊज की जाती रही और जब औषधि काम न आती तो जादूगरी, टोना-टोटका आदि का सहारा लिया जाता था। चिकित्सा के इस इतिहास में बुढ़ापे पर दृष्टि डालते हुए सिमोन द बउवा कहती हैं:
"हिपोक्रेटस ने मानव जीवन की प्रकृति के चार मौसमों से तुलना करते हुए कहा था कि बुढ़ापा शीतकाल की तरह होता है। बुढ़ापे में कम अन्न की आवश्यकता होती है, सांस फूलने लगती है, सर्दी-खाँसी, लघुशंका की कठिनाई, घुटनों में दर्द, गुर्दों की बीमारी, खाज-खुजली; आंतो, आंखों और कानों से जल प्रवाह... इन सब के बावजूद वे कहते हैं कि बूढ़ों को अपना कार्य निरंतर करते रहना चाहिए।"
चिकित्सा के इतिहास को उकेरते हुए सिमोन आगे बताती हैं-
"दूसरी सदी में गेलन ने बुढ़ापे को बीमारी और स्वास्थ्य के बीच की कडी कहा था। तेरहवीं शताब्दी में रोजर बेकन ने बुढ़ापे को बीमारी की तरह देखा था। दृष्टि की कमज़ोरी को दूर करने के लिए उन्होंने मेग्निफ़ाइंग लेंस की ईजाद की थी। मध्य युग में नकली दांत लगाने के लिए पशुओं के शरीर का प्रयोग किया जाता था। पंद्रहवीं सदी के अंत में चिकित्सक ज़ेर्बी ने बुढ़ापे पर पहला विनिबंध ‘जेरेन्टोकोमिया’ नाम से प्रस्तुत किया था।
"शरीर को जानने के लिए शरीर के भीतर के अंगों को जानना ज़रूरी है। पंद्रहवी शताब्दी तक तो मानव शरीर को चिकित्सक जानकारी के लिए भी वर्जित मानते थे। प्रसिद्ध कलाकार लियोनार्डो डा विंची आधुनिक शारीर के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने स्वीकारा था कि मानव शरीर की सही जानकारी के लिए दस शव काटे थे और अपने जीवन के अंत तक उन्होंने तीस शरीरों को काटा जिनमें कुछ वृद्ध भी थे। उनके चेहरों का रेखांकन करके उन्होंने भीतर की नसों व आंतों,अंतडियों का खाका खींचा था। इस विषय पर लिखी उनकी टिप्पणियां उनके मरणोपरांत मिलीं।
"अठारहवीं सदी में गेलन के अनुयायी जेराल्ड वॉन स्वीटन ने बुढ़ापे को असाध्य रोग माना और इस अवस्था में हो रहे शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन किया। वह समय ऐसा था जब चिकित्सा के क्षेत्र में काफी उथल -पुथल हो रही थी। रूस में फिस्चर ने वृद्धावस्था में हो रहे अंगों के क्षरण तथा मानसिक मंदी पर विस्तार से विचार प्रस्तुत किए। इटली के मोरगनी, अमेरिका के रश, जर्मनी के हफ़लैण्ड ने वृद्धावस्था के कारणों की पड़ताल की थी।
"उन्नीसवीं शताब्दी में शरीर-क्रिया विज्ञान [फ़िज़ियालोजी] के शोध में काफी प्रगति हुई। १८१७ में रोस्टन ने बूढ़ों में अस्थमा और उससे जुडे मस्तिष्क पर पड़ते प्रभाव पर निबंध प्रकाशित किया। १८४० में प्रूस ने वृद्धों की बीमारी पर शोध प्रबंध प्रस्तुत किया। १८५० तक पहुँचते-पहुँचते जरा-चिकित्सा [जेरियाट्रिक्स] का आरम्भ हुआ यद्यपि इसका यह नामकरण नहीं किया गया था। फ़्रांस में वृद्धों के लिए बड़ी सस्थाएं खोली गईं। सालपेट्रीर में आठ हज़ार बीमार रखे गए जिनमें दो-तीन हज़ार वृद्ध थे। यहीं पर शारकोट ने बुढ़ापे पर अपने प्रसिद्ध व्याख्यान दिए थे जिनका प्रकाशन १८८६ में किया गया था। इसी समय से बूढ़ों की चिकित्सा का गम्भीर प्रयत्न प्रारम्भ हुआ। इसका एक कारण यह भी था कि फ़्रांस में बूढ़ों की तादाद बढ़ती जा रही थी। अन्य देशों की भी लगभग यही स्थिति थी।
"बीसवीं सदी के आरम्भ से शोध कार्य में और तेज़ी आई। १९०८ में रौज़ियर और १९१२ में पिक एवं बमामो ने फ़्रांस में वृद्धावस्था से सम्बंधित शोध पत्र प्रकाशित किए। उधर जर्मनी में बुर्जर, अमेरिका में मिनोट एवं मेचनिकोफ़ ने भी वृद्धों की स्थिति पर शोध कार्य किया।
"कुछ वैज्ञानि कों का मानना है कि बुढ़ापे का एक ही कारण हो सकता है। उन्नीसवी सदी के अंत तक भी यही समझा जाता था कि लैंगिक ग्रंथियों की कमज़ोरी के कारण आयु के साथ स्वास्थ्य में गिरावट आती जाती है। बीसवीं शताब्दी के आते-आते कज़ालिस ने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि व्यक्ति धमनियों के जितना बूढ़ा होता है। उनके विचार में हड्डियों का हस्तिपट [artherosclerosis] आयु का निर्धारित कारक होता है।
"जेरियाट्रिक्स के पिता कहे जाने वाले अमेरिका के नेशर को एक वृद्धा अपनी बीमारी के बारे में बताने लगी तो उन्होंने पूछा -‘क्या किया जा सकता है?’ तो उस बुढ़िया का उत्तर था - कुछ भी नहीं। इस उत्तर से अवाक नेशर ने बुढ़ापे पर अध्ययन करना शुरू किया। इसके लिए वे वियना के वृद्धाश्रम में गए तो देखा कि वहाँ के बूढ़े स्वस्थ जीवन जी रहे हैं। इसका कारण पूछने पर बताया गया कि "हम इन वृद्धों की बच्चों की तरह देखभाल करते हैं।" इसे देख नेशर ने चिकित्सा की एक अलग शाखा खोली जिसे उन्होंने जेरियाट्रिक्स नाम दिया। १९१२ में उन्होंने न्यूय़ार्क में सोसाइटी ऑफ़ जेरियाट्री की स्थापना की। जब उन्होंने इस विषय पर एक पुस्तक निकालने की योजना बनाई तो कोई भी प्रकाशक इसे प्रकाशित करने के लिए तैयार नहीं हुआ। कारण था कि यह विषय रोचक नहीं है !!
"अब एक और शाखा की स्थापना हुई जिसे जेरोन्टालोजी कहा गया है। इसमें आयु के बढ़ने के कारण शरीर में हो रहे बदलावों पर शोध हो रहा है। अमेरिका में वृद्धों की तादाद १९०० से १९३० के बीच दुगनी हो गई और १९३०से १९५० तक पहुँचते-पहुँचते फिर दुगनी हो गई। औद्योगिक क्रांति के कारण वृद्धों की संख्या शहरों में तेज़ी से बढ़ने लगी। इससे बूढ़ों की समस्याओं की ओर चिकित्सकों और समाज सेवियों का ध्यान अधिक केंद्रित होने लगा।
"जेरिन्टोलोजी का विस्तार तीन स्तरों पर होने लगा- जैविक, मानसिक और सामाजिक। आधुनिक विज्ञान यह मानता है कि वृद्धावस्था का कोई एक कारण नहीं है, यह जीव-प्रक्रिया का हिस्सा है। इसलिए हर जीव अपनी-अपनी अवस्था के कारण लघु या दीर्घायु पाता है। आयु का आकलन उसके आकार-प्रकार से प्रतीत होता है; सफ़ेद बाल, कम बाल, झुर्रियां, दाँतों का गिरना, महिलाओं की ठुड्डी पर बालों का उगना आदि ऐसे चिह्न हैं जो आयु का पता देते हैं। बाहरी बदलाव के साथ शरीर में भीतरी बदलाव भी होते हैं। रक्त-चाप, मानसिक मंदी, हड्डियों और मांसल हिस्सों में बदलाव, श्रवण और दृष्टिशक्ति में क्षीणता कुछ ऐसे लक्षण हैं जो वृद्धावस्था को प्रमाणित करते हैं।
"बुढ़ापे के साथ कमज़ोरी और बीमारी आ ही जाती है। जैसे कभी जॉनसन ने कहा था-"मेरी बीमारी अस्थमा और ड्राप्सी[जलशोफ़] है और जो असाध्य है वह है मेरी पचहत्तर वर्ष की आयु।" मानसिक क्षीणता और कमज़ोरी के कारण बूढ़ों में दुर्घटनाओं की अधिकता पाई जाती है। इन सबके बीच यह नहीं कहा जा सकता कि कोई किस आयु में वृद्ध कहलाएगा।
"आधुनिक विज्ञान का मानना है कि जब तक मानसिक बल और संतुलन है, तब तक व्यक्ति वृद्धावस्था को नहीं पहुँचता। जैसा कि अमेरिकी जेरिन्टोलोजिस्ट होवेल ने कहा है कि ‘बुढ़ापा ऐसी ढलान नहीं जिस पर सभी समान रूप से फिसलते जाते हैं। वो ऐसी उबड़-खाबड़ सीढ़ियां हैं जिन्हें चढ़कर कोई जल्दी पहुँचता है तो कोई देर से।’"
सिमोन ने वृद्धावस्था के इतिहास पर जो श्रमसाध्य, गम्भीर शोध प्रस्तुत किया, वह सराहनीय एवं स्तुत्य है।
6 टिप्पणियां:
बुकमार्क कर लिया है..बहुत जरुरी है.
गजब की जानकरी प्रदान कर रहे हैं आप, पता नहीं और कहीं पढ़ने को मिलता भी कि नहीं , लेकिन बहुत मेहनत कर रहे हैं, पिछले भाग की तरह ये भाग भी लाजवाब रहा , आभार आपका ,।
इस जानकारी के लिये धन्यवाद
बुढ़ापा ऐसी ढलान नहीं जिस पर सभी समान रूप से फिसलते जाते हैं। वो ऐसी उबड़-खाबड़ सीढ़ियां हैं जिन्हें चढ़कर कोई जल्दी पहुँचता है तो कोई देर से।’"
बहुत सही बात कही है ।
आभार इस सुन्दर लेख का ।
Very nice and informative post .
"जबतक मानसिक बल और संतुलन है, तब तक व्यक्ति वृद्धावस्था को नहीं पहुँचता।"
मुझे उम्मीद है की आप इसका कड़ाई से पालन कर रहे है ! :)
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