बुढ़ापा : ‘ओल्ड एज’ - सिमोन द बउवा [9] `Old age' - Simone de Beauvoir
Old age - Simone de Beauvoir - बुढ़ापा [9] - सिमोन द बुवा
बुढ़ापा- कुछ उदाहरण
बुढ़ापे में व्यक्ति की क्या मनःस्थिति होती है और वह किन परिस्थितियों में दिन बिताता है, यह उसके उस जीवन पर आधारित होता है जो उसने अपनी युवावस्था और मध्यवय में बिताया है। जो मध्यवयी अपने भविष्य की सोच कर भावी कार्यक्रम बना लेता है उसे वृद्धावस्था में कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जिसने यह समझ लिया कि वह आजीवन युवा ही रहेगा, उसे वृद्धावस्था में मानसिक एवं आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। कुछ लब्धप्रतिष्ठित यूरोपीय व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए सिमोन द बुवा ने अपनी पुस्तक ‘ओल्ड एज’ में बताया है-
"वृद्धावस्था में यदि कोई आर्थिक और मानसिक कष्टों में नहीं है तो उस व्यक्ति का अंतिम पड़ाव आराम से गुज़र जाता है। इस आर्थिक और मानसिक दृढ़ता के लिए ऐसा व्यक्ति अपनी मध्य आयु से ही योजना बनाने लगता है। वॉल्टेयर ने अपने खुले दिमाग के कारण बुढ़ापा आराम से बिताया जबकि छटोब्रैंड का अंतिम जीवन निराशापूर्ण रहा। स्विफ़्ट के आक्रोश ने उन्हें दुख दिया तो व्हिटमैन की आशावादी सोच ने उनकी मुसीबतें कम कीं। कोर्नेरो और फ़ोंटेनेल ने अपने संतुलित जीवन से अंतिम समय को आनंदपूर्ण बनाया। विक्टर ह्यूगो ने युवावस्था में ही अपने लेखन में वृद्धों को सम्मानजनक स्थान दिया और वही सम्मान उन्हें अपने बुढ़ापे में मिला।
"चौदह वर्ष की आयु में ही छटोब्रैंड इतने घमण्डी थे कि उन्होंने लिखा था कि भविष्य में मैं केवल छटोब्रैंड ही रहना चाहता हूँ और कुछ नहीं। वे नेपोलियन को अपना आदर्श मानते थे। ह्यूगो में एक कवि, संत और उपदेशक की सोच थी जिससे सृजन की दुनिया में वे एक आदर्श मिसाल बने। १८५२ में ह्यूगो ने लेखन से संन्यास ले लिया और साहित्य के क्षेत्र में एक उदाहरण बन गए।
"अपने बुढ़ापे में ह्यूगो एक स्वस्थ पुरुष रहे। १८७८ तक भी उनका आरोग्य सामान्य रहा। १८७७ में फ़्लाबर्ट ने उन्हें देखकर कहा था- ‘यह बूढ़ा तो और जवान और खुशमिजाज़ हो गया है!’ १८६९ में ह्यूगो ने एक पत्र में लिखा था- ‘ओह! मैं स्वस्थ हूँ, मैं बूढ़ा नहीं हो रहा हूँ पर चौड़ा हो रहा हूँ और यही मुझे करीब आनेवाली मृत्यु की याद दिलाता है। आत्मा का प्रमाण क्या है! शरीर का क्षरण, मस्तिष्क की क्षीणता और बुढ़ापे का फूल उठना ।’
"ह्यूगो के जीवन में दुखद घटनाएँ भी घटीं पर उन्होंने इनसे उबर पाने की मानसिकता बनाए रखी । १८६८ में उनकी पत्नी का निधन हो गया। उनके पुत्र चार्ल्स की मृत्यु रक्ताघात से हो गई थी। उन्हें उस समय तब क्रोध आया जब छह हज़ार कैदियों को चौंसठ बंधकों के लिए मार दिया गया था। उन्होंने घोषित किया कि वे इन कैदियों को संरक्षण देंगे तो बेल्जियम की सरकार ने उन्हें शहरबदर कर दिया। वे लक्ज़ेम्बर्ग चले गए पर अपना विरोध जारी रखा। १८७२ के चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा, तो वे गुर्न्से चले गए और फिर १८७३ में पेरिस लौट आए।
"ह्यूगो को मित्रों के बीच अपना लेखन पढ़कर सुनाने में आनंद आता था। अपने को युवा बताते हुए वे कहा करते थे- ‘मैं ७४ का हूँ और अब अपना जीवन प्रारम्भ कर रहा हूँ।’ वे अपनी संतान के लिए क्रूर पिता थे पर पौत्रों से बहुत स्नेह करते थे। अपने इस स्नेह पर वे कहा करते थे- ‘चालीस वर्ष तक मैं अपने बादशाहों से लडा और जीता भी; पर अब देखो इन बच्चों से हार गया हूँ।’
"वृद्धावस्था में ह्यूगो कुछ कंजूस हो गए थे और अपनी जमापूंजी को देखकर प्रसन्न हुआ करते थे। उनका ७९वाँ जन्मदिन एक राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाया गया। छह लाख लोग उनके घर पहुँचे और उस सड़क का नाम विक्टर ह्यूगो एवन्यू रखा गया। जब वे संसद में पहुँचे तो सदस्यों ने उठकर उनका स्वागत किया और इस स्नेह को देख उनकी अश्रुधारा बह निकली।
"ह्यूगो को अपनी पत्नी जूलियट के देहांत से बड़ा आघात लगा। उन्होंने कहा- ‘मेरे जीवन में इतना बड़ा आघात आया पर क्या कर सकता हूँ जब तक मृत्यु न आ जाए। अब जीवन में कोई सार नहीं, कोई खुशी नहीं।’ इसके बाद उनका शरीर दुर्बल हो गया, श्रवणशक्ति क्षीण होने लगी, उनकी आँखों में एक भय प्रतीत होने लगा और उन्होंने लेखन कार्य करना बंद कर दिया। वे मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। उनका मानना था कि आत्मा अमर है और मृत्यु का अर्थ है ईश्वर से मिलन। अपने एक मित्र से उन्होंने कहा था- ‘मैं बूढ़ा हूँ, मैं मरने वाला हूँ... मैं ईश्वर से मिलूंगा... कितना सुंदर होगा यह मिलन। मैं इसकी तैयारी में हूँ।’ ८३ वर्ष की आयु में उनका ‘यह मिलन’ सम्भव हुआ।"
विक्टर ह्यूगो का अंतिम जीवन शांतिपूर्ण और संतोषजनक रहा। परंतु ऐसा सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता। जीवन में अर्जित ख्याति बुढ़ापे तक आते-आते या तो लुप्त हो जाती है या कष्टदायक बन जाती है।ख्याति लुप्त हो गई तो व्यक्ति का अंत निराशापूर्ण होगा और ख्याति मिलती रही तो मनुष्य को चैन की सांस लेने का समय भी नहीं मिलता। दोनों स्थितियों में व्यक्ति कष्ट झेलते हुए अपना बुढ़ापा बिताता है। ऐसे ही कुछ उदाहरण प्रस्तुत करती हैं सिमोन-
"माइकल एंजिलो और वेर्डी ऐसे लब्धप्रतिष्ठित नाम हैं जो अपने अपने क्षेत्र में जीवन के अंतिम क्षणों तक काम करते रहे पर उनके अंतिम क्षण निर्भ्रांत रहे। यह कहा जा सकता है कि
माइकल एंजिलो
अस्वस्थ ही पैदा हुए थे। आयु के साथ चिंता ने उनके स्वास्थ्य को और घेर लिया। वृद्धावस्था में वे अपने शरीर और लोगों से लगातार संघर्ष करते रहे। तीस वर्ष तक
माइकल एंजिलो
जूलियस द्वितीय के स्मारक के निर्माण कार्य में जुटे रहे। इस स्मारक की पूरी रूपरेखा तैयार हुई और इसके लिए दस मूर्तियां भी लगभग तैयार हो चुकी थी, तब जुलियस के वंशजों ने उसे पूरा होने से रोका। उस समय पॉल तृतीय को पोप बनाया गया था। उन्होंने सिस्तीन चैपल की एक दीवार पर ‘लास्ट जजमेंट’ की कलाकृति बनाने का कार्य
माइकल एंजिलो
को सौंपना चाहा जिसे वे नकार नहीं पाए। परिणाम यह हुआ कि १५४०-४१ के बीच उन्हें अनिद्रा और चक्कर के दौरे पड़ने लगे। उस समय वे ६५ वर्ष के थे। २५ दिसम्बर १५४१ को जब ‘लास्ट जजमेंट’ को लोकार्पित किया गया तो उन्हें अत्यधिक ख्याति मिली। तब पॉल तृतीय ने उन्हें पॉलीन चैपल के लिए चित्रकारी करने का आदेश दिया। तब तक
माइकल एंजिलो
काफी थक चुके थे और अब उनके लिए यह कार्य
दुष्कर
लग रहा था। उधर जुलियस द्वितीय के उत्तराधिकारी उस स्मारक पर अत्यधिक धन लगाने का आरोप मढने लगे और धन वापसी के लिए हड़काने लगे। पोप ने उनसे इस वित्तीय संकट से उबरने के लिए चित्रकारी करने की सलाह दी। तब उन्होंने कहा था- ‘कलाकार अपने मन से काम करता है, हाथों से नहीं। जिसका मन ही अशांत हो, वह क्या उत्तम परिणाम दे सकेगा।’ वे अपनेआप को अधिक कमज़ोर महसूस कर रहे थे और मृत्यु का भय उन पर छाया हुआ था। उनके मित्रों ने उन्हें ढाढ़स बंधाया। केवलेरी ने उनका साथ अंत तक दिया। विट्टोरिया कलोन्ना से उनका निकट का सम्बंध था और वह कला की अच्छी पारखी थी। १५४९ में पॉलीन चैपल का कार्य समाप्त होने के बाद उन्होंने चित्रकारी का काम छोड़ दिया और केवल वास्तुकला और मूर्तिकला के लिए समय देने लगे। १५५५ में परम मित्र उर्बिनो की मृत्यु ने एक बार फिर उन्हें भयग्रस्त कर दिया, यद्यपि उन्होंने कहा था- ‘जीवित था तो वह मेरा जीवन था, मृत्यु से उसने मुझे मरना सिखा दिया, अब मुझे मौत का कोई डर नहीं है।’ वे उदास व बीमार रहने लगे और कमज़ोरी ने उन्हें घेर लिया। अम्मनाटी को १५५८ में लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा था- ‘अब मैं बूढ़ा, अंधा व बहरा हो चुका हूँ, मेरे हाथ मेरे शरीर के वश में नहीं है।’ १५६१ में, वे ८६ वर्ष की आयु में हृदयाघात से पीड़ित हुए और ८८ वर्ष की आयु में उन्होंने प्राण त्याग दिए।"
इस प्रकार, एक उच्च कोटि के कलाकार-चित्रकार के दुखद जीवन का अंत हो गया। चित्रकार चला गया परंतु चित्रकारी अमर हो गई। तभी तो कहा जाता है चित्रकार और चित्रकारी एक साथ जीवित नहीं रहते। कलाकार के बाद भी कला की चर्चा चलती रहती है, कला चाहे जो भी हो। एक ऐसे ही प्रसिद्ध कलाकार थे वेर्डी जिन्होंने नाटकों के माध्यम से लोगों के मन में स्थान बना लिया था। इस कलाकार की वृद्धावस्था के बारे में सिमोन अपनी पुस्तक ‘ओल्ड एज’ में बताती है-
"अपने स्वस्थ जीवन के कारण वेर्डी अपनेआप को वृद्ध नहीं समझते थे। इसलिए जब वे ६८ वर्ष के हुए तो मिलान के स्काला में उनकी मूर्ति लगाई गई पर वे यह कहते हुए नाराज़ हो गए कि ‘इसका यह अर्थ है कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ.... मैं इसे नकारता हूँ।’ उनकी कला विश्वविख्यात थी और उन्हें इटली का राष्ट्रीय प्रतीक माना जाता था। जहाँ भी वे जाते, लोगों की कतार ताली बजाती। ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती गई, त्यों-त्यों तालियों की यह गड़गड़ाहट कम होती गई। इस तल्खी को मिटाने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी के साथ गाँव में रहना शुरू किया। अपनी ज़मीन पर एक अस्पताल का निर्माण भी किया; परंतु मन की उदासी नहीं गई। वे कहते- ‘पैदा हुए, जीवन मिला और फिर गायब हो गया... आयु हावी हुई, बीमारी और कमज़ोरी ने दबोचा, और फिर....... आमीन। इतनी मेहनत का अंजाम, मृत्यु!’ अपनी ७२वीं वर्षगांठ पर उन्होंने कहा- ‘आज का दिन भयानक है- मैं ७२ वर्ष का हो गया हूँ। कितनी जल्दी समय उड़ गया उन प्रसन्न और अप्रसन्न घटनाओं के बीच। ऐसे में किसी कंधे के सहारे की ज़रूरत महसूस होती है। कुछ वर्ष पूर्व मैं समझता था कि मैं अपने पैरों पर खड़ा रह सकता हूँ और मुझे किसी की आवश्यकता नहीं है। धृष्ट जंतु! अब मैं समझने लगा हूँ... मैं बूढ़ा हो रहा हूँ।’
"कला की दुनिया में पचास वर्ष पूरे करने पर वेर्डी को विश्व भर के लोगों की बधाइयाँ मिलीं जिसे उन्होंने फिज़ूल का बवाल बताया। इस अवसर पर उन्होंने अपने साजिंदों के लिए एक आरामघर बनवाया। १९०१ में वे लिखते हैं कि ‘डॉक्टरों का मानना है मैं स्वस्थ हूँ, पर मैं जानता हूँ कि अब मैं पढ नहीं सकता, लिख नहीं सकता, कम दिखाई देता है, अपने पैरों पर खड़ा नहीं रहा जाता और मैं जल्दी थक जाता हूँ। मैं जीवित नहीं हूँ.... केवल विद्यमान हूँ। अब मेरे लिए इस दुनिया में कुछ नहीं रह गया है।’ कुछ समय बाद उन्हें पक्षाघात हो गया।"
कभी-कभी बुढ़ापा बिना दस्तक दिए आ जाता है। अधेड़ कब बूढ़े में बदल गया, इसका पता ही नहीं चलता।अधेड़पन की मानसिक और भावुक व्यस्तताओं में आयु के बोझ का पता ही नहीं चलता। एक ऐसा ही उदाहरण थीं लौ अंद्रियास-सलोमी, जिसके बारे में सिमोन बताती हैं-
"नीत्शे , रिल्के और अन्य बुद्धिजीवियों की साथी थीं लौ अंद्रियास- सलोमी जो पचास वर्ष की आयु में फ़्रॉयड की दोस्त बनीं । वे एक जिज्ञासु, इच्छाशक्तिवृत्ति, सक्रिय महिला थीं जिन्हें जीवन से बेहद लगाव था। यौन भावना के महत्व को उन्होंने ३५ वर्ष की आयु में जाना और तब से ही यौन भावना व कला के बीच बंधे रिश्तों को पहचाना था। जब वे साठ वर्ष की हुईं तब मनोविश्लेषण का गहन अध्ययन किया और मनोरोग चिकित्सक के कार्य में आनंद लेने लगीं । जर्मनी के एक बड़े ग्राम्य आवास में वे रहने
लगीं
जहाँ उनकी सेवा एक वृद्ध नौकर किया करता था। फ़्रॉयड की कृतज्ञता में एक पुस्तक भी लिखी, जिस पर उन्हें बहुत प्रशंसा मिली। जीवन के अंतिम दिनों में विश्व के राजनीतिक पटल पर नाज़ियों का वर्चस्व चल रहा था और वह एक यहूदी थी, इसलिए वे एक शांत और एकांत जीवन बिताने
लगीं
। उनका शरीर कमज़ोर पड़ने लगा। अंत में मधुमेह और कैंसर की शिकार हो गईं । दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर कोनिग से उनकी लम्बी वार्ता होती थी और उनसे वे काफी प्रभावित थीं । इसलिए उन्होंने अपनी साहित्यिक सम्पत्ति का पूर्ण अधिकार प्रो. कोनिग को दे दिया। जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने कहा था- ‘सारा जीवन मैंने कुछ नहीं.. बस काम किया; अब जब सोचती हूँ कि किस लिए? अपने विचारों में भटकती हूँ तो मुझे कोई नहीं मिलता, बस मृत्यु ही श्रेयस्कर लगती है।’ ५ जून १९३७ को निद्रावस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई।"
जीवन के अंतिम मोड़ पर सभी इतने भाग्यशाली नहीं होते कि उन्हें मृत्यु बिना किसी आहट या दस्तक के मिल जाय। ऐसा भी होता है कि सारा जीवन हँसते खेलते बीत जाता है पर बुढ़ापा मुसीबतें लेकर आता है। फ़ॉयड का जीवन इसका उदाहरण है जिन्हें राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण वृद्धावस्था में कष्ट झेलना पड़ा। उनके जीवन को उकेरते हुए सिमोन बताती हैं-
"फ़्रॉयड एक सशक्त मौलिक चिंतक के साथ साथ अच्छे कार्यकर्ता भी रहे। अपने विचारों को मनवाने की सलाहियत भी उनमें थी। वे एक निर्भीक और न झुकनेवाले चरित्र थे जो एक अच्छे पति और स्नेही पिता थे। परंतु राजनीतिक घटनाक्रम कुछ इस प्रकार चला कि उन्हें बुढ़ापे में कष्ट झेलना पड़ा। १९२८ में नाजी उनके घर की तलाशी लेने पहुँचे पर उनकी तीव्र दृष्टि से ही काँप उठे थे।
"१९२२ में फ़्रॉयड को ६६ वर्ष की आयु में हृदयाघात हुआ तो उन्हें लगा कि वृद्धावस्था ने उन्हें दबोच लिया है; तब से उन्हें मृत्यु का भय सताने लगा। अगले वर्ष कैंसर के अनुमान में उनके तालु की शल्यचिकित्सा की गई।उन्होंने अपने डॉक्टर से कहा था कि उन्हें सहिष्णु मृत्यु दें न कि कष्टदायी लम्बी आयु। इसके एक माह बाद उनके चार वर्षीय नाती का देहांत हो गया। [तीन वर्ष पूर्व उनकी पुत्री और इस बच्चे की माँ की मृत्यु हो गई थी।] यही एक समय था जब उन्हें लोगों के सामने खुल कर रोते हुए देखा गया था। अब उन्हें जीवन में कोई सार दिखाई नहीं देता था।
"१० मई १९२५ को फ़्रॉयड ने अपने पत्र में सलोमी को लिखा था- ‘मेरे इर्दगिर्द एक असंवेदनशीलता की चादर घिरी लगती है। मुझे इससे शिकायत भी नहीं है क्योंकि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, एक शुरुआत पंचतत्व में लीन होने की! इस बुढ़ापे में हमें निर्लिप्त रहना चाहिए।’ अपनी आत्मकथा लिखना प्रारम्भ ही किया था कि उन्हें एक और ऑपरेशन झेलना पड़ा। उनके तालु और जबडे को निकाल कर एक यंत्र लगाया गया। इससे उन्हें शारीरिक और मानसिक कष्ट होने लगा। उनके सुनने की शक्ति कम हो गई और खाने व बोलने में भी कठिनाई आने लगी। उन्हें अपने प्रिय व्यसन तम्बाकू लेने से भी रोक दिया गया। उनकी पुत्री अन्ना देखभाल करने लगी। १९२६ में उन्होंने कहा- ‘हो सकता है यह ईश्वर की कृपा है जो हमें इतना कष्ट देते हैं कि मृत्यु का भय दिल से निकल जाता है।’ १९२९ में उनकी स्थिति बिगड़ती गई और उन्हें पाँच बार ऑपरेशन कराना पड़ा।
"उनकी बीमारी ने सोचने की शक्ति छीन ली। अब वे अपने विषय पर कुछ नहीं लिख पा रहे थे और मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। १९३५ में थामस मॉन की षष्ठीपूर्ति पर उन्होंने लिखा था- ‘मैं तुम्हें लम्बी आयु का आशीष नहीं दूँगा क्योंकि बुढ़ापा कष्टदायी होता है।’ उपचार के लिए उन्हें लंदन ले जाया गया। वहाँ अपने भव्य स्वागत को देखकर उन्हें यह संतोष हुआ कि उनकी ख्याति दूर दूर तक फैली हुई है। उन्हें अपने परिवार की चिंता सताने लगी क्योंकि आस्ट्रिया में उनकी तीन बहनों को गैस चेम्बर में रखकर मार दिया गया था। अपनी बीमारी से जूझते हुए १९३९ में उन्होंने अंतिम सांस ली। तब तक १९२३ और १९३९ के बीच उनके ३३ ऑपरेशन हो चुके थे।"
जीवन के ज्वार भाटे को झेलते हुए जब कोई वृद्धावस्था को पहुँचता है तो तिरस्कार की मानसिकता बनने लगती है। वह उन लोगों से मिलना भी नहीं चाहता जो कभी उसके इर्दगिर्द घूमते थे और उसके कृतज्ञ भी थे। एक ऐसी ही हस्ती थे छटोब्रैंड जिन्हें राजनीति में सफलता मिली और उसी तेज़ी से विफलता भी! छटोब्रैंड की जीवनी की कुछ घटनाओं को उजागर करते हुए सिमोन बताती हैं-
"छटोब्रैंड एक महत्त्वकांक्षी व्यक्ति थे जो वृद्धावस्था को पोतभंग समझते थे। तीस वर्ष की आयु से ही उन्हें वृद्धावस्था का भय सताता था। फ़्रांस की राजनीति में उनकी सक्रिय भूमिका रही। वे मंत्री भी बने और पदच्युत भी हुए। उन्होंने सरकार बनाई भी तो गिराई भी। १८३९ में उनकी वृद्धावस्था के बारे में लेम्मेनैस ने लिखा था- ‘उनको दस वर्ष बाद देखकर चकित रह गया। पिचका मुँह, गालों में झुर्रियां, दबी नाक और धंसी आँखें - मानो किसी शव का चेहरा हो!’
"छटोब्रैंड ने लिखा है कि 'पूर्व के वृद्ध सौभाग्यशाली थे क्योंकि वे युवकों के लिए अपरिचित भले ही रहे हों पर समाज के लिए नहीं। अब तो केवल अपने चारों ओर लोगों को ही नहीं विचारों को भी मरते देखा है; अब न संस्कृति, न रीति-रिवाज़ और न सुख-दुख की संवेदनाएँ।' उनकी मानसिकता ऐसी बन गई थी कि वे किसी का भी निमन्त्रण स्वीकार करने से यह कहते हुए इंकार कर दिया करते कि अब वे इस दुनिया के जीव नहीं रहे। १८४७ में ह्यूगो ने उन्हें देखकर लिखा था- ‘लगता है मैं उनके भूत को देख रहा हूँ। न वे हिलडुल सकते हैं और न ही चल-फिर सकते हैं, केवल उनका सिर जीवित है।’ उनकी पत्नी का देहांत १८४७ में हुआ और अगले ही वर्ष जून १८४८ में स्वयं उनकी भी मृत्यु हो गई।"
युवावस्था में जिस व्यक्ति के पास धन, वैभव और सामाजिक ख्याति के साथ दुर्भाग्य भी जुड़ा हो, उसका बुढ़ापा और कष्टदायी हो जाता है जब ये सारे वैभव वृद्धावस्था में छिन जाते हैं। ऐसे ही एक विख्यात व्यक्ति थे लमार्टिन, जिनके बारे में सिमोन का कहना है-
"लमार्टिन उन कवियों में से हैं जो जीवन में सब कुछ पाना चाहते हैं- धन, वैभव, सामाजिक सफलता, ख्याति और राजनीति में अपना स्थान। उन्हें एक नार्सिस्ट, घमण्डी और सब कुछ दाँव पर लगानेवाला व्यक्ति कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक बार चुनाव में हारने के बाद उन्होंने दूसरी बार चुनाव लड़ा और जीत भी गए। वे एक अच्छे साहित्यकार थे पर सफल राजनीतिज्ञ नहीं बन सके। वे इतने महत्त्वकांक्षी थे कि हर पार्टी में अपना पैर रखना चाहते थे। जब उनसे दाएँ या बाएँ पक्ष के समर्थन पर पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ‘छत पर’। इसका परिणाम यह हुआ कि वे राजनीति में किसी के भी विश्वासपात्र नहीं बन सके और आर्थिक संकट में फंस गए। उन्हें अपनी सम्पत्ति से हाथ धोना पड़ा और उन पर कर्ज़ चढ़ता गया। १८४३ के अंत तक उनपर एक मिलियन दो सौ हज़ार फ़्रैंक का कर्ज़ चढ़ चुका था। अपना कर्ज़ चुकाने के लिए वे लगातार लेखन करते रहे। उन्हें अपने भव्य विला को छोड़कर छोटे से घर में गुज़ारा करना पड़ा। ६५ वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी परिस्थिति के बारे में इस प्रकार लिखा- ‘मैं पहले से अधिक जूझते हुए थक गया हूँ।’ आशा और निराशा के बीच जीवन की दौड़ जारी रखते हुए १८४८ में उन्होंने कहा- ‘वे सौभाग्यशाली हैं जो अपना कार्य करते हुए मर जाते हैं, संग्राम करते हुए प्राण त्याग देते हैं। प्राणों की आहुति उनके लिए सज़ा हो सकती है, यह सही है; पर यह उनके लिए आश्रय भी है। यह जीवन तो उस सज़ा से भी गया बीता है। कौन सा जीवन बेहतर है- बीस वर्ष का संघर्ष या तलवार की एक मार जो क्षण में काम तमाम कर दे। संसार का सब से दुखी व्यक्ति देखना चाहते हो! तो देखो मुझे।'
१८६३ में उनकी पत्नी का देहांत हो गया और उन्होंने चुपके से वेलन्टीन से विवाह रचा लिया। यह विवाह भी उन्हें शांति नहीं दे सका। वे अपनेआप को कमरे में बंद कर लेते और किसी से कोई वार्तालाप नहीं करते। १८६८ में अनिद्रा के कारण रातों को खुले खेतों में घूमते रहते और इसी वर्ष उन्होंने अपना देह त्याग दिया।"
[अगले अंक में समाप्य]
3 टिप्पणियां:
बहुत आवश्यक लेख पढवाने का शुक्रिया ! सुना है आप कुछ अस्वस्थ थे, आपको सक्रिय देख अच्छा लगा...आशा है स्वास्थ्य का ध्यान रखेंगे, इस आशा के साथ हार्दिक शुभकामनायें !
बढ़िया आलेख।
प्रसाद जी, बहुत अच्छी जानकारी...........
फर्स्ट टेक ऑफ ओवर सुनामी : एक सच्चे हीरो की कहानी
एक टिप्पणी भेजें