गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

बुढ़ापा : ‘ओल्ड एज’ - सिमोन द बउवा [८] `Old age' - Simone de Beauvoir





Old age - Simone de Beauvoir - बुढ़ापा [8] - सिमोन द बुवा

बुढ़ापा और रोज़मर्रा जीवन


तिरस्कृत, अभावग्रस्त, निर्वासित और निराश्रित जैसा जीवन बिताता वृद्ध भी मनुष्य ही है।  वह रोज़मर्रा की घटनाओं को कैसे झेल रहा है? उसके पास क्या विकल्प बचे हैं? अपने बचाव और जीवन यापन की क्या सुविधाएँ व संसाधन बचे हैं? क्या वह अपने जीवन के इस अंतिम दौर को सहने व अपनाने में सक्षम है और यदि है भी तो किस मूल्य पर?  ऐसे सारे प्रश्नों का उत्तर खोजती हुई सिमोन द बुवा की पुस्तक ‘ओल्ड एज’ में लेखिका बतातीहैं  -

"वृद्ध को काम करने की कोई आवश्यकता नहीं होती और न उसे भविष्य की कोई चिंता ही होती है, परंतु क्या उसके पास इतनी स्वतंत्रता है कि वह हाथ पर हाथ धरे जीवन बिता सके?  80 वर्षीय क्लॉडेल ने लिखा है- ‘कुछ अतीत  को लेकर आह भरते हैं तो कुछ भविष्य को लेकर!’

"कुछ लोग कहते हैं कि वृद्धावस्था में जीवन सुखमय होता है; जैसे जुहॉन्डो ने कहा था- ‘मैंने जीवन से कभी इतना मोह नहीं किया जितना कि अब, जबकि जीवन की यह बारीक डोर कभी भी टूट सकती है।  मॉरियक भी लगभग यही समझते हैं जब वे कहते हैं- ‘मैं किसी वस्तु या व्यक्ति से अपने जुड़ाव को अलग नहीं कर पाता। यह हाथ जो मेरे घुटने पर धरा है उसमें बह रहा रक्त, मेरे सीने में उठ रही भावनाओं का उफ़ान, सभी को मैं महसूस करता हूँ, सब कुछ इतने अपने जो मुझे जीने का अहसास दिलाते हैं और जताते हैं कि मैं यहाँ हूँ।’ फ़ॉन्टनेल का कथन है कि बुढ़ापा वह समय होता है जब आप अपने बोये पेड़  का फल चखते हैं, यह समय आनंद का होता है, आराम का होता है।

"यह सही है कि बुढ़ापा वह समय होता है जब व्यक्ति आराम करता है; परंतु ऐसा उसी के लिए सार्थक है जिसकी आर्थिक स्थिति स्थिर है।  वह वृद्ध क्या करे जिसे जीर्णक्षीण अवस्था में भी दो जून रोटी की जुगाड़ करनी होती है?  उसके लिए प्रेम, खाना, पीना, धूम्रपान, खेलकूद - सभी सपना ही तो है।  समय की मार ने जिन लेखकों को सुखा दिया है वे वसंत में भी फूल के खिलने का सौंदर्य क्या देख सकेंगे या किसी  सुगंधित फूल को अपने सूखे हाथों से क्या तोड़ सकेंगे! एण्डरसन ने अपने एक पत्र में लिखा था- ‘जब मैं बगीचे में गुलाब के पौधों के बीच घूमता हूँ तो उन फूलों को मुझसे कहने के लिए क्या बचा है जो उन्होंने अब तक नहीं कहा?  कमल के पत्ते पर टिकी पानी की बूँद या बहती बयार के पास कोई नया संदेसा नहीं होता।  पीपल या देवदार  भी वही संगीत सुनाते हैं जो मैं अब तक सुनता आया हूँ।  कोई नया दृश्य नहीं, कोई नई बात नहीं।  मैं उदास हो जाता हूँ।’"

बुढ़ापे में उदासी इसलिए भी छा जाती है कि व्यक्ति अपने देखने, समझने और सुनने की शक्ति खोता जाता है।  सभी अंग कमज़ोर पड़ जाते हैं जबकि युवावस्था स्फूर्ति भरी होती है।  इस अंतर का जायज़ा लेते हुए सिमोन बताती हैं-

"युवक के लिए विश्व एक अंतहीन विश्वास और आशाओं का पैगाम लिए आता है जिसमें घटनाओं का संगीतमय तालमेल होता है; जबकि यही विश्व और यही दृश्य वृद्ध के हृदय में कोई नई धड़कन पैदा नहीं करते।  वृद्ध रोसो ने कहा था- ‘मैं वहीं था जहाँ मैं हूँ, मैं वहीं जा रहा हूँ जहाँ मैं था, कहीं आगे नहीं।’

"वृद्धावस्था में रोज़मर्रा का कार्य छोड़ने का यह अर्थ नहीं होता कि खुशियाँ छिन गईं और भविष्य अंधकारमय हो गया।  इसका अर्थ यह होता है कि हममें देखने, सुनने और समझने की शक्ति क्षीण हो गई है।  इन शक्तियों को प्रयोग करने की क्षमता में गिरावट आ गई है और हम कोई नया प्रयोग नहीं करना चाहते हैं, यद्यपि हममें ऐसा करने की शक्ति इस आयु में भी बनी रहती है।

"कोई आकांक्षा नहीं, कुछ करना नही - ऐसी मानसिकता वृद्ध को निष्क्रय बनाती चली जाती है। जो बूढ़े कुछ करना चाहते हैं और जो अपनी अपूर्ण इच्छाएँ पूरी करना चाहते हैं, उनके लिए विस्तृत फलक खुला होता है। वृद्धावस्था में चर्चिल ने चित्रकला का अपना पुराना शौक पूरा किया था। यद्यपि वृद्धावस्था में कुछ सीखने की इच्छा नहीं रह जाती है पर यदि कोई चाहे तो इस आयु में भी कुछ नया सीख सकता है, कुछ नया कर सकता है। सुकरात को वृद्धावस्था में भी कुछ नया जानने की उत्सुकता रहती थी।  वृद्ध एवर्मोंड कुछ नया जानने के लिए पुस्तकों को खंगालते थे।  उनका मानना था कि वृद्ध को कुछ कार्य में व्यस्त रहना चाहिए वरना उसकी उत्कंठता मर जाती है।

"गिदे ने भी जीवन के अंतिम दिनों में अपनी व्यस्तताओं के ठहराव पर ३० जुलाई १९४१ को लिखा था - ‘जीवन का अंत ... अंतिम गतिविधि धीमी पड़ रही है, अतीत का स्मरण, पुनरावृत्ति... जी चाहता है कि कुछ नया हो... पर करे कौन?’

"शारीरिक शिथिलता के कारण वृद्ध की उत्सुकता और शौक कमज़ोर पड़ते जाते हैं।  सांसारिक सोच पर कुछ थकन का अहसास होता है। इस आयु में उसका गर्व और अहम भी चूरचूर हो जाता है। उसकी शारीरिक व मानसिक कमज़ोरी उसे निकृष्ट बना देती है, चलना-फिरना भी दूभर लगने लगता है। इन परिस्थितियों में वे वृद्ध उबर पाते हैं जो भिन्न कार्यों में अपने को लगाए रखते हैं, जैसे कि राजनीति से हटने के बाद क्लेमन्सो लेखन में अपना समय बिताने लगे और चर्चिल चित्रकारी में लगे रहे।

"व्यक्ति का एक मनोभाव होता है- उच्चाकांक्षा। बुढ़ापे में अपनी पहचान को बनाए रखने की आकांक्षा प्रबल होती जाती है। तब व्यक्ति पुरस्कारों, अलंकरणों और अकादमिक ओहदों के पीछे दौड़ने लगता है।  डी गॉल ने १९२५ में कहा था - ‘जरा-दुर्बल की चाहत किसी चीज़ में नहीं रहती पर उसकी जरा-आकांक्षा सभी चीज़ों में रहती है।’

"वृद्ध की स्मरणशक्ति कमज़ोर पड़ जाती है और उसे कल की बात याद नहीं रहती पर वह पुरानी बीती बातों को पूरी तरह याद रखता है और उनका विस्तारपूर्वक वर्णन करता है।  इसका एक कारण यह हो सकता है कि उसे आज की घटनाओं में कोई रुचि नहीं होती।  इसलिए उसको जीवन में कोई सार नहीं दिखाई देता और जीवन की रिक्तता का अनुभव उसे खाए जाता है।  जैसा कि अरस्तु ने कहा था- ‘जीवन का वास गति में है।जर्जर शरीर के कारण वृद्ध गतिहीन हो जाता है तो एक शून्यता घेर लेती है और वह उदासी की मानसिकता में चला जाता है।’

"कुछ वृद्ध जीवन की अंतिम सांस तक अपने कार्य में लगे रहते हैं।  माइकल एंग्लो ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में कलाकृति का बेजोड़ नमूना प्रस्तुत किया था। निरुद्देश्य जीवन वृद्ध को उदास और निष्क्रिय बना देता है। बेकारी में उसे हिलने-डुलने की आवश्यकता भी नहीं रहती और यही गतिहीनता अंततः उसकी उदासी का कारण बन जाती है।"

जौहन्डो ने कभी कहा था कि वृद्धावस्था एक ऐसी लंबी  छुट्टी जैसी है जिसमें व्यक्ति को कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती - बस आराम ही आराम! परंतु यह आराम व्यक्ति को उस अंधकार की ओर भी ले जा सकता है जहाँ उसे केवल दुर्बल शरीर, दुर्बल बुद्धि और शक्तिहीनता का अहसास ही मिलता है। तब वृद्ध यह समझने लगता है कि समाज को उसकी आवश्यकता नहीं है। फिर, वह ऐसी उदास मानसिकता में चला जाता है जिससे कि उबरना कठिन हो जाता है।  वृद्ध को इस लंबीछुट्टी की एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।  इस मुद्दे पर साहित्य को खंगालते हुए सिमोन बताती हैं-

"बल्लाच ने लिखा था- ‘यह मृत्यु नहीं - क्षरण है जिस पर शोक होता है।’ जिस व्यक्ति के हाथ में राजनीति की बागडोर या शक्ति होती है, वह आसानी से वृद्धावस्था का अवकाश ग्रहण करने की नहीं सोच सकता। वह किसी न किसी कार्य में अपने को व्यस्त रखता है। चर्चिल इसका एक अच्छा उदाहरण है। यह सही है कि वृद्धावस्था में बहुत सी कमियाँ और खामियाँ आ जाती हैं लेकिन आयु को देखते हुए उन्हें नज़रअंदाज़ किया जाता है।  तब वृद्धों को बच्चों की तरह देखा जाता है। यह एक वास्तविक तथ्य है कि वृद्धावस्था में जैविक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर वृद्धों के स्तर में गिरावट आ जाती है।

"अधिकतर वृद्ध अवसादग्रस्त रहते हैं। तभी तो, अरस्तु ने कहा था कि वे हँसना भूल जाते हैं। एडमण्ड डि गोन्कोर्ट ने १७ जून १८९० के अपने पत्र में कहा था- ‘दोस्त बिसर जाते हैं, परिचित स्थान छोड़ देते हैं, शरीर शक्ति छोड़ जाता है - यह सब हृदय में अवसाद भर देता है।’  इस अवसाद का एक कारण यह भी होता है कि कल तक वृद्ध एक ज़िम्मेदार नागरिक माना जाता था और आज केवल ‘वस्तु’ बन कर रह गया है।  उसका आत्मबल जवाब दे चुका है।  उसे यह शंका निरंतर लगी रहती है कि इस ‘वस्तु’ को कल निकाल कर सड़क पर फेंक न दिया जाए।"

कुछ वृद्धों में परिस्थितियों के डर से चोरी करने या चुरा कर कुछ खा लेने की प्रवृत्ति देखी गई है। सिमोन ने ऐसे कुछ परिवारों के दृष्टांत भी  दिए हैं जहाँ वृद्धों में ऐसी प्रवृत्ति पाई गई है। कुछ वृद्ध ऐसे भी होते हैं जो अपनेआप को समाज का अभिन्न अंग मानकर अपना नियमित कार्यक्रम बना लेते हैं और समाज की गतिविधियों से अपने को जोड़ लेते हैं।  ऐसे वृद्धों का समय नियमित हो जाता है और समयानुसार वे अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहते हैं। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए सिमोन बताती हैं-

"जिन वृद्धों को अपना घर छोड़कर बच्चों के घर में या वृद्धाश्रम में बसने के लिए कहा जाता है, उन्हें ऐसा लगता है मानो जड़ से उखाड़ फेंक दिया जा रहा हो।  तब उन्हें न तो अपनी ज़मीन मिलती है और न अपने जीने के तरीके की स्वतंत्रता ही मिल पाती है। वे अपनेआप को किसी के आधीन महसूस करने लगते हैं। जिनका अपना घर और अपना समय है, वे बगीचे को संवारने और घर की देखभाल करने में समय बिताते हैं।  संध्या को अपनी आरामकुर्सी पर बैठ कर चैन की सांस लेते हुए दिन बिताते हैं। उन्हें अपने घर और समय के मालिक होने का संतोष होता है।"

वृद्धावस्था में शक्ति का मूलाधार सम्पत्ति होती है। जिस वृद्ध के पास धन है, वह अपनेआप को स्वतंत्र समझता है। परंतु यहाँ भी कभी ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जब यह सम्पत्ति ही जी का जंजाल बन जाती है।  कोई करीबी रिश्तेदार- बेटा या बेटी, गुड़ पर मक्खी की तरह आ बैठते हैं तो वृद्ध की दुविधा बढ़ जाती है। वह अपनी सम्पत्ति को अपने से अलग नहीं करना चाहता और न धन के कारण अपने करीबी लोगों से बैर ही रखना! तब उसकी स्थिति साँप-छछूंदर की सी हो जाती है।  सिमोन एन परिस्थितियोंके बारे में यों बताती हैं-

"वृद्ध को किसी भी व्यक्ति के ह्स्तक्षेप में खतरा दिखाई देता है।  जैसाकि अमेरिकी जरा चिकित्सक क्यूमिंग्स ने कहा है कि वृद्ध की मानसिकता यह होती है कि वह किसी से भी अपने जीवन के विषय में वास्ता नहीं रखना चाहता है। जब ऐसे बूढ़े अपने संवेगात्मक रिश्ते काट देते हैं, तो उन्हें अचानक गुस्सा आ जाता है; वे अचानक बिफ़र जाते हैं और रोने लगते हैं। वृद्ध टॉल्सटाय संगीत सुनकर अश्रु टपकाने लगते थे। अपनी वृद्धावस्था में चर्चिल भी रोने लगते थे। परंतु कुछ ऐसे लोग भी हैं जो किसी शोक संदेश को सुनकर भी निर्विकार से बने रहते हैं। इस निर्विकार स्थिति में ५८ वर्षीय टॉल्सटाय को उस समय देखा गया जब उनके चार वर्षीय पुत्र का देहांत हो गया। जब वे ६७ वर्ष के थे तब उनके  पुत्र वनिच्का  का देहांत हो गया था, तब भी उन्होंने इसे ईश्वर की इच्छा बताया और फिर काम पर लग गए।  १९०६ में जब उनकी पुत्री माशा की मृत्यु हुई तो वे कब्रिस्तान भी नहीं गए और अपने टेबल पर बैठ कर लिखा- ‘वे उसे कब्रिस्तान ले गए हैं, यह प्रकृति का नियम है, हम ईश्वर को धन्यवाद दें।’ अक्सर यह देखा गया है कि ऐसी परिस्थितियों में वृद्ध निर्विकार बन जाते हैं। इसका एक कारण सम्भवतः यह है कि पिता-पुत्र के सुप्त अधिकार की लडाई होती है।  युवा पुत्र अपना वर्चस्व चाहता है जबकि वृद्ध पिता अपना यह अधिकार तजने के लिए तैयार नहीं होता। यदि पुत्र शादीशुदा हो तो यही मानसिकता सास-बहू में भी होती है।

"वृद्धों का सबसे सुखद और गर्माहट का रिश्ता अपने नाती-पोतों के साथ होता है।  अपने पौत्र के देहांत पर फ़्रॉयड बहुत दुखी हुए थे।  पौत्रों के प्रति अधिक प्रेम का एक कारण यह है कि वृद्ध पर इन बच्चों के पालन-पोषण की वह ज़िम्मेदारी नहीं होती जो उन्होंने एक पिता होने के नाते निभाई थी। वृद्धों के लिए अपने पौत्रों से प्रेम उस बीच की पीढ़ी से प्रतिशोध का माध्यम भी होता है जो उनके प्रति उदासीन है।  इन बच्चों के साथ खेलते हुए वृद्ध अपने को पुनः उस बचपन में ले जाते हैं जो उन्हें जीवित रहने का अहसास दिलाते हैं।  यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि एकल परिवार के कारण अब यह रिश्ता लुप्त होता जा रहा है।

"अपने बच्चों और उनके बच्चों से महिला का रिश्ता पुरुषों से अधिक निकट का होता है। आयु का असर भी महिला पर उतना नहीं होता जितना कि पुरुष पर होता है। वृद्धावस्था में भी नारी सक्रिय रहती है और वह इन रिश्तों को बनाए रखने में सक्षम होती है। पुरुष रिश्तों को कायम रखता भी है तो वह तटस्थता भी बनाए रखता है।"

जीवन में एक ऐसा मोड़ भी आता है जब पता ही नहीं चलता कि आयु ने उसे कब बूढ़ा बना दिया। आयु अचानक ऐसा झपट्टा मारती है कि व्यक्ति को आभास होने लगता है कि उसकी बुद्धि, उसका भाग्य और उसका समाज उससे दूर होते जा रहे हैं। स्वास्थ्य  में गिरावट आने लगती है, बुद्धि सोचने-समझने में विलम्ब करती है और निर्णय में तटस्थता व त्वरितता की कमी आ जाती है।  वृद्धों के इस उहापोह पर प्रकाश डालती सिमोन कहती हैं-

"वह जी रहा है पर जीवित नहीं है।  वह सभी कुछ देख रहा है जिसकी वह कभी कामना करता था, पर आज उसी कामना पर जब प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं तो उसके मन में विद्रोह की भावना उत्पन्न होती है। यह गिरावट उस समय अधिक चुभती है जब कोई व्यक्ति किसी ऊँचे पद से निवृत्त होता है। वह अपने अधिकार का प्रयोग कुछ समय तक घर में करता है पर धीरे-धीरे यहाँ भी उसका अधिकार छिनता चला जाता है। इसका एक कारण यह है कि देखते-ही-देखते युवा पीढ़ी वृद्ध के अधिकार का उल्लंघन करने लगती है, तब उसका मन गुस्से और घृणा से भर जाता है। उसका क्रोध इस हद तक बढ़ जाता है कि वह युवा पीढ़ी को कोसने तक लग जाता है और भविष्यवाणी कर देता है कि अब सर्वनाश निकट है।

"सेंट एवर्मांड ने कहा था कि वृद्ध अपनी बौद्धिक सोच संकुचित कर लेते हैं और यह समझते हैं कि जो कुछ वे  कर रहे हैं वही सही है और जो दूसरे कर रहे हैं वह सब गलत है।  आज के जीवन में उसे कुछ सार दिखाई नहीं देता। समाचार पत्र  उसे फीका और आज का साहित्य भी स्तरहीन लगता है। डॉ. जानसन ने बासवेल से कहा था- ‘यह दुष्ट सोच अधिकतर लोगों में देखी जाती है कि वे समझते हैं कि बूढ़ों की विचारशक्ति का क्षरण हो जाता है।  यदि कोई युवक जाते समय अपनी टोपी लेना भूल जाता है तो कोई उस पर ध्यान नहीं देता, परंतु कोई वृद्ध ऐसी भूल करे तो कंधे उचका कर कहेंगे- उसकी स्मरणशक्ति जाती रही!’

"वृद्ध को यह अहसास तो रहता ही है कि उसकी स्मरणशक्ति कमज़ोर हो रही है, कभी-कभी तो वह गलत शब्दों का प्रयोग करता है या कभी शब्दढूँढने  लगता है।  वह अपने जज़बात को रोक नहीं पाता और जल्दी फट पड़ता है।  वह हमेशा अपनी पुरानी यादों में खोया रहता है और असुरक्षा भाव से ग्रस्त रहता है।  उसके अधिकतर कृत्य विरोध और आक्रोश के होते हैं।  यह विरोध कई तरह से व्यक्त होता है- कभी वह बिस्तर से यह कह कर नहीं उठता कि गठिया उसे सता रही है, कभी फटेहाल बगीचे में निकल पड़ता है, कभी पेशाब कर लेता है तो कभी खाने के लिए मना कर देता है, कभी बिना बताए घर से निकल पड़ता है और उसे यह सोच कर आनंद मिलता है कि घरवाले चिंतित हो रहे होंगे।   वह यह समझता है कि निष्क्रिय रहने का उसे अधिकार है और उस पर किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं है।"

ऐसा नहीं है कि सभी वृद्ध अपनी जिम्मेदारी से बचते हैं या सेवानिवृत्ति के बाद अपने सामाजिक कर्तव्य की इति समझते हैं। बहुत से वृद्ध ऐसे होते हैं जो अपना वह शौक पूरा करते हैं जिसे पूर्व व्यस्तता के तथा समयाभाव के कारण वे नहीं कर पाए।  सिमोन ऐसे वृद्धों के बारे में बताती हैं-

"जॉन कॉपर पोएस ने अपनी पुस्तक ‘ऑन ओल्ड एज’ में लिखा है कि बचपन में किस प्रकार उनके दादाजी ने ढलती शाम को निहारते हुए कहा था कि वे और कुछ नहीं कर सकते और न उनका अब किसी के प्रति कोई दायित्व ही है; अब केवल शांति है, कोई बंधन नहीं।  पोएस जब बूढे हो गए तो उन्होंने अपना सारा समय लेखन में लगाया और अपना यह शौक सफलतापूर्वक पूर्ण किया। परंतु ऐसा सभी वृद्ध नहीं कर पाते हैं। उनसे अपना सामाजिक स्थान छूट जाने पर जीवन में शून्यता आ जाती है।  ऐसे लोग अवसादावस्था में चले जाते हैं और यह समझने लगते हैं कि समाज के बंधन से वे मुक्त हो गए हैं। वृद्ध महिलाओं में भी ऐसी मानसिकता आ जाती है जब वे बंधनमुक्त अनुभव करती हैं - अब न किसी की पत्नी हैं न किसी की कर्मचारी, बस अपनी मर्ज़ी की मालिक हैं।  ऐसी मानसिकता उन महिलाओं में अधिक आती है जो जीवन भर पति और परिवार की सेवा में लगी रहीं और बाल बच्चों की जिम्मेदारी का बोझ ढोती रहीं।  अब वे भी कह सकती हैं कि वे  स्वतंत्र हैं।

"वृद्धावस्था की स्वतंत्रता व्यक्ति को निर्भीक बना देती है। अमेरिका के ८० वर्षीय डॉ. स्पोक ने वियतनाम की लड़ाई के विरुद्ध हो रहे आंदोलन में स्टाक्ली कारमाइकल का साथ दिया था।  ८९ वर्षीय बर्टेंड रसेल ने १९६१ के उस अहिंसात्मक विरोध में भाग लिया था जिसे  परमाणु हथियार के विरुद्ध ‘कमिटी ऑफ़ अ हंड्रेड’ चला रही थी।  उनकी आयु और प्रतिष्ठा को देखते हुए सरकार को उस संग्राम का संज्ञान लेना पड़ा था।

"किसी  वृद्ध का यह  सबसे बड़ा सौभाग्य  होता है कि उसके  करने के लिए कुछ कार्य बचा है, कुछ उद्देश्य और कुछ मंज़िलें सामने हैं।  वरना, वह आलस्य और अवसाद से घुट जाएगा।  इसके लिए उसे अपनी मध्यायु से ही योजना बनानी चाहिए। जब वह अवकाश प्राप्त स्थिति में पहुँचे तो उसके आगे का कार्यक्रम उसे व्यस्त रखेगा। वृद्धावस्था एक सामान्य असमान स्थिति उत्पन्न करती है जहाँ व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक स्थिति में तेज़ी से बदलाव आते हैं।  शारीरिक रूप से कमज़ोर, सामाजिक रूप से तिरस्कृत, मानसिक रूप से जराग्रस्त - कुछ ऐसे लक्षणों से उबरने के लिए जीवन को एक नई दिशा देने की आवश्यकता होती है ताकि समाज में उसकी पहचान बनी रहे और उसे इतिहास का अंग न मान लिया जाय।

"अधिकतर वृद्ध अपने टूटते अहम्, निराश भविष्य और उदासीन जीवन से चिड़चिड़े हो जाते हैं।  यह चिड़चिड़ापन वृद्धावस्था में उस समय प्रथम बार प्रकट होता है जब जीवन में कोई हादसा हो जाता है जैसे किसी निकट संबंधी  की मृत्यु, जुदाई या स्थानांतरण। तब उसे जीवन दूभर लगने लगता है और उस अवसाद की स्थिति से वह उबर नहीं पाता।  ऐसा लगता है कि वह किसी गम्भीर रोग से ग्रस्त हो गया है।  वह मृत्यु की कामना करने लगता है।  ऐसे में, वह हृदयाघात, मानसिक रोग या स्नायविक  विकार   जैसी किसी गम्भीर बीमारी से पीड़ित हो सकता है। प्रायः ऐसी स्थिति उन वृद्धों में पाई जाती है जो वृद्धाश्रम में रहने लगते हैं।

"आधुनिक जीवन में अधिकतर वृद्ध मनोरोग के शिकार हो रहे हैं क्योंकि इनकी संख्या बढ़ रही है, सामाजिक जीवन बिखर रहा है और स्मरण शक्ति कमज़ोर होती जा रही है। ऐसे मनोरोगी कभी-कभी हानिकारक कृत्य भी करने लगते हैं; जैसे दियासलाई जलाना, बात-बे-बात लड़ना-झगड़ना, रोना या हँसना।  अधिक मानसिक क्षति होने पर अल्ज़मेर्स या पिक्स जैसे रोगों से घिर जाते हैं। ऐसे रोगियों की देखभाल करना कठिन हो जाता है तो उन्हें मानसिक चिकित्सालय में डाल दिया जाता है जहाँ उनकी स्थिति और दयनीय हो जाती है और मरने की कामना ही एक विकल्प रह जाता है।"

वृद्धावस्था में अपने को किसी उद्देश्य से सम्बंधित रखने , अपने को किसी कार्य में व्यस्त रखने  और एक ध्येय की ओर बढ़ते रहने की कामना से ही वृद्ध व्यक्ति का भविष्य प्रकाशमय हो सकता है,वरना वह किसी ऐसी बीमारी का शिकार हो सकता है जिससे उबर पाना कठिन हो और उसके परिवार के लिए अधिक  चिंता का विषय बन जाए।    

1 टिप्पणी:

ZEAL ने कहा…

बुढापे में अगर वृद्ध व्यक्ति अपने परिवार और पास पड़ोस के दुःख सुख में शामिल हों तो उनका बुढ़ापा ठीक से गुज़र सकता है। वर्ना वही होगा जो आपने लिखा है।
आभार।