सोमवार, 11 अप्रैल 2011

वासिरेड्डी सीता देवी - Vasireddy Seeta Devi



मृगतृष्णा कभी सच नहीं होती- ‘मरीचिका’


तेलुगु साहित्य जगत में वासिरेड्डी सीता देवी (१९३२-२००७) का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। सीता देवी ने अपने उपन्यासों में नगरीय एवं ग्रामीण जीवन का सुंदर वर्णन किया है और जीवन की विसंगतियों को उजागर किया है।  उन्हें ग्रामीण जीवन नज़दीक से देखने का मौका उस समय भी मिला जब वे आंध्र प्रदेश सरकार के युवा सेवा निदेशालय में उप-निदेशक की हैसियत से काम करती रहीं।  अंत में जवाहर बाल भवन निदेशक पद से उनकी सेवानिवृत्त हुई। उन्होंने कई कहानियाँ एवं उपन्यास लिखे जिनमें अडवि मल्ले [जंगली चमेली], वैतरणी और मट्टिमनिषि [माटी का मानव] उल्लेखनीय हैं।  सब से अधिक चर्चा का उनका उपन्यास रहा ‘मरीचिका’ जिसे चार वर्ष तक आंध्र प्रदेश सरकार ने यह घोषित करते हुए प्रतिबंधित किया कि ‘यह उपन्यास युवा पीढ़ी को पथ भ्रष्ट कर उन्हें नक्सलवाद की तरफ जाने की प्रेरणा देता है’।  एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद इसे पुनः प्रकाशन की स्वीकृति दी गई।  इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक डॉ. पोलि विजय राघव रेड्डी तथा डॉ.(श्रीमती) लक्ष्मीकांतम ने मिल कर किया है। 

‘मरीचिका’ उपन्यास में दो सहेलियों के जीवन का वृत्तांत है जिनको उनके माता-पिता ने खुली छूट दे रखी थी।  दोनों सहेलियों के माता-पिता पुराने संस्कार और विचारों के लोग थे जो यह मानते थे कि स्त्री का जीवन विवाह और परिवार के इर्दगिर्द ही सुखी रह सकता है।  परंतु इन दो सखियों- शबरी और ज्योति के विचार कुछ भिन्न थे।  शबरी खुली हवा में, खुले माहौल में बिना रोक-टोक के विचरना चाहती थी।  धन की कमी नहीं थी।  बस, उसे खुला माहौल मिला तो हिप्पियों के जीवन में। चरस, गांजा और एल.एस.डी के ट्रिप में फँस कर रह गई और हिप्पियों की संस्कृति के अनुसार किसी दिन सडक पर ही अंतिम सांस ली। 

सीता देवी ने हिप्पियों के जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला है और वे उस प्रक्रिया का भी वर्णन करती है जिसमें फँस कर व्यक्ति बाहर कभी नहीं निकल सकता।  अपने एक चरित्र के माध्यम से वे बताती हैं कि ‘साधारणतया मरिजुआना से चरस की, चरस से अफ़ीम की, उसके बाद पेथिड्रिन, फिर धीरे-धीरे डेक्सिड्रिन की आदत पड़ जाती है।  उसके बाद एल.एस.डी लेते हैं। एल.एस.डी का प्रभाव नसों पर होता है।  प्रभाव भी धीरे-धीरे होता है, पर हिरोइन का ऐसे नहीं।... हिरोइन को हेच्‌ या हार्स पावर कहते हैं।  इसके आदी होने वाले को भूख ही नहीं लगती।  दुनिया से कोई नाता ही नहीं रहता।  हिरोइन का इंजेक्शन पहले मांसपेशी में लेते है। उसे जॉयपापिंग कहते है।  जॉयपापिंग लेने के बाद वे हिप्पियों से अलग हो जाते हैं, उन्हें जनकीज़ कहते हैं।  तुरंत जनकीज़ का शरीर फूल कर पहचानने लायक नहीं रहता।  वे मृत्यु को चाहने लगते हैं। वे ज़्यादा दिन जीवित नहीं रहते; ज़्यादातर आत्महत्या कर लेते हैं।’

शबरी एक बार अपने दोस्त के साथ इस चक्कर में पड़ती है तो फिर निकल नहीं पाती और दोनों को अंत में सड़क पर ही पाया जाता है।  इस प्रकार बुरी संगत का एक धनाड्य परिवार की पुत्री भी सड़क पर तड़प तड़प कर अपने जीवन का अंत करती है।

शबरी की सहेली ज्योति क्रांतिकारी विचारों की लड़की है।  उसके माता-पिता अमेरिका में बसे उनके ही रिश्तेदार से करना चाहते हैं।  परंतु ज्योति यह सोचती है कि जो व्यक्ति अपना देश छोड़ कर विदेश जा बसा है और केवल पैसे के पीछे ही दौडेगा, उसके साथ जीवन बिताने से अच्छा तो ग्रामीण लोगों की सेवा में अधिक सार्थकता है।  एक दिन वह चुपके से घर छोड़ कर निकल जाती है और क्रांतिकारी जीवन को प्राथमिकता देती है।  इसके लिए वह नक्सलियों से सम्पर्क करती है और उनमें मिल जाती है।  

वहाँ के जीवन के बारे में सीता देवी अपने एक चरित्र के माध्यम से बताती है कि किस प्रकार हर व्यक्ति दूसरे पर शक करता है। ज्योति को अहसास होता है कि क्रान्तिकारी जीवन ही ऐसा होता है।  बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है।  इसके बावजूद यहाँ आत्मीयता और प्रेम भाव भी मिलता है।  सोशलिस्ट व्यवस्था में ही यह साध्य हो सकता है।  जब तक करोड़ों लोगों में जीर्ण हुई कहानियाँ, लोककथाएँ, परम्पराएँ, आदतें, भगवान, शैतान, कुल, मत, जाति-पाँति, पूँजीवादी व्यवस्था के उलट-फेर आदि हैं, समाज को कैसे बदला जा सकता है?  यह सब उनके खून से अलग किए बिना उनमें क्रान्ति के प्रति चेतना नहीं आएगी।  ये अवलक्षण हटाए बिना जनता जागृत नहीं होगी।

अंत में होता यह है कि जब ज्योति और उसका साथी सत्यम एक ज़मींदार की हत्या के लिए जाते हैं तो उसकी खबर पुलिस को लग जाती है।  इसका अर्थ यह है कि एक दूसरे पर शक करना और चौकन्ना रहना किसी भी नक्सली के लिए आवश्यक है।

क्रास फ़ायर में सत्यम घायल हो जाता है और उसके पैर में लगी गोली से लहू टपकने लगता है।  वे जंगल की ओर भागते हैं।  दुर्गम जंगल व पहाडियों को लांघना सत्यम के लिए कठिन हो जाता है।  उधर पुलिस घेराबंदी करती है।  तब सत्यम ज्योति को भागने के लिए मजबूर करता है जबकि वह उसे छोड़ कर नहीं जाना चाहती।[वे दोनों एक-दूसरे से दिल ही दिल में प्रेम करते है]।


सत्यम उसे समझाता है कि उसका बचना मुश्किल है इसलिए ज्योति को भागना ही होगा। वह जानता है कि जंगलों में बैठ कर क्रांति नहीं लाई जा सकती।  वह ज्योति से कहता है-"इन पेड़ों के बीच से हट कर मनुष्यों के बीच चली जाओ।  गाँव में जो मज़दूर हैं, उनके पास चली जाओ।  उनके बीच एक बन कर जीवन बिताओ।  मार्क्सवाद, लेनिनवाद उन्हें समझाओ। पीड़ित जनता में विप्लव की चेतना जगाओ।"

  वह भागते हुए सोचती है कि ‘काम्रेड सत्यम आत्मसमर्पण कर रहा है.. किसके लिए?  मेरे लिए ही।  मेरी रक्षा के लिए ही तो दुश्मन के सामने खड़ा है।... दुश्मनों के बीच में चक्रव्यूह में फँसे अभिमन्यु की तरह ज़मीन पर लुढ़कता हुआ सत्यम, मेरे दिल में सुरक्षित सत्यम को ... काम्रेड सत्यम, प्रणाम! प्रणाम! प्रणाम!

इस उपन्यास के दो सहेलियों ने दो अलग-अलग रास्ते चुने, अलग-अलग प्रेमी चुने। एक का  विक्षिप्त अंत हुआ और दूसरी को जीवन संग्राम की नई उर्जा मिली। सीता देवी के लेखन में इतनी गहराई है कि पाठक एक दम इस उपन्यास में डूब जाता है।

इस उपन्यास का अनुवाद भी मूल का स्वाद देता है।  ऐसा नहीं लगता कि हम अनूदित उपन्यास पढ़ रहे हैं। इसके लिए अनुवादक-द्वय  बधाई के पात्र हैं।  बधाई के पात्र आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी, हैदराबाद भी है जिनके आंशिक अनुदान से इस उपन्यास का प्रकाशन सम्भव हो पाया।


पुस्तक विवरण

उपन्यास का नाम : मरीचिका
उपन्यासकार : वासिरेड्डी सीता देवी
अनुवाद : डॉ. विजय राघव रेड्डी एवं डॉ.[श्रीमती] लक्ष्मीकांतम
मूल्य : ३५० रुपये
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
         २१-ए, दरियागंज, 
         नई दिल्ली- ११० ००२.  

10 टिप्‍पणियां:

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

मरीचिका निश्चित रूप से अत्यंत संश्लिष्ट कथा को प्रस्तुत करती कृति है.
ऐसी रचनाओं के अनुवाद से हिंदी जगत को अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की ही नहीं उन भाषासमाजों की समस्याओं की भी जानकारी मिलती है.

सत्ताएँ सदा कलम से डरती हैं. मरीचिका पर प्रतिबन्ध की उपकथा भी इसे प्रमाणित करती है.

आपको अब अपनी समीक्षाओं - खास तौर से हिंदीतर भाषाओँ से सम्बंधित - को पुस्तकाकार प्रकाशित करा देना चाहिए.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सत्य से भागने का भ्रम और सत्य से जूझने का क्रम, यह अन्तर सुन्दरता से स्पष्ट करती कृति। आभार परिचय का।

Suman ने कहा…

हमेशा पुस्तकोंपर आपकी समीक्षा मिलाप में पढ़ती हूँ
इस बार भी मरीचिका पर सुंदर प्रकाश डाला है !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

सुन्दर विवेचन और वासिरेड्डी सीता देवी के बारे में बताने के लिए आभार !


"इस उपन्यास के दो सहेलियों ने.....अलग-अलग प्रेमी चुने।"

यह बात कुछ हजम नहीं हुई :)

Sunil Kumar ने कहा…

मरीचिका पर प्रतिबन्ध सरकार का भय भी हो सकता है| कथा के अधर पर तो कुछ भी प्रतबंधित करने योग्य नहीं लगता , आपका आभार जानकारी देने के लिए ........

Amrita Tanmay ने कहा…

uttam samiksha aabhar

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

आदरणीय चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी
प्रणाम !
सादर सस्नेहाभिवादन !

आपके यहां हमेशा अलग ही पठनीय सामग्री मिलती है , जिसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं ।

मैं क्षमाप्रार्थी हूं दो दिन पहले आपके जन्मदिन पर शुभकामनाएं नहीं दे पाया … बड़े तो हमेशा छोटों को क्षमा करते ही आए हैं …
आपको जन्म दिवस की बहुत बहुत बधाई और मंगलकामनाएं !

* श्रीरामनवमी की शुभकामनाएं ! *
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Arvind Mishra ने कहा…

पुस्तक संक्षिप्ति से ही इसकी गहराई और लेखिका के विपुल अध्ययन की झलक मिल जाती है !
इस पुस्तक परिचय के लिए बहुत आभार !

सञ्जय झा ने कहा…

सत्य से भागने का भ्रम और सत्य से जूझने का क्रम, यह अन्तर सुन्दरता से स्पष्ट करती कृति। ....

bhai praveen tippani udhar lena ka bura nahi manenge----izajat denge........

happy b'day.....chachha....

pranam.

SANDEEP PANWAR ने कहा…

इस बारे में जानकारी के लिये धन्यवाद

इस पुस्तक में हकीकत है या कलम का कमाल?