शनिवार, 16 अप्रैल 2011

आज का समय और साहित्य-Ashok Vajpayee


समय और साहित्य- अशोक वाजपेयी

आज [१६ अप्रैल २०११] हैदराबाद की साप्ताहिक पत्रिका ‘दक्षिण समाचार’ के संस्थापक एवं प्रथम सम्पादक स्व. मुनीन्द्र जी की पुण्यतिथि पर एक आयोजन किया गया था|  आयोजन का आनंद लिया और उसकी समाप्ति पर हस्बेमामूल मैं, प्रो. ऋषभ देव शर्मा और प्रो. गोपाल शर्मा आयोजन स्थल [हिंदी महाविद्याल्य, विद्यानगर] से निकल कर किसी रेटोरेंट की तलाश में निकले।  कुछ दूर स्थित एक रेस्टोरेंट में बैठ कर इडली और चाय के साथ आयोजन की भी बातें होती रहीं। चाय पीने के बाद बिल भी आ गया, प्रो. गोपाल शर्मा [जो अभी-अभी विदेश से आए है और विदेशी मुद्रा का रूपांतरण करके रुपये जेब मे लिए घूमते हैं:)] ने बिल का भुगतान कर दिया।  बैठे-बैठे उनकी निगाह पडोसी टेबल पर रखे गुलाब जामुन पर पड़ी।  ऐसे पकवानों से विदेश में वंचित रहे प्रो. गोपाल शर्मा का दिल ललचाया और कहा कि हम गरमागरम गुलाब जामुन खायेंगे। अब चाय के बाद फिर.....खैर गुलाब जामुन आये पर ... हाय रि किस्मत...वो ठंडे निकले:)  विदा होते समय प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने आज्ञा दी कि  आज के आयोजन के बारे में मैं कुछ संस्मरण लिखूँ। यह उनका तरीका है लिखने के लिए प्रोत्साहित करने का:)...  तो सोच रहा हूँ.....खैर..


अयोजन के मुख्य वक्ता श्री अशोक वाजपेयी दिल्ली से पधारे थे। अध्यक्ष के रूप में चेन्नै से डॉ. बाल शौरी रेड्डी और विशेष अतिथि के रूप में पद्मश्री जगदीश मित्तल और दैनिक समाचार पत्र ‘स्वतंत्र वार्ता’ के सम्पादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल मंचासीन थे।

श्री अशोक वाजपेयी ने ‘समय और साहित्य’ के विषय पर बोलते हुए यह जताया कि मानव इतिहास में आज का समय हिंसा का समय है... यह हिंसा सारे विश्व में व्याप्त है- भले ही वो धर्म के नाम पर हो, राजनीति के नाम पर हो..वगैरह, वगैरह।

साहित्य के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री अशोक वाजपेयी ने कहा कि लोग प्रायः इस मुगालते में हैं कि साहित्य समाज को रास्ता दिखाएगा।  यह धारणा गलत है क्योंकि कोई कालिदास या कबीर को इसलिए नहीं पढ़ता कि वह यह जानना चाहता है कि उस समय का समाज कैसा था।  साहित्य केवल आधा सच होता है और पढ़ने वाले के उस आधे सच को अपने सच से जोडने से अलग-अलग रूप में सच्चाई सामने आती है, अपने-अपने विचारानुसार।

आज के मानव जीवन से जो तीन चीज़े लुप्त हो रही हैं  वो है पड़ोसी, अकेलापन और परिवेश। आज का व्यक्ति अपने पड़ोसी से कोई सम्बंध नहीं रखता।  उसे कभी अकेलापन मुयस्सर नहीं होता क्योंकि वह यथार्थ से दूर   एक वर्चुअल दुनिया में रहता है;  या तो टीवी के सहारे या सेल फोन के सहारे...  अपने को कोलाहल से जोड़े रखता है।  परिवेश की  विशेषता आज छूटती जा रही है क्योंकि हर स्थान पर एक जैसी दुकानें, एक जैसा बेगानापन और एक जैसा माहौल तैयार हो रहा है।  पहले हर स्थान कि अपनी विशेषता होती थी और वहाँ का बाशिंदा इस विशेषता पर गर्व किया करता था।

यह सब सुन कर मैं सोंचने लगा हूँ कि आज का समय, समाज और साहित्य उस समय से कितना भिन्न है जब साहित्य को कंठस्त किया जाता था, आत्मसात किया जाता था; समाज एक परिवार था और ज़रूरत के समय  कोई भी व्यक्ति एक दूसरे के काम आने के लिए तत्पर रहता था।

मन यही कहता है.... कोई लौटा दे मेरे बिते हुए दिन ... बिते हुए दिन वो प्यारे पल छिन॥

[वैसे  इस  आयोजन  की सचित्र  रपट "यहाँ" भी देखी जा सकती है.]

18 टिप्‍पणियां:

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

आदरणीय च.मौ.प्र.जी,
गरम रसगुल्लों के मोह में ठंडा-मीठा-भुरता खाने का यह मज़ा डॉ. गोपाल शर्मा जल्दी न भूल सकेंगे! उस वक़्त आपने उनका मुँह देखा - कैसा असंतोष झलक आया था!?
मैं प्रायः सोचा करता हूँ कि किस तरह उन्होंने अभी तक अपने बचपन को बचा कर रखा हुआ है! [अशोक वाजपेयी ने भी तो इस ओर इशारा किया था कि हमारा समय बचपन के भी लुप्त होते जाने का समय है.]

बढ़िया आलेख पर बधाई लीजिए.

केवल राम ने कहा…

समय और समाज के विषय में की गयी चर्चा के अंश और अशोक वाजपेयी ji के वक्तव्य को उदृत करते हुए जो बातें आपने कही हैं सोचने पर विवश करती हैं ..यह बात भी सही है कि आज मायने बदल गए हैं साहित्य और समाज के ....आपका आभार इस पोस्ट के लिए

Arvind Mishra ने कहा…

"आज के मानव जीवन से जो तीन चीज़े लुप्त हो रही हैं वो है पड़ोसी, अकेलापन और परिवेश।"
मुझे तो लगता है अकेलापन विस्तार पाता जा रहा है इतनी चिल्ल पों के बावजूद भी मगर यह अकेलापन उसतरह का अकेलापन नहीं है जिसमें ऋषि मुनियों ने अंतर्मंथन से कितनी ही सच्चाईयों से साक्षात्कार किया और मानवता को उपकृत किया -यह अलेलापन आत्मघाती है अ सृजनकारी है !

और हाँ ऋषभ जी को बतायें कि गुलाब जामुन और रसगुल्ले में फर्क होता है

डॉ टी एस दराल ने कहा…

आज के ज़माने में अकेलापन बढ़ता जा रहा है । वास्तविकता तो यही है कि आज मनुष्य जितना अकेला है उतना कभी नहीं रहा । बस फर्क यह है कि वह आभासी दुनिया में रहने का आदी हो गया है । एक सामाजिक प्राणी होते हुए भी समाज से दूर रहना चाहता है अपनी ही दुनिया में ।

लेकिन भूतकाल में भी तो नहीं जिया जा सकता ।

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@ Arvind Mishra

बेशक रसगुल्ले और गुलाब जामुन में फर्क होता है. लेकिन अपने उस गंवई संस्कार का क्या करूँ जो रसगुल्ले, गुलाब जामुन और काले जाम की तमीज के लिए कभी रंग नाम से [काला,सफ़ेद वगैरह] तो कभी स्थान नाम से [बंगाली] या कभी ठंडे-गर्म के भेद से काम चला लेता है? बड़े भाई, स्वाद के लपेटे में ज़बान [कीबोर्ड पर उँगली]फिसल गई...अब माफ़ भी कर दो!

बलविंदर ने कहा…

आदरणीय सर जी नमस्कार ! हमेशा की तरह ये संस्मरण भी काफी रोचक और प्रभावशाली है। अशोक वाजपेयी जी को किंही कारणों के चलते कल सुन नहीं पाई इसका बहुत ही ज्यादा मलाल था परंतु आपकी और प्रो.ऋषभदेव जी के ब्लॉग पर जाकर जो जानकारियाँ मिली उससे ऐसा लगा कि मैने अशोक जी को अच्छे से सुना भी तथा उनकी चिंताओं को भी महसूस करने का प्रयास किया। इसीलिए आपको बहुत-बहुत बधाई। आपका बीच-बीच में उर्दू अल्फाजों व समय परिवेश से सम्बंधित शब्दों को इस्तेमाल आपके लेहज़ को और भी सहज व रोचक बना देता है।

राज भाटिय़ा ने कहा…

पहले पडोसी क्या पुरा मोहल्ला ही एक दुसरे को जानता था, एक दुसरे के दुख सुख मे काम आता था, आज तो एक ही घर मे रहते हुये , एक ही बिल्डिंग मे रहते हुअये लोग एक दुसरे से अन्जान हे, लाखो करोदो की भीड मे भी इंसान अकेला...अशोक वाजपेयी ji के वक्तव्य अशोक वाजपेयी जी के वक्तव्य से यह दर्द साफ़ झलकता हे, इस सुंदर पोस्ट के लिये आप का धन्यवाद

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

अशोक वाजपेयी जी को सुनना अच्छा लगता है। वस्तुत:।

Suman ने कहा…

bhai ji, bahut khub likha hai .......

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अहा,रसगुल्ले।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

समय और समाज के विषय में चर्चा महत्वपूर्ण है...

Sunil Kumar ने कहा…

ठंडे रसगुल्ले खा कर इतना सुन्दर आलेख वाह !समय और समाज के बारे में जानकर अच्छा लगा |

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

डॉ. अरविंद मिश्र और डॉ. ऋषभ देव शर्मा की मीठी ‘रसभरी’ रंगभेदी बाते ये मूढ कम्पांउडर क्या जाने :)

Kamal ने कहा…

samay, samaaj aur saahitya ke rishte adhunikta ke pariwesh mein bahut badal chuke hain | kabhee sahitya
kranti ka janmdata hota tha samaj aur vyakti ko ek mazboot dhaageein pirota tha | aaj uska warchasw samaaptpraay hai |

kamal

Kamal ने कहा…

are lal safed kaale thande garam rasgulle ?
par apneraam ko to naheen padte gulgule bhee palle |
aapka shukriya ki saikadon meel door baithe mujhe bhee in sabka swaad mil gaya |

kamal

Arvind Mishra ने कहा…

ऋषभ जी ,
हम पूर्विया लोग इस फर्क से बहुत वाकिफ है -यहाँ गुलाब जामुन को काला जामुन भी कहते हैं -
चलिए नाम में क्या रखा है ?

Satish Saxena ने कहा…

विस्तृत विवरण अच्छा लगा भाई जी ...शुभकामनायें !!

Amrita Tanmay ने कहा…

पढ़कर सोचने पर विवश हुई ..अच्छी लगी .आज मायने बदल गए हैं साहित्य और समाज के..