मंगलवार, 11 जनवरी 2011

एक समीक्षा





एक लड़ाई- धुंध के विरुद्ध   

डॉ. सतीश दुबे [१९४०] एक वरिष्ठ रचनाकार हैं जिनके चार कहानी संग्रह, एक उपन्यास, पांच लघु कथा संग्रह आदि छ्प चुके हैं। इनके अलावा उनकी कई रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं जिनमें साप्ताहिक हिंदुस्तान और मुक्ता जैसी पत्रिकाएं भी रही हैं। कहानी संग्रह ‘धुंध के विरुद्ध’[२००९] में उनकी बाईस कहानियां संग्रहित हैं जिनमें जीवन से जुडी समस्याओं और घटनाओं के अलावा समाज में हो रहे असामाजिक तत्वों द्वारा की जा रही अराजकता को भी उजागर किया गया है।

इस कहानी-संग्रह की पहली कहानी ‘लोहांगी’ में उस संवेदना को उजागर किया गया है जो किसी व्यक्ति के अतीत से जुडी हुई हैं। पिता की एक लोहे की छोटी-सी संदूकची को बच्चे हटा देना चाहते है पर वह उस धरोहर को बचाए रखना चाहता है जिसे पिताजी ने गांव के बढई के पास बैठ कर बडे मनोयोग से बनवाया था।  किरचे-किरचे ज़िन्दगी, शीलाजी रुकी नहीं, शिखर,आस्था, पटाक्षेप, किरकिराते संशय,  ऐसी कहानियां है जिसमें पति-पत्नी के रिश्तों, आपसी मन-मुटाव, बीती यादें, गलतफहमियां आदि पर प्रकाश डाला गया है। इन मन-मुटावों का परिणाम कभी तलाक तक भी पहुंच जाता है। 

कभी-कभी मीडिया के खेल में भी सम्बंध बिगड जाते हैं जिसका चित्रण ‘शीलाजी रुकी नहीं’ में मिलता है। शीलाजी एक स्वछंद विचारोंवाली तलाकशुदा महिला है जो सामाजिक कार्य में रुचि रखती है। उनका एक साक्षात्कार समाचार पत्र में छपता है। बातचीत के दौरान स्त्री-पुरुष सम्बंधों के सन्दर्भ में बतौर उदाहरण निजी ज़िंदगी के कुछ अनुभवों तथा नाज़ुक प्रसंगों का उल्लेख करती है जिसे भेंटकर्ता ने कूट-पद्धति से सेक्स सम्बंधी कुछ मुद्दों पर विस्तृत टिप्पणियाँ लगा कर छाप देता है। यह वार्ता शीलाजी की पुत्री के दफ़्तर में चर्चा का विषय बन जाती है।

आज के भ्रष्ट राजनीतिक माहौल में ज़मीन लूटने वालों, मासूम किसानों को कुछ पैसों का लालच देकर वहाँ कन्क्रीट जंगल खडा करके रातोरात धन कमाने वालों पर भी कहानीकार ने प्रकाश डाला है।  महामारी, धरती पर पड़ा विवश- जैसी कहानियों में कंक्रीट जंगल के ठेकेदारों पर प्रकाश डाला गया है। ‘धरती पर पड़ा विवश’ में एक पात्र कहता है ‘हर शहर की तरह कार्यकलाप जारी होने के बावजूद यहाँ दो काम तेज़ी से हो रहे हैं; एक तो पहले वैध बाद में अवैध करार दिए गए भवनों याने लाखों-करोड़ों की निर्माण सामग्री तथा श्रमिकों के श्रम को बुलडोज़र या बारूद चलाकर ध्वस्त करना और दूसरा वर्षों पुराने हरे-भरे वृक्षों पर आरियाँ चलाना।’

आज की मानसिकता यह है कि व्यक्ति के चरित्र को नहीं उसके तड़क-भडक को देखा जाता है। ‘आभार’ कहानी में इसका सुंदर चित्रण हुआ है। सवेरे-सवेरे पत्नी जब पति से प्रेज़ेंट लाने के लिए कहती है तो पति ने बढी हुई दाढ़ी और घरेलू कपडों में बाहर निकलने में संकोच किया। तब पत्नी कहती है ‘आपको कौन लग्न करने जाना है, दुकानवाला तो पैसा देखता है, आदमी का चेहरा-मोहरा नहीं।’ पति को रास्ते में कई उलाहनाएं झेलनी पड़ती है और अंततः वह प्रेज़ेंट लेकर आता है तो पत्नी की उलाहना भी- ‘ऐसा घामड़ हुलिया लेकर बाहर चले गए, लोगों ने देखा होगा तो क्या समझा होगा, नाइट-ड्रेस नहीं बदली तो कोई बात नहीं, पर बाल व्यवस्थित कर शेवंग नहीं की थी तो चेहरे पर क्रीम नहीं तो तेल ही चुपड़ लेना था।’

जनजातियों की ईमानदारी पर एक कहानी है ‘प्रेत संस्कार’ जिसमें यह दर्शाया गया है कि ईमानदार व्यक्ति चाह कर भी बेइमानी नहीं कर सकता। मकान मालिकिन एक जनजातीय लड़की को अपने पास काम के लिए रख लेती है और उसकी निष्ठा से इतनी प्रसन्न रहती है कि उसे पुत्री के समान देखती है।  एक दिन मालिकिन का ज़ेवर गुम हो जाता है और संदेह लडकी पर होता है।  बहुत तलाशने के बाद भी ज़ेवर नहीं मिलता और वह लड़की काम के लिए आना बंद कर देती है।  संदेह पुष्टि में बदल जाता है।  एक दिन वह लड़की आती है और ज़ेवर ढूढ़ने के बहाने पूजा के कमरे में जाती है और घोषणा करती है कि ज़ेवर मिल गया।  इसे भले ही प्रेत संस्कार कह लें या पाप-पुण्य का डर... पर निष्कर्ष तो यही है कि ईमानदार अपना ईमान नहीं छोड़ सकता।

डॉ. स्वाति तिवारी [सचिव, दिल्ली लेखिका संघ] ने इस कहानी संग्रह के ‘दो शब्द’ लिखते हुए सही कहा है कि ‘ कहानियों से गुज़रते हुए पाठक स्वतः अनुभव करता है भाषा में संवेदना के महीन धागों के रेखांकन को।  उनके पात्र सर्वहारा और शोषित होने के वावजूद अदम्य जिजीविषा से भरे होते हैं, तभी तो इन कहानियों के माध्यम से डॉ. दुबे कथाबोध की सारी संयत व विविधिताओं को समाहित कर सबल चिन्तक के रूप में सामने आते हैं।’  आशा है डॉ. सतीश दुबे के इस कहानी संग्रह ‘धुंध के विरुद्ध’ को पाठको का स्नेह मिलेगा।  


पुस्तक परिचय

पुस्तक का नाम : धुंध के विरुद्ध
लेखक         : डॉ. सतीश दुबे
प्रथम संस्करण  : २००९ ई.
मूल्य          : १९० रुपये
प्रकाशक        : साहित्य संस्थान
                ई-१०/६६०, उत्तरांचल कॉलोनी
                [निकट संगम सिनेमा] लोनी बार्डर
                गाज़ियाबाद- २०१ १०२   


7 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

समीक्षा के लिये आप का धन्यवाद जी

शिवा ने कहा…

पुस्तक समीक्षा देने के लिये बहुत - बहुत धन्यवाद्

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

किताब के प्रति दिल में प्रलोभन पीड़ा करती सुन्दर समीक्षा चंद्रमौलेश्वर जी

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

सॉरी, पीड़ा को पैदा पढ़ा जाए !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सार्थक समीक्षा, सुन्दर लेखन की।

Rahul Singh ने कहा…

फिल‍हाल तो हमारा इस पोस्‍ट के प्रति स्‍नेह स्‍वीकार कीजिए.

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

सतीश दुबे विरले जीवट के कलमकार हैं. आपने उनकी संवेदना को सही पहचाना है.

हो सके तो इस समीक्षा की एक प्रति उन्हें डाक से भिजवा दीजिएगा.