दीवाली - एक लोककथा
विद्या विंदु सिंह
एक साहुकार की लड़की थी। वह रोज़ पीपल में जल चढ़ाने जाती थी। पीपल में से लक्ष्मी जी निकलतीं, कभी आग के रंग की, कभी गुलाबी रंग की। वे रोज़ उस लड़की से कहतीं कि तुम मेरी बहन बन जाओ। एक दिन लड़की ने कहा कि ‘अच्छा, अपने पिताजी से पूछ कर कल बन जाऊंगी।’
घर आकर उसने अपने पिता को पूरी बात बताई। पिता ने कहा कि अच्छा है, बहन बन जाओ।
वह गई, लक्ष्मी जी से बहनापा हो गया। लक्ष्मी जी बोलीं, ‘मेरे घर भोजन करने चलो।’ लड़की पिता से आज्ञा लेकर दूसरे दिन चली गई। वहाँ सोने की चौकी पर बैठाकर लक्ष्मी ने छप्पन भोग परोसा।
साहूकार की बेटी खा-पीकर चलने लगी तो लक्ष्मी ने उसका आँचल पकड़कर कहा कि हमें कब न्योता दोगी। वह बोली ‘पिता से पूछ कर बताऊँगी।’ पिता ने कहा,बुला लाना। उसने लक्ष्मी को न्योता दे दिया। पर बड़ी चिंता में थी। वहाँ तो सोने की चौकी पर बैठ कर छप्पन भोग लगाया। यहाँ टूटी काठ की चौकी भी नहीं। घर में गरीबी है, छप्पन भोग बनें तो कैसे? पिता ने कहा, ‘चिंता न करो, जो भी है, उसी से स्वागत करो। दरवाज़े पर दीपक जलाकर रख दो।’
लक्ष्मी जी आईं, प्रेम से रूखा-सूखा खाया। जिस पीढ़े पर वह बैठीं, वह सोने की हो गई। जिस थाली में खा रही थीं, वह सोने की हो गई। अनाज के भंडार भर गए। घर में चारों ओर सम्पन्नता छा गई।
जैसे उनके दिन बहुरे, वैसे सबके बहुरैं।
3 टिप्पणियां:
सुन्दर कथा, सर्वे भवन्तु सुखिनः।
बड़ी सुन्दर कथा है ! बच्चों को बहुत अच्छी लगती है ! जितनी बार सुनी जाए नयी सी लगती है !
आपने बहुत अच्छी कथा सुनाई और कथा के अंत की पंक्ति " उनके दिन बहुरे, वैसे सबके बहुरैं " ओ बहुत अपनी सी लगी । हमारी मम्मी जी भी जब त्योहारों पर कथा सुनाती है तो अंत में यही कहती है ।
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