सोमवार, 15 नवंबर 2010

मेरी एक कथा-१

दूध का हक़
चंद्र मौलेश्वर प्रसाद    

"बेटा, मैं तुम्हारी माँ हूँ....."

"मत कहो मुझे बेटा।  कौन सा फर्ज़ निभाया है माँ का?  अपनी किटी पार्टी, मौज-मस्ती, क्लब, दोस्त.... इसी में तो मस्त रहती थी तुम। मैं... एक नन्हा सा शिशु उन आयाओं के रहम-ओ-करम पर पलता रहा, जिनके पास रहम नाम की कोई चीज़ नहीं.... वे भी अपने दोस्तों के साथ होतीं जिनसे वो मन्तख़बाज़ी करती रहतीं।  और जो भी उन्होंने करम किया, वो इस अबोध बालक के लिए नहीं बल्कि तुम्हारे पैसे के लिए किया।  एक छोटा सा बालक माँ के प्यार को पाने के लिए किलकारियां मारता और बदले में उसे आया की गोद मिलती जो डरा-धमका कर चुप कराती!  अरे, तुमसे तो वो मज़दूरनी अच्छी है जो मेहनत के गीले पसीने से तरबतर होकर भी पास के टाट पर पड़े अपने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर दौड़ पडती और अपने सूखे बदन का दूध पिलाने के लिए लालाइत रहती है।  और तुम..... ?"

"बेटा, मैने तुम्हें जनम दिया है।"

"कौन सा बड़ा उपकार किया?  मुझे जन्म देने की कौनसी बड़ी आरज़ू थी तुम्हें? फ़िगर बिगडने के डर से पहले तो मुझे इस दुनिया में ही नहीं लाना चाहती थी ना।  और फिर, उसी फ़िगर की चिंता ने मुझे अपनी माँ के दूध से भी वंचित रखा।  डिब्बे का दूध पीकर, दूसरों की गोद में खेल कर बड़ा हुआ बालक अब संवेदनशील हो भी तो कैसे?  अब तो तुम अपने दूध का हक़ भी नहीं माँग सकती अपनी संतान से।  जाओ.... उसी पार्टी में जाओ... उसी समाज में जाओ, जिसके लिए तुमने अपनी संतान को बचपन, प्यार-दुलार - सभी से वंचित रखा और माँगो उन्हीं सहेलियों से अपने दूध का हक।"  

[मासिक पत्रिका ‘अहल्या’ के मई २००९ अंक में प्रकाशित]      


4 टिप्‍पणियां:

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

इस विषय पर पहले भी बहुत पढ़ चुकी हूँ चंद्र मौलेश्वर जी ...मुझे नहीं लगता आज की महिलाओं में कुछ ऐसी भ्रांतियां हैं ....हाँ कुछ वर्ष पहले इस फिगर वाले कांड ने काफी जोर पकड़ा था ....शायद आपकी कहता भी तब की हो ....!!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आप ने सही कहा हरकीरत जी, मेरे कहानी लेखन को विराम १०-१२ वर्ष पूर्व ही लग चुका है॥

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

माँ का स्नेह हर बच्चे को मिले।

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

कह नहीं सकता .....पर प्रार्थना है कि यह कथा हमेशा झूठी लगती रहे ? स्नेह रहित माँ और उसके बच्चे समाज के लिए बिलकुल ही अनुपयोगी साबित होंगे !