सोमवार, 1 नवंबर 2010

बुढ़ापा : ‘ओल्ड एज’ - सिमोन द बउवा [६]



Old age - Simone de Beauvoir - बुढ़ापा [6] - सिमोन द बुवा 


बुढ़ापे का भ्रम और सच


अब तक हमने बुढ़ापे को वस्तुनिष्ठ  दृष्टि से देखा है जिसे  जीवन में सभी भोगते हैं, परंतु बुढ़ापे को आत्मनिष्ठ  दृष्टि से नहीं आंका है।  कोई भी व्यक्ति अपने को उस समय तक बूढ़ा नहीं समझता जब तक उसे ऐसा महसूस नहीं होता है।  कभी-कभी तो किसी व्यक्ति को चाचा, मामा या अंकल कहने पर क्रोध भी आ जाता है- इसका कारण यही है कि व्यक्ति आयु से बूढ़ा नहीं बल्कि अपनी सोच या मजबूरी के कारण प्रथम बार अनुभव करने लगता है कि बढ़ती आयु ने उसे घेर लिया है। जीवन के इस पड़ाव के संबंध में  सिमोन द बुआ ने अपनी पुस्तक ‘ओल्ड एज’ में उदाहरण देकर कुछ निष्कर्ष निकाले हैं।  वे  बताती हैं -

"गेटे ने कभी कहा था-‘उम्र हमें  अचानक अहसास दिलाती है।’ ऑर्गन ने आश्चर्य व्यक्त किया था-‘यह क्या हो गया! ऐसा कुछ कि मैं बूढ़ा हो गया।’ मैंने जब आइने के सामने खड़े होकर अपने को देखा तो यह पता ही नहीं चला कि मैं चालीस पार कर रही हूँ। हम जब बचपन से किशोरावस्था की दहलीज़  पर कदम रखते हैं तो हमारे शरीर में कुछ परिवर्तन होते हैं जो हमें इस बदलाव का अहसास दिलाते हैं।  युवावस्था के बाद समय गुज़रता जाता है और कभी बुढ़ापे के बारे में कोई नहीं सोचता।  बुढ़ापे को एक ऐसी बाह्य वस्तु समझा जाता है जिसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है।  तब तक हम अपने आपको जवान समझते है जबतक कोई दूसरा हम पर बूढे का विशेषण नहीं जड़ देता। पहली प्रतिक्रिया में  ऐसा अक्सर सुनने को मिलता है कि मैं बूढ़ा नहीं हूँ। यह एक ऐसा भ्रम है जहाँ लोग वृद्धावस्था की स्थिति आंकने में चूक जाते हैं।  ऐसा लगता है कि हम दो में बँट   गए हैं- एक तो वह स्व जो अपने को जवान समझ रहा है और दूसरा यह शरीर जो वृद्धावस्था के लक्षण बता रहा है। जब कोई कहता है- साठ साल का बूढ़ा, तो हमें  ऐसे कोई लक्षण दिखाई नहीं देते जिनसे हमें  बूढ़ा समझा जाय। ऐसा व्यक्ति  आज से दस वर्ष पूर्व जो कार्य वह करता आ रहा था , अब भी उसी कुशलता से उसे करता है, उसकी शारीरिक शक्ति में भी उसे कोई कमी नहीं दिखाई देती, तो यह ‘बूढ़े’ का विशेषण उसे अजीब सा लगता है।  यहीं उसे यह जानने की आवश्यकता होती है कि बूढ़े और बीमार में अंतर है।  बीमारी  में व्यक्ति को अपनी कमज़ोरी और विवशता का अहसास होता है, परंतु बुढ़ापा चुपके से आता है। किसी भी प्रकार का शारीरिक बदलाव रोज़ देखनेवाले को शायद ही दिखाई दे।  बीमारी से व्यक्ति उबर पाता है पर बुढ़ापे से नहीं।"

बुढ़ापे का अहसास कोई कैसे कर पाए ?  कुछ साहित्यकारों के लेखन को लेकर सिमोन उद्धृत करती है--

"लेनिन कहा करते थे- ‘जानते हो सब से बड़ा व्यसन क्या है? व्यक्ति का पचपन पार करना।’ ट्राट्स्की के जीवन का ध्येय काम और संघर्ष था। जब वे पचपन वर्ष के हुए तो उन्होंने अपनी पत्नी को पत्र में लिखा था-‘अब मैं थकने लगा हूँ, नींद भी नहीं आती, भुलक्कड़ हो गया हूँ.... क्या यह अवस्था अस्थाई है या सदा के लिए? - देखा जाएगा।’

"लारोक रिपोर्ट में यह कहा गया है कि साठ वर्ष की आयु वालों में आधे से अधिक यह समझते हैं कि वे अस्वस्थ हैं जबकि यह धारणा केवल भय के कारण बनती हैं।  परंतु इंग्लैंड के टनब्रिज व शेफ़ील्ड ने जो सर्वेक्षण १९५६ में किया था उसके परिणाम विपरीत थे।  इस सर्वेक्षण में यह पाया गया कि २६% पुरुष स्वस्थ थे जबकि ६४% अपने आप को स्वस्थ समझते थे।  इसी प्रकार २३% महिलाएं स्वस्थ थीं जबकि ४८%  स्वस्थ समझती थीं। इससे यह निष्कर्ष भी निकला कि वृद्ध पाचन शक्ति, साँस, मस्तिष्क और शरीर की कमज़ोरी से ग्रस्त थे पर उन्हें इसका अहसास नहीं था।  इसीलिए ये वृद्ध अस्वस्थ युवाओं के मुकाबले डॉक्टर के पास कम जाते और कम दवाइयों का सेवन करते थे।

"बुखारेस्ट जेरियाट्रिक इंस्टिट्यूट के प्रो. ए.सियूसा का मानना था कि वृद्धों की अपने स्वास्थ्य  के प्रति उदासीनता के दो कारण हैं। एक तो वे यह नहीं समझते कि उनके स्वास्थ्य की हालत दयनीय है और उन्हें चिकित्सा कीआवश्यकता  है और दूसरा यह कि वे वैराग्य की मनःस्थिति में चले जाते हैं।  तभी तो, गेलन ने वृद्धावस्था को स्वास्थ्य और अस्वस्थता के बीच की अवस्था बताया है।"

ऐसे मौके हर एक के जीवन में आते हैं जब एक अर्से बाद आप किसी से मिलते हैं और मन में सोचते रहते हैं कि वह कितना बदल गया कि तभी वह कहता है - तुम कितने बदल गए! हम चाहें या न चाहें, दूसरे की बात तो माननी  ही पडेगी ।  समय की रफ़्तार को कोई रोक नहीं सकता। समय के साथ होते आश्चर्यजनक बदलाव की घटना की चर्चा   करते हुए सिमोन बताती हैं -

"वृद्ध इस मानसिकता में होते हैं कि उन्हें निकृष्ट प्रजाति का प्राणी  समझा जाता है, इसलिए वे अपने आप को वृद्ध कहने की अपेक्षा   अस्वस्थ समझते हैं।  कुछ को अपनी आयु का बहाना सुलभ लगता है।  वृद्धावस्था इतनी आहिस्ता से शरीर का द्वार खटखटाती है कि पता ही नहीं चलता कि कब यह स्थिति आ गई। मदाम द सेविन ने २७ जनवरी १६८७ को इसका सुंदर वर्णन इस तरह से किया था -‘नियति हम पर इतनी दयालु है कि हमारे जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का हमें पता ही नहीं चलता।  यह ढलान इतनी कोमलता से फिसलती है कि समय की गति का अहसास ही नहीं होता।  दिन-ब-दिन हम अपना वही चेहरा आइने में देखते हैं।  कल का चेहरा आज दिखाई देता है और आज का चेहरा कल दिखाई देगा।  परंतु यदि आज साठ वर्ष की आयु में खडे होकर हमारे बीस वर्ष की आयु का चित्र देखेंगे तो शरीर के बदलाव पर आश्चर्यचकित रह जाएँगे।’

"चूंकि यह बदलाव हमारे भीतर निरंतर चलता रहता है, इसलिए इस परिवर्तन को दूसरा कोई ही बता सकता है जो एक अंतराल के बाद देखता है।  यदि कोई यह कह दे कि ‘तुम बूढ़े हो गए हो' तो हम सम्भवतः अपमानित महसूस करते हैं।  फिर भी, चेहरे की झुर्रियां आयु का पता देती हैं भले ही शरीर सुगठित  हो।  इसे  मारिया डोरमे ने एक घटना के माध्यम से समझाया है।  एक व्यक्ति उनके सुडौल शरीर को देखकर पीछा करने लगा।  जैसे ही करीब आकर उसकी दृष्टि उनके चेहरे पर पड़ी, वह चुपके से आगे निकल गया।"

अपने बदलाव के ऐसे अनुभव प्रायः सभी के साथ होते हैं जब वे किसी परिचित से एक लम्बे अंतराल के बाद मिलते हैं। सम्भवतः दोनों के मन में एक दूसरे के शारीरिक बदलाव पर वही विचार उमड़ते रहते हैं। सिमोन अपना एक संस्मरण उद्धृत करते हुए बताती हैं -

"जब मैं रोम में थी, एक दिन होटल के टेरेस पर बैठी कॉफ़ी पी रही थी। बगल में बैठी छरहरे बदन की एक साठ वर्षीय अमेरिकी महिला किसी से बातें कर रही थी।  अचानक उसकी खनकदार हँसी सुनकर मैंने उसे गौर से देखा।  समय मुझे बीस वर्ष पीछे ले गया जब मेरा परिचय इस महिला से केलिफ़ोर्निया में हुआ था। मैंने उस महिला के बदलाव के कारण उसको नहीं पहचाना और सम्भवतः मेरे शारीरिक परिवर्तन के कारण उसने भी मुझे नहीं पहचाना हो!

"सत्तर वर्षीय जौहनडो ने अपनेआप को कोसते हुए कहा था- ‘आधी सदी से मैं अपनेआप को बीस वर्ष का ही समझता आ रहा था पर समय ने इसे अब नकार दिया है और अब मैं यह गलत धारणा तजता हूँ।'  जैसा कि सार्त्र ने माना है , यह वह असम्भव स्थिति होती है जहाँ हम अपनेआप को उस दृष्टि से नहीं देख पाते हैं जिससे  दूसरे हमें देखते हैं।  

"बुढ़ापा जीवन से परे कुछ ऐसी चीज़ है जिसका मैं भीतर से अनुभव नहीं कर पा रही हूँ।  शायद मेरा अहं  उस अंतर्मन के भीतर नहीं देख पाता,  यह ऐसी वस्तु है जिसे दूर से ही देखा जा सकता है।  फिर भी, कई बार हम आश्वस्त होते हैं कि हमने अपनी पहचान नहीं खोई है।  यही प्रक्रिया बचपन खोकर किशोरावस्था में कदम रखने पर होती है पर बचपन की स्थिति से बदलाव शुरू हो जाते हैं - आवाज़ बदलने लगती है, शरीर में बदलाव आने लगते हैं जो हमें  दिखाई देते हैं। इन बदलावों को मनोवैज्ञानिक ‘पहचान संकट’[आइडेंटिटी क्राईसिस] कहते हैं।  जीवन के इन दो बदलावों में अंतर होता है।  किशोरावस्था में कई कल्पनाएं उड़ान भरती हैं[ अपने भविष्य की ओर आशा से देखना],.... जबकि वृद्ध की कल्पना ही जवाब दे चुकी होती हैं और भविष्य अंधकारमय लगता है! यह अवस्था मानसिक अवसाद और मानसिक आघात को जन्म देती है।

"बुढ़ापे का अनुभव किस आयु में होता है, यह अपने-अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।  किसी को यह अनुभव जल्दी होने लगता है तो कोई जीवन के अंतिम समय तक भी अपने को युवा महसूस करता है। युवा बॉड़लेर ने खीझ  कर कहा था- ‘मेरे जीवन में इतने संस्मरण हैं जो एक हज़ार वर्ष के वृद्ध में होते हैं।’ फ़्लाबर्ट अपने परिवार की परिस्थितियों के कारण बचपन से ही अपने को बूढ़ा समझते थे। विभिन्न कारणों से अर्थिक स्थिति में गिरावट आने के बाद उन्होंने कहा था-‘जीवन में कोई सार नहीं रह गया है; अब इस निराशापूर्ण अवसाद में बुढ़ापा आ गया। अपनेआप को मैं सौ वर्ष का बूढ़ा अनुभव करता हूँ।’"

कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि बुढ़ापा उन के लिए नहीं है, यह तो दूसरों के लिए है, ठीक उसी तरह जैसे किसी की मौत को लेकर लोग सोचते हैं कि यह औरों के लिए है, खुद के लिए नहीं; और कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो शारीरिक रूप से स्वस्थ दिखाई देते हैं पर अपनेआप को बूढ़ा महसूस करते हैं।  इस मनोवैज्ञानिक तथ्य पर अपने विचार रखते हुए सिमोन बताती हैं -

"संघर्षमय जीवन बितानेवाले लोग अपनेआप को जल्द ही बूढ़ा महसूस करते हैं यद्यपि शारीरिक तौर पर वे बूढ़े नहीं दिखाई देते।  प्रो. बोरलियर की टीम ने १०७ पचपन-वर्षीय स्कूली शिक्षकों का सर्वेक्षण किया और यह निष्कर्ष निकाला कि ४०% शिक्षक अपनी आयु से अधिक युवा महसूस करते हैं जबकि ३% अधिक बूढ़े।  १९५४ ई. में अमेरिका के टकमॉन एण्ड लोर्गे की टीम ने १०३२ लोगों से प्रश्न किया तो पाया कि साठ वर्ष के लोग अपने को बूढ़ा नहीं मानते जबकि ५३% अस्सी वर्षीय अपने को बूढ़ा महसूस करते हैं।

"ऐसे ही प्रश्न वृद्धाश्रम के लोगों से पूछे गए तो उनका उत्तर था- मैं बूढ़ा नहीं हूँ... मैं बुढापे के बारे में सोचता भी नहीं ... मैं कभी डॉक्टर के पास नहीं जाता ... मैं तो अभी बीस का महसूस करता हूँ.. । कुछ तो यह समझते हैं कि वे आयु की सीमा से परे हैं... वे अन्य से अलग हैं।  ऐसे लोग अपने आप को धोखा देते हैं।  भड़कीले कपड़े पहन कर, मेकअप करके या चाल-ढाल से यह जताते हैं कि वे बूढ़े नहीं हैं और ऐसे लोग अपने आप को आश्वस्त भी कर लेते हैं।

"कुछ लोग इस प्रकार के दृष्टिकोण को छलावा कहते हैं और बुढ़ापे को घृणित दृष्टि से देखते हैं।  मदाम द सेविने ने बूढ़ों की दयनीय परिस्थिति को देखते हुए १५ अप्रैल १६३५ को कहा था- ‘कितना अपमानजनक होता है इस आयु में मानसिक और शारीरिक बोझ को घसीटना , मैं तो चाहूँगी कि एक सुंदर छवि लोगों के बीच छोड़ जाऊँ न कि एक पंगु और अपाहिज की।  कितने अच्छे हैंवे  देश जहाँ बूढ़ों पर दया करके उन्हें इच्छामृत्यु की स्वीकृति दी जाती है।’"

समय के साथ व्यक्ति का डीलडौल भी बदल जाता है और यह परिवर्तन इतना धीरे होता है कि रोज़ देखनेवाले को इसका अहसास नहीं होता, परंतु एक लम्बे समय के बाद मिलनेवाला इस परिवर्तन पर न केवल आश्चर्यचकित रहता है बल्कि इसका इज़हार भी करता है। वह यह भूल जाता है कि यही भाव सामनेवाले व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में भी मेरे बारे में घूम रहे हैं।  इस मन:स्थिति के बारे में सिमोन का कहना है-

"जो लोग हमें  नित्य देखते हैं वे हमारे चेहरे के बदलाव पर सिर्फ़ इतना ही कह सकते हैं कि चेहरे में गम्भीरता और प्रौढ़पन आ गया है; परंतु जो हमें कई वर्षों बाद देखते हैं, वे महसूस करते हैं कि हम बुढ़ापे की ओर जा रहे हैं।  इस प्रतिक्रिया को हम कभी हँसी  में उड़ा देते है या कभी क्रोध से या गम्भीरता से देखते हैं।  मैंने अब तक किसी महिला को जीवन में या पुस्तकों में भी मुस्कुराकर बुढ़ापे की बात का स्वागत करते नहीं देखा है। पुरुषों में आत्मकामुकता [नार्सिसियत] की झलक दिखाई देती है।  वे अपनेआप से इतना प्रेम करते हैं कि शरीर पर आए कुछ दाग भी उन्हें स्वीकार नहीं होते। ऑरगन ने लिखा है कि 'मेरे  हाथों पर आए ताम्बाई धब्बे चिल्लाकर मेरी वृद्धावस्था का पता देते हैं।’  लियोनार्डो डा विंची जैसे वृद्ध चित्रकार ने अपने आत्मचित्र में बढ़ते सफ़ेद बाल, दाढी और भौंवे चित्रित करने पर भी मुखमण्डल की आभा युवा की रखा है; मानो अपने सत्तर वर्षीय चित्र में पचास वर्षीय मुख को चित्रित किया हो।  हम स्वीकार करें या न करें हमें तो वृद्धावस्था का जीवन बिताना ही पड़ता है।"

स्वास्थ्य  के बारे में वृद्ध अपने कष्ट छिपाने का प्रयास करते हैं।  प्रायः वे गर्व से यह भी कहते हैं कि उन्हें डॉक्टर के पास जाने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती।  हो सकता है कि वे चिकित्सा नहीं करवाना चाहते , पर इसका यह अर्थ नहीं है कि वे अस्वस्थ नहीं हैं।  इस मुद्दे पर प्रकाश डालती हैं  सिमोन-

"अपने स्वास्थ्य  के प्रति उदासीनता वृद्धों का एक दिखावा मात्र होता है जबकि वे चिंतित रहते हैं और इस चिंता के बहाने भी ढूंढते हैं।  कभी-कभी सेवानिवृत्ति को अपनी अस्वस्थता का कारण बताते हैं क्योंकि उनका पद छिन गया जिस पर वे इतराते रहे।  एडमण्ड द गोनकोर्ट ने अपनी अस्वस्थता से अधिक चिंतित रहने का कारण १० जून १८९२ के ‘जर्नल’ में बताया हैं- ‘एक छोटी खरोंच या किसी  विपरीत कारण से मौत का भय छा जाता है।’  लियोटॉड कहते हैं कि ढलान की ओर दौड़ती ज़िंदगी गहरे, और गहरे, उतरती जाती है।  ढलान की ओर जाता जीवन एक अनिवार्य प्रक्रिया है; परंतु यह कितनी धीमी या कितनी तेज़ होती है, इसे जीवन की परिस्थितियां  तय करती हैं।  कभी किसी को हृदयाघात या पक्षाघात हो गया तो जीवन की गति अचानक धीमी हो जाती है। परंतु यह शारीरिक से अधिक मानसिक प्रभाव पर निर्भर करता है।  जैसाकि क्लॉडेल ने कहा-‘अस्सी वर्ष का वृद्ध! न आँख, न कान, न दाँत, न पैर... जब ये सब चले गए और फिर भी अच्छी तरह जी रहे हैं तो कितना आश्चर्य होता है!’ अस्सी वर्ष की आयु में वाल्टेयर कहते हैं- ‘हृदय बूढ़ा नहीं होता पर दुख यह है कि वह जीर्ण शरीर में बसता है।  यह सही है कि मैं बहरा, लगभग अंधा और पंगु हो गया हूँ, फिर भी जीने की आशा नहीं छोड़ता।’

"यह व्यक्ति की मनसिकता और सोच पर निर्भर करता है कि वह किस स्थिति में है।  यदि वह यह सोचने लगे कि वह पंगु है या बहरा है और चलना छोड़ देता है या सुनना छोड़ दे तो वह सचमुच वैसा ही हो जाता है। उसका कारण यह है कि जिन अंगों का काम मनुष्य छोड़ देता है वे कमज़ोर  हो जाते हैं।  ऐसे वृद्ध जीवन की आशा छोड देते हैं और सारे संसार पर अपने असहाय होने का दोष मढ़ देते हैं। यह स्थिति वृद्धाश्रमों में प्रायः देखने को मिलती है।

"परिस्थिति का सामना करनेवाले लोग इन कमज़ोरियों को दूर करने के उपाय निकाल ही लेते हैं जैसे नकली दाँत, चश्मा, सुनने की मशीन, छड़ी आदि; जिनकी सहायता से वे रोज़मर्रा के कार्य नियमित कर सकें।  जो लोग अपनी चिन्ताओं को दूर रखते हैं और किसी भी कमज़ोरी के समाधान  खोज लेते हैं वे अपने बुढ़ापे को आरामदेह और सरल बना लेते हैं।  जैसा कि वेनिस के कोर्नेरो ने कहा था- ‘मैं अपने दोस्तों, पुत्रों, पौत्रों से घिरा रहता हूँ, सुन-पढ़-लिख सकता हूँ, घुड़सवारी और शिकार कर सकता हूँ तो मेरा बुढ़ापा मज़े में गुज़र रहा है; मैं इस बुढ़ापे को अपनी जवानी के बदले भी नहीं बदलना चाहूँगा।’  उन्होंने अपनी कम ज़रूरतों को भी इस सुखद स्थिति का कारण बताया और सौ वर्ष की आयु में उनके स्वस्थ व संतुष्ट  जीवन का अंत हुआ।"

एक पुराना मुहावरा है - स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क। जब तक मन और शरीर स्वस्थ रहते हैं, अच्छे जीवन की आशा बनी रहती है।  जब शरीर और मस्तिष्क साथ-साथ नहीं चलते तो जीवन में विकृतियां आ जाती हैं और उन्हें कहाँ पहुँचा सकती हैं इसका उदाहरण हेमिंग्वे के जीवन से लिया जा सकता है।  साहित्य के शिखर पर पहुँच कर भी इस उपन्यासकार को आत्महत्या करनी पड़ी थी। ऐसी विषम परिस्थितियों के बारे में सिमोन बताती हैं -

"वृद्ध के जीवन को  उस समय निराशा घेर लेती है जब उसकी  कामनापूर्ति  में उसका शरीर साथ नहीं देता ।  तब वह टूट जाता है पर अपने मन को समझाने का प्रयास करता है।  प्लेटो ने कहा था- जब शरीर की आँखें मद्धम हो जाती हैं  तो आत्मा की आँखें  खुल जाती हैं । सेनेका कहते हैं कि आत्मा का जब शरीर से  कोई सम्बंध नहीं रह जाता तो वह फूल की तरह खिल उठटी  है। इसी प्रकार अपनी वृद्धावस्था में मन को बहलाने के लिए टाल्स्टाय ने कहा था- मानव जाति का उत्थान वृद्धों से ही हो सकता है क्योंकि वे अच्छे और बुद्धिमान मनुष्य होते हैं।"

मन को बहलाने के लिए चाहे कुछ भी बहाने ढूँढ लें पर सच्चाई यह है कि बुढ़ापा मृत्यु से बस एक कदम पीछे होता है। ऐसे में शरीर जीर्ण होने पर भी विचारों पर अंकुश नहीं रहता।  कुछ बुद्धिजीवी यह कहकर अपने मन को भले ही समझा लें कि उनका शरीर जीर्ण हुआ तो क्या बुद्धि तो तीव्र है, परंतु सच्चाई यह है कि अधिकतर वृद्ध मानसिक व शारीरिक बीमारियों से जूझते रहते हैं।  ऐसी विवशताओं पर प्रकाश डालते हुए सिमोन बताती हैं-

"आयु के साथ यद्यपि कामुक ग्रंथियां नाकारा हो जाती हैं परंतु फ़्रॉयड ने यह स्थापित किया कि लैंगिक शक्ति लुप्त होने के बाद भी कामलिप्सा [लिबिडो] की शक्ति बढ़ सकती है या कमज़ोर पड़ सकती है पर लुप्त नहीं होती; ठीक वैसे ही जैसे बचपन में यह प्रवृत्ति कामुक ग्रंथियों पर आधारित नहीं होती-  ये  ग्रंथियां तो शरीर के विकास के साथ विकसित होती हैं।  इसलिए यह निष्कर्ष निकलता है कि कामग्रंथियों पर कामुकता आधारित नहीं होती और यह मनुष्य के अंत तक साथ रहती है भले ही वह नपुंसक ही क्यों न हो।  सार्त्र  ने भी यही कहा था कि यह मानसिकता मनुष्य के साथ जीवन भर रहती है और मृत्यु के साथ ही इसका अंत होता है।

"कामुकता मनुष्य के मन में ऐसा तनाव पैदा कर देती है जो निर्मुक्ति के साथ मन को शांत कर देता है।  यह मानसिकता खासकर युवावस्था में तीव्र होती है।  बाद में यह पूर्ण प्रेम व आनंद का रूप ले लेती है जिसमें स्त्री-पुरुष एक दूसरे में समाने की प्रक्रिया को खोजते हैं - यह आनंद कामुकता से भिन्न होता है।  यह कहना गलत है कि बूढ़ों का यह सदाचार इसलिए है कि उनमें कामुकता नहीं होती।"

बुढ़ापे में यदि कोई व्यक्ति अपनी कामुकता के कारण कुछ करता है तो समाज उसे प्रताड़ता है और वह जगहँसाई का पात्र  बन जाता है।  ‘बूढ़ा होकर भी ऐसा करता है, शरम नहीं आई उसे’- ऐसा ताना अकसर सुनने में आता है। ‘लोग क्या कहेंगे’ की मनोवृत्ति में वह जीता है और अपनी वासना की प्रवृत्ति को दबाने का प्रयास करता है।  ऐसे में गृहस्थ जीवन एक बड़ा सहारा होता है जो उसकी इस वासना को चारदीवारी में तृप्त कर सकता है। अपनी पत्नी का सहयोग उसे समाज के मखौल से बचा सकता है और अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारण असफल होने की सम्भावना से मायूसी भी नहीं झेलनी पड़ती।  यौन जीवन के बारे में विभिन्न वृद्ध साहित्यकारों की अभिव्यक्ति को खंगालते हुए सिमोन बताती हैं-

"छटोब्रैंड ने अपनी झुर्रियों के कारण अपना चित्र बनवाने से इन्कार कर दिया था।  उन्होंने अपनी एक कृति में कहा है- ‘यदि तुम यह कहोगी कि मैं तुम्हें अपने पिता की तरह प्यार करती हूँ तो मेरा मन भय से भर जाएगा, यदि तुम मुझे अपना प्रेमी कहोगी तो मैं इसे  मानने से इन्कार कर दूँगा क्योंकि तब मैं हर युवक को अपना  प्रतिद्वंद्वी मानने लगूंगा।  तुम्हारी उदासीनता मुझे अपने बुढ़ापे की याद दिलाएगी और तुम्हारी नज़दीकी जलन पैदा करेगी।  बुढ़ापा व्यक्ति को कितना विवश कर देता है!’

"ऐसा नहीं है कि हर वृद्ध की यही मानसिकता होती है। ड्यूस द बौलां को ६६ वर्ष की आयु में पुत्र हुआ और १७०२ई. में सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने तीसरा विवाह रचाया था।  टाल्स्टाय के बारे में यह प्रसिद्ध था कि वे सत्तर वर्ष की आयु में भी लम्बे सफर से लौटकर अपनी पत्नी से प्रेम-क्रीडा करते थे। वेल्स ने डोलरस से साठ वर्ष की आयु में प्रेम किया था और उन्हें अपनी  यौनशक्ति पर आश्चर्य भी था।  यह और बात है कि ६६ वर्ष की आयु में उन्होंने डोलरस से सम्बंध विच्छेद कर लिया और एक अन्य लड़की मिल्हिट से सम्बंध जोड़ लिया जो लम्बे समय तक चला।  चार्ली चैपलिन ने ऊना से ढलती उम्र में ब्याह रचाया था।  पिकासो को साठ वर्ष पार करने के बाद फ़ैन्कोस गिलोट से दो बच्चे हुए थे।  पाब्लो कैसल्स ने अस्सी वर्ष की आयु में अपनी शिष्या से ब्याह रचाया था।"

ऐसे अनगिनत उदाहरण देकर सिमोन ने यह जतलाया कि वृद्धावस्था में भी लोग लैंगिक सम्बंध बनाते हैं और सक्रिय रहते हैं।  महिलाओं के बारे में जानकारी देते हुए सिमोन बताती हैं-

"पुरुषों के मुकाबले में आयु के साथ महिलाओं में यौनिक बदलाव अधिक नहीं होता है।  किन्से की रिपोर्ट के अनुसार महिलाएं यौन विषयों में अधिक स्थिर रहती हैं।  रोग विज्ञान की दृष्टि से भी यह प्रमाणित हुआ है कि महिलाओं की यौनेच्छा वृद्धावस्था में भले ही कम हो जाए पर पूर्णरूप से बुझती नहीं है।  परंतु इतिहास और साहित्य में वृद्ध महिलाओं के इस पक्ष  पर कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं मिलते; जबकि पुरुषों ने इस विषय पर खुल कर लिखा है जिनमें बर्नार्ड शॉ, शोपेनहावर,गिदे, ह्यूगो, पिकासो, आदि के संस्मरण उल्लेखनीय हैं।"

जीवन की संध्या में सभी ऐसे  सुखमय जीवन की कामना करते हैं जिसमें अन्य सुखसुविधाओं के साथ यौनसुख भी मिले, जो एक भ्रम है।   यह शारीरिक विवशता  ही कही जाएगी कि वृद्ध इस सुख से आंशिक रूप में ही सही, वंचित रहते हैं; और यह  एक सत्य है।

8 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गहरे चिन्तन से भरी रचना।

राज भाटिय़ा ने कहा…

आप ने सही लिखा आप से सहमत हे

S.M.Masoom ने कहा…

Good post. आप सबको दिवाली की शुभ कामनाएं  आज आवश्यकता है यह विचार करने की के हम हैं कौन?

ZEAL ने कहा…

बुढ़ापे पर विषद चर्चा। आपने कैसे अनुभव किया इतना सब ?

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

सर्वप्रथम तो टेम्पलेट की बधाई ....शीर्षक के मुताबिक आपने कलम की तस्वीर भी लगाई ....
अब तक तो मैं यही समझती रही कि इसे आप लिख रहे हैं ...आज पहली पोस्ट तक गयी तो आपकी ये पंक्तियाँ पढ़ी .....

डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी [अध्यक्ष एवं प्रोफ़ेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा] से बुढ़ापे पर जब बात चल पड़ी तो उन्होंने सिमोन द बउवा की एक अंग्रेज़ी पुस्तक का ज़िक्र किया और बताया कि इसका अनुवाद अभी तक हिंदी में देखने में नहीं आया है। उन्होंने कहा कि क्यों न इस पुस्तक का सार-संक्षेप हिंदी पाठकों के बीच रखा जाय और फिर यह कार्य मुझे सौंपा।....
बहुत कठिन कार्य है अनुवाद ......पर आप इतना बढ़िया लिख रहे हैं कि जरा भी पता ही नहीं चलता कि अनुवाद है या मूल .....
वो भी एक पूरी पुस्तक ....?
मैं जसवीर रना कि एक खानी कर रही हूँ तो समय ही नहीं मिल पाता ...उनका आग्रह है कि इसे मैं ही अनुवाद करूँ ....

हाँ आपने पिछली पोस्ट पे भी भाग ६ लिखा है और इस पर भी ....क्या ये भाग ७ नहीं ....?

Unknown ने कहा…

दीपावली के इस शुभ बेला में माता महालक्ष्मी आप पर कृपा करें और आपके सुख-समृद्धि-धन-धान्य-मान-सम्मान में वृद्धि प्रदान करें!

ashwinnallarinaidu ने कहा…

प्रसादजी ,दीपावली की हार्धिक शुभकामनायें .आप का ब्लागस्पाट थो अथिउथं है और यह बहुत सारे प्रशंसाओं की काबिल इ तारीफ़ है . आप की दीवानगी पर कौन क्या फरमाए ,जब सारा जग आपने ही दीवानी धुन की दौड़ में भाग रहा है ,यह मेरा मानना है , होश्वाले थो ऊपर है सिर्फ इस जग के दीवानों की दीवानगी को देखकर वोह ख़ामोशी से मुस्कुरा रहे है .एक ज्ञानी ने हमसे कहा था कभी , "क्या आप आप के चाहिते भगवन को हसना चाहते है ,थो मैंने कहा हाँ ,थो ज्ञानीजी ने कहा " आप अपनी भविष्य के बारे में बताये ".निदा फाजली जी कहा " वक़्त से पहले किस्मत से ज्यादा , किसी को मिला है न किसीको मिलेगा ,प्यार से ज़ारा गुलशन महके ,नफरत से कोई गुल न खिलेगा "

आदिर्निया प्रणाम

आश्विन नाल्लारी
ओल्ड आलवाल सिकंदराबाद
http://alwal.synthasite.com

Girish Kumar Billore ने कहा…

अति उत्तम खोज परक आलेख सर जी
महाजन की भारत-यात्रा