अपने जिस समय को हमने मूल्यांकन के लिए चुना है वह मानव इतिहास का सबसे क्षिप्रकाल है। बीसवीं शती के आठवें दशक के अंत और नवें दशक के प्रारंभ में परिवर्तन की आंधी चली। इसी समय सोवियत संघ के पतन ने भारतीय साहित्य की प्रगतिशील धारा की चूल हिला दी और एक सामाजिक विचार ढह-सा गया। मैं समझता हूँ कि भूमण्डलीकरण और बाज़ारवाद की नींव वहीं से डली होगी। पूँजीवाद ने अधिक निर्बाध पैर पसारना प्रारम्भ किया होगा। यदि हम तब भी गांधीवादी विकल्प पर गौर कर लेते तो इस जोखिम भरे विश्व-प्रवाह को भले रोकते या न रोकते, भारत को उस प्रवाह में बहने से थाम सकते थे, क्योंकि वह देशी सोच का एक भिन्न प्रकार का समाज-सापेक्ष चिंतन था - जिससे मानव व्यक्तित्व का सम्मान, स्वाभिमान और करुणा की रक्षा के साथ पूँजीवाद लालच और उपभोक्तावाद से मानवता को बचाने का उपक्रम किया।.....
उत्तर आधुनिकता और उत्तर संरचनावाद ने शगूफ़े भी बहुत छोड़े। कहा गया कि इतिहास, उपन्यास, महाकाव्य या महाआख्यान, यहाँ तक कि साहित्य का अंत हो गया है। ईश्वर के अंत की घोषणा के बाद अंत का यह एक नया सिलसिला चला, जो एक उपहासात्मक परिणति पर पहुँचा। क्योंकि ऐसा सिर्फ नारों में हुआ। जहाँ तक साहित्य के अंत का सवाल है, भारत में यह सम्भव नहीं है। इस विषय पर लंबी बहस की ज़रूरत है।...
7 टिप्पणियां:
बहस का स्वागत है।
नारों के जवाब में नारें...
अच्छा है.
हमारे यहाँ इस तरह की बातें बिना किसी तथ्य के भी कही जाती है , भारत जैसे देश में विदेशी मानसिकता का प्रभाव ज्यादा रहता है , तभी तो हम ईश्वर के न होने की परिकल्पना करने लगे थे , जहाँ तक बात रही आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की तो यह हम आज तक नहीं समझ पाए की आधुनिकता , है क्या सिर्फ थोथी बातें , क्या समाप्त हो गया गरीब का शोषण , क्या अब नहीं देखी जाती शादी के लिए जाति,..? अरे जहाँ पर सब कुछ वैसा ही है वहां यह सिर्फ बातें है और कुछ नहीं ....बहस की बात सही लगती है ...आगे बढ़ें
बहस की ज़रूरत है आगे बढ़ें
@केवल राम : mere samajh se yah perspective men badlav ki baat hai objective change ki nahin.
@cmp uncle : what do you think?
इसका विश्लेषण विद्वान करें :)
एक टिप्पणी भेजें