शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

हिंदी शोध में स्टालिनवाद

हिंदी शोध में स्टालिनवाद- अशोक कुमार ज्योति   

पिछले दिनों महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली में तथाकथित विद्वत-समिति हिंदी-विषय में पीएचडी की शोधोपाधि के लिए प्रस्तावित रूपरेखा को स्वीकृत-अस्वीकृत कर रही थी।...

साक्षात्कार के लिए मेरी बुलाहट होने पर जब मैं उठा तो मेरे हाथ में आचार्य निशांतकेतु की गद्य-पद्य की लगभग २५ पुस्तकों और स्वयं द्वारा सम्पादित और अनुदिन ४ पुस्तकों से भरा एक लाल बैग था।  गोलमेज़ के बीचोंबीच हमारे बैठने की व्यवस्था थी।.....मेरी दाईं ओर दो पुरुष और एक महिला थे, बाईं ओर तीन पुरुष विराजमान थे, जिनमें से मैं एकमात्र कथाकार-पत्रकार डॉ. महीप सिंह को पहचानता था। ....

दाहिनी ओर से मेरे कानों में एक टनक आवाज़ आई- कहिए, क्या विषय है आपका?
मैं कुछ बोलता, बाईं ओर से एक आवाज़ आई- वही, अभी जो देखा है, आचार्य वाला।
इसी व्यक्ति [बाद में जाना, वे विश्वविद्यालय नियुक्त कन्वेनर डॊ. रामानंद शर्मा थे] ने पूछा- ये कैसे आचार्य हैं?
‘ये सैंतीस वर्षों तक प्रोफ़ेसर रहे और प्रोफ़ेसर को ‘आचार्य’ कहते हैं और इनकी विद्वता और गान-गरिमा से इन्हें यह लोक-प्रतिष्ठा है।’
डॊ. शर्मा - ‘यहाँ किसी आश्रम में बैठा भी अपने को ‘आचार्य’ कहता है।’
‘हां, वहाँ के आचार्य का अपना पद है।  संस्कृत में जो एम.ए. पास करता है, उसे विश्वविद्यालय की ओर से ‘आचार्य’ की उपाधि मिलती है और निशांतकेतु जी अपने बहुआयामी लेखन से ‘आचार्य’ हैं।’
अब महीप सिंह ने पूछा- तुम निशांतकेतु से मिले हो?
‘जी मिला हूं। इनका पूरा नाम चंद्रकिशोर पांडेय ‘निशांतकेतु’ है और अब इनका लेखकीय नाम ‘आचार्य निशांतकेतु’ है।’

मेरे दाहिनी ओर से फिर टनक आवाज़ आई- अरे, आचार्य बहुत बड़ा होता है।
‘ये वैसे ही हैं।’
‘अच्छा, तुम निशांतकेतु की कविता-पुस्तकों के नाम बताओ?’
‘ज्वालामुखी पुरुष-वाक, रेत की उर्वर शिलाएं, संगतराश, समव्यथी।’

वे मुझे एकटक देखते रहे।  मैं आश्वस्त हुआ कि यह सज्जन भी निशांतकेतु को जानते है।...  मैंने ‘जीवेम शरदः शतम्‌’ और ‘त्वचा पर जो लिखे आखर’ का नाम नहीं लिया था जिनका लोकार्पण २००० में त्रिवेणी सभागार में हुआ था।  इसी बीच कुलपति महोदय पधारे। टनक आवाज़ वाले विद्वान ने पुनः पूछा- किसी एक समीक्षक का नाम बताओ, जिसने निशांतकेतु पर एक पंक्ति भी लिखी है।
‘कई हैं, डॊ. अमर कुमार सिंह ने लिखा है।’
‘अरे, वो क्या लिखेगा!’
‘सर, वे विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं।’
उन्होंने व्यंग्यपूर्ण लहजे में कहा- जानता हूं, पटना का छोटा-सा आदमी है।... किसी और का नाम बताओ।’
‘कई ने लिखा है। डॊ. जितेंद्र वत्स, डॊ. शिववंश पांडेय, डॊ. मिथिलेश कुमारी मिश्र, आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव...’
‘सब वैसे ही नाम है, ये ‘आचार्य’ कहां से आ जाता है बीच में’।

कुलपति महोदय ने कहा-पांडेय जी, ये सब क्या लिखेंगे!
मैंने कहा- डॊ. कमल किशोर गोयनका, डॊ. सुरेश गौतम ने लिखा है।  अभी अभी उनके एक उपन्यास ‘योषाग्नि’ की समीक्षा पं. सुरेश नीरव ने लिखी है।
श्री पांडेय ने कहा- अरे, ये सब वैसे ही हैं। कैसे समीक्षक हैं, मैं जानता हूं।

मुझे अब यह स्पष्ट लगने लगा कि यह किसी ‘वाद’ से जुडे समीक्षक का नाम जानना चाहते हैं।  मैंने कहा कि उनपर डॊ. गंगा प्रसाद विमल ने लिखा है। पांडेय जी की बगल में बैठे डॊ. हरिमोहन ने कहा-आप उन्हीं पर कुछ ले आते, हम स्वीकृत कर देते।  इन पर नहीं हो सकता।

श्री पांडेय- ‘किसी अच्छे समीक्षक का नाम बताओ जिसने एक पंक्ति भी लिखी हो?’
‘सर, कृपया आप ही नाम बताएं और मैं बताऊंगा कि उन्होंने लिखा है या नहीं।’ मेरे कथन पर वे थोड़ा तिलमिलाए।  कुलपति ने कहा- छोडिए, पांडेय जी।

पांडेय जी ने बडे विश्वास से कहा- निशांतकेतु पर नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है? तुम तो उनका नाम भी नहीं जानते होंगे?

मैंने स्थिर मन से उनके अज्ञान को जान और चेहरे पर थोड़ी हँसी लाते हुए कहा- सर, जब निशांतकेतु जी का संग्रह आया था, नलिन जी नहीं थे, उनका निधन सन्‌ १९६० में ही हो गया था।  उन्होंने इनके लिए प्रशस्ति लिखी है और उनके निर्देशन में इन्होंने एम.ए. का अपना लघु शोध प्रबंध लिखा था।  मैं आचार्य नलिन विलोचन के पिता महामहोपाध्याय़ पंडित रमावतार शर्मा को भी जानता हूं, जिन्होंने ‘परमार्थ दर्शन’ नामक ग्रंथ लिखा था।

‘ऐसा है, इस विश्वविद्यालय में इन पर शोध नहीं हो सकता है।  आप जा सकते हैं।’

मैंने कहा- ऐसा तो नहीं होना चाहिए, इन पर तीन-चार विश्वविद्यालयों में शोध हो चुका है। मगध विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, मदुरै कामराज विश्वविद्यालय इत्यादि जगहों पर लगभग ६ शोध हो चुके हैं।

कुलपति महोदय ने कहा-  आप वहीं से कीजिए।  यहाँ से नहीं हो सकता।  भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, आप अलग से किताब लिख लीजिए, यहां शोध-कार्य नहीं हो सकता।

मैं जानता था, यह हिंदी के अध्येता नहीं हैं, इसलिए उनकी बात का मुझे बुरा नहीं लगा था।  इसी बीच डॊ. महीप सिंह ने धीरे से कहा- निशांतकेतु की कितनी कहानियां छपी हैं?

मुझे बल मिला, उत्साह से कहा- सर, अब-तक उनकी पूरी एक सौ कहानियां छप चुकी हैं।  मैंने बैग से वह ग्रंथ निकाल कर उनके हाथों में सौंप दिया।  वह ग्रंथ को देखने लगे।  मुझे मौका मिला कि इनको अब ग्रंथ के माध्यम से जवाब दूं।  मैंने कुलपति महोदय के सम्मुख निशांतकेतु के दो उपन्यास ‘योषागिन’ और ‘ज़िंदा ज़ख्म’...पुस्तके उनकी विषय-वस्तु बताते हुए सामने रख दी।  अब श्री पांडेय हतप्रभ थे।  विद्वत-समिति के अन्य सदस्य कुछ भी नहीं बोल-पूछ रहे थे।

कुलपति महोदय को डायमंड पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित निशांतकेतु की किताबें दिखाते हुए कहा कि ‘देखिए सर, ये पुस्तकें डायमंड ने छापी है’।  छूटते ही कुलपति महोदय ने कहा- मैं जानता हूं डायमंड वालों को, वह पैसे लेकर किताब छापते हैं।  कोई भी छपवा सकता है।’

‘लेकिन इस लेखक ने पैसे दिए नहीं, लिए हैं।’
कुलपति- ‘नहीं-नहीं, इस विषय पर यह काम नहीं हो सकता।’
‘तो क्या तुलसी और कबीर....’
‘आप कबीर पर ही ले आते, हम स्वीकृत कर लेते।’
‘सर, मैं कहना यह चाह रहा हूं कि क्या तुलसी और कबीर पर ही शोध कार्य होना चाहिए? तुलसीदास पर अब तक लगभग ३००० शोध हो चुके हैं और कबीर पर ५००-७०० हो चुके हैं।  नए रचनाकारों पर कब शोध होगा?’
डॊ. शर्मा ने रुष्ट होकर कहा- आपके पास क्या लिस्ट है, ३००० शोध हो चुके हैं?
‘जी हां, है।  यह निशांतकेतु द्वारा संपादित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘चक्रवाक’ में प्रकाशित हो चुकी है।’
कुलपति-‘ये नए रचनाकर तो है नहीं। दस साल पहले रिटायर हो चुके हैं।’
‘नये से मेरा आशय आधुनिक काल से है।  आधुनिक काल में रचनाकारों पर कब शोध होगा?’
अब श्री पांडेय ने कहा- अरे, यहां तो कोई खेत में गीत लिखता है तो उस पर भी शोध के लिए सिनोप्सिस आ जाता है।  कल डी.लिट में ऐसे ही विषय आए थे।
‘बिलकुल ठीक है, सर।  आखिर जिसने रचना लिखी है, और यदि वह उत्कृष्ट है तो उस पर शोध हो तो अच्छी बात है।  ऐसा होना चाहिए।’

कुलपति महोदय ने कहा-‘अब आप अपनी ये किताबें समेटें और जाएं।’  मैंने किताबे उठाईं और कहानी संग्रह वाली किताब श्री पांडेय की ओर बढ़ाते हुए कहा- सर, लगता है आपने निशांतकेतु जी की कहानियां नहीं पढ़ी हैं।  यह किताब आपको देना चाहता हूं, कृपया लीजिए।’

‘ऐसा है, तुम इसे रखो।  निशांतकेतु मेरे मित्र हैं, पढ़नी होगी तो उनसे मंगवा लूंगा।’  यह वाक्य उन्होंने ऐसे विश्वास से कहा, जैसे निशांतकेतु के बहुत निकटस्थ मित्र हैं।  मैं उनके अधिकतर मित्रों के नाम जानता हूं, इसलिए उत्सुकता बढ गई इनका नाम तो जान ही लेना चाहिए, जो निशांतकेतु को ‘मित्र’ भी कहते हैं और उनके साहित्य पर शोध-कार्य नहीं होने देना चाहते हैं।  आखिर हिम्मत कर ही ली और पूछा- सर, क्षमा चाहूंगा, आपका शुभ नाम जानना चाहूंगा।

कुलपति महोदय ने थोड़े चिंताजनक रोष में कहा- अब देखिए, पांडेय जी, तभी तो यह हाल है।  अरे, ये डॊ. मैनेजर पांडेय हैं।’

अब तो मेरे लिए बिलकुल स्पष्ट हो गया कि ये मेरे शोध-कार्य के विषय-‘आचार्य निशांतकेतुः जीवन, सृजन एवं मूल्यांकन’ को क्यों नहीं स्वीकृत करने दे रहे हैं।  ये उनकी विद्वत्ता, ज्ञान, गरिमा, आध्यात्मिक उपलब्धि, पद्यकार-रूप, गद्यकार-रूप इत्यादि से द्वेष रखते हैं।  मैंने उन तथाकथित विशेषज्ञों के प्रश्नों के भी सही उत्तर दिए थे। फिर ये अन्याय क्यों??....

क्या इसे शिक्षा क्षेत्र में ‘तानाशाही’ प्रवृत्ति न मानी जाए?  मुझे लगता है, रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली को इसका जवाब देना पडेगा और छात्र हित में उसे अपना निर्णय बदलना पड़ेगा.....। हिंदी शोध साहित्य इतिहास में इस स्टालिनवादी प्रवृत्ति को सदैव स्मरण किया जाता रहेगा, ताकि पुनः किसी योग्य शोधार्थी और समर्थ रचनाकार के साथ अन्याय न हो।


[साहित्यपरिक्रमा के अक्टूबर-दिसम्बर२०१०अंक के लेख का सारसंक्षेप- साभार सहित]

2 टिप्‍पणियां:

Mahendra Arya's Hindi Poetry ने कहा…

जब सारा समाज ही पूर्वाग्रहित है अपने अपने स्वार्थ से, तो साहित्य कैसे अछूता रह सकता है. कठमुल्लापन हमारे देश की एक विडम्बना है .

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

बहुत सुन्दर लेख है..