सोमवार, 13 सितंबर 2010

Old age - बुढ़ापा [4] - सिमोन द बउवा

Old age - बुढ़ापा [4] - सिमोन द बुवा -'ऐतिहासिक समाजों में'
बुढ़ापा : ऐतिहासिक समाजों में

प्राचीन समाजों में बूढ़ों की क्या स्थिति थी उसकी कोई झलक इतिहास के पन्नों में नहीं मिलती।  वृद्धावस्था के बारे में जानने का दूसरा रास्ता है कि उस समय के साहित्य को खंगालें क्योंकि साहित्य ही वह दर्पण है जिसमें उस समय के विभिन्न समाजों की अभिव्यक्ति मिल सकती है। साहित्य को सीढी बनाकर वृद्धावस्था की जाँच करने के लिए सिमोन द बुवा  ने ग्रीक, रोमन, जर्मन, फ्रेंच तथा अंग्रेज़ी  साहित्य को खंगाला।  इसका निष्कर्ष निकालते हुए सिमोन बताती हैं -

"न्यायविदों और कवियों का एक बडा हिस्सा उन धनियों का था जो समाज में अपना ऊँचा स्थान रखते थे।  इसलिए मूल्यांकन करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि उनके लेखन में समाज की वस्तुस्थिति का आधा सच ही उजागर हुआ होगा।  इस आधार पर वृद्धों का इतिहास लिखना असम्भव ही कहा जाएगा। वृद्धों और महिलाओं को इसलिए भी इतिहास व साहित्य में अधिक स्थान नहीं मिला क्योंकि वे एक ऐसी जमात हैं जिनका राजनीति और इतिहास रचने में कोई योगदान नहीं रहा,सिवा कुछ अपवादों के |

"समाज में जब तक व्यक्ति का योगदान रहा, तब तक वह समाज का अभिन्न अंग बना रहा और जैसे ही बूढ़ा हो गया, वह समाज से कट गया और केवल एक ‘वस्तु’ बन कर रह गया; ऐसी वस्तु जिसका न कोई मोल है, न किसी काम का है और न ही कुछ पैदा कर सकने योग्य!

"यह कहा जाता है कि अश्वेत गोरों की समस्या  है और स्त्री पुरुष की समस्या है; इसलिए कि अश्वेत अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं और महिलाएं अपने, परंतु बूढ़ों के पास लड़ने के लिए कोई हथियार भी नहीं है।  वृद्धावस्था के कारण उसे अधिकारों से वंचित किया जाता है और वह विरोध करता है पर उसकी बात को अनसुनी करके युवा पीढ़ी सत्ता हथिया लेती है - यह सत्ता घर की हो या राज्य की। इसका उदाहरण हमें कई धार्मिक ग्रंथों  और साहित्य में मिलता है। यह तो हुई धनियों और राजाओं की बात पर गरीब बूढ़ों का कहीं कोई ज़िक्र नहीं मिलता।

"एक सच्चाई जो यहाँ झाँकती है कि केवल पुरुषों के बारे में ही कहा गया है जबकि महिलाओं के बारे में कुछ नहीं लिखा गया यद्यपि वे अधिक लम्बा जीवन जीती हैं, जो एक यथार्थ है।  जब वृद्धावस्था पर बात चलती है तो केवल पुरुषों को ही ध्यान में रखा जाता है - शायद इसलिए कि सत्ता का युद्ध केवल पुरुषों में ही रहा है।  यह बात जानवरों में- खास कर वानरों में- भी देखी जाती है।

"जीवशास्त्र और मानव जाति विज्ञान के आधार पर यह देखा गया कि वृद्धों की स्मरणशक्ति और अनुभव के कारण उनका समाज में योगदान रहा है।  स्वास्थ्य  और शक्ति के अभाव में इस रिक्त स्थान को मस्तिष्क और अनुभव ने पूर्ण किया।  परंतु जिस बदलते समाज में पिछले अनुभव की आवश्यकता नहीं होती, वहाँ वृद्धों की पूछ भी नहीं हुई।"

आधुनिक युग में नए तकनीकी परिवर्तन और नित नए वैज्ञानिक व तकनीकी नवीकरण इसकी सटीक मिसाल हैं। कंप्यूटरीकरण के कारण अब तो पिछला अनुभव उन्नति व प्रगति के लिए एक रोड़ा बनता जा रहा है। इस विषय पर दुनिया के विभिन्न  समाजों के तथ्यों को लेकर विमर्श प्रस्तुत करते हुए सिमोन बताती हैं -

"चीन एक अपवाद है जहाँ के वृद्धों को विशेष दर्जा प्राप्त है। इसका कारण है कि चीन की सभ्यता सदियों से एक ही ढर्रे पर चल रही है और जहाँ केंद्रीय सत्ता का चलन रहा।  भौगोलिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के कारण यहाँ के लोग प्रगति से अधिक जीने की आपाधापी  में ही लगे रहे।  कनफ़्यूशियस ने यह नियम बनाया था कि घर समाज की सबसे छोटी इकाई होगी और बुज़ुर्ग की आज्ञा का पालन परिवार का हर सदस्य करेगा। कृषि जीवनोपार्जन का मुख्य स्रोत  था।  वृद्धों का अनुभव और युवाओं की शक्ति - दोनों ही खेती के मुख्य आधार रहे।  महिलाओं में भी सबसे अधिक वृद्धा की आज्ञा का पालन होता था।  लाओ त्सु  के अनुसार मनुष्य के काम करने के लिए साठ वर्ष की समय सीमा रखी गई जिसके बाद वह बंधनमुक्त हो जाता है और एक पवित्र व्यक्ति बन जाता है। 

"२,५०० ई.पू. के मिस्र में दार्शनिक प्टाह-होटेप ने कहा था कि ‘कितना कठिन और कष्टदायक होता है बुढ़ापा - बीनाई मद्धिम, कान बहरे, शक्ति क्षीण, दिल बेचैन, मुँह से बोल बंद, कल की बात याद नहीं, हड्डियां चरमराती हैं..... कितना दुर्भाग्य ले आता है बुढ़ापा।’  बुढ़ापे को दूर रखने के नुस्खे बताने वाली एक पुस्तक के प्रथम ताम्रपत्र पर लिखा था - 'बुढ़ापे को जवानी  में बदलने के लिए'। 
"यहूदियों में भी अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करने की नसीहत दी गई है।  यहोवा ने मूसा से कहा था - ‘तुम इज़राइल के सत्तर वृद्धों को जमा करो और वे लोग जनता को अपने साथ ले लेंगे, तुम अकेले यह बोझ मत ढोना’।  फ़िलिस्तीन में भी परिवार का सबसे वृद्ध ही निर्णय लेता है और समाज में अहम भूमिका निभाता रहा है।

"कई पौराणिक गाथाओं में पिछली पीढ़ी और अगली पीढ़ी की रस्साकशी की कथाएँ देखने को मिलती हैं।  इन मिथकों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जैसे-जैसे देवता वृद्ध होते जाते थे, वैसे-वैसे वे असहनीय भी हो जाते थे और इस कारण उन्हें अपदस्थ भी कर दिया  जाता था।  यह भी देखने में आता है कि सभी देवता जो राज करते थे,वे पराक्रमी युवक ही रहे।  

"यूनान की वास्तविकता यह थी कि अपंग बच्चों की हत्या की जाती थी पर निर्बल वृद्धों का सम्मान किया जाता था।  इस सम्मान का यह अर्थ नहीं था कि उनके पास आज्ञा-शक्ति भी थी।  युवा पीढ़ी शराब और शबाब का आनंद उठाती और वृद्धावस्था से कतराती। उन्हें लगता कि बूढ़े होने का अर्थ है कि सारी मौज-मस्ती खो देना जो जीवन का सार है।  सोलोन जैसे चिंतक अपवाद थे जो यह कहते थे कि ‘जीवन मौज मस्ती के लिए नहीं है।  मैं इस अस्सी वर्ष की आयु में भी सीखता रहता हूँ, सीखना इसलिए तो नहीं छोड़ा जाता कि आदमी बूढ़ा हो गया है’।

"बूढ़ों के सम्मान का रिश्ता सम्पत्ति से भी जुड़ा हुआ है।अरिस्टोफ़ेन्स के उत्तराधिकारी मनेंडर का मानना है कि ‘बुढ़ापे का जीवन कष्टदायी  और अर्थहीन लगता है और इसलिए वह मरने की कामना करता है।  एक बूढ़ा प्रेमी यौन जीवन भी नहीं जी सकता, तो फिर कैसे वह प्रसन्न रह सकता है और क्यों वह मृत्यु की कामना नहीं करेगा’।

"प्लेटो ने वृद्धों को समाज की आवश्यकता बताते हुए कहा था -  ‘वृद्ध आज्ञा देंगे और युवा आज्ञा का पालन करेंगे।  जब हम मृत पूर्वजों की पूजा करते हैं तो यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम हमारे पिता और पितामह, माता और दादी-नानी की आयु के समक्ष नतमस्तक हों’। परंतु अरस्तु के विचार कुछ और ही हैं।  वे मानते हैं कि वृद्ध अपने लम्बे जीवनकाल  में अकसर धोखा खाते रहे हैं, गलतियाँ करते रहे हैं, उनकी सामाजिक गतिविधियां खराब रही हैं, उन्हें किसी पर विश्वास नहीं होता है, वे अल्पभाषी, भयभीत और हिचकिचाहट भरे होते हैं, जो अपने अतीत और स्मरण-शक्ति पर अधिक विश्वास करते हैं, भविष्य के प्रति आशावान नहीं होते; इसीलिए उन्हें किसी भी सत्ता के स्थान से हटा देना चाहिए’।

"ईसा के एक सदी बाद भी यूनानियों की यही मनःस्थिति प्लूटार्च के चिंतन में भी दिखाई देती है।  वृद्धावस्था को वे उदास पतझड़ मानते हैं।  दूसरी शताब्दी में लूसियन ने वृद्ध महिलाओं को सम्बोधित करते हुए कहा था-‘तुम अपने बालों को रंग सकती हो पर अपनी झुर्रियों को नहीं मिटा सकतीं । मेहंदी लगा कर हेकुबा को हेलन [ग्रीस की सब से सुंदर स्त्री जिसके लिए युद्ध हुआ था] नहीं बना सकतीं ।’

"इतिहास से पता चलता है कि रोम में वृद्धों से छुटकारा पाने के लिए उन्हें डुबो दिया जाता था। फिर भी, रोम की सीनेट में वृद्धों का आदर होता था और उन्हें ऊँचा दर्जा दिया जाता था।  परिवार में भी पिता का स्थान सर्वोपरि  था, वह अपने बच्चों के साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार कर सकता था - उन्हें बेचें, विकृत करें या जान भी ले लें! यदि कोई पुत्र अपने पिता को मारता तो उसे मृत्युदण्ड भी मिल सकता था।  विवाह  के लिए  अपने पिता और पितामह की आज्ञा लेना अनिवार्य था   । परंतु  रोम में छिड़े युद्धों के कारण धीरे-धीरे राजनीतिक शक्ति जब युवा सेना के अधीन आ गई तो वृद्धों का तिरस्कार किया जाने लगा।

"सिसरो का मानना था कि वृद्ध हर कामुकता तथा हर व्यसन से मुक्त होता है, इसलिए वह सभी बुराइयों से दूर रहता है।  इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए केटो कहते हैं कि वृद्ध आपस में संवाद, साहित्य और अध्ययन में अपना समय बिताते हैं और अपने चिंतन से समाज को  मार्गदर्शन देते हैं।  रोम के बादशाह नीरो के गुरु सेनेका, प्लेटो, सोलोन और सिसरो जैसे चिंतकों ने बुढ़ापे को समाज के हित में बताया है।  इनके विपरीत वयोवृद्ध प्लैनी का कहना था कि युवावस्था प्रकृति की सबसे बड़ी देन है जबकि दीर्घायुवालों के मस्तिष्क क्षीण हो जाते हैं, हाथ अकड़ जाते हैं, आँख, कान और पैर कमज़ोर हो जाते हैं और दाँत झड़ने के कारण पाचन शक्ति क्षीण हो जाती है - जिसके कारण वे शीघ्र ही मृत्यु के करीब आ खड़े होते हैं।

"रोम में ईसाइयत के आगमन के बाद परिस्थितियां बदलने लगीं और प्रतिबंधों में ढील आने लगी परंतु बूढ़ों की परिस्थिति यथावत बनी रही।  इसका एक मुख्य कारण यह था कि ईसाई  धर्म को फैलाने के लिए धर्माचार्यों ने स्थानीय प्रथाओं को बदलने का प्रयास नहीं किया।  इसलिए अंधविश्वास और कुप्रथाओं में कोई बदलाव नहीं आया।  पारिवारिक व्यवस्था में भी कोई सुधार नहीं हुआ; परंतु इनके कारण चौथी शताब्दी से अस्पताल और वृद्धाश्रम का निर्माण होने लगा, रोम और अलेक्ज़ांड्रिया के अनाथ व बीमारों की देखभाल होने लगी।

"दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में जीवन कठिन हो गया।  इंग्लैंड के अराजक माहौल में नगर उजड़ने लगे।  बलवान बलहीनों पर अत्याचार करने लगे।  लोग गाँव की ओर दौड़ पडे।  इस दौड़ में बूढ़े पिछड गए।  उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया।  आम जीवन कठिन हो गया।  पुत्र अपने पिता की जगह लेने लगा और बहू सास की। वृद्धों को एक कमरे तक सीमित रखा गया।  जर्मनी के ग्रिम बताते हैं कि ऐसे बूढ़े जिनके कोई संतान नहीं थी या निराश्रित थे, उन्हें मठों में रखा जाता, भिक्षु उनकी सेवा-सुश्रूषा करते। बचपन तो कहीं दिखाई नहीं देता था और बच्चे भी बड़ों की तरह आजीविका के लिए काम करते थे।

"ईसाई धर्म का विस्तार होने लगा। ‘पिता’[ईश्वर] को भूल कर लोग ईसा की आराधना करने लगे।  गिरजाघरों में चरवाहे के रूप में या सुंदर युवा के रूप में ईसा के चित्र लगने लगे।  वृद्धों पर युवा के वर्चस्व का यह एक प्रतीक बन गया।

"बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में वृद्धों पर अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।  सन्‌ १२६५ ई. में फिलिप द नोवा ने कहा था कि जीवन के चार पड़ाव हैं और हर पड़ाव बीस वर्ष का होता है। इन्हें चार मौसमों की तरह भी देखा गया है।  अंतिम पड़ाव के बाद अर्थात  अस्सी वर्ष के बाद मनुष्य केवल मृत्यु की कामना में जीता है।  जर्मनी के ग्रिम बंधुओं ने लोककथाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि वृद्ध अनुभव से भरा है और उसे जीवन के रहस्यों का पता होता है।  फिर भी, वृद्धों की स्थिति अधिकतर  ऐसी रही कि वे हास्य के पात्र बने रहे। इसके लिए उन्होंने एक लोककथा को उद्धृत किया है: "ईश्वर ने सभी जीवों को तीस वर्ष की आयु प्रदान की।  गधा, कुत्ता और बंदर इतनी लम्बी आयु के विरुद्ध थे तो ईश्वर ने उनकी विनती मान कर यह आयु मनुष्य को दे दी जिसे तीस वर्ष कम लग रहे थे। इस प्रकार मनुष्य की आयु सत्तर वर्ष की हो गई।  अब उसके पहले तीस वर्ष [जो ईश्वर ने स्वेच्छा से दिए थे] मज़े में गुज़र जाते हैं, फिर गधे के अठारह वर्ष पारिवारिक बोझ ढोने में, कुत्ते के बारह वर्ष इधर-उधर दौड़ने में और अंत के बंदर के दस वर्ष ऐसी हरकतें करने में बीत जाते हैं कि बच्चे उसकी हंसी उडाते हैं।'' ऐसी कथाओं में महिलाओं का कोई ज़िक्र नहीं है।  महिलाएं या तो सुंदर युवा परियां हैं या बूढ़ी चुड़ैलें।  वर्ष के अंत में नववर्ष के स्वागत में जो चित्र बनते हैं  उनमें भी लम्बी दाढ़ी वाले बूढ़े को दराँती हाथ में लिए जाते हुए और आनेवाले वर्ष पर एक हृष्टपुष्ट  युवक को आते हुए दर्शाया जाता है। 

"चौदहवीं सदी में मनुष्य को जल्दी ही बूढ़ा माना जाता था।  सन १३८० ई. में जब पंचम चार्ल्स की मृत्यु बयालीस वर्ष की आयु में हुई तो यह कहा गया कि बुद्धिमान वृद्ध की मृत्यु हो गई।  इस सदी में लोगों का नगरागमन पुनः प्रारम्भ हो गया था।  प्रसिद्ध चिंतक दांते  ने मनुष्य की जीवनरेखा खींचते हुए बताया था कि यह धरती से ऊपर उठकर आकाश की ओर पैंतीस वर्ष में पहुँचती है और फिर ढलान शुरू हो जाती है। सत्तर वर्ष की आयु वाले मनुष्य की स्थिति उस नाविक की भांति होती है जो समुद्र से ज़मीन देखकर धीरे-धीरे जहाज़ का झंडा उतारता जाता है। इसलिए इस आयु में मनुष्य को यह हकीकत स्वीकार लेनी चाहिए कि उसकी यात्रा का अंतिम पड़ाव आ गया है। चौदहवीं सदी मानव जाति के लिए एक कठिन सदी रही जिसमें युद्ध, प्लेग की महामारी, अकाल और जनसंख्या की बढ़ोतरी जैसी समस्याएं आईं ।  इन समस्याओं से जूझता समाज बुढ़ापे की समस्या को जैसे भूल ही गया।

"सोलहवीं शताब्दी नवजागरण का युग था जिसमें नारी सौंदर्य की सराहना हुई तो असुंदरता को नफ़रत से देखा गया।  जहाँ युवती की सुंदरता का वर्णन किया गया है, वहीं वृद्धा  अपनी अवस्था पर  शोक व्यक्त करते हुए कहती है- ‘हे बुढ़ापे, तुमने मुझे कहीं का न रखा ... गुर्दे में पथरी, घुटनों में गठिया और हाथों में सूजन..’। रुज़ांटे ने तुलना करते हुए कहा है कि युवावस्था  उस पेड की तरह है जिसमें सुगंध भरे पुष्प खिले हैं   जिस पर बैठी चिड़ियां चहक रही हैं और बुढ़ापा उस मरियल कुत्ते की तरह है जिस पर मक्खियां भिनभिनाते हुए उसके कान कुतर रही हैं।’ इसी प्रकार, जाक्वेस वे, पोयसेन, रोन्साई और  अग्रिप्पा द ऑबिन ने भी बुढ़ापे को कोसा है; परंतु मोन्टेन ने अलग विचार व्यक्त किए हैं।  उनका मानना था कि ज्ञान और अनुभव आयु को बढ़ाते हैं  लेकिन सक्रियता, दृढता और चपलता जैसे गुण बुढ़ापे में क्षीण होते जाते हैं।

"सोलहवीं सदी में बुढ़ापे के प्रति   घृणा का कारण था कि वृद्धों और युवाओं में प्रतिस्पर्धा होने लगी थी।  बूढ़े नव-धनपति अपने धन का प्रदर्शन कर युवतियों को रिझा रहे थे और गरीब युवा उन्हें ईर्ष्या की दृष्टि से देखते रहने को विवश थे।  उनके धन से आकर्षित युवतियों को देखकर युवकों की ईर्ष्या स्वाभाविक भी थी। उम्र भर मेहनत करके नव-सम्पन्न बने बूढ़ों को कंजूस कहा जाता था।

"हम देखते है कि प्राचीन मिस्र से लेकर नवजागरण युग तक वृद्धों को लेकर सोच में कोई बदलाव नहीं आया था।  वृद्ध को शीत से जोडा जाता, सफ़ेद बाल, सफ़ेद दाढ़ी का वर्णन ठंडे बर्फ़ की याद कराता है।  किसी ने भी वृद्धावस्था पर गम्भीरता से नहीं सोचा और न ही इस विषय पर गम्भीर अध्ययन किया।  वृद्ध को एक सच्चे व्यक्ति की तरह नहीं बल्कि व्यक्ति की आखिरी सरहद की तरह देखा गया।

"सतरहवीं शताब्दी में शेक्सपीयर ने   अपने नाटक ‘किंग लीयर’ में समय के गुज़र जाने का और बुढ़ापे की विवशता का सुंदर चित्रण किया है।  वे राजा के मुख से कहलाते हैं - ‘बस.... क्या आदमी इससे अधिक कुछ नहीं ... गरीब, नंगा, फटे चीथड़ोंवाला’?'  शायद उन्होंने अपने देश के गाँवों और नगरॊं में व्याप्त गरीबी को करीब से देखा था।  बूढ़ों को भूख और भीख में घिरे देखकर ही उन्हें ‘किंग लीयर’ जैसा नाटक रचने की प्रेरणा मिली थी।

"फ़्रांस में भी गरीब बूढ़ों और बच्चों के लिए  समाज में स्थान नहीं था।  बच्चों की आधी आबादी एक वर्ष के भीतर ही मर जाती और बडे तीस-चालीस वर्ष बड़ी कठिनाई से पार कर पाते थे। प्रतिदिन कई घंटों का परिश्रम, भोजन का अभाव और गंदा परिवेश उन्हें बीमार कर डालता था। उनका  जीवन संग्राम सत्रह वर्ष की आयु से प्रारम्भ होता और चालीस तक पहुँचते-पहुँचते वे बूढ़े हो जाते और पचास की आयु में गाँव का रुख करते। गरीब वृद्धों को गिरजाघर  में आश्रय दिया जाता। सत्रहवीं शताब्दी में बच्चों को सम्प्रदाय से अलग रखा जाता और उनसे सख्ती से बर्ताव होता, गलती पर कोड़े से भी पीटा जाता।  बड़े होने पर पिता की आज्ञा से विवाह किया जाता और अवज्ञा करने पर पुत्र को सम्पत्ति से बेदखल करने का अधिकार पिता को था।

"इंग्लैंड में रानी एलिज़ाबथ ने सन्‌ १६०३ ई. में एक कानून बनाया जिसके अंतर्गत सरकार की यह ज़िम्मेदारी थी कि वह गरीबों की देखरेख करे और इसके लिए वह आवश्यक पूंजी  टैक्स  के माध्यम से इकट्ठा करे।  सत्रहवीं शताब्दी में वृद्धाश्रम और अस्पताल बनवाए गए। ईसाई धर्माचार्य गरीबों का आदर करने की सीख देने लगे।कामगरों को काम के लिए प्रेरित किया गया। ‘ जो काम नहीं करेगा, वह खाएगा भी नहीं’ का नारा दिया गया।  भीख मांगने को अनैतिक करार दिया गया।

"अठाहरवीं शताब्दी में पर्यावरण की स्वच्छता और स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान दिया गया। सारे यूरोप में मृत्युदर गिरने लगी।  इसके कारण औसत आयुदर बढ़ने लगी।  सरकार ने यह स्वीकारा कि हर एक को जीने का अधिकार है।  मज़दूर वर्ग की आयु भी लम्बी होने लगी; परंतु उनके अंतिम दिन गरीबी और भीख में गुज़रते थे । बच्चों का शोषण भी कम नहीं हुआ।  बाल श्रमिकों पर रोक नहीं थी।सम्पन्न बूढ़े नाटक और सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग लेते थे। जीवन के अंतिम दिनों में भी वे सक्रिय थे।

"फ़्रांस में भी मानवीय संवेदनाओं पर चिंतन होने लगा।  बच्चों को प्यार से देखा जाने लगा।  माँएं अपनी संतान को स्तनपान कराने लगीं।  बच्चों को परिवार में अभिन्न अंग का दर्जा मिला। वृद्धों को समाज और परिवार में उनका उचित स्थान दिया जाने लगा। परिवार का धन सबसे वरिष्ठ सदस्य के हाथ में होता जिससे सम्पन्नता बढ़ती रही।  यह पूंजीवाद का आधार बनी।  वॉल्टेयर जैसे वृद्ध लेखकों को लेखनी के अलावा अपनी आयु के कारण ख्याति व सम्मान मिलने लगा।  बूढों और बच्चों पर अधिक ध्यान और प्रेम दर्शाया जाने लगा। 

"सम्पन्नता ने दान-धर्म को भी बढ़ावा दिया।  ‘दूसरों को सुख देने से सुख मिलता है’ का नारा दोहराया जाने लगा।  परिवार और समाज के मेल-जोल से सुख की अनुभूति का अहसास होने लगा।  इस दौर में बुढ़ापे का सम्मान बढ़ा, खास तौर पर सम्पन्न घरानों में, जहाँ परिवार के वरिष्ठ सदस्य के हाथ में सम्पत्ति की सत्ता होती थी।

"इटली के समाज में भी परिवर्तन देखे गए। सोलहवीं सदी में जहाँ बूढ़े को वैषम्य, लम्पट, आवारा कहा जाता था वहीं सत्रहवीं सदी में यह विचार बदल गया।  १७२८ में रिक्कोबोनी ने वृद्ध की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है कि अब वह एक सम्मानित पिता था जिसकी आज्ञा का पालन परिवार का बच्चा-बच्चा करता था।  वेनिस के गोल्डोनी ने भी मध्यम वर्ग के परिवारों में आ रहे बदलावों का ज़िक्र करते हुए बताया कि वुल उद्योग और अन्य औद्योगिक प्रगति के कारण लोग सम्पन्न होने लगे।  अठारहवीं सदी में कुलीन शासन तंत्र के हाथों में राजनीतिक शक्ति थी।  आम आदमी ईमानदार और मेहनती था जिसके कारण उद्योग धंधे में लाभ की बढ़ोतरी होती रही। चॉसर के समय में व्यापारी को ईर्ष्या की दृष्टि से देखा जाता था जबकि गोल्डोनी के समय में उसे सम्मान मिला।  ‘गुलिवर्स ट्रेवेल्स’ के लेखक स्विफ़्ट ने बुढ़ापे को करीब से देखा और कोसा है।  पचपन वर्ष की आयु में उनके सम्बंध वनेस्सा से टूट गये थे और बुढ़ापे में क्षीण शरीर, बीमारी व कमज़ोर मस्तिष्क के परिणाम की मानो वे अपने उस उपन्यास में भविष्यवाणी कर चुके थे। वृद्ध भी नई पीढ़ी और नई सोच के आगे उसी स्थिति में होता है क्योंकि उसकी सोच बीते युग की ही होती है।  वह समय के साथ नहीं बदल पाता।  उनके उपन्यास में उन पात्रों का दयनीय वर्णन भी है जो बाहरी लोगों के आकर बसने से उसी देश के वासी अप्रवासी का जीवन जीते  हैं।  

"उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप की परिस्थितियां बदल गईं।  सबसे अधिक प्रभाव बढ़ती आबादी का रहा जिसके कारण युवा पीढ़ी की संख्या बहुत बढ़ गई।  साथ ही नए वैज्ञानिक अविष्कार और ज्ञान की प्रगति के कारण वृद्ध अपनी सोच में पिछड़ चुके थे ।  फ़्रांस, इंग्लैंड और रूस के लेखकों ने इस बदलती दुनिया की तस्वीर खींचने का भरसक प्रयास किया।  इस प्रयास में बुढ़ापे का मुद्दा लगभग छूट गया। आबादी की वृद्धि के तीन मुख्य कारण रहे - औद्योगिक प्रगति, गाँव से शहर की ओर लोगों का पलायन और एक नई श्रमिक जमात का समाज में पदार्पण हो जाना।

"इस बदलाव के कारण बूढ़ों पर एक बार फिर विपदा आ गई। रोज़गार की अनिश्चितता और महिलाओं व बच्चों का मज़दूरी शोषण ऐसे कारण थे कि बूढ़ों को कोई काम नहीं मिलता था क्योंकि उनमें  इतना परिश्रम करने की क्षमता नहीं बची थी।  १८८० और १९०० के बीच टेलर का चिंतन [टेलरिज़्म] ने अमेरिका के मज़दूरों को समय से पहले ही बूढ़ा कर दिया।

"फ़्रांस में भी यही स्थिति रही। वृद्धों की सहायता के लिए १८०४ में जब एक संस्था- होस्पाइस द मोन्ट्रिशार्ड ने वृद्धों की सहायता के लिए द्वार खोले और आह्वान किया कि वृद्ध अपने निजी सामान के साथ यहाँ आ सकते हैं तो परिजनों ने उनको कपड़ों तक से वंचित करके भेज दिया।  सरकार ने वृद्धों के संरक्षण के लिए कुछ कानून बनाए| वृद्ध ने अपने जिस पुत्र को सम्पत्ति दी है, उसका यह कर्तव्य था कि उस वृद्ध वार्षिक वृत्ति  को दे।  परंतु यह कानून भी उन वृद्धों की जान के लिए आफ़त बन गया।  वार्षिक वृत्ति से बचने के लिए वृद्धों की हत्या की जाने लगी।  इन हत्याओं की जानकारी भी किसी को नहीं होती थी क्योंकि ये वृद्ध किसी दूर-दराज़ गाँव में जा बसते।इन वृद्धों की स्थिति का वर्णन बोन्नेमेर ने हिस्टोयर डे पेसेन्स [१८७४] में इस प्रकार किया - ‘अपने अंतिम दिनों मे वो दर-ब-दर भटकता फिरता, अपने परिवार के लिए अजनबी की तरह और अंत में वह मर जाता..... कभी-कभी तो मरने से पहले ही दफ़न कर दिया जाता।’

"१८६६ से १८७० के बीच कराए गए एक सर्वेक्षण के बाद अधिकारी पॉल तुरोट ने वृद्धों को सुझाव दिया कि जीते जी वे अपनी सम्पत्ति संतान के नाम न करें।  इस तरह वे अपने जीवन की सुरक्षा कर पाएँगे।

"१८४५ के बाद उद्योग और बैंकों के हाथ में  राजनीतिक सत्ता आ गई।  औद्योगिक क्रांति के बाद रेल, कपड़ा, लोहा, शक्कर और खनन उद्योग अपनी चरम पर थे।  इन उद्योगों को आर्थिक शक्ति बैकों से मिल रही थी। इस प्रकार उद्योग और बैंकों का वर्चस्ब बढ़ता गया।  नित नये तकनीकी बदलावों के कारण वृद्ध नई पीढ़ी से पिछड गए और औद्योगिक क्षेत्र में पिता का स्थान पुत्र लेने लगा।  पर लडाई का क्षेत्र युवा और वृद्ध पीढ़ी के बीच नहीं बल्कि बुर्जुवा और मज़दूर के बीच का हो गया।  पिता अपने पुत्र की सामाजिक उन्नति पर गर्व करने लगा।

"शापेनहावर  का मानना था कि बचपन ही सब से सुखदायी  जीवन होता है. युवावस्था सबसे शक्तिशाली समय होता है पर उस समय व्यक्ति बुद्धिमान नहीं होता, वह सुख पाने की लालसा में जद्दोजहद करता रहता है पर उसे सुख नहीं मिलता क्योंकि सुख तो एक मृगतृष्णा है।  इसीलिए वह अपने बचपन में लौट आना चाहता है जो सबसे सुखमय था।  परंतु असली सुख का समय तो वृद्धावस्था का होता है, बशर्ते कि उसके पास अच्छा स्वास्थ्य  और खूब सारा धन हो।  गरीब होना ही वृद्धावस्था की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होती है।  
"शापेनहावर  की तरह अमेरिका के एमर्सन मानते हैं कि बुढ़ापे में व्यक्ति निश्चिंत होता है, उसे लाभ-हानि की कोई चिंता नहीं रहती, वह अपने अतीत में अर्जित लाभ का सुख भोगता है।  १८८० में जर्मनी के जेकब ग्रिम ने अपने एक भाषण के अंत में कहा था कि ‘मैंने बुढ़ापे में मनुष्य की शक्ति के क्षीण होने के साथ यह भी जाना है कि यह ऐसा शांति और सुकून का समय होता है जो व्यक्ति को पहले कभी नहीं मिला होता।’

"बुढ़ापे के बारे में प्रसिद्ध उपन्यासकार विक्टर ह्यूगो यह कहते हैं कि इस अवस्था में ऐसा लगता है जैसे तुम सारे छोटे बच्चों के पितामह हो। यौवन और बुढ़ापे का वर्णन करते हुए वे बताते हैं कि वृद्ध की दाढ़ी झरने में चमकते पानी की तरह श्वेत होती है... युवक सुंदर है तो वृद्ध भव्य .... युवक की आँखों में आग है तो बूढ़े की आँख में प्रकाश।

"बीसवीं शताब्दी में शहरीकरण को और बढ़ावा मिला और एकल परिवारों की बढोतरी से संयुक्त परिवार बिखर गए। पिछले पचास वर्षों में वृद्धों  की बढ़ती आबादी और एकल परिवारों के चलन से अब परिवार का स्थान सम्प्रदाय ने ले लिया है।  यद्यपि बूढ़ों की हत्या नहीं होती या उनको उनके भाग्य पर नहीं छोड़ दिया जाता है। परंतु भूमध्यसागर के क्षेत्रों में अब भी पैतृक   व्यवस्था होने के बावजूद पिता को उसकी आज्ञा से उस समय मार दिया जाता है जब वह कमज़ोर हो जाता है।  ऐसा करके पुत्र भी अपने पिता की अराजकता से मुक्त हो जाता है।  फ़्रांस में पिता के रूखे बर्ताव से असंतुष्ट पुत्र घर छोड़कर चला जाता है।  इटली, सिसिली और ग्रीस के दक्षिणी भागों में अपने सम्मान के लिए पुत्री को मौत के घाट उतार दिया जाता है जबकि कानून इसकी इज़ाज़त नहीं देता।  

"इस सदी के सारे राजनीतिक आंदोलन- चाहे वह रूसी, इतालवी, नाज़ी, चीनी या क्यूबाई हो या अल्जीरिया का आज़ादी आंदोलन, सभी में युवावर्ग का नेतृत्व रहा।  पिछली सदी में वृद्धों ने राजनीतिक क्षेत्र में अपना योगदान दिया था जैसे फ़्रांस के राष्ट्रपति जुलेस ग्रेवी, रेने कोटी, पॉल डौमर, एडि नोअर, स्टेलिन, माओ, हो ची मिन्ह- सभी वृद्धावस्था तक राजनीति में सक्रिय रहे।

"आधुनिक तकनीकी समाज यह समझता है कि अब ज्ञान और जानकारी आयु के साथ नहीं बढ़ते बल्कि असामयिक हो जाते हैं। इसलिए आधुनिक जानकारी के लिए आयु और पिछली जानकारी विघ्न भी बन जाते हैं।"

अंत में सिमोन ने उन कारणों को खोजने का प्रयास किया है जिनके चलते वृद्धों पर अधिक लेखन नहीं हुआ। वे  बताती हैं -

"इस अध्ययन   में हमने बुढ़ापे का इतिहास नहीं उकेरा बल्कि यह जानने का   प्रयास किया है कि प्राचीन समाजों में वृद्धों का जीवन किस प्रकार बीता होगा और इनके प्रति समाज की सोच कैसी रही होगी। निष्कर्ष यही निकलता है कि सभी समाजों में दो वर्ग के लोग थे - शोषक और शोषित।  वृद्ध जिस वर्ग में थे, उनकी स्थिति भी उसी के अनुसार रही। शोषित की कोई आवाज़ ही नहीं थी और जो कुछ लिखा गया वह शोषकों के समृद्ध समाज की ही आवाज़ थी। वृद्ध तो उस श्रेणी के हैं जिनकी कोई उपयोगिता समाज के लिए नहीं थी और उनका भविष्य उसी वर्ग से जुड़ा रहा जिसमें वह जी रहे थे। कभी वे शक्ति का केंद्र रहे तो कभी बहुसंख्यक के साथ रहे या कभी नगण्य। प्रास्ट का मानना है कि बूढे लिखना बंद कर देते हैं और युवा वृद्धों की चिंता नहीं करते।  बुढ़ापा पतझड़ की तरह है या उस शीतकाल की तरह जिसमें बर्फ़ की सफेद चादर बिछी होती है।

"जब वृद्धों के हाथ में सत्ता होती तो उनका स्तुतिगान होता, उनके चरित्र और ज्ञान के कसीदे पढ़े जाते।  मध्य युग से लेकर अठारहवीं सदी तक गाँवों और कस्बों में बूढ़ों की संख्या नगण्य थी क्योंकि व्यक्ति शोषण और कुपोषण के कारण युवावस्था में ही मर जाता था।  जो कुछ वृद्धावस्था को पहुँचते, जीवन यापन के लिए उन्हें या तो युवा पीढ़ी का मुँह देखना पड़ता या फिर समाजसेवी संस्थाओं का।  उन्हें समाज का एक ऐसा बेकार अंग माना जाता जो बोझ बनकर परिवार में जी रहा है।  कुछ परिवार समाज के डर से वृद्धों को मानवीय दृष्टि से देखते थे तो कई बूढ़े दयनीय स्थिति में दिन गुज़ार रहे थे।  इनकी परिस्थितियों को राजनीतिज्ञ मौन व निर्विकार दृष्टि से देखते रहे।"

उन्नीसवी शताब्दी के बाद सामाजिक परिस्थितियां बदलीं। इनके साथ वृद्धावस्था और बूढ़ों पर क्या प्रभाव पड़ा, इसकी पड़ताल आगे करेंगे।   

7 टिप्‍पणियां:

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

काफी गहन छानबीन की है आपने इस विषय के लिए .....
वास्तव में बुढ़ापे में बुजुर्गों की स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती है .....आज के दौर में किसी के पास किसी के लिए वक़्त नहीं तो उनकी ओर ध्यान कौन दे .....
घर में अवहेलना का शिकार होने से तो वृद्धाश्रम में ही रहना ठीक है .....शायद ....!!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

प्रसाद जी, पहले तो एक चुटकी लूंगा ; आपने कहा , "प्राचीन समाजों में बूढ़ों की क्या स्थिति थी उसकी कोई झलक इतिहास के पन्नों में नहीं मिलती।"
यानी की उस जमाने में भी बुड्ढो को कोई ख़ास अहमियत नहीं हासिल थी :) यानी वे लोग भी आज की युवा पीढी के समान समझदार थे !

वैसे प्रसाद जी आपने इस विषय पर तमाम दुनिया भर के उदाहरण संकलित कर इस विस्तृत लेख के जरिये हमारे समाज में वृद्ध लोगो की उपेक्षा को बहुत बेहतर ढंग से उठाया है ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति !

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

उम्र के एक दौर के हर रंग समेट कर प्रस्तुत किया है आपने .....आलेख
जानकारीपरक भी मार्मिक भी .....अच्छी पोस्ट के लिए आभार

SATYA ने कहा…

लेख भी पढ़ा और टिप्पणी भी,
मुझे एक बात समझ में नहीं आती की हम अपने बच्चों के लिए जो भी करे वो हमारा कर्तव्य है, फर्ज है और जब बच्चों द्वारा कुछ करने की बारी आये तो, हरकीरत ' हीर' जी के अनुसार - 'आज के दौर में किसी के पास किसी के लिए वक़्त नहीं तो उनकी ओर ध्यान कौन दे .....'
ऐसे विचारों से दो चार होना पड़ता है,

यहाँ भी पधारें :-
अकेला कलम...

ZEAL ने कहा…

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नियम बने , लेकिन वृद्धों के लिए मुसीबत ही बन गए। नियमों से कुछ नहीं होगा। जिनके पास नैतिक मूल्य जीवित हैं , वे बुजुर्गों का ध्यान अभी भी रखते हैं।

बहुत जानकारीपरक सुन्दर लेख।

आभार।

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Gurramkonda Neeraja ने कहा…

बुढ़ापे के बारे में इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए धन्यावाद. कुछ लोग बुढ़ापे को अभिशाप समझते हैं और घबरा जाते हैं. पर इससे हम मुँह नहीं मोड़ सकते हैं.

कुछ लोग बुढ़ापे को भी वरदान बना लेते हैं और दूसरों के हित के लिए काम करते हैं.

आपका यह काम सराहनीय हैं.

संजय भास्‍कर ने कहा…

प्रसाद जी,
अच्छी पोस्ट के लिए आभार