सोमवार, 28 सितंबर 2009

ROMAN POLANSKI ARRESTED


आस्कर विजेता रोमन पोलंस्की गिरफ़्तार


जाने-माने अंग्रेज़ी फिल्म निर्देशक एवं आस्कर द्वारा पुरस्कृत रोमन पोलंस्की को स्विट्ज़रलैंड में उस समय गिरफ़्तार कर लिया गया जब वे फ़्रांस से यहां के ज़्यूरिख फिल्म समारोह में हिस्सा लेने के लिए आए हुए थे। पोलंस्की पर आरोप है कि ३१ वर्ष पूर्व - १९७८में उन्होंने एक १३ वर्षीय किशोरी के साथ अवैध रूप से यौन सम्बन्ध बनाये थे। ३१ वर्ष पुराने अमेरिकी वारंट के आधार पर उन्हें ज़्यूरिख पुलिस ने गिरफ़्तार किया है।


७६ वर्षीय पोलंस्की को २७ सितम्बर की शाम को ज़्यूरिख फिल्म समारोह में लाईफ़ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार दिया जाना था। ज़्यूरिख फिल्म समारोह के आयोजकों का कहना है कि पोलंस्की की गिरफ़्तारी से वे हैरान और आहत हैं लेकिन पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार फिल्म समारोह में उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन जारी रहेगा।


सन्‌ २००३ में पोलंस्की अपनी फिल्म ‘द पियानिस्ट’ के लिए उत्तम निर्देशक का आस्कर पुरस्कार जीत चुके हैं। इसके अलावा उनकी अन्य फिल्में ‘रिपल्शन’, ‘द टेनेन्ट’, ‘रोज़मेरीज़ बेबी’ तथा ‘चायनाटाउन’ भी चर्चित रहीं। उनकी प्रथम फिल्म ‘नाइफ़ इन द वाटर’ ने उन्हें फिल्म जगत में ख्याति दिलाई थी। उनकी गर्भवती पत्नी शेरान टेट का १९६९ में चार्ल्स मेसन मर्डर गैंग द्वारा हत्या करने पर पोलंस्की पहली बार चर्चा में आए थे। शायद दुर्भाग्य उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है और वे गलत कारणों के लिए अब चर्चा में हैं॥



रविवार, 27 सितंबर 2009

Environmental preservation

बदलता पर्यावरण-सावधान रहें




टोरेन्टो विश्वविद्यालय तथा ओरेगां राज्य विश्वविद्याल्य के शोधार्थियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि दक्षिणी ध्रुव के पश्चिमी क्षेत्र की बर्फ़ पिघलने से विश्व की समुद्री ऊँचाई पाँच मीटर तक बढ़ सकती है।

दूसरी ओर, समुद्री सतह से १४,००० फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित चीन के दक्षिण में ली ज्यांग में स्थित जेड ड्रेगन स्नो पहाडी़ का १.७ मिल लम्बा बाइशूई हिमनद[ग्लेशियर] दो दशक में ८३० फ़ीट पिघल चुका है। बताया जाता है कि अब उसके पिघलने की रफ़्तार और तेज़ हो गई है। चीनी विशेषज्ञ याओ तान्डंग का मानना है कि यदि ऐसी ही परिस्थिति रही तो अगले चालीस वर्ष में यहाँ के दो तिहाई हिमनद गायब हो जाएंगे!

अब यह विश्व के नेताओं के हाथ में है कि इस विश्व के पर्यावरण को बचाने के लिए वे एकजुट होकर प्रयास करते हैं या अपने-अपने लाभ के लोभ में इस धरती को य़ूँ ही पिघलने देते हैं जो अंततः जल प्रलय में परिणित होगी!!!!!!


गुरुवार, 24 सितंबर 2009

आतंक की नई धुरी


अफ़गानिस्तान के निम्रोज़ इलाके के हाजी जुमा खान के लगभग दो सौ मकान पाकिस्तान में बताए जाते है, इसके अलावा चार महल विभिन्न देशों में भी हैं। उनकी शानोशौकत के चर्चे ग्रिचेन पीटर्स ने अपनी पुस्तक ‘सीड्स ऑफ़ टेरर: द तालिबान, द आइ एस आइ एंड द ओपियम वार्स’ में किया है। हाजी जुमा खान के इस रईसाना ठाठ के पीछे है उनका चरस, अफ़ीम और हेरोयन का कारोबार।


इस्लामी जिहाद के पीछे हाजी का हाथ बताया जाता है जिसने तालिबान, अल कायदा तथा इस्लामिक मूवमेंट आफ़ उज़्बेकिस्तान जैसी संस्थाओं को आर्थिक सहायता दी। नतीजा यह हुआ कि अफ़गानिस्तान में मुल्ला उमर व ओसामा बिन लादेन के साथ साथ पाकिस्तान की आइ एस आइ और दाउद इब्राहिम की जोड़ी भी इन से मिल कर इस क्षेत्र को जिहाद के नाम पर दहशतगर्दी का क्षेत्र बना दिया है।


१९९३ के बम कांड के बाद दाऊद को आतंक फैलाने के लिए पकड़ने की कोशिश जब भारत में चल रही थी तो वह पाकिस्तान भाग खड़ा हुआ। बताया जाता है कि आइ एस आइ की मदद से वह कराची में पनाह लेने लगा। हाजी और दाऊद के साथ का नतीजा यह हुआ कि करोड़ो डालर की तस्करी और काला धन आराम से कराची के सट्टा बाज़ार में लगने लगा।


दुख तो यह है कि इतना सब जानते हुए भी विश्व की सारी ताकत भी इन आतंक फैलाने वालों को अपना हाथ नहीं लगा पा रही है और यह लोग दुनिया की सब से बड़ी ताकत कहे जाने वाले अमेरिका को ९/११ के हमले के आठ वर्ष बाद भी मुँह चिढ़ा रहे हैं!!!!!

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Courtesy: India Today [28th September2009]-based on excerpts from Review by Amitabh Mattoo on the book `Seeds of Terror: The Taliban, The ISI and the Opium wars' written by Gretchen Peters

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

Jinnah, India-Partition, Independence- A review

भारतीय इतिहास का पुनर्पाठ- ‘जिन्ना, इंडिया-पार्टिशन-इंडिपेन्डेन्स’

छः दशक बाद भी विभाजन की त्रासदी भारत को विचलित करती है। इसके कारणों को जानने की अबुझ प्यास इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों को उस काल के ऐतिहासिक घटनाओं का पुनर्पाठ करते हुए अपने अपने निषकर्ष निकालते देखा गया है। ऐसे लेखन की न केवल अपनी सीमा होती है बल्कि उसके विपरीत परिणाम भी हो सकते हैं जिसका ताज़ा उदाहरण है भारत के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह की अंग्रेज़ी कृति- ‘जिन्ना, इंडिया-पार्टिशन-इंडिपेन्डेन्स’॥

लगभग पाँच सौ पृष्ठों वाली ‘जिन्ना, इंडिया-पार्टिशन-इंडिपेन्डेन्स’ में जसवंत सिंह जी ने इतिहास के उन पन्नों को उकेरा है जिनमें भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि है। इस पुस्तक को ग्यारह अध्यायों बे बाँटा गया हैं - भूमिका, भारत व इस्लाम, जेनाभाई से जिन्ना[जिन्नाह], बीसवें दशक की खलबली, सिकुड़ते विकल्प, एक छोटा दशक, साम्राज्य का सूर्यास्त, उत्तराधिकार की जंग, वार्तालाप कि झलक, वाइसराय मौंटबेटन के राज का अंत, पाकिस्तान का जन्म व कायदेआज़म की अंतिम यात्रा तथा उपसंहार।

नाकाम इन्क़िलाब को बगा़वत और कामियाब बग़ावत को इन्क़िलाब कहा गया है। भारत की आज़ादी की जंग सन्‌ १८५७ ई. में शुरू हुई थी और ठीक ९० वर्ष बाद १९४७ में फ़लिभूत हुई। १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेज़ी इतिहसकारों ने बग़ावत [म्यूटिनी] का नाम दिया था। इस संग्राम की चिंगारी देश के हिंदू और मुसलमान देशवासियों ने मिल कर जलाई थी। उन्होंने मिल कर जिस जंग को शुरू किया था, वह किन कारणों से खेमों में बँट गया और अंततः देश के विभाजन तक पहुँचा, इसका जायज़ा लिया है नेता जसवंत सिंह जी ने अपनी इस कृति ‘जिन्ना, इंडिया-पार्टिशन-इंडिपेन्डेन्स’ में।

भारतीय इतिहास के इन पृष्ठों को उजागर करते समय लेखक ने जिन्ना को केंद्र में रखा है। जिन्ना की कहानी शुरु होती है गुजरात के उस क्षेत्र से जहाँ देश के दो मुख्य पात्रों ने जन्म लिया। काठियावाड़ की भूमि ने देश को मोहनदास करमचंद गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेता दिये।

पानेली गाँव के एक खोजा परिवार के पून्जाभाई के साथ उनके तीन पुत्र और एक पुत्री रहते थे- वालजीभाई, नथुभाई, जेनाभाई और मान बाई। इस परिवार के जेनाभाई ही भारतीय इतिहास के एक मुख्य पात्र बने। पिता के व्यापार में घाटा होने के बाद आर्थिक संकट के चलते जेनाभाई पानेली से निकल कर गोंदल गए। वहाँ से भाग्य ने उन्हें कराची, मुम्बई, इंग्लैंड आदि स्थानों की यात्रा कराई और इसी दौरान जेनाभाई से वे मुहम्मद अली जिन्ना बन गए। [अपना नाम बदलने के लिए उन्होंने २६ अप्रेल १८९३ को सरकार से आज्ञा मांगी थी, जिसकी प्रतिलिपि इस पुस्तक का अंग है।]

उस समय के इतिहास के पृष्ठों पर दृष्टि डालते हुए लेखक ने पुस्तक के अंत में कई दस्तावेज़ जोड़े हैं जो इन ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी रहे हैं। जसवंत सिंह जी ने देश के नेताओं के उन वक्तव्यों को भी उद्धृत किया है जिनसे यह जानकारी मिलती है कि कैसे एक देशभक्त को सिकुड कर संप्रदाय-विशेष का नेता बना दिया और अंतिम परिणिति यह रही कि देश का विभाजन हुआ।

गोपाल कृष्ण गोखले ने जिन्ना को ‘हिंदू-मुस्लिम एकता का दूत’ कहा था। घटनाक्रम के चलते इस एकता के दूत को मात्र मुस्लिम नेता बनने का बदलाव कैसे आया, इसकी जानकारी इस पुस्तक में मिलती है। सन्‌ १९१५ई. में दक्षिण अफ़्रिका से लौटने पर गांधीजी के स्वागत में एक गुर्जर सभा का आयोजन काठियावाड़ में किया गया था। इस सभा में जिन्ना ने गर्मजोशी से भाग लिया और इस सभा की अध्यक्षता की। अपने भाषण में गांधीजी ने कहा कि "मुझे प्रसन्नता है कि इस सभा में एक मुस्लिम है जो इस क्षेत्र का भी है।" सम्भवतः सम्प्रदाय का यह बीज यहीं अंकुरित हुआ। आगे की राजनीतिक घटनाएँ/माँगें जैसे सम्प्रदाय के आधार पर राजनीतिक आरक्षण[जो तब नकारा गया और आज देश में व्याप्त है-जिसे हम विड़म्बना ही कह सकते हैं], कांग्रेस और मुस्लिम लीग में वैचारिक मतभेद, गांधीजी की अली बंधुओं से निकटता.... ऐसी कई घटनाओं के चलते एक धर्मनिरपेक्ष नेता को मुस्लिम समुदाय के नेता में परिवर्तित किया, एक कांग्रेसी को पाला बदल कर मुस्लिम लीग के साथ हाथ मिलाने को बाधित किया और अंत में कायदेआज़म के रूप में देश के विभाजन का प्रणेता बनाया।

इस सारे घटनाक्रम में कौन सही था, कौन ग़लत, कौन किस दृष्टि से इतिहास को देखता है और उस समय पर लिए गए कितने सही या गलत निर्णय थे... यह तो अपनी-अपनी सोच, समझ और दृष्टिकोण पर आधारित होगा। जसवंत सिंह जी ने दस्तावेज़ों के आधार पर इतिहास के इन पन्नों को पुनः पाठकों के सामने रखा है। पाठक चाहे जो भी निष्कर्ष निकालें परंतु यह पुस्तक एक ऐतिहासिक संदर्भ ग्रंथ के रूप में सदा साथ रखी जाएगी।


शनिवार, 19 सितंबर 2009

COLOURS OF NAVRATRA

नवरात्र के नवरंग


अपनी नौकरी के सिलसिले में जब मैं मुम्बई में था तो नवरात्र के समय एक रोचक तथ्य देखने को मिला। नवरात्र के दिनों में महिलाएं हर रोज़ एक ही रंग के कपड़ों में दिखाई देतीं - एक दिन हरा, तो एक दिन पीला...नीला ..! तब तो मुझे इसकी विशेषता का पता नहीं था।

हाल ही में प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि नवरात्र में रंगों का महत्त्व होता है और माता को हर दिन एक अलग रंग के कपडे़ पहनाए जाते हैं। अधिक जानकारी के लिए उन्होंने विकिपीड़िया देखने के लिए कहा। वहाँ जो तथ्य मिले वो इस प्रकार थे---

दुर्गा नवरात्र में नौ रंगों का महत्त्व है जिसको एक परम्परा का रूप दिया गया है। इस परम्परा को मुख्य रूप से गुजरात, महाराष्ट्र तथा उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में आज भी देखा जा सकता है। नवरात्र के दुर्गा पूजन के अवसर पर हर दिन महिलाएं एक ही रंग के वस्त्र [साड़ियां] तिथि अनुसार पहने हुए दिखाई देंगे।

यह माना जाता है कि यह नौ रंग माता के नौ अवतारों को चित्रित करते हैं। जो नौ रंग के वस्त्र माता को पहनाए जाते हैं वे हैं- हरा, नारंगी, पीला, नीला, गुलाबी, भूरा, गहरा हरा, स्याही नीला और हलका नीला। विजय दशमी के दिन माता को लाल वस्त्र पहनाए जाते हैं।

अधिक जानकारी फिर कभी..........

बुधवार, 16 सितंबर 2009

गरबा के बहाने

गरबा के बहाने यह अंग प्रदर्शन! भारतीय संस्कृति या विदेशी अपसंस्कृति की ओर ले जाते कदम????

सोमवार, 14 सितंबर 2009

Hindi - Not only a language...

हिंदी केवल एक भाषा नहीं, भारतीयता की अभिव्यक्ति है

--डॉ. राधेश्याम शुक्ल, सम्पादक -स्वतंत्र वार्ता


केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने सभी राज्य शिक्षा परिषदों [स्टेट एजुकेशन बोर्ड्स] से कहा है कि वे सभी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था करें, जिससे कि यह भाषा देश की एक आम फ़हम भाषा [लिंग्वा फ़्रैंका] बन जाए। उनका कहना था कि स्कूलों में हिंदी शिक्षण पर जोर देना चाहिए, जिससे पूरे देश के बच्चे आपस में घुल-मिल सकें और बड़े होने पर उनमें बेहत्तर एकता स्थापित हो। मातृभाषा का ज्ञान जहाँ सांस्कृतिक परंपरा से जोड़ती है, वहीं हिन्दी राष्ट्रीय एकता का माध्यम है और अंग्रेज़ी से दुनिया के अन्य देशों से जुड़ सकते हैं।



उनके सुझाव थे कि अभी देश में प्रचलित करीब ४१ शिक्षा बोर्डों को समाप्त कर क्षेत्रीय आधार पर केवल चार बोर्ड [उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम] का गठन किया जाय, विज्ञान तथा गणित की शिक्षा में पूरे देश में एकरूपता लाई जाए, हाईस्कूल की परीक्षा वैकल्पिक कर दी जाए तथा विश्वविद्यालय के डिग्री स्तर में प्रवेश के लिए पूरे देश में केवल एक परीक्षा की व्यवस्था की जाए। इनमें उनका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वक्तव्य हिंदी भाषा को लेकर था।



उनके स्तर पर यह कहा जाना निश्चित ही बहुत महत्त्वपुर्ण है कि यदि हिंदी देश की ‘लिंग्वा फ़्रैंका’ बन जाए, तो भारत दुनिया के लिए ज्ञान प्रदाता बन सकता है। आज अंग्रेज़ी पर निर्भरता ही इस बात का सबसे बड़ा कारण है कि मौलिक ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भारत पिछड़ा हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया के अन्य देशों, विशेषकर अंग्रेज़ी वालों की मुखापेक्षी है।



भारत कभी ‘जगद्‌गुरु’ [पूरी दुनिया के लिए ज्ञान का प्रदाता] माना जाता था, तो इसीलिए कि भारत की भाषा संस्कृत न केवल इस देश के पढे़-लिखे लोगों की लिंग्वा फ़्रैंका थी, बल्कि उसे अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा का भी सम्मान प्राप्त था। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों कंबोड़िया, लाओस, वियतनाम, इंडोनेशिया [हिंदेशिया], मलेशिया [मलय], थाइलैंड [श्याम], बर्मा [म्यांमार], श्रीलंका [सिंहल] आदि से लेकर पश्चिम एशिया, तिब्बत व हिमालय से लगे तमाम मध्येशियायी क्षेत्रों तक संस्कृत का प्रसार था। इन प्रायः सारे क्षेत्रों तक संस्कृत के प्राचीन अभिलेख पाए जाते हैं। चीन व अरब देश के विद्वान भी शिक्षा प्राप्ति के लिए भारत आते थे और संस्कृत सीखकर तमाम नया ज्ञान अर्जित करते थे। उस समय संस्कृत केवल धर्म दर्शन के अध्ययन का माध्यम नहीं थी, बल्कि ज्ञान-विज्ञान जैसे चिकित्सा, अर्थशास्त्र, मौसम विज्ञान, गणित, भूगोल, रसायन शास्त्र, ज्योतिष, यंत्रविज्ञान आदि का भी माध्यम थी। हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र तक का भारत देश भले कभी एक राजनीतिक तंत्र में न रहा हो, लेकिन भाषा व संस्कृति की दृष्टि से यह प्रायः सदैव एक देश रहा है। भाषा, शिक्षा और संस्कृति को लेकर पूरे उपमहाद्वीप में कभी कोई विवाद नहीं रहा, जब तक कि अंग्रेज़ों के साथ विदेशी शिक्षा पद्धति यहाँ नहीं आई।



ज्ञान-विज्ञान के शिक्षण की भारतीय परम्परा बहुत पहले टूट चुकी थी। तकनीकी ज्ञान - गणित, ज्योतिष, रसायन, यंत्रविज्ञान, धातुविज्ञान, रत्नविज्ञान, रंगाई, बुनाई, चित्रकला, शस्त्र निर्माण, वास्तुकला, मूर्तिकला, समुद्र विज्ञान, जहाज़ निर्माण, नगर निर्माण, काष्ठकला, खनन, औषधि विज्ञान आदि के अध्ययन अध्यापन की विधिवत श्रृंखला समाप्त हो चुकी थी। तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा जैसे विश्वविद्यालय भी समाप्त हो चुके थे, जहाँ इनकी शिक्षा भी प्राप्त होती थी। मुस्लिम आक्रांताओं का सबसे बडा़ कहर इन शिक्षा केंद्रों पर ही टूटा था। इनके टूटने के बाद उपर्युक्त ज्ञान विज्ञान केवल वंश परम्पराओं में सीमित हो गए। पिता-पुत्र परम्परा ही उपर्युक्त तकनीकी शिक्षा का माध्यम रह गया था। संस्कृत के जो स्कूल, विद्यालय या महाविद्यालय थे, वे कुछ विशिष्ट आचार्यों, मंदिरों तथा धार्मिक समुदायों से जुडे़ हुए थे और वहाँ अध्ययन के विषय केवल वेद, वेदांत, संस्कृत भाषा, साहित्य, व्याकरण, दर्शन, इतिहास, पुराण, ज्योतिष व कर्मकाण्ड तक सीमित हो गए थे। इनमें भी रूढि़ग्रस्तता इतनी बढ़ गई थी कि वे कुछ भी नया स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।



अंग्रेज़ों का राजनीतिक आधिपत्य कायम होने के पहले यहां राजकाज में उर्दू व फ़ारसी की स्थापना हो चुकी थी, इसलिए राजनीति, व्यापार, प्रशासन, शिक्षा आदि में नौकरियों के अवसर केवल उर्दू, फ़ारसी व अंग्रेज़ी में उपलब्ध थे। इसीलिए महत्वाकांक्षी व मेधावी लोगों का रुझान भी इन्हीं भाषाओं व आधुनिक यूरोपीय शिक्षा की तरफ़ था। केवल परम्परानिष्ठ ब्राह्मण परिवार ही वेद, शास्त्र, व्याकरण, दर्शन आदि के लिए संस्कृत पढ़ते थे। मैकाले ने स्वयं लिखा है कि संस्कृत पढ़ने वाले सामान्य लोग इससे परेशान थे कि इसे पढ़कर उन्हें कोई नौकरी नहीं मिल सकती। इस तरह उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी नौकरियों की भाषा बन गई थी, इसलिए शिक्षा का माध्यम भी यही भाषाएं बन गईं। इस प्रकार, केवल मध्यवर्ग का एक छोटा सा तबका, जो संस्कृत भाषा तथा पारम्पारिक भारतीय वांग्मय के सम्पर्क में था, भारत की उच्च परम्परा श्रेष्ठ भाषा ज्ञान, अध्यात्म तथा दर्शन की गौरवगाथा के अध्ययन में लगा रहा। परम्परा के प्रति उसका उत्कट मोह भारतीयता की समृद्ध परम्परा को जीवित रखने में सहायक बना। उसने संस्कृत वांग्मय् के श्रेष्ठ साहित्य को क्षेत्रीय भाषाओं में अनूदित करने या उनके आधार पर नये ग्रंथ लिखने का प्रयास किया। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का उत्थान हुआ, उनमें सहित्य सृजन की चेतना जगी।



अंग्रेज़ी शिक्षित स्वतंत्रचेता भारतीयों ने उस माध्यम की तलाश शुरू की, जो पूरे देश में एकता का भाव, संस्कृति का गौरव और मुक्ति की चेतना भर सके। यह काम न अंग्रेज़ी से सम्भव था और न फ़ारसी से। उर्दू इस देश में ही पैदा हुई भाषा थी, लेकिन उसने अपना अलग रास्ता पकड़ लिया था। वह इस देश में पैदा तो हुई, लेकिन उसने इस देश से कोई सांस्कृतिक या ऐतिहासिक सम्बन्ध नहीं रखा। उसके लिए यह देश एक जागीर से अधिक नहीं था। उसने लिपि भी विदेशी अपनायी और भाव तथा सांस्कृतिक प्रतीकों को भी बाहर से लिया। इसलिए देश के कोने-कोने से सभी राष्ट्रचेता विद्वानों ने संस्कृत के अपभ्रंश तथा देशी भाषाओं के मेलजोल से बनी देश के आम आदमी की संपर्क भाषा को एक राष्ट्रभाषा के रूप में ऊपर उठाने व विकसित करने का बीड़ा उठाया और उसे ही देश के राजकाज की भाषा बनाने का संकल्प लिया। उन दिनों इस भाषा को मध्य एशिया, तुर्की व फ़ारस से आए मुसलमानों ने हिन्दी, हिन्दवी या हिन्दुस्तानी नाम दे रखा था। भारत में इसे ‘भाषा’ के नाम से ही जाना जाता था। विद्वानों व पढे़ लिखे लोगों की देश भर में अपनी संपर्क भाषा संस्कृत थी, तो उसके समानान्तर पूरे देश में आम लोगों, सैनिकों, व्यापारियों, पर्यटकों, मज़दूरों, कारिगरों, नटनर्तकों, साधुओं, तीर्थयात्रियों आदि के परस्पर संपर्क की भाषा यही हिंदी थी। यह हिंदी किसी क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी। यह पूरे देश की भाषा थी और देश के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने वालों द्वारा व्यहृत होती थी। मध्यकालीन संत या भक्त कवियों की जिस भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहा गया है, वही वास्तव में हिंदी थी। इसमें उत्तर भारत की राजस्थानी, ब्रज, अवधी, भोजपुरी व मैथिली से लेकर दक्षिण के मराठी, तेलुगु, कन्नड़ व तमिल तक के शब्द पाए जाते हैं। इसलिए देश के जागरूक राजनेताओं, विद्वानों तथा राष्ट्रभक्तों ने इस संस्कृतोन्मुख भारतीय जन संपर्क भाषा को देश की राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प लिया।



जब देश एक राजनीतिक इकाई नहीं था, तब इसकी सांस्कृतिक एकता व राष्ट्रीयता बरकरार थी, क्योंकि देश एक भाषा व एक संस्कृति से बंधा था, लेकिन आज राजनीतिक एकीकरण के बावजूद देश, भाषा व संस्कृति के वैविध्य में बिखरता जा रहा है। देश की एक अपनी सम्पर्क भाषा के अभाव में वे संवादहीनता की स्थिति में है, जिसके कारण उनमें क्षेत्रीय संकीर्णता पनप रही है। वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि देश की एक जनभाषा को राष्ट्रभाषा व राजभाषा के रूप में स्वीकृति एवं व्याप्ति से देश की एकता व अखंडता कितनी दृढ़ होगी व उसकी विकासगति कितनी तेज़ हो सकेगी।

सवाल केवल मुद्दे को सही परिप्रेक्ष्य में सोंचने और अपनी सोच को बदलने का है।

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स्वतंत्रवार्ता के `साप्ताहिकी 'से साभार उद्धृत सारसंक्षेप

रविवार, 13 सितंबर 2009

HINDI AND GLOBALISATION

वैश्वीकरण और हिन्दी की भूमिका


वैश्वीकरण पर अपने विचार व्यक्त करते हुए विदेशी शोधार्थी वेट्टे क्लेर रोस्सर ने कहा था कि यह प्रक्रिया अचानक बीसवीं सदी में नहीं उत्पन्न हुई। दो हज़ार वर्ष पूर्व भारत ने उस समय विश्व के व्यापार क्षेत्र में अपना सिक्का जमाया था जब वह अपने जायकेदार मसालों, खुशबूदार इत्रों एवं रंग-बिरंगे कपडों के लिए जाना जाता था। भारत का व्यापार इतना व्यापक था कि एक बार रोम की सांसद ने एक विधेयक के माध्यम से अपने लोगों के लिए भारतीय कपडे़ का प्रयोग निषिद्ध करार दिया ताकि वहां के सोने के सिक्कों को भारत ले जाने से रोका जा सके। तभी से भारत की उक्ति वसुधैव कुटुम्बकम्‌प्रचलित रही और इसीलिए आज भी भारत के लिए वैश्वीकरणका मुद्दा कोई नया नहीं है।
प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक नोम चॉमस्की का मानना है कि वैश्वीकरणका अर्थ अंतरराष्ट्रीय एकीकरण है। इस एकीकरण में भाषा की अहम्‌ भूमिका होगी और जो भाषा व्यापक रूप से प्रयोग में रहेगी, उसी का स्थान विश्व में सुनिश्चित होगा। नोम चॉमस्की के अनुसार जब विश्व एक बडा़ बाज़ार हो जाएगा तो बाज़ार में व्यापार करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग होगा उसे ही प्राथमिकता दी जाएगी और वही भाषा जीवित रहेगी। इस संदर्भ में यह भी भविष्यवाणी की जा रही है कि वैश्वीकरण के इस दौर में विश्व की दस भाषाएं ही जीवित रहेंगी जिनमें हिन्दी भी एक होगी। जिस भाषा के बोलनेवाले विश्व के कोने-कोने में फैले हों, ऐसी हिन्दी का भविष्य उज्जवल तो होगा ही।
हिन्दी का महत्व वैश्वीकरण एवं बाज़ारवाद के संदर्भ में इसलिए भी बढे़गा कि भविष्य में भारत व्यवसायिक,व्यापारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से एक विकसित देश होगा। भाषावैज्ञानिकों को इस दिशा में अधिक ध्यान देना होगा कि हिन्दी की तक्नीकी शब्दावली विकसित करें और इसके लिए विज्ञान तथा भाषा में परस्पर संवाद बढें, जिससे हिन्दी तक्नीकी तौर पर भी एक सम्पूर्ण एवं समृद्ध भाषा बन सके।
भाषा को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक तो वह भाषा जो स्थान-स्थान पर कुछ देशज शब्दों और लहजे के साथ कही जाती हैं और दूसरी साहित्य की भाषा जो सारे देश में मानक की तरह लिखी व पढी़ जाती है। वैसे तो,अब साहित्य में भी बोलियों का प्रयोग स्वागतीय बन गया है ताकि कथन में मौलिकता बनी रहे और देशज शब्दावली जीवित रहे।
वैश्वीकरण के बाद भाषाओं को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है। विश्वस्तर पर छः भाषाओं को सरकारी काम-काज के लिए अंतरराष्ट्रीय भाषाओ का दर्जा दिया गया है। ये भाषाएं हैं - अंग्रेज़ी, फ्रे़च, स्पेनिश, चीनी, रूसी और अरबी। और दूसरी -वो भाषाएं जो व्यापार में संपर्क भाषाओं [ग्लोबल लेंग्वेजस] के रूप में प्रयोग में आतीं है।
आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में जोर से माँग उठाई गई कि हिन्दी को भी संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी जाय। वैसे, यह एक राजनीतिक मुद्दा है, जिसके लिए न केवल राजनीतिक इच्छा- शक्ति की आवश्यकता है बल्कि अपार धन व्यय की व्यवस्था भी करनी पडेगी। शायद इसीलिए हमारी सरकार का ध्यान इस ओर अभी नहीं गया है। परन्तु हिन्दी की उपयोगिता को विश्व का व्यापारिक समुदाय समझ चुका है और इसे अन्तरराष्ट्रीय वैश्विक भाषा [ग्लोबल लेंग्वेज] का दर्जा मिला है।
हिन्दी को वैश्विक दर्जा दिलाने में कई कारक हैं जो व्यवसाय और व्यापार को बढावा देने में सहायक होंगे। भारत एक बडा़ बाज़ार है जहाँ के सभी लोग हिन्दी में सम्प्रेषण कर सकते है। इसीलिए हिन्दी का महत्व व्यापारी के लिए बढ़ जाता है। निश्चय ही मीडिया और फिल्मों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार मे एक मुख्य भूमिका निभाई है। हिंदी का विरोध कर रहे कुछ क्षेत्रों में भी हिन्दी फिल्मों की मांग बढ़ रही है। देश में ही नहीं, विदेशों में भी टेलिविजन पर सबसे अधिक हिन्दी चैनल ही प्रचलित एवं प्रसिद्ध हैं और यह इस भाषा की लोकप्रियता व व्यापकता का प्रमाण है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हिन्दी का स्थान प्रथम है। भूमंडलीकरण, निजीकरण व बाज़ारवाद ने नब्बे के दशक में हिन्दी पत्रकारिता में क्रांति लाई। रंगीन एवं सुदर साज-सज्जा ने श्वेत-श्याम पत्रकारिता को अलविदा कहा। अब दैनिक पत्र भी नयनाभिराम चित्रों के साथ प्रकाशित होते हैं। इसके साथ ही यह भी हर्ष का विषय है कि इन पत्रों के संस्करण कई स्थानों से एक साथ निकल रहे हैं। यह जानकर सुखद आश्चर्य भी होता है कि भारत में सब से अधिक बिकनेवाले समाचार पत्र हिन्दी के ही हैं जबकि अंग्रेज़ी के सबसे अधिक बिकनेवाले पत्र का स्थान दसवें नम्बर पर आता है। दैनिक भास्करसमाचार पत्र की रोज़ १ करोड ६० लाख प्रतियां छपती हैं जबकि सर्वाधिक बिकनेवाले अंग्रेज़ी पत्र टाइम्स आफ़ इण्डियाकी ७५ लाख प्रतियां छपती हैं और वह दसवें स्थान पर है। इसी से हिन्दी के प्रभाव, प्रचार,प्रसार और फैलाव का पता आंका जा सकता है।
वैश्वीकरण की एक और देन होगी अनुवाद के कार्य का विस्तार। जैसे- जैसे विश्व सिकुड़ता जाएगा, वैसे-वैसे देश-विदेश के विचार, तक्नीक, साहित्य आदि का आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही सम्भव होगा। आज अनुवाद की उपयोगिता का सबसे अधिक लाभ फिल्मों को मिल रहा है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि हिन्दी अनुवाद के माध्यम से अंग्रेज़ी फिल्म द ममी रिटर्न्सको सन्‌ २००१ में २३ करोड़ रुपयों का लाभ हुआ जबकी २००२ में स्पैडरमैनको २७करोड़ का और २००४ में स्पैडरमैन-२को ३४करोड का लाभ मिला। ये आंकडे एक उदाहरण है जिनसे अनुवाद की उपयोगिता प्रमाणित होती है।
कंप्युटर युग के प्रारंभ में यह बात अक्सर कही जाती थी कि हिन्दी पिछड़ रही है क्योंकि कंप्युटर पर केवल अंग्रेज़ी में ही कार्य किया जा सकता है। अब स्थिति बदल गई है। अंतरजाल के माधयम से अब हिन्दी के कई वेबसाइट,चिट्ठाकार और अनेकानेक सामग्री उपलब्ध है। य़ूनिकोड के माध्यम से कंप्युटर पर अब किसी भी भाषा में कार्य करना सरल हो गया है। गूगल के मुख्य अधिकारी एरिक श्मिद का मानना है कि भविष्य में स्पेनिश नहीं बल्कि अंग्रेज़ी और चीनी के साथ हिंदी ही अंतरजाल की प्रमुख भाषा होगी।
कंप्युटर युग में विश्व और सिकुड़ गया है। अब घर बैठे देश-विदेश के किसी भी कोने से संपर्क किया जा सकता है,वाणिज्य सम्बंध स्थापित किये जा सकते है। ऐसे में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा को प्राथमिकता मिलेगी ही क्योंकि बाज़ार में जाना है तो वहीं की भाषा के माध्यम से ही अपनी पैठ बना सकते हैं। ईस्ट इन्डिया कम्पनी के अंग्रेज़ भी आये तो हिन्दी सीख कर ही आये थे।
भारत की जनसंख्या को देखते हुए और यहाँ के बाज़ार को देखते हुए, विश्व के सभी व्यापारी समझ गए हैं कि हिन्दी के माध्यम से ही इस बाज़ार में स्थान बनाया जा सकता है। इसीलिए यह देखा जाता है कि अधिकतर विज्ञापन हिन्दी में होते हैं, भले ही देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि का प्रयोग किया गया हो। रोमन लिपि का यह प्रयोग भी धीरे-धीरे नागरी को इसलिए स्थान दे रहा है कि विश्व का व्यापारी समझ चुका है कि व्यापार बढा़ना है तो उन्हीं की भाषा और लिपि के प्रयोग से ही अधिक जनसंख्या तक पहुँचा जा सकता है। वैज्ञानिक तौर पर भी नागरी अधिक सक्षम है और अब कंप्यूटर पर भी सरलता से प्रयोग में आ रही है।
वैश्वीकरण का जो प्रभाव भाषा पर पड़ता है, वह एकतरफा नहीं होता। विश्व की सभी भाषाओं पर एक-दूसरे का प्रभाव पड़ता है और यह प्रभाव पिछले दो हज़ार वर्षों के भाषा-परिवर्तन में देखा जा सकता है। विगत में यह प्रभाव उतना उग्र नहीं दिखाई देता था और यह मान लिया जाता था कि कोई भी शब्द उसकी ही भाषा का मूल शब्द है। ऐसे कई हिन्दी शब्द अंग्रेज़ी में भी पाए जाते हैं; जैसे, चप्पु-शेम्पु, दांत-डेंटल, पैदल-पेडल, सर्प-सर्पेंट आदि। लेकिन आज हमें पता चल जाता है कि किस शब्द को किस भाषा से लिया गया है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि जो लोग पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण से आतंकित हैं, उन्हें यह देखना चाहिए कि वैश्वीकरण के इस युग में भारतीय संस्कृति विश्व पर हावी हो रही है। आज के मानसिक तनाव को देखते हुए विश्व की बडी़ कंपनियां अपने कर्मचारियों के लिए योग एवं ध्यान के प्रशिक्षण के उपाय कर रहीं हैं। हमारे गुरू आज देश-विदेश में फैले हुए हैं और भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं जिनसे विदेशी समुदाय लाभान्वित हो रहे है।विदेशी कंपनियां व्यवसायिक लाभ के लिए हिन्दी का अधिकाधिक प्रयोग करके अपने उत्पादन को बढा़वा दे रहे हैं।भारत की सदियों पुरानी उक्ति वसुधैव कुटुम्बकम्‌एक बार पुनः चरितार्थ हो रही है और वैश्वीकरण व बाज़ारवाद के इस युग में हिन्दी अपना सम्मानित स्थान पाने की ओर अग्रसर है।
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शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

Peculiar customs

एक अनोखी दीवाली
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मध्यप्रदेश के जनजातिय बड़वानी , धार, खरगोना, झाबुआ जिलों में आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी लोग दीवाली का त्योहार एक अनोखे ढंग से मनाते हैं। इन पर खोज करके डॉ. एम..एल.शर्मा निकुंज ने बताया है कि इन आदिवासियों में दिवाली मनाने की कोई निश्चित तिथि नहीं होती। जिस माह में कोई दुर्घटना हो, उस माह में दिपावली नहीं मनाई जाती है। इसलिए उनकी दिवाली प्राय: अलग अलग तिथियों पर मनाते हैं।



दीपावली के दिन् घर को गोबर से लीपा जाता है, विशेषकर घर के ओटले को लीपा जाता है। लीपन के बाद् बचे हुए गोबर से कवडे़ [दीपक] बनाए जाते हैं। त्यौहार मनाने से पूर्व नाते/रिश्तेदारों को दीपावली हेतु आमंत्रित किया जाता है। इस दिन ग्राम पटेल के पास गांव का हर व्यक्ति और उसके घर के सामने रखे टोकरी में अपने घर से लाए अंडे, ज्वार , दिवासा और शीशम के कीले आदि उस में डाल देता है।



आयखेडा माता उनकी आराध्य देवी मानी जाती है। ग्राम पटेल के नेतृत्व में सारे लोग माता के मंदिर जाते है जहाँ पूजा के बाद टोकरे से शीशम की कीलें निकाल ली जाती हैं और गांव के काकड़् [बाहरी हिसे] पर पटेल द्वारा गाड़ दिया जाता है। यह माना जाता है कि ऎसा करने से अशुभ आत्माएँ गांव में प्रवेश नहीं करते। आयखेडा माता की पूजा - अर्चना करने के बाद् मशाल जलाई जाती है जिसे पटेल के साथ् पूरे लोग गांव का चक्कर लगाते हुए ’बेरिया बेरिया कुर्रव’ का उद् घोष् करते हैं। पूरे गांव में घूमने के बाद पटेल के घर पर आकर यह् मशाल बुझा दी जाती है। यह प्रकिया दीपावली का प्रारम्भ माना जाता है।



दूसरे दिन मेहमानों को दाल, चावल, हलुआ खिलाने की प्रथा है। रात के समय भोजन के बाद ढोल बजाया जाता है और फ़टाखे जलाए जाते हैं। रात भर नृत्य और् शराब का दौर चलता है। इसी दौरान घर् में बने कवडे[दीप] में क्रास की तरह बाती सजाकर चार कोनों को जलाया जाता है। यह माना जाता है कि इससे समस्त पीडा़ओं से मुक्ति तथा चौतरफ़ा सुरक्षा मिलती है।



दिवाली के तीसरे दिन पशुओं की धुलाई की जाती है। उनको नहलाने के बाद् उनका श्रंगार किया जाता है। पशुऒं के सींगों को दूध् और गेरू से रंगा जाता है। घर का मुख्या तसले [तगारी] में बाजरे का दलिया डालता है और बैलों के पैर छूता है। बैलों का श्रंगार करके उन्हें गांव में दौडाया जाता है। दोपहर में मिट्टी के कुल्हड़ और घोडा खरीदकर आराध्य देव - गुहा बाबा के पास चढाया जाता है। यह माना जाता है कि बाबा उनके पशुओं की रक्षा करेंगे और पशुधन का विकास भी करेंगे।



इस प्रकार दीपावली का पर्व भारत की सभी जातियों के लोग अपने-अपने ढंग से अपनी सुविधानुसार मनाते हैं।