बुधवार, 16 दिसंबर 2009

स्त्री सशक्तीकरण- विमर्श



पिछली पोस्ट पर की गई टिप्पणियों में स्त्री सशक्तीकरण के कुछ मुद्दे उठाए गए जिन पर विस्तृत चर्चा हो सकती है। इसी क्रम में कुछ टिप्पणियों पर विमर्श--


पी.सी.गोदियाल जी ने बताया कि जिन पर यह ज़िम्मेदारी [स्त्री शिक्षा की] है, वही लोग लड़कियों के स्कूलों को बमों से उडा़ रहे हैं। निश्चय ही यह इशारा उन लोगों की ओर है जो महिलाओं को अशिक्षित रखकर उन्हें पुरुषों के ताबे बनाए रखना चाहते हैं। हमने इसका एक उदाहरण अपनी पिछली पोस्ट में अफ़गानिस्तान में पारित एक विधेयक के माध्यम से दिया ही है।


डॊ. टी.एस.दराल जी ने कहा है कि इस मामले में हम विकसित देशों को दोष नहीं दे सकते। प्रायः यह देखा गया है कि सम्पन्न घरानों में परिवार नियोजन हो रहा है जब कि समाज का गरीब तबका़ इसके उल्लंघन मे ही अधिक दिखाई देता है। अशिक्षा के कारण वे अपनी परिस्थितियों को ईश्वर के भरोसे छोड़ देते हैं, ‘भगवान की मर्ज़ी’ कहते हुए। यही बात गरीब देशों पर भी लागू होती है, जो परिवार नियोजन जैसी योजनाओं की अनदेखी करते हैं।


डॊ. महेश सिन्हा जी को लगता है कि भूख से ही जनसंख्या कम हो जाएगी। यह मानना इसलिए गलत है कि भूखे रहते हुए भी सोमालिया जैसे देश में अधिक जन संख्या है। इस भूख के कारण ही वे लुटेरे बन चुके है और अब विश्व जहाज़रानी के लिए एक बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं।


रचना जी को यह भय है कि जब स्त्री शिक्षित हो जाएगी तो वह अपनी शिक्षा का उपयोग स्त्री सशक्तीकरण के लिए करेगी जिसे पुरुष बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। वे समझती हैं कि शिक्षा का ‘दुर्गुण’ जागृति लाएगा, इसलिए नारी को अशिक्षित रखना ही पुरुष के हित में है। शायद रचना जी शिक्षा, संस्कृति, संस्कार, सभ्यता और स्त्री स्वतंत्रता को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं ले पाईं। स्त्री की स्वतंत्रता किससे? पिता, पुत्र, पति, भाई, सखा.... परिवार से!!!


यहाँ डॊ. ऋषभ देव शर्मा जी की टिप्पणी से कदाचित समाधान मिले। शर्माजी ने कहा है कि "सुशिक्षा होना सशक्त होना भी है। इसीलिए तो कुशिक्षित करने पर ज़ोर है।" कुशिक्षा का ही परिणाम है कि हम मानवीय मूल्य, संस्कार, संस्कृति, सभ्यता, परिवार, प्रेम.... से परे हटते जा रहे हैं। स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक समझने की बजाय प्रतिद्वन्द्वि समझा जा रहा है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का मंत्र जपा जा रहा है।


इस संदर्भ में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की टिप्पणी पर ध्यान दिया जा सकता है कि "प्रगति करनी है तो माँ को शिक्षित करना होगा।" तभी तो कहा जाता है - THE HAND THAT ROCKS THE CRADLE RULES THE WORLD.


18 टिप्‍पणियां:

कडुवासच ने कहा…

... प्रभावशाली प्रस्तुति !!!

डॉ टी एस दराल ने कहा…

अच्छा मुद्दा और तर्कसंगत विश्लेषण।
जारी रखें।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति!

संगीता पुरी ने कहा…

परिवार में एक पुत्र शिक्षित होकर खुद शिक्षित होता है .. जबकि एक पुत्री शिक्षित होकर पूरे परिवार को शिक्षित करती है !!

Arvind Mishra ने कहा…

"स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक समझने की बजाय प्रतिद्वन्द्वि समझा जा रहा है। "
ऐसा निश्चय ही हो रहा है मगर कर कौन रहा है ? निश्चय ही कुछ उन्मुक्त और मोक्ष प्राप्त महिलाए ही न !

Khushdeep Sehgal ने कहा…

एक लड़की पढ़ती है तो एक पूरी पीढ़ी पढ़ती है...

जय हिंद...

Unknown ने कहा…

अच्छी बात

बहुत बढ़िया __बधाई !

बेनामी ने कहा…

रचना जी को यह भय है
tanch ko bhay kaa naam dae kar tippani ko badal diyaa gayaa ??
usko pehlae samjhae to sahii jo maenae kyaa maera vyang agar aap ko samjh aa jataa to aap usko vivad naa samjthey aur mujhe bhay krant naa bataatey

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहुत अच्छा लगा....तर्कसंगत....

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

श्योर, आप अपने रिस्क पर महिलाओं को निरक्षर रख सकते हैं। और वह रिस्क बहुत ज्यादा है!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

रचनाजी, शायद आपने taunt के अर्थ में tanch का प्रयोग किया है!
यदि आप टांट ही कर रही हैं तो ‘भय’ को उस अर्थ में क्यों नहीं ले रही हैं। यहां भय का अर्थ डर नहीं ‘अंदेशा’ है। आपने सही कहा- शायद मेरी बुद्धि उतनी तीव्र नहीं है कि मैं व्यंग्य और उसका अर्थ समझ सकूं :)

अच्छा होता यदि आप शब्दों में न घिर कर मुद्दों पर बात करतीं। खैर... आपने अपनी प्रतिक्रिया दी उसके लिए मैं तहेदिल से आभारी हूं।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

आपका यह प्रयास एक सार्थक प्रयास है प्रसाद जी, लेकिन वास्तविकता वही है जो मैंने कही ! जरुरत है मानसिकता बदलने की और मानसिकता यभी बदली जा सकते है जब लोग खूब शिक्षित हो ! खूब शिक्षित से मेरा मतलब वातविक रूप से ज्ञानी, बुदिमानी ! सिर्फ डिग्री लेने से कोई शिक्षित नहीं कहलाता ! इसका एक उदाहरण इस तरह प्रस्तुत कर रहा हूँ ;

मेरे एक अजीज मित्र मियामी अमेरिका में रहते है, एक ब्रैंडेड कैमरे बनाने वाली फर्म में इंजिनियर है! बीबी डॉक्टर है! शादी के बाद ही दोनों पति-पत्नी अमेरिका गए थे ! दोनों जने लगभग एक ही उम्र के है ! दोनों ही अच्छे पढ़े लिखे परिवारों से है, जहां पर माताए भी ग्रेजुएट है ! अमेरिका गए करीब १८ साल हो गए ! वहाँ के रंग ढंग के हिसाब से आपसी तालमेल से दोनों घर का कामकाज देखते है( यहाँ की तरह वहा नौकर रखना नामुमकिन जैसा है) ! रत को बीबी खाना पका डिनर करने के बाद छोटे बेबी को सुलाने लगती है तो वह जनाव किचन साफ़ करते है ! सब कुछ इसी तरह ठीक ठाक चल रहा था कि जनाव की माताजी दुसरे बच्चे की डिलीवरी के समय वहाँ पहुँच गई, कुछ दिनों जब उन्होंने वह रंग-ढंग देखा कि बेटा किचन में वर्तन साफ़ कर रहा है तो बस दिखा दिया अपना हिन्दुस्तानी पन, नौबत आ पहुची तलाक तक ! मगर जनाव के पिता समझदार थे, यहाँ से लडकी के पिताको साथ लेकर गए और किसी तरह मामला ठंडा पडा !
अब आप ही बतावो ऐसी पढी लिखी होने का भी क्या फ़ायदा ?

बेनामी ने कहा…

मैने जो कहा था वो सन्दर्भ से ही जुडा था । ये पैरवी करना कि नारी को शिक्षित करो और शिक्षित नारी कि सोच , जीने के ढंग पर ऊँगली उठाना दोनों बाते एक साथ नहीं चल सकती । नारी को मुक्ति नहीं चाहिये क्युकी वो मुक्त ही हैं आप सब बार बार उसको ये बताना चाहते हैं वो मुक्त नहीं हैं ।

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

राज भाटिय़ा ने कहा…

मै नोकरी पेशा हुं पहले मेरा बिजनेस था, लेकिन बीबी ने हमेशा घर ही समंभाला है, घर क्या हम सब बाप बेटॊ को सम्भाला है ओए हम भी कभी कभी घर के काम मै हाठ बटा देते है, जब खुब मेहमान आये, या बीबी बिमार हो तो, फ़िर यहां इतना काम भी नही होता, जब मेरा छोटा बेटा पेदा हुआ तो मेरी मां मदद के लिये आई, अब मेरे दोनो बच्चो मै एक साल से भी कम का फ़र्क है, बच्चे रात को तंग करते तो बीबी उन्हे समभालती, सुबह जब मै उठता तो अपने आप चाय नाशता बना कर चला जाता, जो हमारी मां को अच्छा ना लगता, वो खुब बोलती तो कभी कभी मां का मान रखने के लिये बीबी कॊ डांट देता, जब कि हम दोनो को आज तक कोई प्रेशानी नही, यानि हमारे घर मै ना मै आजाद हुं, ना मेरी बीबी ओर ना ही मेरे बच्चे, हम सब आपसी बधन मै बंधे है, मुझे समज नही आता यह आज की कुछ खास नारिया किस तरह की आजादी की बात करती है, ओर किस से आजादी चाहती है?
किसी पढी लिखी नारी के लिये यह सब बाते कुछ मायने नही रखती, जब पुरुष या नारी मै गुण होगे तो सब उस की इज्जत करेगे, ओर जिस भी इंसान मै अबगुण होगे वो तो वेसे ही आजाद है क्योकि उसे कोई बुलायेगा ही नही.
आप ने बहुत सुंदर लेख लिखा आप का इस से पहले का लेख भी पढुंगा धन्यवाद

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

राज भाटिया जी ने सच्ची और अच्छी बात की।

पुरुष और नारी एक दूसरे के बिना यदि `आराम से' बिना कुछ miss किए रह ले रहे हों तो मुझे उनमें कुछ असामान्य (abnormal) लक्षण दिखने लगते हैं।

पता नहीं मेरी दृष्टि कुछ खराब है शायद।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

अच्छा समालोचनात्मक और सामयिक पोस्ट है ये.
भाटिया जी का विश्लेषण खरा सोना की तरह है.

बहुत हुआ स्त्री विमर्श अब नर विमर्श का इंतज़ार है http://sulabhpatra.blogspot.com/2009/12/blog-post_21.html
- सुलभ

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हां सच है. प्रगति करनी है तो मां को शिक्षित करना होगा.