समरकंद का समोवर
जो हुक्का कभी चौपाल की शान हुआ करता था, वही स्थान कश्मीर में समोवर का था। समरकंद से लाया गया समोवर आज भी मुग़लकालीन शानो-शौकत का प्रतीक है।
सुबह सवेरे फू-फू करके समोवर के भीतर भरे कोयले को फूँकती महिलाएँ कभी एक आम नज़ारा हुआ करता था। पीतल या ताम्बे के समोवर दुल्हन के दहेज का अभिन्न अंग हुआ करता था। चाय, नन चाय और कहवा गरम रखने के लिए समोवर का प्रयोग किया जाता है- खास कर कश्मीर जैसे सर्द मुकाम में।
समोवर की बनावट एक खास किस्म की होती है। एक जग के आकार के बर्तन के नीचे जालीदार पेंदा लगा होता है जिसमें आग के लिए कोयला डाला जाता है। इस आग का धुआँ जाने के लिए जग के बीचों-बीच एक पाइप [उसी धातु का] लगा होता है। इस आग के कारण समोवर मे डाली गई चाय बहुत देर तक गर्म रहती है और उसका ज़ायका़ भी बना रहता है। समोवर की चाय बनाना भी एक कला है। एक समय था जब माँएं अपनी बेटियों को इस कला में दक्षता के लिए सीख देती थीं।
विभिन्न आकृति और डिज़ाइन के समोवर बनाना भी एक कला है परंतु आज यह कला धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। अब समोवर की चाय के लिए न उतना समय लोगों के पास बचा है और न वैसे शौकीन ही रह गए हैं। आज के विद्युत युग में बिजली की केतली, थरमस आदि के प्रवेश से समोवर की माँग ही नहीं घटी अपितु उसको बनानेवाले कलाकार भी दूसरे व्यवसायों की ओर रुख़ करने को मजबूर हो गए।
अब न वो हरी पत्ती की चाय के शौकीन रहे न वो नन चाय के [जो दूध, नमक और सोड़ा डाल कर बनाई जाती है] और न वो ज़ायकेवाले कद्रदाँ जो शक्कर, बादाम, दालचीनी व इलाइची से बने कहवा का मज़ा लें। आज समोवर एक ऐसी पुरावस्तु है जो ड्राइंग रूम की रौनक बन कर रह गई है।
चित्र- वीक[साप्ताहिक] से साभार
2 टिप्पणियां:
एक भूले-बिसरे शब्द की आपने याद ताजा कर दी.
बचपन में रूसी किस्से-कहानियों में पढ़ते थे इसके बारे में.
समोवर? भला आपने यह बताया। हमें तो इसके बारे में ज्ञान ही न था।
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