फीकी पड़ती बनारसी साड़ी की शान!
एक समय था जब दुल्हा घोड़ी पर चढ़कर बारात की शान बना रहता था। अब तो शानदार सजी गाड़ियाँ / बग्गियां घोड़ी की जगह ले चुके हैं और बेचारा दुल्हा उस गाड़ी में कहीं कोने में दुबका रहता है।
दुल्हन भी भारी गहनों से लदी हुई, बनारसी साड़ी पहने - सकुचाई-सी मण्डवे में बैठी दिखाई देती थी। अब न वो बनारसी साड़ी रही न वो लजीली दुल्हन।
बदलते समय के साथ विवाह का कभी अनिवार्य अंग मानी जानेवाली बनारसी साड़ी भी अब लुप्त हो रही है। सालों से यह रिवाज़ चला आ रहा था कि दुल्हन- चाहे वो हिंदू हो या मुस्लिम, बनारसी साड़ी पहन कर ही फेरे लेती थी या निकाह कुबूल करती थी। लेकिन समय और फ़ैशन के साथ बनारसी साड़ी का स्थान तड़क-भड़क वाले साड़ी,लहंगा या शरारा ले चुके हैं।
इस बदलाव का सब से अधिक विपरीत असर बनारसी साड़ी के बुनकरों और कारीगरों पर पड़ा है। दस वर्ष पूर्व जहाँ पांच लाख बनारसी साड़ी बुनकर काम करते थे, अब वे घट कर डेढ़ से दो लाख रह गए हैं। हाथ से बुनाई करके इन पर ज़री के काम करने वाले कारीगरों को अब काम नहीं मिल रहा है। उनके बनाये गये ‘कढुआं’ साड़ियों की मांग की कमी के साथ-साथ पावरलूम से भी उन्हें भारी धक्का लगा है। कढुआं साडी़ जहाँ छः-छः माह में दस-बारह हज़ार रुपये की मज़दूरी देकर बनवाई जाती थी, वहीं पावरलूम से चंद घंटों में तैयार की जाती है। इसके कारण जब कम दाम में उसी प्रकार की साड़ी मिल जाती है, तो लोग हाथ के कारीगर की महंगी साड़ी क्यों लेंगे! और फिर, बनारसी साड़ी ही पहने, यह भी अनिवार्य नहीं रहा। तो लगता है बनारसी साड़ी और उसको बनाने वाले कारीगर लुप्त होते जा रहे हैं।
11 टिप्पणियां:
बनारसी साड़ी की शान तो हमारे जेहन में अब भी बसी है.
i am promoter of handloom products . the plight of weavers is pitiable . most weavers have left weaving all together
banarsi saree is a piece of art but only those who possess one can understand
the photo no wehre stands upto the article it would have helped many had you posted some origianl saree photos here
मुद्दा आपने बहुत गंभिर उठाया है।
भाई हमें तो आपकी पोस्ट से दो तरह की याद आई.
एक तो यह कि बनारसी साड़ी के कारोबारी और शुगर पेशेंट एक शायर ने कुछ साल पहले एक महँगी साड़ी इस तरह हमारे मत्थे मढ़ी कि जब उसका रंग उड़ा तो उन साहब की दोस्ती का रंग भी उड़ गया - कवियों के चोर होने का एक और उदाहरण हमारे परिवार को मिल गया.
दूसरी याद अच्छी है - अब्दुल बिस्मिल्लाह का वह उपन्यास आपने भी पढ़ा होगा ही.
आदरणीय ऋषभदेवजी, आपने धोखा खाया...दोस्ती में वर्ना बनारसी ठग तो प्रसिद्ध हैं ही:)
आदरणीय रचनाजी, मैंने वो फ़ोटो इसी लिए तो लगाई है कि the present trend stands nowhere near the banarasi saari! Hope your efforts will bring new life to this dying art.
फटाफट संस्कृति में कला का क्या काम
शायद आप सही कह रहे हैं.............
yhi hal kaleen bunkro ka bhi hai .
सहमत हूँ आपके साथ..लहंगा ओढ़नी,चाहे वो जँचे न जँचे,एक 'गणवेश'की भाँती पहनी जाती है...ये भी सच है,कि, हमारी,पूरे विश्व में बेमिसाल गिनी जानेवाली, बुनाई की dharohar नष्ट होते जा रही है..हम 'globalisation'की बातें करते हैं..वो तो किसीके रोके नही रुकेगा..सवाल है,क्या हम इन मज़लूम लोगोंको सहारा दे, अपने साथ ले चलेंगे, या इन्हें रौंद के आगे बढ़ेंगे?
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