विश्व के इतिहास में मोहनदास करमचंद गांधी का नाम जब भी आएगा, उन्हें बडे़ आदर से याद किया जाएगा क्योंकि वे एक ऐसे आदर्शपुरुष हैं जिन्होंने अपने जीवन को एक खुली किताब की तरह जिया। उनका निजी जीवन भी उनके राजनीतिक और सामाजिक जीवन की तरह सार्वजनिक था। अपने ऊंचे आदर्शों के कारण वे न केवल देश के राष्ट्रपिता बने बल्कि विश्व में अपने जीवन-मूल्यों के प्रति दृढ़ श्रद्धा रखने के कारण, युग-पुरुष भी कहलाए। दुख की बात यह रही कि अहिंसा की लाठी हाथ में लिए इस विशाल देश को स्वतंत्रता दिलानेवाले युगपुरुष के अंतिम दिन जिजीविषा में बीते थे।
भारत के पोरबंदर में जन्मे शिशु से लेकर लंदन में कानून के विद्यार्थी, दक्षिण अफ्रिका के बहुसंख्यकों के अधिकारों के संघर्षकर्ता, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के चतुर राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता, सत्य एवं अहिंसा के पुजारी का सफर तय करनेवाले गांधीजी सन् १९४७ तक पहुँचते-पहुँचते जीवन के अठहत्तर वसंत देख चुके थे। उनका कथन था कि वे १२५ वर्ष की आयु पार करेंगे। अतिव्यस्त कार्यक्रम, अधिक परिश्रम और आत्मत्याग से जूझते जीवन को बिताते हुए भी उन्होंने नियमित व्यायाम, उपासना और नैसर्गिक चिकित्सा के माध्यम से अपने स्वास्थ्य को बनाए रखा था। इस स्वस्थ काया पर देश के विभाजन ने ऐसा आघात किया कि वे अंदर से टूट गए और राजनीतिक घटनाक्रम को भाग्य पर छोड़ दिया था।
बिहार और नोआखली के दंगों को देखते हुए गांधीजी ने कहा था कि धर्म को ज़हर नहीं बनाना चाहिए। धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों से वे जहाँ दुखी थे, वहीं दक्षिण भारत को केवल द्रविड़ सभ्यता से जोड़ने पर अप्रसन्न भी थे। एक बार जब त्रावनकोर के महाराज का संदेश लेकर दीवान सर सी.वी. रामस्वामी अय्यर आए और गांधीजी को बताया कि वहाँ की जनता महाराज की सरकार से प्रसन्न है और उन्हें भारत में विलय की आवश्यकता नहीं है, तब गांधीजी ने कहा कि अपने लिए छोटे-छोटे दायरे, रजवाडे़ की सोच स्वतंत्र भारत के हित में नहीं है। यदि देश इस तरह बाँटा जाएगा तो उन लोगों का कथन सही साबित होगा जो यह मानते हैं कि हमें केवल गुलामी के बंधन से ही एकजुट रखा जा सकता है; और यदि आज़ाद छोड़ दिया जाय तो हम वहशियों की तरह अपनी-अपनी जातियों में बँट जाएंगे और हर कोई अपना-अपना रास्ता तलाशता जाएगा। अच्छा हो कि सभी अपने आप को केवल भारतीय मानें।
अपने अंतिम दिनों में भी गांधीजी महिलाओं के सशक्तीकरण पर बल दिया करते थे। चीन की महिलाओं को सम्बोधित करते हुए गांधीजी ने कहा था कि यदि विश्व की समस्त महिलाएं एकजुट हो जाएं तो अहिंसा को इतना बल मिलेगा जो ऐटम बम को भी गेंद की तरह उछाल फेंके। उनका मानना था कि महिलाएं ईश्वर की वो देन है जिनकी छिपी क्षमता को उजागर करना आवश्यक है। यदि एशिया की महिलाएं जाग जाएं तो विश्व को चकाचौंध कर दें।
भाषा के बारे में अपना मत व्यक्त करते हुए २७ जुलाई १९४७ को उन्होंने कहा था - "स्वतंत्र भारत की भाषा हिंदुस्तानी हो, ऐसी भाषा जो हिंदी और उर्दू के मेल से बनी हो। अंग्रेज़ी केवल दोयम दर्ज़े की भाषा ही रहे।" गांधीजी उन नेताओं में से थे जो राजनीति को भी धर्म का हिस्सा मानते थे। उनका मानना था कि राजनीति का प्रभाव जनता पर तभी पड़ सकता है जब नेता धर्म और सदाचार के पथ पर चलें। अन्यथा, जैसे जैसे नेता अपने ज़मीर से दूर होते जाएंगे, वैसे-वैसे वो जनता से भी दूर हो जाएंगे।
हैदराबाद से एक व्यक्ति ने उन्हें पत्र लिखा जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि " गांधी को जीवित दफन किया गया है। गांधी यानि गांधी का आदर्श। जिन विचारों के माध्यम से आज हम यहाँ खडे़ हैं, उन्हीं विचारों की सीढी़ को लात मार रहे हैं और यह कृत्य वही कर रहे हैं जो गांधी के सबसे निकट के अनुयायी माने जाते हैं। हिंदु-मुस्लिम एकता, राष्ट्रीय भाषा हिंदुस्तानी, खादी एवं ग्राम उद्योग, इन सब को ताक पर रख दिया गया है। इन सब मुद्दों पर ये लोग बात करते हैं और अपने आपको तथा दूसरों को धोखा दे रहे हैं।"
गांधीजी ने इस पत्र को अपनी पत्रिका ‘हरिजन’ में छापा - अपनी इस टिप्पणी के साथ - "मैं आशा करता हूँ कि भारत के करोडों ग्रामवासी मेरे इन आदर्शों में विश्वास रखते हैं। फिर भी, इस आरोप में भी सच्चाई है।"
१५ अगस्त १९४७ को संविधानकारी संसद के अपने भाषण में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने गांधीजी के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि "वे हमारी सभ्यता और संस्कृति की अमर आत्मा हैं जिनके कारण सभी ऐतिहासिक गतिरोधों को पार करके हमें स्वतंत्रता मिली है। उनकी निष्ठा के प्रति हमें ईमानदार रहना होगा।" भारत के अंतिम अंग्रेज़ गवर्नर जनरल लॉर्ड मौंटबैटन ने भी कहा था कि "इस ऐतिहासिक दिन यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत गांधीजी का आभारी है, जिन्होंने अहिंसा के माध्यम से स्वतंत्रता दिलाई है। यद्यपि वे आज यहाँ उपस्थित नहीं हैं, पर उन्हें संदेश देते हैं कि इस घडी़ वे हमारी स्मृति में हैं।" उस समय गांधीजी कलकत्ते के बेलाघाट में हुए दंगे से ग्रसित पीढि़तों पर सहानुभूति का मरहम लगा रहे थे।
३० जनवरी १९४८ का दिन भी रोज़ की तरह गांधीजी के जीवन का व्यस्ततम दिन था। वे आगामी आल इंडिया कांग्रेस कमिटी में पारित कराने के लिए एक प्रस्ताव बना रहे थे जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस अब संसदीय प्रणाली के अंतर्गत प्रचार माध्यम के रूप में अपना अस्तित्व खो चुकी है। भारत को सामाजिक, आर्थिक और नैतिक स्वतंत्रता के लिए देश के सात सौ हज़ार गाँवों को आज़ाद करना है। राजनीतिक पार्टियों और धार्मिक संस्थाओं से कांग्रेस को पृथक रखते हुए इसे लोक सेवा संघ में परिवर्तित कर दें।
उसी रोज़ सायं ५बजकर१७मिनट पर बिरला मंदिर में संध्या भजन के लिए आभा और मनु के कंधों पर हाथ रखे चल रहे गांधीजी के सम्मुख एक व्यक्ति आकर खडा़ हुआ और चरण छूने की मुद्रा में झुका। मनु ने ऐसा करने के लिए मना किया तो उस व्यक्ति ने उन्हें धक्का देकर दूर कर दिया। गांधीजी ने देश को अंतिम नमस्कार किया और यह एक क्रूर संयोग है कि उनके शरीर को मुक्ति देनेवाला भी एक राम ही था - नाथुराम गोडसे!!
---चंद्र मौलेश्वर प्रसाद
19 टिप्पणियां:
गांधीजी को विनम्र नमन! कुछ दिन पहले से सोच रहा हूं कि अगर श्रीलंका में प्रभाकरण गांधीजी के रास्ते चलता तो शायद अब तक वह वहां तमिलों को उनके हक दिलाने में कामयाब हो चुका होता।
गांधी ऐसे युग पुरुष है ..जिनसे आपका लव -हेट का रिश्ता ताउम्र बना रहता है ....आप उनकी कुछ नीतियों से असहमत भी हो सकते है ....कुछ कार्यो से चकित भी ...उनकी सबसे बड़ी ताकत आम आदमी को आज़ादी की लड़ाई में शामिल करना था .. आज़ादी के बाद अपने साथियो के लिए ही वे मुसीबत बन गए थे ...
आदरणीय निशांत मिश्र जी, अनूप शुक्ल जी तथा अनुराज जी का आभार कि उन्होंने इस अकिंचन का साहस बढा़या। आपका प्रोत्साहन निरंतर मिलता रहेगा, इसी आशा के साथ आभार।
lnteresting
thanks for information.
bhola singh arora pune
kuchh par sahmati hoti hai to kuchh par behad aadar bhav
सीएम प्रसाद जी आपकों हिंदी भारत समूह पर तो देखता ही था मगर अब आपका ब्लाग देखकर बेहद खुशी हुई। गांधी आज भी प्रासंगिक हैं। इस नैतिक पतन के दौर में तो और भी है। किसी महापुरुष के बारे में मीनमेख निकालना आसान है मगर उस रास्ते पर चलना तपस्या करने जैसा होता है। और फिर आज कौन ऐसा है जिसमें कोई कमी नहीं है। इससे क्या अच्छाईयां मर जाती हैं।
गान्धी जी की महानता में कोई शक नहीं। लेकिन उनकी नेहरू जैसे वंशवादी मानसिकता वाले व्यक्ति की कुछ अधिक ही तरफदारी समझ में नहीं आती।
ब्लॉग जगत में आप का स्वागत है। लिखते रहें। चरैवेति चरैवेति।
मुआफ़ कीजिएगा...
पर राजनीति में तो श्री गांधी अपने जीवन में ही अप्रासंगिक कर दिये गये थे.तोलस्तोय से प्रभावित श्री गांधी,सामाजिक दर्शन में तोलस्तोय से आगे नहीं बढ़ पाये.
पर विचार और व्यवहार की एकता के रूप में गांधी जी कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकते, और शायद इसीलिए सामाजिक आदर्श मूल्यों में अभी भी गांधी जी के संदर्भ जिंदा हैं.
समाज को भक्ति और अनुकरणीयता से ज्यादा जरूरत है अपने इतिहास और इतिहास पुरूषों के आलोचनात्मक अध्ययन की.
अगर आलोचना स्वीकार नहीं हो तो मुआफ़ करके इसे नज़रअंदाज़ कर दें..
डॉ.नीरजाजी, भोला सिंह अरोराजी, अनिलकांत जी, गिरिजेश जी, आपका आभार इस प्रोत्साहन के लिए।
डॉ. मानधाता सिंह जी, सही है कि कब तक बचेंगे इस ब्लागरिया जाल से, तो उतर ही गए:) बकरी की माँ कब तक खैर मनाती:):)
समयजी, समय की माँग है कि आलोचना को सर माथे पर लगाएं- वर्ना ....वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चले:)
mahatma gandhi jaise yug-purush par hum koi teeka-tippani karen.....yah andhikrit cheshta va dhrishtta k alava kuchh na hoga....us mahamaanav ko pranaam aur aapko HARDIK BADHAI
डा० अनुराग जी से असहमति दर्ज करते हुए मैं कहना चाहूँगा कि गांधी जी अपने साथियों के लिए कभी मुसीबत नहीं बने थे !
हाँ .. उनकी महत्वाकांक्षाओं के आड़े अकस्मात आ गए हों तो
और बात है !
गिरिजेश राव जी मैं आपसे भी जानना चाहूँगा कि नेहरू जी वंशवादी मानसिकता वाले किस तरह थे क्या आप सिद्ध कर सकते हैं या अडवानी जी से सलाह करके बताएँगे ?
मैं आम तौर पर गांधी जी पर कुछ भी लखने से कतराता हूँ .... आज रोक नहीं पाया ! जरा सोचना मेरे दोस्तों क्या हम इस काबिल हो गए हैं कि प्यारे बापू पर कुछ सवाल कर पायें ?
मुझे समझ में नहीं आता युगपुरुष मोहनदास करमचंद गांघी जी का नाम लेते ही,उनका नाम जुबान पर आते ही कूछ लोग़ क्यों उन्हें इंदिरा गाँधी या गाँधी परिवार से और आज कल की राजनीति जोड़ देते है .. वोः यह नहीं समझते की गाँधी जी का दर्जा कितना ऊँचा है .. mk
ab to gandhi giri safal hoti hai,gandhi darshan nahi raha. narayan narayan
आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है
गार्गी
अलबेला खत्रीजी, प्रकाश गोविंदजी, मस्तकलंदरजी, नारद मुनिजी तथा गार्गी गुप्ता जी का आभार कि उन्होंने चचा को सार्थक किया। अनिलजी, आपके सुझाव का पालन करते हुए वर्ड वेरिफ़िकेशन को हटा लिया जाएगा। आप लोगों का सहयोग निरंतर मिलता रहेगा, यही आशा है।
main kabhi bhee gandhi jee se utnaa prabhaavit nahin raha magar unke darshan se jaroor hee aaj bhee behad prabhaavit hoon...magar itnaa jaroor hai ki aisee aatmaa yugon mein ek aadh baar hee avtarit hotee hai...
आपका ब्लॉग अच्छा लगा
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@प्रकाश गोविन्द
नेहरू की वंशवादिता जगजाहिर है। थोड़ा अध्ययन करें। रही बात गांधी जी को सवाल के कटघरे में खड़े करने की तो यही कहूँगा कि इतिहास के शलाका पुरुषों की पूजा नहीं, उनके कृत्यों की समीक्षा की आवश्यकता होती है। इसका अर्थ यह नहीं कि उनके लिए सम्मान नहीं है। जहाँ तक काबिलियत का प्रश्न है, हर जागृत मनुष्य को प्रश्न करना चाहिए, विकास की ओर यह पहला कदम है।
प्रश्न करने और उत्तर ढूढने के लिए काबिलियत नहीं और जज्बे की आवश्यकता है।
अडवानी क्या आज के जमाने के किसी नेता का कद इस देश के कद से नहीं मिलता लिहाजा उनसे कुछ सलाह करने का प्रश्न ही नहीं उठता। सभी सत्ता के दलाल हैं। वैसे आप के इस वाक्य में उस कांग्रेसी तानाशाही की बू आ रही है जिसे थोड़ा भी विरोध बर्दाश्त नहीं होता ।
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