शनिवार, 17 सितंबर 2011

हिंदी का पर्व


हिंदी दिवस के मज़े [१]

हर पर्व की तरह ‘हिंदी दिवस’ भी हर वर्ष आता है और हिंदी पंडों [कृपया पंडित पढ़ें] के लिए कुछ न कुछ सौगातें ले कर आता है।  हर सरकारी, अर्ध-सरकारी और गैर-सरकारी संस्था यह पर्व बड़े ‘श्रद्धाभाव’ से मनाती है।  यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि इस दिवस को मनाना चाहिए या नहीं, या फिर, इस पर कितना बजट रखना चाहिए और इन पंडों को इस कर्मकाण्ड के लिए कितना मानदेय देना चाहिए।  हम इस बहस में से कन्नी काटते हुए अपने मुद्दे पर आते हैं।

हां तो, हिंदी दिवस धूमधाम से मनाया जाता है।  जिस प्रकार पितृपक्ष के समय पिंडदान के कार्य कराने के लिए पंडों का अकाल पड़ जाता है, उसी प्रकार हिंदी दिवस पर भी हिंदी पंडों की कमी  वर्ष में एक बार सभी संस्थानों को सालती है।  खैर, हम अपनी आपबीती सुनाते हैं।  वैसे तो हमारी गिनती इन पंडों में नहीं होती पर जैसा कि पंडों का अकाल पड़ने पर नाई ब्राह्मण को भी ब्राह्मण मान लिया जाता है, उसी प्रकार हमें भी छोटी संस्थाएं जो बडे पण्डों को समय पर बुक नहीं कर पातीं, हमें कभी-कभार याद कर लेती हैं।

हुआ यूँ, कि हमें एक छोटी संस्था के हिंदी दिवस के एक बड़े कार्यक्रम में बुलाया गया।  हमें अध्यक्षता करने के लिए कहा गया।  हम प्रसन्न थे कि हमारा इतना कद बढ़ गया है कि हमें उस कार्यक्रम में अध्यक्षता के लिए बुलावा आया है।  अपना पुराना कुर्ता, पायजामा और वासकोट निकाल कर झटक लिया, धो-धुलाकर इस्त्री-वस्त्री कर ली और लग गये अध्यक्षता की तैयारी में। सेंट-वेंट लगा कर निकल पडे अध्यक्ष बनने, तो बार-बार उस फिल्म की याद आ रही थी- चला मुरारी हीरो बनने!

कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ और मंच को सजाने के पहले दीप-प्रज्वलन के लिए हमें आमंत्रित किया गया।  साथ में अन्य लोग भी आये।  दीप प्रज्वलन क्या था, एक ऐसा अनुष्ठान जिसे जूते पहने ही लोग पूरा कर गए।  उसके बाद मंच पर सबसे पहले अध्यक्ष के नाते हमारा नाम पुकारा गया।  खरामा-खरामा चलते हुए हम मंच पर गए और झुक कर मंच के उस पार के लोगों को प्रणाम किया और बीच की कुर्सी पर आसन जमा लिया।  कार्यक्रम में कवियों के नाम पुकारे गए और वे भी हमारे अगल-बगल में बैठ गए।

संचालक महोदय ने हिंदी दिवस की आवश्यकता को रेखांकित किया और फिर काव्य गोष्ठी का शुभारंभ हुआ।  हर काव्य गोष्ठी की तरह इस में भी कविता कम और चुटकुले अधिक थे।  हम मुस्कुराये, इस लिए नहीं कि इन चुटकुलों में दम था पर इसलिए कि ये तो बासी कड़ी की उबाल की तरह थे, न इनमें कविता है और न ही कोई सार।  फिर भी, शिष्टता के नाते अपने अध्यक्षीय भाषण में न चाहते हुए भी हमें उन सभी कवियों की सराहना करनी पडी।

कार्यक्रम समाप्त हुआ तो सभी कविगण उस हिंदी अधिकारी की ओर लपके जो अपने हाथ में कुछ लिफ़ाफ़े और कागज़ात लेकर खड़ा था।  हमने संचालक महोदय से पूछा कि माजरा क्या है?  उन्होंने बताया कि उन्हें इस कार्यक्रम के लिए मानदेय दिया जा रहा है।  हम सोच रहे थे कि हमारा भी नम्बर आएगा ही। इतने में अल्पाहार के लिए न्यौता आया और सभी उधर बढ़ने लगे।  अल्पाहार में हम ने एक परिचित कवि से पूछा कि कितना मिला।  उसने उत्तर दिया- ‘साले, दो हज़ार की रसीद पर हस्ताक्षर करा कर एक हज़ार ही पकड़ा रहे हैं!’ हमने कहा - ‘भैया, हमे तो कुछ नहीं दिया अब तक।’ उन्होंने बताया कि अध्यक्ष को कैसे देंगे?  यह तो अध्यक्षपद का अपमान होगा ना!!

हम अपना मुँह लटकाये घर लौटे। 

11 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

गुरुवर, यह तो चोट हो गयी वैसे मान तो आपको मिल गया मानदेय नहीं अगली बार विकल्प चुनने में गलती नहीं होनी चाहिए :)

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

हूँ ....क्या कहा जाये .... :)

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

वाह भई! वाह!

सर आपने हमारे मुँह की बात छीन ली है.
हर जगह ऐसा ही हो रहा है. ये बड़े-बड़े हिंदी अधिकारी, मोटा वेतन पाने वाले ये हिंदी अधिकारी चंद रुपयों के लिए चुटकुले सुनाने वालों के सामने अपनी रही सही इज्जत गवां देते हैं. अन्य हिंदी अधिकारी जो ईमानदारी से अपना काम करते हैं वे भी शक के घेरे में आ जाते हैं.

छोटा मुँह बड़ी बात, आगे से यदि आप किसी मंच की शोभा बढ़ाएं तो अपनी अध्यक्षीय टिप्पणी में अवश्य ऐसे अधिकारियों की पोल खोल करें.

मजा आ गया. व्यंग्य बढ़िया है. स्वतन्त्र वार्ता को भेज दीजिए. भ्रष्टाचार के इस एक उदाहरण को बेपर्दा कीजिए.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

किसी का अपमान न हो, हिन्दी है न।

ZEAL ने कहा…

इमानदारी की पूछ-परख कम हो गयी है। भ्रष्टाचार हर जगह बढ़ ही रहा है, कम होता नहीं दीखता।

अवनीश सिंह ने कहा…

http://premchand-sahitya.blogspot.com/

यदि आप को प्रेमचन्द की कहानियाँ पसन्द हैं तो यह ब्लॉग आप के ही लिये है |

यदि यह प्रयास अच्छा लगे तो कृपया फालोअर बनकर उत्साहवर्धन करें तथा अपनी बहुमूल्य राय से अवगत करायें |

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

अध्‍यक्ष पद की यही कहानी है। हा हा हा हा।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

ओह! आप संघर्ष करें! हम आपके साथ हैं! मानदेय तो मिलना चाहिये ही!

Suman ने कहा…

वाह क्या बात है !
भाई जी, आज मिलाप मजा में
आपकी रचना छपी है बहुत बहुत
बधाई आपको !

Pratik Maheshwari ने कहा…

लो जी,,, फ्री फंड में अध्यक्षता करवा ली! गजब है..

हिन्दी की माया भी निराली है..
जो नहीं मानते इसे वो फुल,
और जो दंडवत करे इसे,
वो खाली है!

आभार
तेरे-मेरे बीच पर आपके विचारों का इंतज़ार है...

Amrita Tanmay ने कहा…

रोचक पोस्ट.