बंधन
माया बहुत खुश थी। विनोद से उसका तलाक हो गया था। कोर्ट से फैसला होने के बाद उसके दस्तावेज़ भी मिल गए थे। वह अपने को आज़ाद महसूस कर रही थी। माया- स्त्री सशक्तीकरण की सक्रिय सेनानी, जो विवाह को ऐसा बंधन मानती थी जिसमें जकड़ी नारी घर-गृहस्थी के दमघोटू वातावरण में पुरुष द्वारा बांधी जाती रही है। आज उसे इस वातावरण से छुटकारा मिल गया था। अब कोई बंधन नहीं.... वह स्वछंद है.... जिस पुरुष के साथ चाहे दोस्ती कर सकती है.... बेरोक-टोक घूम-फिर सकती है...!
ट्रेन की गति तेज़ थी। इस तेज़ गति के धीमे-धीमे झटकों का आनंद लेती हुई माया सुरेश के कंधे पर सिर टेके उनीन्दी-सी बैठी थी। विवाह-विछेद के बाद माया अपने पुराने दोस्त प्रसिद्ध साहित्यकार सुरेश से पुनः जुड गई थी। दोस्ती फिर परवान चढ़ी और सैर-सपाटे तक आ पहुँची थी। माया से मिलने के बाद सुरेश का लेखन एकदम जैसे थम गया था और उसकी कलम को विराम लग गया था। भीतर-ही-भीतर सुरेश अपने में एक छटपटाहट महसूस कर रहा था। माया भी गृहस्थ के दमघोटू वातावरण से निकलने के बाद खुली हवा में सैर करना चाहती थी। इसलिए दोनों ने मिलकर निर्णय लिया कि वे पहाड़ियों की सर पर निकलेंगे।
दोनों अपनी-अपनी सोच में डूबे हुए थे कि रेल की रफ़्तार धीमी हुई। शायद कोई स्टेशन आनेवाला था। ट्रेन स्टेशन पर रुकी तो डिब्बे में कुछ हलचल हुई। माया ने चायवाले से चाय ली और सुरेश ने जेब से सिगरेट निकाली। सिगरेट के कुछ कश खींचने के बाद सुरेश ने कहा-"माया, तलाक से पहले भी हम एक-दूसरे से परिचित थे, मिलते रहे, आकर्षित भी होते रहे हैं। अब तो एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ भी चुके हैं... तो फिर... क्यों न हम शादी कर लें?"
"शादी!!!... लेकिन मैं तो शादी जैसे बंधन को तोड़ना चाहती हूँ। सुरेश, क्या हम अच्छे मित्र बनकर नहीं रह सकते? हाँ, हम एक-दूसरे को समझते हैं, साथ भी रह रहे हैं... पर क्या शादी ही इस साथ की इति है? मैं यह नहीं चाहती मैं किसी पुरुष पर बोझ बन कर रहूँ और वह जीवन भर मुझे ढोता फिरे। या फिर, मैं यह भी नहीं चाहती कि कोई भी पुरुष जिसमें मेरी रुचि समाप्त हो गई है, वह मुझसे जीवन-भर चिपका रहे। इसीलिए तो मैंने विनोद जैसे धनाड्य से तलाक लिया है, वर्ना क्या कमी थी उसके पास! मैं झरने की तरह स्वच्छंद बहना चाहती हूँ; वह झील नहीं बनना चाहती जिसमें काई जम जाय।"
"नहीं माया, हम एक समाज में रहते हैं जिसके कुछ नियम-कायदे हैं...."
"हाँ, उसी समाज का नियम है- विवाह, जो एक गाँठ की तरह है जिसमें नारी एक मंगलसूत्र के माध्यम से जीवन भर के लिए बांध दी जाती है। मैंने इस गांठ को काट फेंका है; और तुम मुझे फिर इसी बंधन में बाँधना चाहते हो! क्या बिना विवाह के स्त्री-पुरुष एक साथ नहीं रह सकते... प्रेम से... जब तक वे चाहें?"
"पर समाज के भी तो कुछ बंधन हैं।"
"मैंने समाज के इसी बंधन को काटने के लिए ही तो तलाक लिया है। यह सिद्ध करने के लिए कि बिना विवाह के भी स्त्री-पुरुष एक साथ रह सकते हैं... प्रेम से... जब तक चाहें... न कि जीवन भर एक दूसरे को बोझ समझते हुए, ढोते हुए।"
"लेकिन जब हम किसी समाज में रहते हैं तो हमें उसके नियमों और मान्यताओं का पालन करना पड़ेगा। यदि हम उन सीमाओं को तोड़ने लगे तो कदाचित समाज का शिराज़ा ही बिखर जाएगा और जंगल-राज शुरू हो जाएगा।"
"नारी का अपना अस्तित्व है। पुरुष प्रधान समाज ने कायदे-कानून अपने लाभ के लिए बनाए हैं। मैं इन्हीं दायरों और बंधनों को तोड़ना चाहती हूँ। समाज हम से बनता है... स्त्री की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा कर पुरुष ने ऐसे समाज का निर्माण किया है जहाँ स्त्री का कोई अस्तित्व ही नहीं - इसी पुरुष-प्रधान व्यवस्था को बदल कर ही स्त्री सशक्त हो सकती है और समाज में अपनी अलग पहचान बना सकती है।"
"नहीं माया, हमारे पूर्वजों ने कुछ सोच-समझ कर ही समाज के कुछ नियम बनाए हैं जिसमें कुछ कुरीतियां भले ही घुस आईं, जिन्हें हम अपने प्रयत्नों से मिटा सकते हैं। परंतु सुचारू ढंग से समाज को चलाने के लिए जो नियम बने, उसमें स्त्री-पुरुष जीवन की गाड़ी के दो समान पहिए हैं। एक पहिए के बिगड़ने से गाड़ी हिचकोले खाती है। समाज को अनुशासित रखने के लिए स्त्री और पुरुष- दोनों को समझौता करना पड़ता है। दोनों के सहयोग के बिना समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा, परिवार बिखर जाएगा और आनेवाली पीढ़ी बेसहारा हो जाएगी।"
माया गम्भीर होकर कुछ देर चुप रही, फिर सोचते हुए बोली- "सुरेश, यदि नारी समाज के इसी दायरे में घूमती रहेगी तो कभी स्वतंत्र नहीं हो पाएगी, उसे कभी भी अपना जीवन जीने का अवसर नहीं मिलेगा और वह परिवार का कल-पुर्ज़ा बनकर पुरुष की पिछलग्गु ही रहेगी। मैं इसी चक्र को तोड़ना चाहती हूँ। मैंने विनोद से तलाक इसीलिए तो नहीं लिया था कि फिर एक और बंधन में बंध जाऊँ।"
सुरेश को लगा कि माया की इस मानसिकता में अभी और बहस करना बेकार है। खिड़की के बाहर झांक कर देखा तो प्रकृति अपनी छटा बिखेर रही थी। ट्रेन की गति धीमी होने लगी तो जाना कि गंतव्य समीप है। उसने सोचा कि प्रकृति के इस सुंदर वातावरण में माया को शांति से सोचने का समय मिलेगा और उसे भी रचनाधर्मिता के लिए सही माहौल भी मिल पाएगा।
स्टेशन से बाहर निकल कर दोनों एक टैक्सी में बैठ गए और होटल की ओर चल दिए। होटल के कांउटर पर एक महिला बैठी थी। उसने मुस्कुरा कर दोनों का स्वागत किया। रजिस्टर खोलते हुए उसने सुरेश का नाम और पता पूछा। खानापूरी की पूर्ति पर उसने रजिस्टर सुरेश की ओर हस्ताक्षर के लिए बढ़ा दिया। नाम के स्थान पर दर किया गया था- मिस्टर एण्ड मिसेज़ सुरेश! सुरेश की नज़र माया की आँखों से टकराई तो देखा कि उसकी भृकुटि तनी हुई थी।
5 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर कहानी, हम एक दुसरे के पुरक हे, ओर इस समाज के नियमो से भी बंधे हे,ओर यह प्राकृति का नियम भी हे, वरना समाज कहां बन पायेगा बिना बंधन के,धन्यवाद
मिस्टर एण्ड मिसेज़ सुरेश! सुरेश की नज़र माया की आँखों से टकराई तो देखा कि उसकी भृकुटि तनी हुई थी।
पंच लाईन यही थी समझ गए ..और क्या कमाल की थी ये मान भी गए
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
बहुत सधी लेखनी चलाई है आपने!
touching story ! Beautifully written !
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