गुरुवार, 5 जनवरी 2012

लेव टॉलस्टॉय - Leo Tolstoy-एक अनुवाद


लम्बी कैद
मूल: लेव निकोलविच टॉल्सटाय


ईवान दिमित्रिच अक्सेनोव नाम का एक व्यापारी व्लादमीर नगर में रहता था। उसकी अपनी दो दुकानें और एक निजी मकान भी था।  घुंघराले बाल, गोरा-चिट्टा रंग और गठित बदन वाला युवक अक्सेनोव एक हँसमुख और ज़िंदादिल इंसान था।  लहर में आता तो पीता, गाता और नाचता था।  लेकिन यह मौज-मस्ती उस समय बंद हो गई जब उसकी शादी हो गई और अब तो वह दो बच्चों का बाप भी बन गया था।

ग्रीष्म शुरू हो रहा था तो अक्सेनोव ने सोचा कि व्यापार के लिए निज़नी मेले में जाया जाय।  सवेरे उठते ही उसने सामान बाँधा और पत्नी को अलविदा कहा।  यात्रा पर निकलने को था कि पत्नी ने टोका-"इवान दिमित्रिच, आज मत जाओ क्योंकि मैंने एक अजीब सपना देखा है।" अक्सेनोव ने हँसते हुए कहा-"अरे सपने भी कहीं सच होते हैं! चिंता मत करो, मुझे कुछ नहीं होगा।  मैं जल्दी लौट आऊँगा।"  पत्नी ने अपनी चिंता जतलाते हुए बताया कि उसने सपने में देखा कि वह जब लौटा तो उसके केश और दाढ़ी सफ़ेद हो चुके थे।  अक्सेनोव ने कहा-"यह तो अच्छा शगुन है।  तुम चिंता मत करो।  मैं सारा सामान बेच कर तुम्हारे लिए एक अच्छा-सा उपहार ला दूँगा।"  यह कह कर वह अपने परिवार से विदा लेकर यात्रा पर निकल पड़ा।

सफर में रात हो गई तो अक्सेनोव एक सराय में ठहर गया।  वहाँ उसकी भेंट एक और सौदागर से हुई।  दोनों ने मिलकर रात का भोज किया, कुछ देर गाना-बजाना चला और फिर सोने चले गए।  सूर्य निकलने में अभी समय था। अक्सेनोव ने सोचा कि सफर लम्बा है, इसलिए मुँह-अंधेरे ही निकल जाना चाहिए।  वह उठा और अपना सामान लेकर निकल पड़ा।  पच्चीस मील का सफर तय करने के बाद गाड़ीवान ने एक सराय के पास गाड़ी रोकी और घोड़ों को पानी पीने और आराम करने छोड़ा।  अक्सेनोव भी सुस्ताने के लिए बैठ गया और चाय पीने लगा।  तभी एक और गाड़ी आकर रुकी।  उसमें से एक अधिकारी और दो सिपाही बाहर निकले और अक्सेनोव से पूछने लगे कि वह कहाँ से आ रहा है।  उसने बताया कि रात में एक सराय में रुका और एक सौदागर के साथ भोज किया था और मुँह-अंधेरे ही आगे की यात्रा के लिए निकल पड़ा। उसके बाद उनके प्रश्नों की झड़ी लग गई।    

अधिकारी ने बताया कि उस सौदागर की हत्या हो गई है और संदेह की सूँई उसकी ओर है।  उसकी तलाशी ली गई।  सिपाहियों को उसके सामान से एक खून से सना छुरा मिला।  यह देख अक्सेनोव चकित रह गया।  उसे समझ में नहीं आया कि यह छुरा उसके सामान में कैसे आया।  उसने कई दलीलें दीं, मिन्नतें कीं, परंतु कोई सुननेवाला नहीं था।  सज़ा देकर उसपर कोड़े बरसाए गए और सैबेरिया के बंदीगृह में भेज दिया गया।

अक्सेनोव की पत्नी को जब पता चला तो वह अपने बच्चों के साथ आई और जेल में उससे मिली।  अक्सेनोव ने अपनी बेगुनाही के लिए त्सार से अपील करने का सुझाव रखा।  पत्नी ने बताया कि उसके सारे प्रयास बेकार हो चुके हैं।  रोते हुए उसने उस स्वप्न की याद दिलाते हुए कहा- "उस स्वप्न पर ध्यान देकर रुक जाते तो आज यह दिन न देखना पड़ता।...  अब सच बताओ कि तुमने उसका खून क्यों किया?"

अक्सेनोव आश्चर्य से पत्नी की ओर देखता रहा। रुआँसा होकर उसने कहा-"तो क्या तुम भी मुझ पर शक कर रही हो!  फिर तो ईश्वर ही मेरी बेगुनाही साबित कर सकते हैं।"  उसके बाद अक्सेनोव चुप हो गया और अपने परिवार को अंतिम बार अलविदा कहा।

अक्सेनोव ने सैबेरिया की जेल में छब्बीस वर्ष गुज़ारे।  उसके बाल सन की तरह सफेद हो चुके थे और सफेद दाढ़ी लंबी व घनी होकर चेहरे पर बिखरी फैली थी।  उसकी गठित काया भी क्षीण हो चुकी थी और अब वह झुक कर चलने लगा था।  वह हमेशा प्रार्थना में लीन रहता।  उसे किसी ने भी हँसते हुए नहीं देखा था।  जेल में उसने जूते सीने का काम सीख लिया और इससे जो थोड़ी बहुत आय होती, उससे संत पुरुषों की पुस्तकें खरीद कर पढ़ता।  हर रविवार को जेल की चर्च में नियमित रूप से जाता और प्रार्थना गीत में हिस्सा लेता था।

जेल के सभी कैदी अक्सेनोव को पितामह या संत कह कर पुकारते थे।  कभी किसी को कोई पत्र या निवेदन लिखना होता तो उसके पास पहुँच जाते और लिखा लेते थे।  अधिकारी भी उसके शाँत स्वभाव से प्रभावित थे।  एक दिन एक नया कैदी जेल में पहुँचा।  साठ वर्ष का यह कैदी कद-काठी से तंदुरुस्त था।  सब कैदी उसके पास पहुँचे और उसके जुर्म व जीवन के बारे में पूछने लगे।  अक्सेनोव भी उसके पास बैठ गया।  उसने बताया कि यह भी एक विड़म्बना है कि जुर्म करके वह बचता रहा पर अब जबकि उसने कोई जुर्म नहीं किया तो उसे जेल हो गई।  वह अपने एक परिचित की गाड़ी से घोडा खोलकर बैठा और दूसरे शहर जल्दी पहुँचना  चाहता था पर चोरी के आरोप में पकड लिया गया।
"तुम कहाँ से आ रहे हो?" किसी ने पूछा।
"व्लादमीर से।  मेरा पूरा परिवार वहीं रहता है और मेरा नाम मकर सेमेनिच है।"

अक्सेनोव ने सिर उठाकर देखा और पूछा-"यह बताओ कि क्या तुम अक्सेनोव नाम के व्यापारी परिवार को जानते हो?"
"जानता हूँ! अरे, वह तो बड़ा प्रसिद्ध परिवार है;  यद्यपि उनके पिता को सैबेरिया भेज दिया गया था। बुज़ुर्गवार, यह तो बताओ कि आप यहाँ कैसे?"
"मैं यहाँ छब्बीस साल से अपने पाप का फल भोग रहा हूँ।"
"किस पाप का फल?"
"शायद यह भोगमान मुझे भोगना था, यही प्रभू की इच्छा है।"

एक कैदी ने बताया कि पितामह एक व्यापारी के खून के आरोप में यहाँ भेजे गए हैं जबकि वो निर्दोष हैं। मकर यह सुनकर अपनी जांघों पर हाथ मारते हुए कहा-"वाह! वाह! क्या बात है। पर तुम इतने बूढ़े कैसे पितामह?"  मकर पर प्रश्नों की बौछार होने लगी- "तुम इतने चकित क्यों हो?.. क्या तुम इन्हें पहले से जानते हो?.. क्या तुमने उस हत्या के बारे में सुना है?"...

मकर ने हंसते हुए कहा-"कई अफ़वाहें होती हैं। पर यह बात बहुत पुरानी हो गई है, भूल गया हूँ"।
अक्सेनोव ने पूछा-"शायद तुमने सुना होगा कि किसने उस व्यापारी का खून किया था?"
मकर ने फिर हँसते हुए कहा-"हो सकता है कि वही हत्यारा हो जिसके सिराहने रखी थैली में खून से सना छुरा मिला।  वह चोर नहीं होता जो पकड़ा नहीं जाता, चोर तो वही होता है जो पकड़ा जाता है।"

यह सुनकर अक्सेनोव का संदेह पक्का हो गया कि उस व्यापारी की हत्या मकर ने ही की है।  वह वहाँ से उठ कर चला गया।  अब अक्सेनोव प्रतिशोध की आग में जल रहा था।  उसे रात भर नींद नहीं आई।  प्रार्थना करके भी वह अपने मन को स्थिर व शांत नहीं रख पा रहा था।

एक रात जब वह टहल रहा था तो उसे अपने पैरों के नीचे की धरती खिसकती लगी।  कुछ देर के लिए वह रुक गया और देखने लगा कि क्या हो रहा है।  थोडी देर में वहाँ से मकर निकला और अक्सेनोव को देखकर चौंक पड़ा।  फिर उसने बताया कि वे धरती से सुरंग बना कर बाहर निकलने की तैयारी कर रहे हैं।  उसने धमकी दी-"बूढे आदमी, मुँह बंद रखो।  तुम भी बाहर निकल सकते हो।  यदि मुँह खोलोगे तो इल्ज़ाम तुम पर आएगा और वो तुम्हें कोड़े मार-मार कर सीधे ईश्वर के पास पहुँचा देंगे।"

दूसरे दिन सिपाहियों ने मिट्टी के ढेर देखकर सब कैदियों की तलाशी ली और पूछताछ की।  गवर्नर ने सभी से पूछा पर किसी ने मुँह नहीं खोला।  अंत में गवर्नर  ने अक्सेनोव के पास आकर कहा-"तुम सच्चे बूढे आदमी हो, ईश्वर को साक्षी रखकर कहो कि यह सुरंग किसने बनाई?"
अक्सेनोव बहुत देर तक कुछ नहीं बोला, उसके होठ थरथरा रहे थे।  उसके मस्तिष्क में एक ज्वार सा उठ रहा था।  वह सोच रहा था कि उस व्यक्ति को क्या बचाना जिसने उसके जीवन को नर्क बनाया है।  परंतु यदि वह बता भी देगा तो मकर  मारा जाएगा पर उसे क्या मिलेगा?  वह जैसे खो गया था।  इतने में गवर्नर की आवाज़ उसके कानों में पड़ी- "सच सच बताओ, यह ज़मीन कौन खोद रहा था?"  अक्सेनोव ने एक बार मकर की ओर देखा और कहा-"मैं नहीं कह सकता सरकार। ईश्वर की इच्छा नहीं है कि मैं कुछ कहूँ।  आप जो चाहें मुझे सज़ा दे सकते हैं।  मैं तो आपके हाथ में हूँ।"  गवर्नर ने बहुत प्रयास किया पर अक्सेनोव ने मुँह नहीं खोला।  हार कर विषय को वहीं छोड़ दिया गया।

उस रात अक्सेनोव अपने बिस्तर पर लेटा था और आँख लग ही रही थी कि उसे किसी के समीप आने का आभास हुआ। अंधेरे में उसने देखा कि मकर खड़ा है।
"और क्या चाहते हो तुम मुझसे?  अब क्या लेने आए हो?"
मकर खामोश खड़ा रहा।  अक्सेनोव उठकर बैठ गया।
"चले जाओ यहाँ से वर्ना मैं गार्ड को आवाज़ दूँगा।"  
"मुझे क्षमा कर दो इवान दिमित्रिच।" मकर ने उसके पास झुक कर कहा।
"किसलिए?"
"मैं वही पापी हूँ जिसने उस व्यापारी की हत्या की थी और तुम्हारी थैली में वह छुरा छुपा दिया था।  मैं तो तुम्हारी भी हत्या करना चाहता था पर बाहर कुछ आहट सुनकर खिड़की से भाग निकला था।"
अक्सेनोव  खामोश था।  मकर अपने घुटनों के बल बैठ गया और क्षमा माँगने लगा। "इवान दिमित्रिच, मुझे क्षमा कर दो।  मैं सबके सामने अपना गुनाह कबूल कर लूँगा और तुम्हें रिहाई मिल जाएगी। तुम अपने घर जा सकोगे।  मुझे क्षमा कर दो दिमित्रिच।"
"तुम्हारे लिए कहना सरल है मकर, मगर मैंने अपने जीवन के छब्बीस बरस दुख भोगा है। अब कहाँ जाऊँगा! मेरी पत्नी मर चुकी है, मेरे बच्चे मुझे भूल चुके हैं, अब तो कहीं नहीं जा सकता।"

अपना सिर ज़मीन पर पटक-पटक कर मकर माफी मांगने लगा। "मुझे क्षमा कर दो इवान दिमित्रिच।  मुझे उस समय भी इतना कष्ट नहीं हुआ था जब मुझपर जेल में कोड़े बरसाए गए थे।  अब तुम्हारी चुप्पी उन कोड़ों से अधिक वेदना दे रही है।  मुझ नीच पर दया करो और माफ़ी दे दो।"

फफक-फफक कर मकर रोने लगा।  उसको रोता देख अक्सेनोव भी रोने लगा। "ईश्वर तुम्हें क्षमा करेंगे।  शायद मैं तुमसे सौ गुना पापी हूँ।" यह कह कर उसका मन भी हल्का हुआ।  उसे इस जेल को छोड़ कर जाने की कोई इच्छा नहीं थी, बस इच्छा थी तो केवल मृत्यु की।

मकर ने अपना जुर्म कबूल कर लिया और जब तक अक्सेनोव को रिहा करने का आदेश आता, वह चिर निद्रा में सो चुका था।

9 टिप्‍पणियां:

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

आप तो वाकई कमाल करते हैं.
रात ही तो बात हुई थी.
और आप अनुवाद के साथ प्रकट भी हो गए.

Ashish Shrivastava ने कहा…

धन्यवाद जी

Shah Nawaz ने कहा…

वाह!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

कुल मिलाकर हमारे हिन्दुस्तानियों से बेहतर था मकर जो अपना गुनाह तो कबूल कर गया, यहाँ तो ....:)

Suman ने कहा…

बहुत अच्छी कहानी का प्रशंसनीय अनुवाद किया है !
बहुत बढ़िया लगा !

vidha-vividha ने कहा…

यह अनुवाद है?

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

बहुत बढिया कहानी है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मार्मिक कहानी, प्रवाहमयी अनुवाद।

Amrita Tanmay ने कहा…

जीवन में भरते अनचाहे रंगों की सुन्दर मिसाल .. अच्छी लगी..