शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

एक पुराना लेख


समीक्षक की व्यथा


समीक्षक के पास पुस्तक भेजते हुए हर रचनाकार यह आशा करता है कि उसकी कृति पर समीक्षा तुरंत ही किसी पत्र-पत्रिका में छप जाय।  समीक्षक के पास पुस्तक का पैकेट आते ही पहले तो वह कवर को घूरेगा, उलट-पुलट कर देखेगा कि किस लेखक, कवि, निबंधकार, कथाकार या ‘कलाकार’ [वही, जो अन्य की सामग्री चुराकर पुस्तकाकार बना देता है] ने इसे भेजा है या फिर किस प्रकाशक ने उसे प्रेषित किया है।

वैसे तो, पहले से ही समीक्षक के पास पुस्तकों का अम्बार लगा रहेगा जिन पर समीक्षा लिखना शेष है।  परंतु दाल-रोटी की जुगाड़ में अभी उसे इतना समय ही कहाँ मिल पाता है कि पावती की सूचना ही रचनाकार को दे सकें! उस पर समय-असमय लेखकों के पत्र आते हैं जिनमें समीक्षा के छपने की सूचना पहुँचाने का अनुरोध होता है।  अब उस भले-मानुस को कैसे समझाएँ कि "भैय्ये, समीक्षा छपवाना तो दूर, अभी लिखना तक भी नहीं हो पाया है।"

यह तो सभी जानते हैं कि समीक्षा का काम एक ‘थैंकलैस जॉब’ है।  लेखक की आलोचना करो और सुझाव दो कि ऐसे लेखन पर अपना पैसा बर्बाद न करें तो वह नाराज़ हो जाएगा।  उसके लिखने की त्रुटियों पर प्रकाश डालें तो वह समझेगा कि यह समीक्षक तो मास्टरी कर रहा है।  पुस्तक पर कुछ ठीक-ठाक लिख कर पत्र-पत्रिका को भेजो तो संपादक महोदय की डाँट आती है कि ऐसी घटिया पुस्तकों की समीक्षा हम नहीं छापते।  इसीलिए तो कभी-कभी रद्दी लेखक की पुस्तक पर भद्दी समीक्षा लिखकर भेजना होता है तो छद्मनाम का सहारा लेना पड़ता है।  ठीक है, सम्पादक महोदय हस्तलिपि देख कर समझ जाएँगे कि इस रद्दी समीक्षा के कुख्यात समीक्षक कौन हैं परंतु पाठक के आक्रोश से तो बचा जा सकता है।  अब ऐसे छद्मलेखन को प्रो. सियाराम तिवारी जी जैसे विद्वान इसे ‘आत्मविश्वास का अभाव या दुष्टता-जनित भीरुता’ का नाम ही क्यों न दे लें, पर समीक्षक के लिए तो है यह कोलगेट की सुरक्षा-चक्र जैसा सुरक्षित उपाय।

समीक्षा लिखने का समय नहीं हो तो आवरण पृष्ठ देखकर ही भाई लोग कुछ लिख देते हैं और लेखक को भेज देते हैं।  फिर भी यह एक्स्पेक्ट किया जाता है कि हम ही उसे किसी पत्र पत्रिका में छपवाएं!  छपवाएं ही नहीं बल्कि छपने के बाद उसकी ज़ेराक्स कॉपी भी उन्हें प्रेषित कर दें।  लो भला! गरीबी में आटा गीला’ शायद इसी को कहते हैं।  इस महँगाई के दौर में अपना समय निकाल कर समीक्षा लिखना, अपने पैसे लगाकर पत्र-पत्रिका को पोस्ट करना और सम्पादक की तुनुक मिज़ाज़ी का खतरा उठाना; और फिर, दुर्भाग्य से छप गई, तो उस समीक्षा की ज़ेरोक्स कॉपी करा कर, पोस्टेज लगा कर लेखक को भेजना!  इन सब में खर्चा ही खर्चा और समय की बरबादी।

समीक्षा लिखने के लिए इधर पुस्तक लेकर बैठे नहीं कि उधर से पत्नी की सदा सुनाई पड़ती है कि नून, तेल, लकड़ी का प्रबंध करने मार्केट जाना है।  तब खाली जेब में हाथ डालते हुए यह खयाल बड़ी शिद्दत से आता है कि समीक्षा लिखने से कुछ पैसे मिल जाते तो कितना अच्छा होता।  समीक्षा लिखने की साधना भी पूरी होती और पेट-पूजा के सामान का जुगाड़ भी हो जाता!

समीक्षक तो जानता है कि उसे कागज़-कलम का इंतेज़ाम भी अपने पैसे से ही करना है।  समीक्षा-लेखन तो ‘घर फूँक तमाशा देख’ से कम नहीं है।  शुरु-शुरु की समीक्षा-छपास की प्यास बुझने के बाद शायद हर समीक्षक के मन में यही बात उभर कर उठती है- बाज़ आए हम समीक्षा लिखने से..., फिर भी, छपास की प्यास कहाँ बुझ पाती है!!

/६जून२००४/

15 टिप्‍पणियां:

Amrita Tanmay ने कहा…

समीक्षा कर्म ' घर फूँक तमाशा देख ' कर्म होता है .इसमें इतना पेंच होता है , जानती नहीं थी .

Shah Nawaz ने कहा…

Ohh Samiksha karna lagta hai tedhi kheer hai... :-)

केवल राम ने कहा…

बहुत कुछ कह गयी यह समीक्षा भी .....समीक्षा के बहाने अपने समीक्षक की समीक्षा कर दी .....वैसे हर बात में सच्चाई है और यह तो कटु सत्य " समीक्षक तो जानता है कि उसे कागज़-कलम का इंतेज़ाम भी अपने पैसे से ही करना है। समीक्षा-लेखन तो ‘घर फूँक तमाशा देख’ से कम नहीं है।" वाह रे समीक्षक की जिन्दगी ...!

Sunil Kumar ने कहा…

गुरुवर, एक कुशल समीक्षक ही एक रचनाकार को स्थापित करता हैं वरना गुमनामी के अँधेरे में ही उसका अंत हो जाता हैं |वैसे समीक्षा करना है कठिन कार्य :)

Arvind Mishra ने कहा…

हा हा हँसी हँसी में भी एक समीक्षक की त्रासदी /व्यथा कथा व्यक्त हो गयी यहाँ -हमारा भोगा और साझा यथार्थ है यह -आईये गलबहियां दाल कर रोयें ...एक काम करते हैं हम व्यावसायी बन जाएँ इससे जान बचेगी -सुरक्षा कवच होगा -फी समीक्षा कितना फीस होनी चाहिये ... ? चलिए अमिताभ बच्चन बने -जो पोती की फोटो के लिए १५ लाख मांग रहे हैं ..हम एक हजार रखें ? मुझे किताब के साथ ५०० दे दीजियेगा हम निपटा दिया करेगे और ऐसी अपेक्षा आप मुझसे कर सकते हैं -मजाक नहीं मैं गंभीर हूँ ?
यहाँ तो लोग बाग़ किताब भी खरीदवाते हैं और बेहया बन बोलते हैं कि अब समीक्षा भी कर दीजिये -ऐसी दुनियां से आईये ठीक से निपट लें साहब !

डॉ टी एस दराल ने कहा…

अच्छे अनुभव बांटे हैं प्रसाद जी । लेकिन हमें तो इसका अभी कोई अनुभव नहीं है । इसलिए कहीं से काल आ जाएगी तो दौड़े चले जायेंगे जैसे दो दिन पहले ए आई आर वालों ने बुला भेजा था ।

बढ़िया समीक्षा चर्चा ।

Suman ने कहा…

भाई जी,
एक समीक्षक की व्यथा देखकर मैंने पुस्तक
छपवाने का ख्याल ही दिल से नीकाल दिया है :)
बेचारे वे लेखक भी क्या करे कुछ बनने की,
दुनिया को दिखाने की चाह कि,हम भी कुछ है
भले ही अपनी पुस्तक दूसरों के पढने लायक है भी या नहीं !
बढ़िया समीक्षा मजा आ गया है पढ़कर !

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बिलकुल जानकारी नहीं थी .....समीक्षा करने में इतने पेंच हैं ....

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! इसलिए मैं तो किसी के पास भी अपनी पुस्तक समीक्षा के लिए नहीं भेजता :)

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

न्यायकर्म बहुत ही कठिन हो जाता है..

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

समीक्षा करना लिखने से कठिन कार्य है ...
मेरे पोस्ट में आकार अपने विचार देने के लिए आभार....

BS Pabla ने कहा…

समीक्षा किसकी हो रही खाली जेब या बेलन की?

kumar zahid ने कहा…

सच्चा और करुवा यथार्थ

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

मेरे नए पोस्ट -प्रतिस्पर्धा- में आपका स्वागत है,..

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…






आदरणीय चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी
सादर प्रणाम !

समीक्षक की व्यथा पढ़ते पढ़ते कितनी बार अकेले में मुस्कुरा उठा …

बहुत अच्छे व्यंग्य की प्रस्तुति के लिए आभार !

बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार