रविवार, 28 अगस्त 2011

अज्ञेय-तीन विशेषांक-२

अज्ञेय : तीन विशेषांक [दूसरी किस्त]

सभा और संस्थान को बधाई!
   

अज्ञेय पर क्रमशः तीन विशेषांक  निकालने पर ‘स्रवंति’ परिवार  को बधाई।  इन अंकों की योजना से लेकर प्रकाशन तक के लिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद के प्रो. ऋषभ देव शर्मा के साथ-साथ सह-सम्पादक डॉ.जी.नीरजा तथा उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अन्य सहयोगी बधाई के पात्र हैं।

यूँ तो हर अंक पर मैंने अपनी संक्षिप्त प्रतिक्रिया दी है क्योंकि विस्तार से लिखने पर  स्थानाभाव का संशय बना रहता है, परंतु अब जबकि अज्ञेय विशेषांक की यह शृंखला समाप्त हुई है, तो लगा कि विस्तृत चर्चा उन सहयोगियों की भी हो जो इस सफलता के पीछे लगे रहे।

मेरे विचार से संस्थान के सभी प्राध्यापक  बधाई के पात्र हैं जिन्होंने अज्ञेय पर  एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी को सफल बनाने में अपना भरपूर योगदान दिया।  डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. बलविंदर कौर, डॉ.गोरखनाथ तिवारी तथा डॉ.साहिरा बानू बी.बोरगल ने न केवल उस आयोजन को सफल बनाया बल्कि अज्ञेय पर अपने शोधपत्र भी लिखित रूप से प्रस्तुत किए, जिसके कारण ‘स्रवंति’ के ये तीन अंक निकालने में सुविधा हुई होगी। वरना  देखने में तो यही आता है कि बड़ी-बड़ी  संगोष्ठियों में या तो लोग लम्बे भाषण देकर चले जाते हैं  या दूसरे कुछ विद्वानों को इतना कम समय मिल पाता है कि वे आयोजकों का धन्यवाद मात्र कर पाते हैं और उनके परचे फाइलों की शोभा बढाते रह जाते हैं. अस्तु!

विशेषांक -१  में डॉ. मृत्युंजय सिंह ने अपने लेख ‘समकालीनों के संस्मरणों में अज्ञेय’ में बताया है  कि "अज्ञेय का सीधा सा अर्थ है जो जाना न जा सके।  अपनी मृत्यु के उपरांत भी वे अभी तक ‘अज्ञेय’ ही बने हुए हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी कोई आत्मकथा, हरिवंश राय बच्चन की तरह नहीं लिखी।" फिर भी, उनकी जीवनी के बारे में अन्य साहित्यकारों के कथन से अज्ञेय के व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है।  इन्हीं साहित्यकारों के लेखन को खंगालते हुए डॉ. सिंह ने पं.विद्यानिवास मिश्र, कृष्ण बलदेव वैद , प्रभाकर माचवे, रमेश चंद्र शाह, विश्वनाथ त्रिपाठी,  केदारनाथ सिंह, कृष्णदत्त पालीवाल,  नामवर सिंह आदि को उद्धृत किया है . वे अपने निष्कर्ष में बताते हैं कि-"कुल मिलाकर यह कहना चाहूँगा कि अज्ञेय की एक-एक कविता में ऐसा मौन-प्रधान तांत्रिक जादू है कि उसके पाठ में हिंदी आलोचना के बडे-बड़े नंबरदारों की खोपड़ियाँ लहुलुहान होती रहती हैं और आज भी खून का बहता रुका नहीं है।"

अज्ञेय विशेषांक -२  में डॉ. बलविंदर  कौर, डॉ. साहिरा बानू बी.बोरगल तथा डॉ. गोरखनाथ तिवारी के  लेख सचमुच सारगर्भित  हैं। डॉ. बलविंदर कौर ने ‘अज्ञेय के उपन्यासों में अस्मिता, जिजीविषा और मृत्युबोध’ पर प्रकाश डालते हुए उचित ही कहा है कि अस्तित्ववाद वह चिंतनधारा है जिसे संसार के पूँजीवादी देश मार्क्सवाद के विरोध के लिए प्रयुक्त करते रहे हैं। हालांकि अज्ञेय अपनी रचनाओं  को पश्चिमी अस्तित्ववादी चिंतन से बिलकुल प्रभावित नहीं मानते; फिर भी यदि उन्हें अस्तित्ववादी कहें तो यह भी कहना होगा कि उनकी चिंतन पद्धति उससे भिन्न रही है।  यहाँ पश्चिमी अस्तित्ववादी चिंतन से कुछ भिन्न दार्शनिक मान्यताओं को अज्ञेय  के दो उपन्यासों ‘नदी के  द्वीप’ और ‘अपने अपने अजनबी’ में देखने का प्रयास किया गया है।  डॉ.बलविंदर कौर ने  इन दो उपन्यासों को नए सिरे से पढ़ते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि कुल मिलाकर अज्ञेय की चिंतनशीलता और विचार पर सार्त्र, अल्बेयर कामू, काफ़्का आदि के वैचारिक चिंतन का कुछ प्रभाव भिन्न स्तर पर रहा, फिर भी अज्ञेय उतने ही परंपरावादी हैं जितने कि आधुनिक। कहना न होगा कि  यही अंतर्विरोध अज्ञेय के व्यक्तित्व को सम्मोहक और रहस्यमय बनाता है।

डॉ.साहिरा बानू बी.बोरगल ने ‘साहित्यशास्त्री अज्ञेय : भूमिकाओं के विशेष संदर्भ में’ लेख में ये  विचार व्यक्त किए  हैं कि अज्ञेय सर्वप्रथम एक विदग्ध आस्वादक हैं; इसीलिए वे रचना की खूबियाँ, कौशल, बारीकियाँ, सौंदर्य आयाम, शक्ति-स्रोत  और प्रभाव को पाठक के सामने प्रभावी रूप में प्रस्तुत करने में बेजोड़ हैं।  उन्होंने विभिन्न ग्रंथों की भूमिकाओं में साहित्य से जुड़े मूलभूत प्रश्नों पर विस्तार से विचार किया है। डॉ. बोरगल ने ‘शेखर:एक जीवनी’, नदी के द्वीप’, ‘तार सप्तक’, ‘आत्मनेपद’ आदि की भूमिकाओं पर चर्चा करने के बाद यह उद्धृत किया  है कि "शब्द-पुरुष अज्ञेय गम्भीर और सर्जनात्मक चिंतन के धनी थे।  वे इन भूमिकाओं में साधारण सी दिखनेवाली लोक कथा से लेकर अत्यंत साहसपूर्ण साहित्यिक प्रयोग तक की सामग्री समय के अनुभव के चौखटे में रखकर साहित्य के मूल्यबोध का अछूता पक्ष उभारते हैं। उनकी भूमिकाओं में प्रमुखतः काल प्रतीति से संबद्ध मिथकों की व्याख्या के साथ-साथ इतिहास की अवधारणा, मनवीय काल की संवेदना, साहित्य में काल के यथार्थ की प्रतीति और भाषागत काल प्रतीति की विवेचना आदि देखने को मिलती है।"

डॉ. गोरखनाथ तिवारी ने ‘अज्ञेय की कहानियाँ : संवेदना और शिल्प’ में अज्ञेय के साहित्य में लालित्य की धारा को खोजने का प्रयास किया है। डॉ. तिवारी ने अज्ञेय की विभिन्न कहानियों -   विपथगा, देवी सिंह, सेव और देव, हारिति, अकलंक, द्रोही, गैंग्रीन, सिगनेलर, मनसो, मिलन, कैसांड्रा का अभिशाप, छाया, पगोड़ा वृक्ष, एक घंटे में, दारोगा अमीचंद, कड़ियाँ, पुलिस की सीटी, चिड़ियाघर, जिजीविषा, पहाड़ी जीवन, लेटर बाक्स आदि का जायज़ा लेते हुए दर्शाया  है कि भाषिक संरचना की दृष्टि से अज्ञेय की कहानियाँ पूर्णतः सफल हैं।उन्होंने यह तथ्य भी रेखांकित किया है कि   भाषा के सम्बंध में अज्ञेय मानते हैं कि भाषा जनता की थाती है और जनता ही उसका मूल स्रोत  है.

डॉ. पी.श्रीनिवास राव ने अज्ञेय के  ललित निबंधकार रूप पर अपनी नज़र फोकस की है.उनकी इस स्थापना के बारे में दो राय नहीं हो सकती कि  " अज्ञेय के ललित निबंधों में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ वे व्यंग्य का सटीक प्रयोग करते हैं। बेशक, अज्ञेय पाठक को अपने सामने रखते हैं, उसे संबोधित करते हैं, उससे बातचीत करते हैं और इस तरह अपने ललित निबंधों में बातचीत की लय को सम्भव बनाते हैं।

ऐसा नहीं है कि केवल प्राध्यापकों ने ही इस कार्यक्रम को सफ़ल बनाने में सहयोग दिया है।  इसमें छात्र-छात्राओं की भी अहम भूमिका रही है।  सुश्री चंदन कुमारी ने संपादन सहयोग के साथ टिप्पणी के माध्यम से अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं तो शोधार्थी दिनेश कुमार सिंह ने अज्ञेय को यात्रावृत्तकार के रूप में देखा है और उनकी दो पुस्तकों ‘एक बूँद सहसा उछली’ तथा ‘अरे यायावर रहेगा याद’ का विवेचन किया है।

इन विशेषांकों की सब से बड़ी उपलब्धि यह रही है कि इन्हें अंतरजाल पर भी प्रकाशित किया गया है और इसका परिणाम यह निकला कि इसके दो पाठकों - टेक्सास[अमेरिका] की इला प्रसाद और तिरुवनंतपुरम की आर.शमशाद बेगम - ने पहले दो विशेषांकों से प्रभावित होकर विशेषांक-३ के लिए अज्ञेय पर अपने संस्मरण व लेख उपलब्ध कराए हैं। इस प्रकार देश-विदेश के पाठक ‘स्रवंति’ को पढ़ने लगे हैं.
 
इस सफलता के लिए समस्त ‘स्रवंति’  परिवार  अभिनंदनीय  है।  आशा है, भविष्य में भी पत्रिका का ऐसा ही स्तर बना रहेगा।


12 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अज्ञेय पर संग्रहणीय साहित्य।

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

आदरणीय चन्द्र मौलेश्वर जी,

दो किस्तों में प्रकाशित इस लंबी समीक्षा के लिए मैं दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और 'स्रवंति'-परिवार की ओर से आपके प्रति धन्यवाद प्रेषित करते हुए यह स्वीकार करना चाहता हूँ कि इस विशेषांक-शृंखला का कुछ श्रेय आपको भी जाता है क्योंकि आपने बार-बार फोन करके सारी सामग्री को मुद्रित रूप में प्रस्तुत करने का आग्रह किया और हर अंक को खुले मन से सराहा.

इन विशेषांकों के सभी लेखक भी अभिनंदनीय है कि उन्होंने अपने शोधपत्र उपलब्ध कराने की कृपा की.

साभार
आपका ऋषभ

Arvind Mishra ने कहा…

‘स्रवंति’का अर्थ बतायें पार्थ! :)
बाकी यह तो अनूठा संयोजन है ही -अज्ञेय सब कुछ के बाद भी बहुत कुछ अज्ञेय रहेगें!

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

उपयोगी जानकारी...

Suman ने कहा…

भाई जी,
बढ़िया समीक्षा के लिये
आप भी कम अभिनंदनीय नहीं है
बधाई आपको ! स्रवंति का मतलब ग्रहण करना
होता है या सुनना ? इसके अलावा कोई और
मतलब होता है तो जरुर बताएं ! श्रवंति और स्रवंति में
क्या फर्क है? ये जानना मेरे लिये भी बहुत जरुरी है !

ZEAL ने कहा…

समस्त ‘स्रवंति’ परिवार अभिनंदनीय है। उन्हें बधाई।

Rajeysha ने कहा…

'स्रवंति'-का अर्थ
अपेक्षि‍त है

पढ़ि‍ये नई कवि‍ता : कवि‍ता का वि‍षय

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आदरणीय भाई अरविंद मिश्र जी, आपको अर्थ समझाने का सामर्थ तो मुझ में नहीं है क्योंकि आप तो सर्वज्ञानी है प्रभू। फिर भी, सुमन जी और राजे शाह की जानकारी के लिए बता दूं कि इसका अर्थ है ‘नदी’।
आदरणीय ऋषभ देव शर्मा जी को नमन कि उन्होंने इसका श्रेय मुझे भी दिया है, जब कि वे इस सारी स्कीम के सूत्रधार रहे ही। उनके मार्गदर्शन के बिना इतनी स्तरीय पत्रिका शायद ही निकल पाती। उनके साथियों को भी नमन॥ इतने सार्थक लेख तो पुस्तकाकार पाकर ही अधिक लोगों तक पहुंच सकेंगे, ऐसा मेरा मत है। आशा है इसे शीघ्र ही यह रूप देखने को मिलेगा||

भाई पाण्डेय जी और डॉ. शरद सिंह का प्रोत्साहन तो सदा मेरी लेखनी को बल देता है। आभार॥

मदन शर्मा ने कहा…

उपयोगी जानकारी...

मदन शर्मा ने कहा…

आदरणीय चन्द्र मौलेश्वर जी, स्रवंति'-का अर्थ
सुनना भी है

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

स्रवंति की सारी टीम को बधाई कि उन्होंने अज्ञेय पर तीन विशेषांक निकाले. विशेषांक बढ़िया हैं. विशेषकर पत्रिका के सारथी आदरणीय प्रो.ऋषभदेव शर्मा जी और अर्जुन (सह-सम्पादक) डॉ.जी .नीरजा जी का परिश्रम प्रशंसनीय है.

चंद्रमौलेश्वर जी आपको भी बधाई कि आपने इतनी रूचि से बढ़िया प्रतिक्रया और चर्चा प्रस्तुत की.
आप अपने निरंतर पठन और लेखन से अन्य साहित्य प्रेमियों को लिखने और पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं.
आपकी यह कलम सराहनीय है.
कलम को नमन.

Amrita Tanmay ने कहा…

आपसबों को हार्दिक बधाई . साहित्य का उच्च मापदंड बने - स्रवंति