बुधवार, 13 जुलाई 2011

रस परिवर्तन

काका जनाने डिब्बे में चढ़ गए


जगह मिल सकी मेल में, कष्ट अनेकों झेल
टी टी बोला, निकलिए, ये डिब्बा फ़ीमेल
यह डिब्बा फीमेल, चढ़ गया उसका पारा
हमने कहा "जनाब, इसी का टिकिट हमारा"
कहं काका क्यों मुसाफिरों को व्यर्थ सताते?
लिखा फ़्रंटियर मेल, आप फ़ीमेल बताते।
                             ----काका हाथरसी

[काका हथरसी की यह फुलझड़ी साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ के २० अगस्त १९६७ अंक से साभार]

6 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वाह वाह, सही बात है।

Sunil Kumar ने कहा…

काका हाथरसी को हास्यरसीभी कहते है :)

Arvind Mishra ने कहा…

अब काका की दृष्टि का क्या कहिये पूरी काक दृष्टि थी :)

Suman ने कहा…

बहुत बढ़िया मजेदार रचना !

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

वाह...क्या बात है...

डॉ टी एस दराल ने कहा…

हा हा हा ! काका की क्या बात है जी .