मंगलवार, 12 जुलाई 2011

दोस्ती का हाथ


[दिल्ली में  सांसद-अध्यक्षों की बैठक का उपरोक्त चित्र देखकर भारत और पाकिस्तान के दो शायरों की कविताएं याद हो आई जिनमें आम जनता की मानसिकता झलकती है।]

हिंदुस्तानी दोस्तों के नाम

गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलीं
उदास तुम भी हो यारो उदास हम भी हैं
फ़कत तुम्हीं को नहीं रंजे-ज़ाक दामनी
जो सच कहूँ तो दरीदा लिबास हम भी हैं

तुम्हारे बात की शम्में भी ताबनाक नहीं
मेरे फ़लक के सितारे भी ज़र्द-ज़र्द से हैं
तुम्हारे आइना खाने भी ज़ंग आलूदा
मेरे सुराही व सागर भी गर्द-गर्द से हैं

न तुमको अपने खद-व-खाल ही नज़र आएँ
न मैं यह देख सकूँ जाम मे भरा क्या है
बसारतों पे वह जाले पड़े हैं दोनों के
समझ में कुछ नहीं आता कि माजरा क्या है

तुम्हें भी ज़िद है कि रस्मे सितम रहे जारी
हमें भी नाज़ कि ज़ोरो-जफ़ा के आदी हैं
तुम्हें भी ज़ाम महाभारत लड़ी तुमने
हमें भी फ़क्र कि हम करबला के आदी हैं

न सरु में वह गुरूरे कशीदा कामती है
न क़ुमारियों कि उदासी में कुछ कमी आई
न खिल सके किसी जानिब मुहब्बतों के गुलाब
न शाख़े-अमन लिए फ़ाख़्ता कोई आई

सितम तो यह है कि दोनों के मर्गज़ारों में
हवाए फ़ित्ना व बू-ए-फ़साद आती है
आलम तो यह है कि दोनों को वहम है कि बहार
अदू के खूँ में नहाने के बाद आती है

सो अब यह हाल हुआ इस दरिंदगी के सबब
तुम्हारे पाँव सलामत रहे न हाथ मेरे
न जीत जीत तुम्हारी न हार हार मेरी
न कोई साथ तुम्हारे न कोई साथ मेरे

हमारे शहरों की बेनवा मख़लूम
दबी हुई है दुखों के हज़ार ढेरों में
अब इनकी तीरा-नसीबी जराग चाहती है
जो लोग निस्फ़ सदी तक रहे अंधेरों में

चराग जिन से मुहब्बत की रोशनी फैले
चराग जिन से दिलों के दयार रोशन हों
चराग जिन से जिया अमन व आश्ली को मिले
चराज जिन से दिए बेशुमार रोशन हों

तुम्हारे देस में आया हूँ दोस्तो अब के
न साज़ न नग़मा की महफ़िल न शायरी के लिए
अगर तुम्हारी अना कहीं का है सवाल तो फिर
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए
-अहमद फ़राज़

अहमद फ़राज़ के नाम

तुम्हारा हाथ बढ़ा है जो दोस्ती के लिए
मेरे लिए वह इक यारे-ग़मगुसार का हाथ
वह हाथ शाख़े-गुले-गुलशने-तमन्ना है
महक रहा है मेरे हाथ में बहार का हाथ

खुदा करे कि सलामत यह हाथ अपने
अता हुए हैं जो ज़ुल्फ़ें संवारने के लिए
ज़मीं से नक्श मिटाने को ज़ुल्म व नफ़रत के
फ़लक से चाँद-सितारे उतारने के लिए

ज़मीने-पाक हमारे लिए जिगर का टुकड़ा है
हमें अज़ीज़ है देहली व लखनऊ की तरह
तुम्हारे लहजे में मेरी नवा का लहजा है
तुम्हारा दिल है हसीं मेरी आरज़ू की तरह

करें यह अहद कि अवज़ारे-जंग है जितने
उन्हें मिटाना है ख़ाक में मिलाना है
करें यह अहद कि अरबाबे जंग हैं जितने
उन्हें शराफ़त व इन्सानियत सिखाना है

जबीं-ए-तमाम हसीना-ए-खैबर व लाहौर
जबीं-ए-तमाम जवानाने-जन्नते-कश्मीर
हो लब-ए-नग़मा मेहरो-वफ़ा की ताबानी
किताबे-दिल पे फ़कत हर्फ़े-इश्को-तहरीर

तुम आओ गुलशने-लाहौर से चमन-बरदोश
हम आएँ सुबहे-बनारस की रोशनी लेकर
हिमालय की हवाओं की ताज़गी लेकर
फिर इसके बाद यह पूछें कि कौन दुश्मन है
-अली सरदार जाफ़री

[साभार- चित्र ‘स्वतंत्र वार्ता’ के दिनांक १२ जुलाई २०११ से तथा कविताएँ डॉ. आनंद राज वर्मा के लेख- ‘दोस्ती का हाथ’ से जो ‘स्वतंत्र वार्ता’ के दिनांक २६ नवम्बर २००६ से उद्धृत]

10 टिप्‍पणियां:

Pratik Maheshwari ने कहा…

दोनों ही कविताएँ बेजोड़!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अहमद फराज़ की ग़ज़लें और रचनाएं अपना अलग मुकाम रखती हैं दोनों देशों के बीच ... बहुत बहुत शुक्रिया इन लाजवाब नज्मों की लिए ..

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

दोनों ही उम्दा शायर...

सञ्जय झा ने कहा…

WAH.....BAHUT SUNDAR..........PADHBANE KE LIYE SUKRIYA.....

PRANAM

Sunil Kumar ने कहा…

दोनों शायरों की तारीफ़ करना अल्फाजों के साथ नाइंसाफी होगी | आपका आभार

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

दोनों ही रचनाएँ बेमिसाल हैं.... आभार पढवाने का

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भाई दुश्मन सा बना जब हक जताता है,
कोई तो लंदन में बैठा मुस्कराता है।

डा० अमर कुमार ने कहा…

.आप बहुत ही सही नुक्तों पर यह शायरी चुन लाये हैं, मेरे भाई !
वाकई आम दिलों का मँज़र यही है, वरना जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ अपने दुश्मन मुल्क की अदाकारा ऎश्वर्या राय पर क्यों जान छिड़क रहे होते ? यही हुक्मरान अपनी मौज़ूदा पीढ़ियों के ज़ेहन को नफ़रत की ज़हर से सींच कर.. अपनी सियासती पैदावार तैयार करते हैं ।
तक्सीम कें फौरन बाद ही दोनों मुल्कों के ज़हीन और तरक्कीपरस्त अमले को यह एहलाम होने लगा था ।
जालन्धर से लाहौर कूच कर गये मज़हबी शायर ज़नाब अब्दुल अज़ीज़ खालिद ने किसी पछतावे के ज़ज़्बे से ही हज़रत मुहम्मद साहब का ज़िन्दगीनामा वहाँ हिन्दी में पेश किया है... हज़रत साहब की बड़ाईयों को पेश करते हुये वह किस कदर ज़ज़्बाती हो गये.. यही देखिये...
तू दीपक, मैं काज़ल, तू दरपन मैं सीसा
मैं कालिख तो तू परभात की लालिमा है
कहीं खेलें मिल आपस में हम गोप लीला
यही ज़ुस्तज़ू यही कामना यही कल्पना है
है हके सिरूह शान्ति या कि ओम ततसत
अज़ब दिलकुशा बाँसुरी की यह सदा है,
या फिर इनसे मिलें ज़नाब मुस्तफ़ा ज़ैदी से, जो कराची में कमिश्नर हुआ करते थे मगर अपनी यादों में इलाहाबाद को बसाये हुये अपनी शायरी तेग़ इलाहाबादी के नाम से किया करते थे, यह किस बेकली से पूछते हैं...
कोई उस देस का मिल जाए तो इतना पूछें
आजकल अपने मसीहा-नफ़साँ कैसे हैं
आँधियाँ तो सुना उधर भी आई
कोंपलें कैसी हैं, शीशों के मकाँ कैसे हैं
पाकिस्तान की पत्रकार ज़ाहिदा हिना अपनी पाकिस्तान डायरी में फ़रमाती हैं..
" बन्दूकों के ढेर अगर दोनों मुल्कों के हालात बेहतर बना सकते, तो आज भी दिल्ली और कराची की सड़कों पर भिखारियों से झुँड के झुँड नज़र ना आते !"
आपने बहुत सही नुक्ते पर यह यादगार पोस्ट तैयार की है, दोस्त !

अभिषेक मिश्र ने कहा…

इन महत्वपूर्ण रचनाओं से रु-ब-रु करवाने का शुक्रिया.


अंबेडकर और गाँधी

Suman ने कहा…

उम्दा रचनाएँ पढ़वानेका आभार !