शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

मणिपुर हिंदी परिषद-२


मणिपुर हिंदी का इतिहास-२ 
प्रो. देवराज

आधुनिक-काल में भारतीय पुनर्जागरण का परिणाम सामाजिक और राष्ट्रीय-जागरण के रूप में सामते आया।  महर्षी दयानन्द, महर्षी अरविन्द, राजा राममोहन राय आदि ने सम्पूर्ण भारतीय जीवन को झकझोर दिया।  यह अनुभव किया जाने लगा कि रूढ़ सामाजिक-मूल्यों के अस्वीकार के बिना भारतीय समाज को नहीं बचाया जा सकता।  इसी प्रकार राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित किया गया।  ‘भारतीय जनता के समस्त दुखों का मूल दासता है’ इस सोच ने आधुनिक भारत के निर्माण में क्रांतिकारी सहयोग दिया।  हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में खोजनेवाला भी यही नारा था।  अंगरेज़ों से इस देश को मुक्त कराने के लिए, भारत की सम्पूर्ण जनता को जगा कर यह बताना आवश्यक था कि अंगरेज़ इस देश के लिए अभिशाप हैं और जितनी जल्दी हो सके, उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होकर खड़े होना अनिवार्य है।  इस महान कार्य के लिए भाषाओं की खोज के क्रम में हिंदी का नाम सामने आया।  हिंदी ही समस्त भाषाओं में ऐसी थी, जो अधिकांश भारतीय जनता द्वारा बोली और समझी जाती थी।  फिर भाषा वैज्ञानिक कारणों से इसे आसानी से सीखा जा सकता था।  इसने व्यापार की भाषा के रूप में विशाल क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली थी।  साथ ही धर्म, इतिहास और संस्कृति के व्यापक भारतीय मानकों को इस भाषा ने बहुत पहले से इस देश के व्यापक क्षेत्र तक पहुँचाना शुरू कर दिया था।  इन सब कारणों से एक मत से हिंदी को सामान्य सम्पर्क की भाषा के रूप में मान्यता मिली।  आगे चलकर हिंदी को स्वतंत्रता-संघर्ष की मुख्य भाषा बनने का अवसर मिला तथा जनता यह समझने लगी कि भारत के स्वतंत्र होते ही हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया जाएगा।  इसके साथ ही महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने जो आशाएँ जगाईं, उनसे लगने लगा कि हिंदी स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी, जो अंतर्राष्ट्रीय जीवन में भारत को प्रतिष्ठा दिलाएगी, जिसके माध्यम से लोगों को अभिव्यक्ति-क्षमता के साथ-साथ रोज़गार भी मिलेंगे और जो समग्र भारत को एकता के सूत्र में बांधेगी।  जनता की इस आशा ने हिंदी-भाषी और हिंदीतर भाषी- दोनों प्रकार के प्रांतों में हिंदी के प्रचार को बल दिया।  ज्यों-ज्यों स्वतंत्रता निकट आती गई, वह प्रचार-बल बढ़ता गया।  हिंदी के प्रचार के लिए विभिन्न संस्थाएँ सामने आईं।  उन्होंने हिंदीतर-भाषी क्षेत्रों में हिंदी के प्रचार-प्रसार का कार्य हाथ में ले लिया।  उधर हिंदीतर भाषी क्षेत्रों के जो लोग शिक्षा आदि के लिए हिंदी भाषी क्षेत्रों में जाते थे वे अपने साथ राष्ट्रीय जागरण व हिंदी-प्रेम लेकर अपने-अपने क्षेत्रों में लौटे तथा हिंदी प्रचार कार्य के समर्पित कार्यकर्ता बने।  मणिपुर भी इस लहर से अछूता नहीं रहा।  परिणामस्वरूप इस राज्य में हिंदी-प्रचार आंदोलन का बीज अंकुरित हुआ।

श्री ललितामाधव शर्मा, श्री बंकबिहारी शर्मा, श्री थोकचोम मधु सिंह, पं. राधामोहन शर्मा एवं श्री कुंजबिहारी सिंह कैशाम को मणिपुर क्षेत्र के हिंदी प्रचार का आदि-स्तम्भ माना जाना चाहिए।  इन महानुभावों ने स्वतंत्रता, राष्ट्रीय एकता, सामान्य संपर्क की संभावना, आखिल भारतीय स्तर पर समस्त भारतीय नागरिकों के एक समान सोच, विश्वमंच पर भारत की प्रतिष्ठा की आकांक्षा आदि से प्रेरणा ग्रहण करके मणिपुर के इम्फाल नगर को मुख्यालय बनाया और सारे राज्य में हिंदी-प्रचार का कार्य किया।  उस काल में इस क्षेत्र में हिंदी और भारतीय संस्कृति का प्रचार देश-द्रोह माना जाता था।  अंगरेज़ सरकार जानती थी कि यदि हिंदी भाषा को फलने-फूलने दिया तो भारत की जनता अपने प्राचीन गौरव के बोध से भर उठेगी, जो उसके भविष्य के लिए अभिशाप सिद्ध होगा।  अंगरेज़ यह भी जानते थे कि हिंदी और भारतीय संस्कृति का चोली-दामन का साथ है।  हिंदी, मात्र भाषा की शिक्षा का माध्यम नहीं है, वरन उसमें राष्ट्रीय और सामाजिक-संस्कार तथा चारित्रिक-शिक्षा के साथ-साथ स्वाधीनता का ज्ञान कराया जाता है।  इससे भाषा और देश-भक्ति, दोनों का बोध साथ-साथ प्राप्त होता है।  यह बात ईसाइयत और अंगरेज़ी के प्रचार में प्रत्यक्ष बाधा थी।  अतः अंगरेज़ सरकार ने भाषा और धर्म के प्रचार को देशद्रोह करार दिया।  प्रचार के लिए बाहर से आनेवालों को हतोत्साहित किया और जो स्थानीय लोग प्रचार-कार्य करना चाहते थे, उन्हें तरह-तरह से डरा-धमका कर इस देश-सेवा से रोकने का प्रयास किया।  श्री बंकबिहारी जी ने निकट संबन्धी श्री भगवतादेव शर्मा [जो उन्हीं की प्रेरणा से हिंदी प्रचार में लग गए थे] ने जब राष्ट्रभाषा प्रचार का कार्य शुरु किया तब मणिपुर के तत्कालीन पोलिटिकल एजेन्ट ने उन्हें बुलाकर कहा कि ‘हिंदुस्तान कोई राष्ट्र नहीं है, फिर तुम लोग क्यों राष्ट्रभाषा, राष्ट्रभाषा चिल्लाते हो।  यहाँ की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, न तुम किसी राष्ट्रभाषा का प्रचार कर सकते हो।’  इतना ही नहीं उसने इस कार्य के लिए ‘सैडिसस’ शब्द का प्रयोग किया।  इससे उस समय की कठिनाइयों का कुछ अंदाज़ लगाया जा सकता है।

किंतु, इन लोगों ने अंगरेज़ सरकार द्वारा पैदा की गई कठिनाइयों को चुनौती के रूप में स्वीकार किया।  पहले घर पर ही बच्चों को हिंदी पढ़ाना शुरू किया फिर घर-घर जाकर लोगों को हिंदी और स्वतंत्रता के मह्त्व को समझाना।  इस प्रकार बहुत धैर्य के साथ हिंदी के प्रति सामान्य लोगों का रुझान पैदा किया और हिंदी के पठन-पाठन के लिए विद्यालय खोला।  इस प्रकार मणिपुर में हिंदी प्रचार के आधुनिक इतिहास की आधारशिला रखी गई।

हिंदी प्रचार के इस प्रारम्भीक-काल में तीन नाम अत्यंत महत्वपूर्ण हैं-- श्री भागवतदेव शर्मा, श्री अरिबम पं. राधामोहन शर्मा और श्री द्विजमणिदेव शर्मा।  इनमें से पं. राधामोहन शर्मा को थोकचोम मधु सिंह के साथ मिल कर हिंदी प्रचार के प्रारम्भिक काल में अनेक संकटों का सामना करते हुए हिंदी-विद्यालय शुरू करने और हिंदी का अध्ययन करने का गौरव प्राप्त है।  श्री द्विजमणिदेव शर्मा ने मणिपुर के राजा के शिक्षा-सलाहकार के रूप में हिंदी कि सेवा की।  इन्हीं के प्रयास से कुछ वर्षों बाद पहली बार हिंदी के कार्य के लिए राजकीय सहायता मिली।

मणिपुर का सबसे पहला विद्यालय थोकचोम मधु सिंह के घर में प्रारम्भ किया गया।  श्री थो. मधुसिंह केवल इकतीस वर्ष जीवित रहे, किंतु इस अल्प-अवधि में ही उन्होंने अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक कार्यों से मणिपुरी समाज को नई दिशा देने का भरपूर प्रयास किया।  उस समय हिंदी की दबी-छुपी प्रतियोगिता बंगला भाषा के साथ भी थी।  अंगरेज़ों के साथ काम करनेवाले बंगला भाषी अधिकारी चाहते थे कि यदि अंगरेज़ी हटानी है तो उसके स्थान पर बंगला का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।    थो. मधु सिंह ने इस समस्या से निबटने का एक तरीका निकाला।  उन्होंने वैचारिक आदान-प्रदान के लिए इम्फाल में ‘डिबेटिंग-क्लब’ की स्थापना की।  उस क्लब में कई बार ‘हिंदी की आवश्यकता’ विषय पर वाद-विवाद का आयोजन किया और हिंदी का पक्ष स्वयं प्रस्तुत किया।  अपने ज़ोरदार तर्कों के बल पर वे यह सिद्ध करने में सफल रहे कि मणिपुर की जनता के लिए हिंदी पढ़ना-पढ़ाना सबसे उपयोगी और आवश्यक है।  इस प्रकार वाद-विवाद से जो विचार बने, उन्हें मूर्त रूप देने के लिए थो. मधु सिंह ने अपने संबंधी श्री कुंजबिहारी सिंह कैशाम और पं. राधामोहन शर्मा के सहयोग से अपने ही घर पर ‘हिंदी विद्यालय’ की स्थापना की।  ये तीनों सज्जन इस विद्यालय में निःशुल्क पढ़ाते थे।  स्मरणीय है कि उस काल में श्री बंकबिहारी शर्मा भी अपने कांङपोकपी निवासी मित्र पं. जनार्दन शर्मा के सहयोग से घर पर ही मंदिर के सामने के बैठके में लोगों को हिंदी पढ़ाना शुरू कर चुके थे।

कुछ समय बाद श्री कुंजबिहारी सिंह कैशाम ने मोइराङखोम और तेरा कैथेल में हिंदी स्कूल प्रारम्भ किए।  उन्होंने आगे चल कर ‘राष्ट्रलिपि स्कूल’ की स्थापना भी की, जो अब मणिपुर सरकार के नियंत्रण में चल रहा है।


क्र्मशः -अगली किश्त अंतिम 

7 टिप्‍पणियां:

Satish Saxena ने कहा…


हिंदी विकास के लिए बेहतरीन दुर्लभ लेख...उत्तर पूर्व क्षेत्र को देश से जोड़ने में वहां, हिंदी भाषा का प्रसार अत्यंत आवश्यक है !

थोकचोम मधु सिंह के बारे में जानकार बहुत अच्छा लगा ...

आभार आपका ! !

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

मणिपुर हिंदी के इतिहास से अवगत करा कर आप बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं...
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार...

मनोज कुमार ने कहा…

रएक महत्वपूर्ण पोस्ट।

Suman ने कहा…

बहुत बढ़िया आलेख !
आभार !

Arvind Mishra ने कहा…

बस इसी की प्रतीक्षा ही थी -अब अगले समाप्य अंक की प्रतीक्षा है ...

डा० अमर कुमार ने कहा…



गुरु जी.. ऋँखला जारी रहे.. और अन्त में आप अपने विचार भी रखें, ताकि इस चयन के पीछे निहित आपकी सोच का पता चले ।

साथ ही, एक बात और.. मेरे जैसे किताबी कीड़े के लिये इसके उपलब्ध होने का सूत्र और मूल्य इत्यादि दे देते.. तो दिल को करार आ जाता ।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

संस्कृति के विरोधियों को तो हिन्दी से भी स्वाभाविक बैर होगा।