मंगलवार, 26 जुलाई 2011

gudgudi


गुदगुदी

मेरा पोता रोज़ रात में सोने से पहले मुझसे गले मिल कर ‘गुड नाइट’ कहने आता है।  वह तब तक मुझसे लिपटा रहता है जब तक मैं उसे गुदगुदी न करूँ। इस गुदगुदी से वह कसमसाता है और हँसते हुए ‘गुड नाइट’ कह कर चला जाता है।  यह प्रक्रिया सुबह भी चलती है जब वह उठ कर ‘गुड मार्निंग’ कहता है।  


गुदगुदी का चलन प्राचीन काल से चलता आ रहा है, भले ही उसका नामकरण संस्कार न किया गया हो।  कृष्ण ने सुदामा को परोक्ष रूप से गुदगुदी ही तो की थी जब उन्होंने बिन बताए ही सुदामा को धन-धान्य से सम्पन्न कर दिया था।  ज़रा सोचिए कि झोंपड़ी के स्थान पर महल को देख कर सुदामा को कितनी गुदगुदी हुई होगी।  इस गुदगुदी से उनके सारे बदन में झुरझुरी फैल गई होगी।

हाँ, कभी ऐसी गुदगुदी प्राण घातक भी हो सकती है।  कल्पना कीजिए कि यदि सुदामा का हृदय कमज़ोर होता तो इस गुदगुदी से हार्ट फ़ेल का खतरा भी हो सकता था।  प्रत्यक्ष रूप से हम देख सकते हैं कि जिनकी आँखें कमज़ोर हैं, उन्हें गुदगुदी करने पर आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं।  बेचारे कमज़ोर हृदयी की गति तो चिकनहृदयी ही बेहतर जान सकता है।

गुदगुदी करते समय उस व्यक्ति के शारीरिक और मौखिक हालत तो देखने लायक होती है।  उसका शरीर कई मोड़ ले लेता है जैसे किसी पहाडी की पगडंडी हो और मुखमुद्रा सुबह की लाली लगने लगती है।  यदि व्यक्ति मोटा हुआ तो उसकी तोंड किसी बिश्ती की थैली की तरह थुलथुल हिलती रहती है। 

गुदगुदी करते हैं तो हँसी आ ही जाती है।  हँसी भी कई प्रकार की होती है।  यह उस व्यक्ति पर निर्भर होता है कि वह किस प्रकार की हँसी का मालिक है।  

जो व्यक्ति हश्शाश-बश्शाश है, वह तो बिना गुदगुदाए भी हँसता रहता है।  गुदगुदी पर उसकी हालत का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।  दूर से ही उँगलियाँ हिलाने पर वह हँसना शुरू कर देगा और गुदगुदी कर दी तो वह लोट-पोट हो जाएगा।  समाचार पत्र में कभी पढ़ा भी था कि एक व्यक्ति हँसते-हँसते मर गया।  ऐसी गुदगुदी को निश्चय ही ‘घातक गुदगुदी’ का विशेषण जड दिया जा सकता है।  अच्छा हो कि हम ऐसी गुदगुदी से बचें और अपनी उँगलियाँ ऐसे व्यक्ति की ओर बढ़ाने के पहले उसकी मेडिकल रिपोर्ट जाँच लें।


संजीदा मिजाज़ वाला केवल मुस्कुरा देगा।  शायद उसके दाँत भी देखने को न मिले। ऐसे व्यक्ति की पत्नी की दयनीय हालत पर केवल दया ही व्यक्त कर सकते हैं जो अपने पति की एक इंच मुस्कान देखने के लिए तड़पती होगी।

यदि यह पढ़कर आपके मन में गुदगुदी हुई तो यह समझ लीजिए कि मेरे चेहरे पर दो इंच मुस्कान दौड़ गई है॥


गुरुवार, 21 जुलाई 2011

बोनालु- bonalu



एक स्थानीय पर्व - बोनालु


आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में बोनालु त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यह त्यौहार खास तौर पर हैदराबाद-सिकंदराबाद नगर-द्वय में बहुत हर्षो-उल्हास से मनाया जाता है।   आषाढ़ मास के प्रारम्भ के प्रथम रविवार को यह पर्व प्रसिद्ध दुर्ग गोलकोण्डा से प्रारम्भ होता है।  दूसरे रविवार को सिकंदराबाद में तथा तीसरे रविवार को सारे शहर के काली माता के मंदिरों में पूजा-अर्चना के साथ इसका समापन होता है।  इसे एक प्रकार से माता को धन्यवाद का त्यौहार माना जाता है।  यह माना जाता है कि माँ काली साल भर इस स्थान और इसकी संतान की रक्षा करती है जिसके लिए यह संतान अषाढ़ मास में धन्यवाद स्वरूप धूमधाम से पूजा करती है।

बोनालु शब्द की उत्पत्ति भोजनालू से हुई।  घर-घर से महिलाएँ माता काली के लिए अपने घर से भोजन बना कर ले जाती है और माता को चढाती है।  इस भोजन को ले जाने की भी एक विशेष प्रक्रिया होती है।  महिलाएँ माता के भोजन के लिए स्नानादि करके शुद्ध होकर एक खास किसम का भोजन बनाती है।  इस भोजन मे चावल को दूध और शक्कर में पकाया जाता है।  कोई-कोई प्याज़ का भी प्रयोग करते हैं।  इस पकवान को एक पीतल या मिट्टी के छोटे से मटके में रखा जाता है जिसके ऊपर एक कटीरी ढाँपी जाती है।  इस कटोरी में घी या तेल की बाती बना कर दिया जलाया जाता है।  इस मटके को हल्दी, कुमकुम और खडी से पोत कर रंगा जाता है।  मटके के इर्दगिर्द नीम की छोटी डालियां लगा कर सजाया जाता है। इस  पूजा के लिए महिला अपनी सब से भारी सिल्क की साड़ी पहन कर बोनम को[भोजन से भरा मटका]  सिर पर लिए निकलती है।  इस प्रकार जब सजधज कर महिलाएँ एक साथ निकलती है तो वह जलूस का आकार ले लेता है।

बोनाम को सिर पर रखे महिलाएं बाजे-गाजे के साथ निकलती है।  इस बाजे की धुन पर उनके पैर भी थिरकने लगते हैं और कुछ महिलाएँ नाचने भी लगती हैं। वे इतनी दक्ष होती हैं कि इस नृत्य पर भी उनके सिर से मटका नहीं सरकता है।  कभी कभी तो कुछ महिलाएँ एक ट्रांस [अवचेतनावस्था] में चली जाती है और झूलने लगती हैं।  उन्हें माता का स्वरूप मान कर उन पर से निंबू काट कर फेंके जाते है और रास्ते भर उनके पैरों पर पानी छिड़का जाता है।  इस प्रकार भक्ति से विभोर होकर ये महिलाएँ माता काली के मंदिर में पहुँचती हैं और उन्हें बोनम चढ़ाती हैं।

बोनाम ले जाते हुए हैदराबाद की मेयर श्रीमती कार्तिका रेड्डी,  आंध्र प्रदेश की वरिष्ट मंत्री डॉ. गीता रेड्डी और भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री श्रीमती रेणुका चौधरी


माता काली को विभिन्न नामों से जाना जाता है और उस स्थानीय मंदिर को इसी नाम से ख्याति मिलती है; जैसे, मैसम्मा, पोचम्मा, एलम्मा आदि।  गंडीपेट के पास स्थित मंदिर को गंडी मैसम्मा कहा जाता है तो सिकंदराबाद के मंदिर को उज्जैनी महांकाली।

बोनालु पर्व के समय इन मंदिरों को रंग-बिरंगे फूलों और लाइटों से सजाया जाता है।  रात के समय इनकी रौशनी देखने लायक होती है।  दर्शकों कि गहमा-गहमी और शोरगुल में लाउडस्पीकर पर बज रहे माता के गानों का इतना योगदान होता है कि पड़ोसी की बात भी कानों में नहीं पड़ती।  कभी-कभी तो आसपास के लोग इस शोरगुल बेहाल हो जाते हैं और पुलिस की शरण लेते हैं जो इस शोर को रात में कम करने का आदेश देते हैं।

नगर-द्वय हैदराबाद-सिकंदराबाद के बोनालु का पर्व गोलकोंडा किले के जगदम्बिका मंदिर से प्रारम्भ होता है।  यह पर्व आषाढ के प्रथम सप्ताह के रविवार को मनाया जाता है।  इस पर्व के दूसरे दिन मेला [जातरा] लगता है जहाँ बच्चों के लिए खिलौनों की दुकानों से लेकर बड़ों के लिए नारियल, फूल आदि पूजा की सामग्री की दुकानें फुटपाथों पर भी बिखर जाती हैं।  इस जातरा का आनंद तो बच्चे ही अधिक उठाते है।

गोलकोंडा किले में बोनालु मनाने के अगले रविवार को सिकंदराबाद के उज्जैनी महांकाली मंदिर में ज़ोर शोर से यह पर्व मनाया जाता है।  इस पर्व की एक विशेषता यह है कि यहाँ वरिष्ठ राजनेता भी माथा टेकने और महिला मंत्रियां बोनम सिर पर उठाए अन्य महिलाओं के साथ मंदिर में प्रसाद चढाती हैं।

दूसरे दिन एक कन्या जो इस मंदिर को समर्पित कर दी गई है, वह बाजे-गाजे के साथ मंदिर में प्रार्थना करती है।  उस समय उसके शरीर पर देवी आती है और वह झूलते हुए कच्ची मिट्टी के घड़े पर खडी होकर वर्ष भर कि भविष्यवाणी करने लगती है।  इस को रंगम कहा जता है।  रंगम के लिए वह कन्या हल्दी से पुती होती है और भारी साड़ी पहने बाजे-गाजे के साथ मंदिर की ओर बढ़ती है।  उसके पीछे पोतराजू हाथ में कोड़ा लिए होता है।   पोतराजू को माता का भाई माना जाता है। साधारणतः पोतराजू मज़बूत काठी का और भारी डील-डौल वाला व्यक्ति होता है।  वह नंगे बदन होता है और एक छोटी लाल लंगोटनुमा धोती पहने होता है।  उसका बदन भी हल्दी से मढा होता है।  उसको भयानक रूप देने के लिए उसके मुँह में निम्बू रखे जाते हैं ताकि उसके गाल भरे दिखें।  पैरों में घूँघरू बांधे वह ढपली की थाप पर नाचते हुए रंगम के साथ साथ चलता है।  समय-समय पर वह अपने हाथ के कोड़े को फिराते हुए बदन पर मारता है जिससे तड़ाके की आवाज़ होती है।  कभी-कभी तो उसके बदन पर खून के दाग भी नज़र आते हैं।  रंगम भी ट्रांस में बाजे की धुन पर नाचती-चीखती चलती जाती है।



पोतराजू



एक समय था जब माता के मंदिर में बलि दी जाती थी। कहते हैं कि  पहले भैंसे की बलि देने की प्रथा थी जिसे बाद में प्रतिबंधित कर दिया गया।  बाद में बकरे की बलि देने की प्रथा चल पड़ी।  हमें बचपन में उस समय मंदिर के परिसर में नहीं जाने दिया जाता था जब बलि का कार्यक्रम चल रहा होता।  कहा जाता है कि उस समय पोतराजू अपने मुँह से बकरे की गरदन को काटता था।  इस प्रथा के बंद होने के बाद मुर्गे की बलि चल निकली।  आज केवल निंबू ही काटे जाते हैं।

तीसरा सप्ताह सारे नगर के माता की अन्य मंदिरों की पूजा-अर्चना के लिए होता है।  हर मुहल्ले में इस सप्ताह बोनालु पर्व मनाया जाता है।  अपनी अपनी क्षमता और भक्ति से माता की पूजा की जाती है। जिन प्रमुख मंदिरों में पूजा का शोर होता है वे हैं हरिबाउली का अकन्ना-मादन्ना मंदिर, कारवान का मैसम्मा मंदिर और लालदरवाज़ा का जगदम्बा मंदिर।  इन मंदिरों में काफी जोर-शोर से बोनालु का पर्व मनाया जाता है।

तीन सप्ताह के इस कार्यक्रम में ‘घटम’ का बड़ा महत्व होता है। देवी का यह रूप बड़ा अनोखा होता है।  एक पीतल या तांबे की परात में बांस के टुकड़ों से  लम्बे आकार का ‘घट’ बनाया जाता है जिसे चारों ओर से फूलों से सजाया जाता है।  बीच में माता का मुखौटा लगाया जाता है।  यह ‘घटम’ पूजा के दिन शाम के समय घर-घर गली-गली घूमते हैं और घर के सामने आने पर घरवाले नारियल फोड़ते है और पूजा करते हैं।  यह माना जाता है कि देवी अपने घर आई है।  घटम उठाने वाले को तो उसका नेग मिलता ही है।  इस घटम के पीछे भक्त भी चलते रहते है और साथ ही चलते हैं ‘फलारम बंडी’ जिनमें माता की झांकियां सजी होती है।  ये झांकिया हर छोटे-बडे मंदिर से निकाली जाती है और एक प्रकार की प्रतियोगिता मानी जाती है कि किस मंदिर की ‘फलारम बंडी’ कितनी शानदार निकली।  इन ‘फलारम बंडियों के आगे भी बैंड-बाजे चलते हैं।  एक तरह से यह प्रतियोगिता उन छोटे नेताओं के लिए है जो अपनी गली-मुहल्ले में अपनी साख जमाना चाहते हैं।

अंतिम सप्ताह मनाए जाने वाले बोनालु का कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हैदराबाद के पुराने शहर की हरिबाउली के अकन्ना-मादन्ना मंदिर से  निकल कर ‘घटम’ मुचकुंदा [मूसी] नदी को ले जाया जाता है।  इसी तरह लाल दरवाज़े के जगदम्बा मंदिर से निकल कर मुचकुंदा नदी के दूसरे छोर पर लाया जाता है।  इन्हें श्रद्धाभाव से नदी में निमज्जन किया जाता है।  इसी प्रकार सिकंदराबाद के घटम को हुसैन सागर में निमज्जन किया जाता है।

कहा जाता है कि इस पर्व का आरम्भ १८६९ में उस समय हुआ जब प्लेग की महामारी हैदराबाद में फैल गई थी।  तब किसी ने कहा  कि यह महामारी देवी माता के प्रकोप के कारण फैल रही है।  उस समय किसी भी महामारी को माता ही कहा जाता है।  आज भी चिकन पॉक्स को छोटी माता और चेचक को माता कहते हैं।   यह पर्व मुस्लिम शासकों के काल में प्रारम्भ हुआ तो वे भी इस पूजा-अर्चना में भाग लेते थे।  यही परम्परा आज भी चली आ रही है कि एक सरकारी अधिकारी आकर माता के मंदिर में सरकार की ओर से पूजा सामग्री अर्पित करता है।

भविष्यवाणी करते हुए कुँवारी कन्या स्वर्णलता

इस वर्ष का बोनालु पर्व ३ जुलाई से प्रारम्भ हुआ और १७ जुलाई को उसका समापन होगा।  इस अवसर पर सिकंदराबाद स्थिन उज्जैनी मंदिर में रंगम ने भविष्यवाणी करते हुए बताया कि वर्तमान में प्रदेश में फैली अशांति के लिए आप के द्वारा विगत में की गै अपनी गलतियां ही हैं।  देवी के रूप में कुँवारी कन्या स्वर्णलता नामक रंगम ने कहा कि गलतियां करने वालों को भी भगवती माफ कर देगी तथा जनता को बहुत कुछ देगी।  आज की राजनीतिक उथल-पुथल में तेलंगाना का मुद्दा जोरों पर है।  रंगम से जब इस मुद्दे पर किसी ने पूछा तो करीब बैठे नेताओं ने ऐसे प्रश्न पूछने की मनाही कर दी और रंगम भी बेहोश होकर गिर गई।  उसे पास वालों ने थाम लिया और जब उसे होश आया तो उसका ट्रांस खत्म हो चुका था।  देखा जाय तो अब यह पर्व राजनीतिक रूप धारण कर चुका है।  इस स्थानीय पर्व को राष्ट्रीय पर्व बनाने की बात तेलंगाना के नेता कर रहे हैं।  अब यह रंगम ही शायद किसी दिन बता सकेगी कि ऐसा कब होने जा रहा है॥

[ऐसे कई स्थानीय पर्व आपके शहर में भी होते होंगे।  हो सके तो इनकी अधिक जानकारी पाठकों को मिलनी चाहिए।]


सोमवार, 18 जुलाई 2011

एक छोटी पोस्ट- seven year itch

खुजली-२

पिछली पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए निशांत मिश्र जी ने लिखा था कि इस लेख में सेवन ईयर इच को नहीं लिया गया है।  उपरोक्त चित्र उस कमी को पूरा करेगा :-)  यह मूर्ति शिल्पकार सेवार्ड जॉनसन ने चिकागो के इल्लिनोय शहर में प्रदर्शन के लिए २०१२ तक लगा रखी है।  इस मूर्ति को स्टेनलेस स्टील और अल्यूमीनियम से बनाया गया है जो २६ फ़ीट ऊँची है और इसका भार ३४,००० पौंड है। इस मूर्ती को बनाने की प्रेरणा शिल्पकार को मनरो की प्रसिद्ध फिल्म ‘सेवन ईयर इच’ से मिली थी।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

खुजली :)

आपस की खुजली

बात निकलती है तो बहुत दूर तक पहुँचती है।  अब देखिए ना, बात खुजली की हो रही थी तो साहित्य से होते हुए कामसूत्र तक पहुँच गई।  खुजली बड़े बड़े साहित्यकारों की रचना का विषय बन चुकी है।  बाबा नागार्जुन ने कुत्ते की खुजली का वर्णन किया है तो परबाबा आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने अनामदास का पोथा खोल कर एक पात्र की खुजली का वर्णन करते हुए कहा था कि उसे खुजली इसलिए हो गई कि राजकुमारी ने अपनी दृष्टि उसकी पीठ पर डाली थी।  उनसे बुज़ुर्ग साहित्यकार कालिदास ने भी हाथी की खुजली का सुंदर वर्णन किया था और बताया कि किस प्रकार हाथी देवदार जैसे विशाल वृक्ष से अपनी देह की मालिश करता है।  ‘मारे गए गुल्फ़ाम’ में रेणुजी ने हीरामन की खुजली का वर्णन किया ही है, पर वह तो एक देहाती की खुजली थी।  शायद उसे वात्सायन को बिना पढ़े ही उस खुजली की तलब हो गई थी।  कामसूत्र में उन्होंने कामांग के विशेष प्रकार की खुजली- कामकंडू का वर्णन किया है। बेचारा हीरामन....!  और फिर,  एक प्रसिद्ध लेखिका ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनके पति को खुजली की शिकायत थी।  उस बीमारी का काफी इलाज किया गया पर कोई लाभ नहीं हुआ।  उनकी खुजली तब अपनेआप चली गई जब दोनों का विच्छेद हो गया।

यह तो हो गई बड़े-बड़े साहित्यकारों की बात। एक और किस्म की खुजली का पता चला था विश्व युद्ध के बाद जिसे चिकित्सकों ने ‘फ़ैंटम इच’ का नाम दिया था।  यह युद्ध में ज़ख्मी फ़ौजियों में पाई गई थी जिनके अंग काटे जा चुके थे।  उन लोगों ने ऐसे अंगों में खुजली की शिकायत की थी जो कट चुके हैं।  इसके कारण का पता लगाने के लिए बहुत खोजबीन की गई थी।  शोध से पता चला कि जिन अंगों को काटा गया है उन से जुड़े रगों ने यह सिग्नल मस्तिष्क को भेजा है।  

विज्ञान की बात चली तो बता दें की होमियोपैथी के जनक हैनेमॉन ने खुजली को एक बीमारी नहीं बल्कि बीमारी के तीन कारण- सोरा, सिफ़िलिस और सैकोसिस में से इसे सोरा का लक्षण बताया है।  खुजली तो शरीर के भीतर छिपे सोरा को बाहर लाने का प्रयास मात्र है।  इस खुजली को लक्षणों के आधार पर दवाई दी जाय तो भीतर छिपा सोरा भी ठीक हो जाएगा।  इसके लिए सौ से अधिक दवाइयां हैं होमियोपैथी में। [ इस पर विस्तार से चर्चा फिर कभी ।]

 अब रही हम जैसे अपढ़ों की बात।  बचपन में दादा पूछते थे- बेटा पीठ गुलगुला रही है क्या? और छड़ी उठा लेते थे।  हम भाग खड़े होते थे क्योंकि हमे तो मार खाने की खुजली थी नहीं।  किसी किसी को हाथों की खुजली होती है।  हाथ में खुजली कभी धन की आमद का संदेसा भी देती है।  कुछ को ज़बान की खुजली होती है।  वो चलती रहती है जैसे बस का टायर हो, कभी घिसती ही नही और रुकती भी नहीं।

सब से बेचैन करने वाली खुजली तो पीठ की खुजली होती है। इस खुजली का इलाज खुजलीवाले के हाथ में नहीं होता।  वह तो दूसरे के हाथ का मुहताज होता है। खुजानेवाला भी बेचारा पसोपेश में रहता है कि आखिर उसे खुजली कहाँ हो रही है।  वह तो दिलोजान लगा कर खुजाता है और उसे आवाज़ सुनाई देती है... यहाँ नहीं, ज़रा ऊपर, अरे वहाँ नहीं, ज़रा नीचे...  हाँ हाँ वहीं, ऊपर हड्डी के पास, नहीं नहीं थोड़ा नीचे। अंत में हार कर खुजानेवाला हाथ छोड़ कर सारी पीठ पर ही कंघी फिर देता है।

अंत में,  यह भी एक खुजली ही तो है कि हम ब्लाग लिख रहे हैं और पाठकों से आशा करते हैं कि टिप्पणी ठोंके।  इसी आशा से हम भी तो उनकी खुजली मिटाते हैं।  यही तो है ब्लाग की खुजली, तुम मुझे खुजाओ, मैं तुम्हें खुजाऊँ... है कि नै!!!

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

सोलहवां साल- स्त्री विमर्श



जब मैं सोलह साल की थी

रुपहले सुनहरे सांझ सवेरे और छोटे पंखों की ऊँची उड़ान-
पद्मा सचदेव

कितनी आशाएं, कितने सुखद स्वप्न ले कर युवती का सोलहवां साल आता है।  गलियों में रस्सी कूदती, छज्जों-चौबारों पर गिट्टे खेलती और गुडियों का ब्याह रचाती अबोध बालिकाओं को क्या पता इनमें से कौन किसी राजा के ऊँचे महल-चौबारों की दीवारों में चिनी जायेगी, किसके भाग्य में फटी चूनर पसार कर चौराहे में भीख मांगना लिखा है।  कौन ससुरालवालों के अत्याचार और अकारण क्रोधाग्नि में भस्म हो जाएगी।  और कौन भाग्यशालिनी अपनी सास के दुलार और पति के प्यार में जी उठेगी।

सोलहवां साल लगने पर गुड़िया का ब्याह रचाने की प्रवृत्ति नहीं होती।  बचपन में खेल, खेल में ही माँ, पत्नी, बहन, सास, ननंद और दादी माँ तक सारे रोल निभा लेनेवाली युवती की आँखों में सचमुच का एक नया घर बनाने का स्वप्न साकार करने की आशा तीव्र हो उठती है।  पग-पग कोई अनजानी सूरत लाज में भिनो-भिगो जाती है।

सन सैंतालीस में बंटवारे के दिनों में जो गोलियां चली थी,  उनमें से एक हमारे घर भी आ लगी थी।  पिता जी संस्कृत और हिंदी के प्राध्यापक थे।  मीरपुर कालेज से जम्मू कालेज में तबादला हो कर आ रहे थे।  रास्ते में ही उनकी अकाल मृत्यु हुई।  तब मैं सात वर्ष की रही होऊँगी।  मुझ से छोटा भाई आशुतोष छह बरस का और ज्ञानेश्वर छह महीने का।  जब भी किसी के मुँह से सुनाई देता ये प्रो. जयदेव बड़ू जी के बच्चे हैं, तो कलेजे में एक छुरी-सी चभने जैसी वेदना होती।

चौबीस-पच्चीस वर्ष की अपूर्व सुंदरी, दुनियादारी से अनभिज्ञ मेरी भोली माँ के कंधों पर वैधव्य का ये बोझ असहनीय था।  उस दिन से आज तक मैं बूढ़ी ही रही।  बचपन बचपन की तरह नहीं बीता और सोलहवां साल बिलकुल ही सुखद न था।  लेकिन मन में जो अकांक्षाएं थी,  अपनी अतुल क्षमता का जो झूठा छलावा था, उसे सहेलियों व उन रुपहले-सुनहले सांझ-सवेरों को याद कर के आज भी यह मन होता है कि वे दिन अभी एक बार एक पल के लिए लौट आयें तो उन्हें आँखों में बंद कर लूं, बाहों में भींच लूँ और कभी कभी जाने न दूँ।

डोगरी में कविता लिखने के मेरे वे नये-नये दिन थे।  उन दिनों रोज़ ही एक न एक गीत या कविता मैं लिखा करती थी।  डोगरी संस्था के हमारे श्री रमनाथ शास्त्री कहते, बेटा तुम्हें परीक्षा भी तो देनी है, कविता बाद में लिख लेना।  लेकिन कविता कोई लिखता थोड़े ही है।  वह तो कोइ हाथ में कलम पकड़वा कर लिखवा जाता है।  कपड़े धोते समय डंडे के ताल पर मैंने एक गीत लिखा था-

निक्कड़े पन्गडू, उच्ची उड़ान
जाईयै थम्मना, कियां शमान
चानणियां गलें कियां लानियां।
[मेरे पंख छोटे हैं, उड़ान बहुत ऊँची है, मैं आसमान को कैसे थाम लूँ ।  चांदनी को कैसे गले लगाऊँ।]

जिस अंधेरी और बरसाती रात में मैंने डोगरी में पहला गीत लिखा था, उस रात यूँ लगा था, जैसे मैं आकाश में उड़ रही हूँ।  और दूसरे दिन की सांझ को डोगरी के एक विशाल कवि सम्मेलन में मैंने वह गीत गाया,  तो उसके तुरंत ही बाद अपने कांपते और ठंडे जिस्म के साथ मैं स्टेज से नीचे आ गई थी और अपनी प्यारी सहेली चन्नी के साथ [जो आजकल डॉ. चंद्र रामपाल है] पानी पीने एक चायवाले की दुकान पर चली गई थी।  दूसरे दिन कालेज में वह गीत उर्दू के एक अखबार में प्रकाशित हुआ पड़ा था।  तब मैं उर्दू पढ़ लिख नहीं सकती थी।  लेकिन एक लड़के ने हिम्मत करके बताया था, इसमें मेरा छोटा सा परिचय और कविता छपी है।  सारा दिन मुझे यूँ लगता रहा, जैसे किसी लड़के से प्रेम करने की मेरी चोरी पकड़ी गई हो, मेरे भाई आशु ने माता जी को पढ़कर सुनाने की चेष्टा भी की थी, लेकिन मैंने वह पर्चा फाड़ दिया था और रोती हुई अन्यत्र यह कह कर चली गई थी कि यह मेरा नाम नहीं है मैंने कुछ नहीं लिखा।  अभी कुछ महीने पहले मेरी कविता की पहली पुस्तक प्रकाशित हुई, तो मैंने खुद माताजी को चिट्ठी लिखी है।  यही अंतर है उन दिनों में और आज के दिनों में।

वे दिन जब भी याद आते हैं, याद आता है मन और आँखों में बसा हुआ मेरा पुरमंडल गाँव।  तीर्थ स्थान होने की वजह से बैसाखी, चैत्र चतुर्दशी, अमावस्या और शिवरात्री को वहाँ हज़ारों की संख्या में लोग आते हैं।  जिस पहाड़ी पर हमारा घर है, वहाँ उन दिनों घूमते-घूमते मैं घंटों बिता देती थी।  एक एक पौधा, एक एक चट्टान मेरे जाने पहचाने थे।  बरसात के दिनों मे पुष्या देविका में आई बाढ़ का पानी देखना बहुत ही सुखद लगता था।  वे दिन बीते एक ज़िंदगी ही बीत गई लगती है, लेकिन एक वेदना, एक कसक लिए वह याद कभी नहीं भूलती।

कानों में उंगलियां डाल कर लंबी तानों में डोगरी गीत गाते डोगरा गबरु जवोनों को जिसने सुना, जिसने मेले में युवतियों की, घूंघट की ओट में से शीशे का गजरा पसंद करती बांकी चितवन देखी, पानी की बावलियों पर ननंद और भाभियों की छेड़खानी में जो सम्मिलित हुआ, जिसकी नींद छाछ बिलोती भाभी की लाल पीली चूड़ियों की झंकार से टूटती थी, और दूर कहीं लद्दाक,ल्हासा, असकर्दू या ऐसे ही बर्फ़िले प्रदेश में सीमा पर तैनात डोगरा वीर की पत्नी का विरह गीत सुन कर, जो कांप-कांप जाता था, वही मेरा सोलहवां साल था।

अपने पिछड़े हुए और बीमार समाज में त्याग, प्यार और बलिदानों से घर-बार संजोती ममतामयी ललनाओं के दुखी जीवन से दुखी होकर मैं रोती रही हूँ।  मैं सोचती हूँ समाज के अत्याचारों का जो नरक हमारी माताओं-बहनों व दादियों-नानियों ने देखा वह नरक क्या हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ भी देखेंगी?  कई बार समाज से विद्रोह करने को मन हुआ है।

आज भी अपनी स्नेहमयी पूज्या सास और पति के प्रेम में मैं  अपनी उन असहाय लाचार बहनों को नहीं भूल पाती हूँ, जैसे बचपन के वे दिन नहीं भुलाए जा सकते॥

[लेख का आयोजन आशारानी व्होरा ने ‘धर्मयुग’ के लिए किया था]

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

एक समिक्षा

हरि कृष्ण ‘परेशान’ है "धुएँ के सफ़र" से


हरि कृष्ण सक्सेना पेशॆ से सरकारी अधिकारी पर शौक से कवि हैं जिन्होंने अपना उपनाम ‘परेशान’ रख लिया है।  इस उपनाम के पीछे की कहानी बताते हुए हरि कृष्ण कहते हैं कि "जब मैं समाज व अध्यात्म जिस ओर निगाह दौड़ाता हूँ, मुझे कुछ न कुछ ऐसा दिखाई देता है जो मुझे परेशान कर देता है। उसी के अनुरूप परेशानियाँ कागज़ पर कविता का रुप लेती चली जाती है।"  आगरा के  समानान्तर प्रकाशन के डॉ. राजेन्द्र मिलन भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहते हैं- "जी हाँ, वे परेशान हैं- आज की परिस्थितो से।  पैसे की हवस ने इंसानियत, भाईचारा, आचरण, मर्यादा, तौर-तरीका-सलीका सभी पर पानी फ़ेर दिया है।"  जीवन की इन परेशानियों को समेटता है हरि कृष्ण ‘परेशान’ का दूसरा काव्य-संग्रह ‘धुएँ का सफर’।

हरि कृष्ण ‘परेशान’ ने इस काव्य-संग्रह में अपनी ५९ कविताएँ संग्रहित की हैं जो विभिन्न विषयों पर कभी कटाक्ष करती हैं, तो कभी हंसाती है और कभी परेशान करती हैं।  इन कविताओं में राजनीति, ज्ञान, घर, संसार, भाषा, शुभ-अशुभ, प्रेम, त्योहार, नारी आदि कई विषयों को समेटा गया है।  आज की राजनीति तो किसी भी संवेदनशील कवि को परेशान करने के लिए काफी है।  नेताओं के कुर्सी-मोह और जोड़-तोड से कोई भी साधारण व्यक्ति द्रवित हो जाता है।

मंथन में जैसे ही
अमृत नज़र आया
प्रत्येक  नेता राहू-केतु
ही नज़र आया।

आज का नेता तो बहरूपिया हो गया है।  अपने अलग-अलग रूप से वह मासूम जनता को बहलाता है।  कवि ने ऐसे नेता का चित्र खींचा है जिसका साक्षात्कार पाठक ने भी कभी किया होगा!

किडनेपर्स, राहज़नी, डकैती,
माफिया, बूथ कैपचरिंग, रंगदारी
पुलिस सलाहकार
नेता बनने की इंडस्ट्रीज़ हैं।
****

मज़दूर किसान होने की बात रटता है
कभी बनियान कभी नीम दातुन में दर्शाता है
यदा-कदा चरवाहे के साथ व्यस्तता में
जानवरों के छप्परों में अपने को दिखलाता है
भले ही करोड़ों का वह चारा खा जाता है। 

जहाँ राजनीति है वहाँ भ्रष्टाचार भला पीछे कहाँ रहता है।  अब तो राजनीति और भ्रष्टाचार का चोली-दामन का साथ हो गया लगता है और इससे अधिकारी भी अछूते नहीं रह गए हैं। कवि ने इस मुद्दे को भी अपनी कविताओं में उकेरा है।

फ़ाइल / थम जाने पर 
धूल चाटने लगती है
अगर / उसपर वज़न रख दिया जाये
तीव्र गति से आगे बढ़ती है।
****

चलो/ हमीं नेता बन जाएं!
हम भी/ अपनी भूख मिटा लें
चारा लोहा/ सिमेंट पुल खा लें
बहती गंगा में हम भी नहा लें।

राजनीति और भ्रष्टाचार का तीसरा कोण अब आतंकवाद बन गया है।  यह आतंक आतंकवादियों तक ही सीमित नहीं है; अब तो गरीब भी इस चक्की में पिसा जा रहा है।

दहशतज़दा शहर/ धमाकों का कहर
विज्ञानिकों पर नज़र/ नेताओं की डगर
गुंडागर्दी का बाज़ार/ जनता का शिकार
अमन-चैन का / कत्ल।
****

तुम्हारी कोप दृष्टि
गरीबों की झोपड़ पट्टी पर ही गिरती है
मेले, तमाशों, बाज़ारों एवं
अबोध बच्चों की पाठशाला पर ही पड़ती है।

हरि कृष्ण ‘परेशान’ ने कुछ ज्ञान की बातें भी अपनी कविताओं के माध्यम से बताई हैं।  वे मानते हैं कि अज्ञान मिटा कर ही सत्य को जाना जा सकता है।

यह सत्य जान चुका हूँ
ज्ञान के बिना
परिश्रम का फल
फलदायी नहीं होता।
****
पहचान
गुणों के आधार पर
सम्मानित करवाती है
अवगुण से
कलंकित कराती है।
****
शुद्ध चित्त वाला ज्ञानी कहलाता है
अहंभाव को जीतने वाला
विवेकी बन जाता है
क्योंकि अहंभाव
मानव को पशु बनाता है।

कवि ने रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों से प्रेरणा लेकर खोज, धुआँ, सागर मंथन, उठा लो सुदर्शन चक्र, अग्नि देवता, संत महिमा जैसी कुछ कविताएँ भी रची हैं।  

एक/ लिफ़्ट वह भी थी
जिसने दोस्ती का इतिहास रचा
राम को लिफ़्ट देकर
केवट/ भवसागर तर गया।
****

कवि ने कुछ हास्य-व्यंग्य की कविताएं भी इस संग्रह में प्रकाशित की है। ऐसी कविताओं के कुछ अंश दृष्टव्य हैं-
मोटे की चमड़ी बुद्धि दोनों मोटी होती हैं

ईश्वर देन के विपरीत होती है
अधिक मोटापा ढोने के लिए
पैर भी असमर्थ होते हैं...
****
बचपन में एक कन्या पर दिल आया
बाद में उसे मैंने अपनी पत्नी बनाया
पत्नी बनते ही वह बदल गई
मुझे वह अपना नौकर समझ गई।
****
आम के साथ गुठलियां
नेता ही पचा सकता है...
क्योंकि वह
गरीब जनता का पेट खाली करवाता है।

जब से कविता छंदमुक्त हो गई है, तब से कवि को अपनी बात करने की खुली छूट मिल गई है।  तभी तो गोरखपुर विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रो. प्रतिमा अस्थाना कहती हैं कि "साहित्य में कविता ही वह माध्यम है जो भाषा, भाव के साथ कभी छंद, मात्रा और लय में होती है और कभी मुक्त छंद में सहज अभिव्यक्ति बन कर निखरती है।  श्री हरि कृष्ण सक्सेना ‘परेशान’ जी का यह काव्य संग्रह अनेक प्रकार से मन को आकर्षित करता है और लगता है कि इसमें हर पाठक के अंतरतम की अनुभूति सरल, निश्छल और सहज रूप से व्यक्त हो रही हो।"  हम भी यही कामना करते हैं।


बुधवार, 13 जुलाई 2011

रस परिवर्तन

काका जनाने डिब्बे में चढ़ गए


जगह मिल सकी मेल में, कष्ट अनेकों झेल
टी टी बोला, निकलिए, ये डिब्बा फ़ीमेल
यह डिब्बा फीमेल, चढ़ गया उसका पारा
हमने कहा "जनाब, इसी का टिकिट हमारा"
कहं काका क्यों मुसाफिरों को व्यर्थ सताते?
लिखा फ़्रंटियर मेल, आप फ़ीमेल बताते।
                             ----काका हाथरसी

[काका हथरसी की यह फुलझड़ी साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ के २० अगस्त १९६७ अंक से साभार]

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

दोस्ती का हाथ


[दिल्ली में  सांसद-अध्यक्षों की बैठक का उपरोक्त चित्र देखकर भारत और पाकिस्तान के दो शायरों की कविताएं याद हो आई जिनमें आम जनता की मानसिकता झलकती है।]

हिंदुस्तानी दोस्तों के नाम

गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलीं
उदास तुम भी हो यारो उदास हम भी हैं
फ़कत तुम्हीं को नहीं रंजे-ज़ाक दामनी
जो सच कहूँ तो दरीदा लिबास हम भी हैं

तुम्हारे बात की शम्में भी ताबनाक नहीं
मेरे फ़लक के सितारे भी ज़र्द-ज़र्द से हैं
तुम्हारे आइना खाने भी ज़ंग आलूदा
मेरे सुराही व सागर भी गर्द-गर्द से हैं

न तुमको अपने खद-व-खाल ही नज़र आएँ
न मैं यह देख सकूँ जाम मे भरा क्या है
बसारतों पे वह जाले पड़े हैं दोनों के
समझ में कुछ नहीं आता कि माजरा क्या है

तुम्हें भी ज़िद है कि रस्मे सितम रहे जारी
हमें भी नाज़ कि ज़ोरो-जफ़ा के आदी हैं
तुम्हें भी ज़ाम महाभारत लड़ी तुमने
हमें भी फ़क्र कि हम करबला के आदी हैं

न सरु में वह गुरूरे कशीदा कामती है
न क़ुमारियों कि उदासी में कुछ कमी आई
न खिल सके किसी जानिब मुहब्बतों के गुलाब
न शाख़े-अमन लिए फ़ाख़्ता कोई आई

सितम तो यह है कि दोनों के मर्गज़ारों में
हवाए फ़ित्ना व बू-ए-फ़साद आती है
आलम तो यह है कि दोनों को वहम है कि बहार
अदू के खूँ में नहाने के बाद आती है

सो अब यह हाल हुआ इस दरिंदगी के सबब
तुम्हारे पाँव सलामत रहे न हाथ मेरे
न जीत जीत तुम्हारी न हार हार मेरी
न कोई साथ तुम्हारे न कोई साथ मेरे

हमारे शहरों की बेनवा मख़लूम
दबी हुई है दुखों के हज़ार ढेरों में
अब इनकी तीरा-नसीबी जराग चाहती है
जो लोग निस्फ़ सदी तक रहे अंधेरों में

चराग जिन से मुहब्बत की रोशनी फैले
चराग जिन से दिलों के दयार रोशन हों
चराग जिन से जिया अमन व आश्ली को मिले
चराज जिन से दिए बेशुमार रोशन हों

तुम्हारे देस में आया हूँ दोस्तो अब के
न साज़ न नग़मा की महफ़िल न शायरी के लिए
अगर तुम्हारी अना कहीं का है सवाल तो फिर
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए
-अहमद फ़राज़

अहमद फ़राज़ के नाम

तुम्हारा हाथ बढ़ा है जो दोस्ती के लिए
मेरे लिए वह इक यारे-ग़मगुसार का हाथ
वह हाथ शाख़े-गुले-गुलशने-तमन्ना है
महक रहा है मेरे हाथ में बहार का हाथ

खुदा करे कि सलामत यह हाथ अपने
अता हुए हैं जो ज़ुल्फ़ें संवारने के लिए
ज़मीं से नक्श मिटाने को ज़ुल्म व नफ़रत के
फ़लक से चाँद-सितारे उतारने के लिए

ज़मीने-पाक हमारे लिए जिगर का टुकड़ा है
हमें अज़ीज़ है देहली व लखनऊ की तरह
तुम्हारे लहजे में मेरी नवा का लहजा है
तुम्हारा दिल है हसीं मेरी आरज़ू की तरह

करें यह अहद कि अवज़ारे-जंग है जितने
उन्हें मिटाना है ख़ाक में मिलाना है
करें यह अहद कि अरबाबे जंग हैं जितने
उन्हें शराफ़त व इन्सानियत सिखाना है

जबीं-ए-तमाम हसीना-ए-खैबर व लाहौर
जबीं-ए-तमाम जवानाने-जन्नते-कश्मीर
हो लब-ए-नग़मा मेहरो-वफ़ा की ताबानी
किताबे-दिल पे फ़कत हर्फ़े-इश्को-तहरीर

तुम आओ गुलशने-लाहौर से चमन-बरदोश
हम आएँ सुबहे-बनारस की रोशनी लेकर
हिमालय की हवाओं की ताज़गी लेकर
फिर इसके बाद यह पूछें कि कौन दुश्मन है
-अली सरदार जाफ़री

[साभार- चित्र ‘स्वतंत्र वार्ता’ के दिनांक १२ जुलाई २०११ से तथा कविताएँ डॉ. आनंद राज वर्मा के लेख- ‘दोस्ती का हाथ’ से जो ‘स्वतंत्र वार्ता’ के दिनांक २६ नवम्बर २००६ से उद्धृत]

शनिवार, 9 जुलाई 2011

एक संस्मरण

संतोख की आपबीती


शाम ढल रही थी।  पेड़ों के पीछे सूरज डूबने को था।  चिड़ियों का कलरव एक सुंदर प्राकृत माहौल बनाए हुए था।  उस पर चाय की चुस्की का मज़ा लेते घर के लॉन में  बैठे हम  मित्र गपशप कर रहे थे।  इतने में हमारा फ़्लाइंग सरदार- संतोख सिंह पहुँच गया।

संतोख को हम फ़्लाइंग सरदार इसलिए कहते हैं कि वह सदा फ़्लाइंग विज़िट पर ही रहता था।  आएगा, पाँच मिनट बैठेगा, सब की खबर लेगा और चल देगा अपनी मोटर बाइक पर।  इसलिए आते ही उसे भी एक कप चाय आफ़र की गई।  चाय की चुस्की लेते हुए वह मुस्कुरा दिया।  हमने इस मुस्कुराहट का राज़ पूछा तो वह बताने लगा-

बात साठ के दशक की है। जब मैं हैदराबाद से दिल्ली पहुँचा तो देखा कि सब गरम कपडों में लिपटे हुए हैं और मैं हूँ कि हाफ़ शर्ट पहने हुए था।  ट्रेन से उतर कर पता चला कि ठंड कहर ढा रही है और मुझे बंद डब्बे में उसका अनुमान भी नहीं लगा।  खैर, अपना बैग लेकर क्लोक रूम में रखा और बदन में गर्माहट लाने के लिए पास की चाय की दुकान पर पहुँचा।  चाय पीकर जेब में हाथ डाला तो सर्द मौसम में भी पसीने छूट गए। पर्स गायब और जेब खाली।  मैंने चायवाले से कहा- भैया, मेरा पर्स किसी ने मार दिया है, तुम यह घड़ी रख लो जो मैं बाद में छुड़ा कर ले जाऊँगा।  

बेचारा दयावान निकला। उसने कहा- अठन्नी की क्या बिसात है बाबूजी, पर्स मिलने पर दे जाना।  परंतु मेरी समस्य तो गाँव पहुँचने की थी और उस समय बस का किराया छः रुपये था।  अब पैसे लाएँ तो कहाँ से लाएँ?  उस चायवाले से कहा कि क्या घड़ी रखकर छः रुपये मिल सकते हैं?  उसने नकार दिया।  स्टेशन के बाहर निकला और एक रिक्शे वाले से पूछा कि क्या उसे कोई ऐसा व्यक्ति मालूम है जो घड़ी रखकर पैसे दे सकेगा।  उसने भी नकार दिया।  अब मैं तो फँस ही गया।  गाँव पहुँच जाऊँ तो रिश्तेदार मदद कर देंगे, पर गाँव पहुँचूंगा कैसे!

मुझे एक तरकीब सूझी।  मैंने रिक्शेवाले से कहा कि क्या यहाँ कोई ब्लड बैंक है।  उसने कहा कि वह ऐसे बैंक को जानता है। [शायद उसने भी कभी पैसे की ज़रूरत पड़ने पर खून दिया होगा।]  

मैंने उससे कहा कि मुझे वहाँ ले चलो।  उसने वहाँ पहुँचाने के चार रुपये मांगे।  मैंने कहा कि चार नहीं पाँच रुपये दूंगा पर वहाँ कुछ देर ठहरना होगा।  वह मान गया।

हम ब्लड बैंक पहुँचे।  मैंने अपना खून दिया और उसके मुझे बारह रुपये मिले।  वैसे भी, मैं तो ब्लड डोनर हूँ ही।  मैं स्टेशन लौट आया और उस रिक्शेवाले को छः रुपये दिए।  उसने इन्कार कर दिया।  उसने कहा कि आपको सच में पैसे की ज़रूरत है तो मैं आपसे पैसे नहीं लूंगा।

मैंने कहा- भाई, मुझे गाँव जाने के लिए छः रुपये की ज़रूरत है।  बचे छः रुपये तुम ले लो क्योंकि तुमने मेरी इतनी मदद की है।

उसने कहा- ठीक है, बाबूजी। बोहनी का समय तो आप एक रुपया दे दीजिए।

मैंने उसे एक रुपया दे दिया और चाय वाले के पैसे अदा करके अपना बैग क्लोक रूम से निकाल कर गाँव की बस में बैठ गया।

फिर, जैसे दूर कहीं खो गया संतोख सिंह बोला- दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं जो मानवीय संवेदना से भरे होते हैं। पर पता नहीं क्यों, ऐसे ही लोग गरीब होते है!!!!!



बुधवार, 6 जुलाई 2011

अमावस की रात - समीक्षा



तांत्रिक विद्या का पतन- ‘अमावस की रात


डॉ. उषा यादव का नाम हिंदी जगत में अपने साहित्यिक योगदान के लिए जाना जाता है।  अब तक उनके तीन कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास, एक कविता संग्रह, पाँच आलोचनात्मक ग्रंथ सहित लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  उनका छठवाँ उपन्यास ‘अमावस की रात’ तांत्रिक विद्या की पृष्ठभूमि में रचा गया है।

उपन्यास का आरम्भ होता है इस दृश्य से- ‘आज अमावस की रात थी। आसमान में घने काले बादल। एक तारा भी नहीं। घुप अंधेरा। इस घुप अंधेरे में एक टूटे-फूटे मकान के सामने घरेलू सामान से लदी एक गाड़ी आकर ठहर गई।’ यह वर्णन पाठक को प्रसिद्ध अंग्रेज़ी उपन्यासकार एड्गर ऐलन पो की याद दिलाता है।  

‘अमावस की रात’ के इस घर में छोटा पंडित उसकी निःसंतान पत्नी, माँ और अपाहिज बाप [बड़ा पंडित] आकर बसते हैं।  बड़ा पंडित खटिया पकड़ चुका है और माँ भी बूढ़ी हो गई है जो चल-फिर नहीं सकती।  पत्नी हर हाल में संतान चाहती है पर छोटे पंडित को मालूम है कि उसके वंश पर बडे पंडित की तांत्रिक विद्या का दुरुपयोग करने के कारण संतान दोष का श्राप है जिससे कुछ वर्ष बाद ही उसका परिवार मुक्त हो सकता है।

पत्नी के लगातार दबाव के कारण छोटा पंडित तंत्र के टोटके करके पडोसी गरिमा के घर में चीज़ें फेकता रहता है ताकि उसकी संतान दुष्परिणाम से बच जाए और पड़ोसी संकट झेले। प्रारम्भ में तो गरिमा यह सोच कर नकार देती है कि ‘मनोवैज्ञानिक दवाव में आ जाने की वजह से ही उसे ऐसा महसूस हो रहा है और अगर खुद को सबल नहीं बनाएगी तो वहम में पड़कर भूत-प्रेत भी देखने लगेगी।’ परंतु पंडित के निरंतर  टोटके चलते रहते हैं।  गरिमा सोचती है- ‘तंत्र मंत्र का मुझे भय नहीं। आर्यसमाजी संस्कार मेरे भीतर जड़ें जमाए है।  टूटा चूल्हा-चक्की फेंककर कोई हमारा अहित नहीं कर सकता।  हाँ, घर के फाटक पर गंदगी जरूर बुरी लगती है।  सिर्फ इसलिए मुझे उस शख्स से शिकायत है।" बात आगे बढ़ती जाती है और यहाँ तक पहुँचती है कि एक दिन मृत गाय उसके गेट के सामने फेंक दी जाती है।  

यह शख्स कौन है जो ऐसे टोने टोटके कर रहा है, यह न तो गरिमा को पता था और न उनके घर वालों को और न अन्य पड़ोसियों को;  जबकि छोटे पण्डित की पत्नी पडोस के बहाने कुछ न कुछ टोटके उनके घर पहुँचाती रहती है।  पत्नी को गर्भवती बनाने के लिए छोटा पण्डित अपने अपाहिज पिता की बली भी तंत्र में झोंक देता है और माँ चुपचाप देखती रह जाती है- बेटे के सहारे जीवन जो काटना है।

इस श्राप के कारण पंडित का बेटा विकलांग पैदा होता है और छोटे पंडित को यह पता है कि उस बच्चे का जीवन कठिन होगा परंतु पत्नी के दबाव में वह तंत्र विद्या का दुरुपयोग करता ही चला जाता है ताकि बच्चे की सारी विपदाएं पडोसी को लगे और बच्चा सुरक्षित रहे।  वह पडोस की गरिमा की गर्भवती पुत्री की कोख पर भी वार करने की सोचता है।  

इस प्रकार के कई उतार-चढ़ाव से गुज़रते हुए अंततः गरिमा इस निश्चय पर पहुँचती है कि तंत्र-मंत्र के कारण उसपर एक के बाद एक विपदाएँ आ रही है यद्यपि वह तर्क बुद्धिवादी है।  वह अपने गुरुजी के पास सारी व्यथा सुनाती है तो गुरुजी उसे कुछ उपाय सुझाते हैं जो सारे घर के इर्दगिर्द एक अदृश्य जाल की तरह सुरक्षा चक्र बना देगा।  अब पंडित के सारे टोटके विफल होने लगते हैं तो वह अंतिम हथियार के रूप में ‘रक्त कमल’ जैसा घातक तंत्र प्रयोग करने का निश्चय करता है जिसके असफल होने से वह रक्त कमल लौट कर उसे ही मार सकता था।  अंत में गरिमा के सुरक्षा चक्र को न तोड़ पाने के कारण रक्त कमल लौट आता है।  उसे किसी का रक्त तो चाहिए ही।  बुढिया माँ अपने बेटे छोटे पंडित को बचाने के लिए उस रक्त कमल को उसके पुत्र की ओर मोड़ देती है और इस प्रकार छोटे पंडित के अभिशप्त पुत्र की मृत्यु हो जाती है।  

सारा उपन्यास तंत्र-मंत्र और तर्क बुद्धिवाद के युद्ध के इर्दगिर्द घूमता रहता है।  तर्क बुद्धिवाद वाली गरिमा को भी अंत में तंत्र के सुरक्षा चक्र का सहारा लेना पड़ता है, जिससे निष्कर्ष यही निकलता है कि तंत्र-मंत्र में लोगों की आस्था है और उसका असर भी होता है।  भले ही लोग उदार विचारधारा और आधुनिक तर्कबुद्धिजीवी भले ही हों, पर लगातार चोट लगने से उनकी मानसिकता भी हिल जाती है।  डॉ. उषा यादव ने शायद यही संदेश इस उपन्यास के माध्यम से देना चाहा है कि तांत्रिक विद्या एक सच है और इसके उपयोग ऐसी दोधारी तलवार है जिसके अच्छे या बुरे परिणाम उस विद्या के प्रयोग पर निर्भर करते है।  उद्देश्य चाहे जो भी हो, उपन्यासकार का एक उद्देश्य तो सफल माना जाएगा और वह है कि उपन्यास पाठक को बांधे रखता है।

पुस्तक विवरण

पुस्तक का नाम : अमावस की रात
लेखिका : उषा यादव
मूल्य: ३०० रुपये
प्रकाशक: किताब घर
२४/४८५५, अंसारी रोड़
नई दिल्ली - ११० ००२




सोमवार, 4 जुलाई 2011

मणिपुर हिंदी परिषद-३

मणिपुर में हिंदी का इतिहास-३
प्रो. देवराज


[पिछली पोस्ट की टिप्पणी में आदरणीय डॉ अमर कुमार जी ने कहा है कि मैं ‘अपने विचार रखूं कि इस बयान के पीछे निहित सोच का पता चले’।  प्रो. देवराज जी की इस पुस्तक की भूमिका पढ़कर मुझे लगा कि इसमें मणिपुर में हो रहे हिंदी के विकास का संपूर्ण इतिहास दिखाई देता है।  हाल ही में यह बवाल मचाया गया था कि हिंदी का लेखन तो उत्तर में ही होता है।  वैसे, लोगों की सोच यह भी रही है कि लेखन तो मात्र दिल्ली में ही होता है और बाकी सब कूड़ा है!!  ऐसे लोग शायद हिंदी के इतिहास की जानकारी कम ही रखते हैं; या फिर, उससे विमुख हैं।  इस लेख से उन जैसे तथाकथित साहित्यकारों को पता चलेगा कि देश के कोने-कोने में लोग अपने-अपने तरीके से, अपनी-अपनी क्षमतानुसार अपना तन-मन-धन लगा कर भी राष्ट्रभाषा हिंदी की सेवा करते आ रहे हैं- तब से,  जब राष्ट्रभाषा शब्द  बोलना  भी वर्जित था।  इस लेख से पता चलता है कि किन विपरीत परिस्थितियों में हिंदीतर कहे जानेवाले प्रांतों में लोग  अपने प्राण की बाज़ी लगा कर भी देश और भाषा की सेवा के लिए कृतसंकल्प रहे।  उस छोटी सी शुरुआत ने अब विशाल तरु का रूप धारण कर लिया है।]

मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल


हिंदी की व्यवस्थित शिक्षा देने के लिए १९३३ में इम्फाल के व्यापारी-समाज के विशेष प्रयास से सेठ भैरोदान मोहता [बिकानेरवासी] के नाम पर ‘भैरोदान हिंदी स्कूल’ की स्थापना हुई।  इसकी मुहूर्त पूजा पं. राधामोहन शर्मा ने की और समाज के आग्रह पर वे इसी विद्यालय में हिंदी का अध्यपन भी करने लगे।  मणिपुर में हिंदी शिक्षण की समस्त सुविधाओं से युक्त यह पहला विद्यालय था, जिसमें अध्यापकों को नियमित वेतन भुगतान पर नियुक्त किया गया।  श्री टी. बिशेश्वर शास्त्री के प्रयास से १९५१ में इसका सरकारीकरण हुआ।

संस्थागत हिंदी-प्रचार आंदोलन की दृष्टी से मणिपुर में हिंदी-प्रचार का कार्य १९२७-२८ में ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ द्वारा प्रारम्भ हुआ।  पहले से ही मणिपुर के जो कार्यकर्ता राष्ट्रीय चेतना से युक्त हो चुके थे, उन्होंने सम्मेलन के कार्य को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।  अंगरेज़ सरकार के अनेक विरोधों के बावजूद सम्मेलन ने इस क्षेत्र में परीक्षा केंद्र चलाया तथा हिंदी के प्रचार का कार्य किया।  ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा’ के अंतर्गत मणिपुर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की स्थापना १९३९-४० में हुई।  यह उल्लेखनीय तथ्य है कि प्रारम्भ में अंगरेज़ सरकार ने ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द पर आपत्ति करते हुए इस नाम से कार्य करने की मनाही कर दी थी।  इस पर, मूल उद्देश्य को मह्त्व प्रदान करते हुए हिंदी प्रचारकों ने इसका नाम ‘मणिपुर हिंदी प्रचार समिति’ रखकर कार्य करना शुरू किया और जैसे ही अनुकूल अवसर मिला, पुनः ‘मणिपुर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ नाम रख लिया।  इस संस्था द्वारा ५१ राष्ट्रभाषा विद्यालय, १३ राष्ट्रभाषा महाविद्यालय तथा ५० से अधिक परीक्षा केंद्र प्रारम्भ किए गए।  १९५९ में इम्फाल जेल में भी एक परीक्षा केंद्र शुरू किया गया, जिससे बंदी लोग हिंदी सीख कर परीक्षा दे सकें।

‘मणिपुर हिंदी प्रचार सभा’, ‘नागरी लिपि प्रचार सभा’, ‘नागा हिंदी विद्यापीठ’, ‘मणिपुर ट्राइबल्स हिंदी सेवा समिति’ आदि अन्य संस्थाएँ हैं, जिन्होंने इस राज्य में हिंदी-आदोलन की जड़ें मज़बूत करने का कार्य किया।  ‘अखिल मणिपुर हिंदी शिक्षक संघ’ और ‘मणिपुरी हिंदी शिक्षा संघ’ आदि भी हिंदी का वातावरण तैयार करने का प्रयास करते हैं। केंद्रीय हिंदी शिक्षण योजना [गृह मंत्रालय के नियंत्रण में संचालित कर्मचारी हिंदी शिक्षण योजना], हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान, हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण महाविद्यालय, आकाशवाणी की हिंदी शिक्षण एवं हिंदी कार्यक्रम योजना आदि को भी यदि सम्मिलित किया जाए, तो इस राज्य में हिंदी की अच्छी तस्वीर उभरती है।  मणिपुर विश्वविद्यालय में एक समृद्ध हिंदी-विभाग कार्य कर रहा है।  यह १९७९ में तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू विश्विविद्यालय विस्तार केंद्र के नियंत्रण में प्रारम्भ हुआ था।  इसमें स्नातक कक्षाओं के अध्यापन के साथ ही उच्च स्तरीय शोध कार्य भी किया-कराया जाता है।

मणिपुर राज्य में हिंदी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता है।  ‘युमशकैश’ और ‘महिप पत्रिका’ यहाँ से प्रकाशित होनेवाली नियमित - मासिक एवं त्रैमासिक - पत्रिकाएँ हैं।  इसके साथ ही ‘कुन्दोपरेङ्‌’ नामक पत्रिका अनियतकालीन रूप में प्रकाशित होती हैं।  स्कूल-कालेज से लेकर विश्वविद्यालय की वार्षिक पत्रिकाओं में भी सम्बंधी सामग्री का स्वतंत्र विभाग होता है।  ये प्रयास हिंदी-प्रचार के इतिहास में उल्लेखनीय मह्त्व रखते हैं।

मणिपुर राज्य में राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार प्रसार में जुटी ‘मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल’ अन्य सभी संस्थाओं से विशिष्ट है।  कारण यह, कि इस संस्था ने हिंदी भाषा के प्रचार अथवा परीक्षा संचालन तक ही अपना कार्यक्षेत्र सीमित न रख कर हिंदी एवं मणिपुरी भाषाओं के भाषायी एवं साहित्यिक विकास का स्मरणीय प्रयास किया है।  

[साभार- ‘संकल्प और साधना’ पुस्तक में प्रो. देवराज द्वारी लिखी गई भूमिका]

पुस्तक विवरण

पुस्तक का नाम :  संकल्प और साधना
[‘मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल’ और उसके प्रमुख आधार स्तंभों का मूल्यांकन]
लेखक : देवराज
मूल्य : ८० रुपए
प्रकाशक : पत्रिका विभाग, 
मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल
विधानसभा मार्ग, इम्फाल - ७९५ ००१ [मणिपुर]


शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

मणिपुर हिंदी परिषद-२


मणिपुर हिंदी का इतिहास-२ 
प्रो. देवराज

आधुनिक-काल में भारतीय पुनर्जागरण का परिणाम सामाजिक और राष्ट्रीय-जागरण के रूप में सामते आया।  महर्षी दयानन्द, महर्षी अरविन्द, राजा राममोहन राय आदि ने सम्पूर्ण भारतीय जीवन को झकझोर दिया।  यह अनुभव किया जाने लगा कि रूढ़ सामाजिक-मूल्यों के अस्वीकार के बिना भारतीय समाज को नहीं बचाया जा सकता।  इसी प्रकार राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित किया गया।  ‘भारतीय जनता के समस्त दुखों का मूल दासता है’ इस सोच ने आधुनिक भारत के निर्माण में क्रांतिकारी सहयोग दिया।  हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में खोजनेवाला भी यही नारा था।  अंगरेज़ों से इस देश को मुक्त कराने के लिए, भारत की सम्पूर्ण जनता को जगा कर यह बताना आवश्यक था कि अंगरेज़ इस देश के लिए अभिशाप हैं और जितनी जल्दी हो सके, उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होकर खड़े होना अनिवार्य है।  इस महान कार्य के लिए भाषाओं की खोज के क्रम में हिंदी का नाम सामने आया।  हिंदी ही समस्त भाषाओं में ऐसी थी, जो अधिकांश भारतीय जनता द्वारा बोली और समझी जाती थी।  फिर भाषा वैज्ञानिक कारणों से इसे आसानी से सीखा जा सकता था।  इसने व्यापार की भाषा के रूप में विशाल क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली थी।  साथ ही धर्म, इतिहास और संस्कृति के व्यापक भारतीय मानकों को इस भाषा ने बहुत पहले से इस देश के व्यापक क्षेत्र तक पहुँचाना शुरू कर दिया था।  इन सब कारणों से एक मत से हिंदी को सामान्य सम्पर्क की भाषा के रूप में मान्यता मिली।  आगे चलकर हिंदी को स्वतंत्रता-संघर्ष की मुख्य भाषा बनने का अवसर मिला तथा जनता यह समझने लगी कि भारत के स्वतंत्र होते ही हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया जाएगा।  इसके साथ ही महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने जो आशाएँ जगाईं, उनसे लगने लगा कि हिंदी स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी, जो अंतर्राष्ट्रीय जीवन में भारत को प्रतिष्ठा दिलाएगी, जिसके माध्यम से लोगों को अभिव्यक्ति-क्षमता के साथ-साथ रोज़गार भी मिलेंगे और जो समग्र भारत को एकता के सूत्र में बांधेगी।  जनता की इस आशा ने हिंदी-भाषी और हिंदीतर भाषी- दोनों प्रकार के प्रांतों में हिंदी के प्रचार को बल दिया।  ज्यों-ज्यों स्वतंत्रता निकट आती गई, वह प्रचार-बल बढ़ता गया।  हिंदी के प्रचार के लिए विभिन्न संस्थाएँ सामने आईं।  उन्होंने हिंदीतर-भाषी क्षेत्रों में हिंदी के प्रचार-प्रसार का कार्य हाथ में ले लिया।  उधर हिंदीतर भाषी क्षेत्रों के जो लोग शिक्षा आदि के लिए हिंदी भाषी क्षेत्रों में जाते थे वे अपने साथ राष्ट्रीय जागरण व हिंदी-प्रेम लेकर अपने-अपने क्षेत्रों में लौटे तथा हिंदी प्रचार कार्य के समर्पित कार्यकर्ता बने।  मणिपुर भी इस लहर से अछूता नहीं रहा।  परिणामस्वरूप इस राज्य में हिंदी-प्रचार आंदोलन का बीज अंकुरित हुआ।

श्री ललितामाधव शर्मा, श्री बंकबिहारी शर्मा, श्री थोकचोम मधु सिंह, पं. राधामोहन शर्मा एवं श्री कुंजबिहारी सिंह कैशाम को मणिपुर क्षेत्र के हिंदी प्रचार का आदि-स्तम्भ माना जाना चाहिए।  इन महानुभावों ने स्वतंत्रता, राष्ट्रीय एकता, सामान्य संपर्क की संभावना, आखिल भारतीय स्तर पर समस्त भारतीय नागरिकों के एक समान सोच, विश्वमंच पर भारत की प्रतिष्ठा की आकांक्षा आदि से प्रेरणा ग्रहण करके मणिपुर के इम्फाल नगर को मुख्यालय बनाया और सारे राज्य में हिंदी-प्रचार का कार्य किया।  उस काल में इस क्षेत्र में हिंदी और भारतीय संस्कृति का प्रचार देश-द्रोह माना जाता था।  अंगरेज़ सरकार जानती थी कि यदि हिंदी भाषा को फलने-फूलने दिया तो भारत की जनता अपने प्राचीन गौरव के बोध से भर उठेगी, जो उसके भविष्य के लिए अभिशाप सिद्ध होगा।  अंगरेज़ यह भी जानते थे कि हिंदी और भारतीय संस्कृति का चोली-दामन का साथ है।  हिंदी, मात्र भाषा की शिक्षा का माध्यम नहीं है, वरन उसमें राष्ट्रीय और सामाजिक-संस्कार तथा चारित्रिक-शिक्षा के साथ-साथ स्वाधीनता का ज्ञान कराया जाता है।  इससे भाषा और देश-भक्ति, दोनों का बोध साथ-साथ प्राप्त होता है।  यह बात ईसाइयत और अंगरेज़ी के प्रचार में प्रत्यक्ष बाधा थी।  अतः अंगरेज़ सरकार ने भाषा और धर्म के प्रचार को देशद्रोह करार दिया।  प्रचार के लिए बाहर से आनेवालों को हतोत्साहित किया और जो स्थानीय लोग प्रचार-कार्य करना चाहते थे, उन्हें तरह-तरह से डरा-धमका कर इस देश-सेवा से रोकने का प्रयास किया।  श्री बंकबिहारी जी ने निकट संबन्धी श्री भगवतादेव शर्मा [जो उन्हीं की प्रेरणा से हिंदी प्रचार में लग गए थे] ने जब राष्ट्रभाषा प्रचार का कार्य शुरु किया तब मणिपुर के तत्कालीन पोलिटिकल एजेन्ट ने उन्हें बुलाकर कहा कि ‘हिंदुस्तान कोई राष्ट्र नहीं है, फिर तुम लोग क्यों राष्ट्रभाषा, राष्ट्रभाषा चिल्लाते हो।  यहाँ की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, न तुम किसी राष्ट्रभाषा का प्रचार कर सकते हो।’  इतना ही नहीं उसने इस कार्य के लिए ‘सैडिसस’ शब्द का प्रयोग किया।  इससे उस समय की कठिनाइयों का कुछ अंदाज़ लगाया जा सकता है।

किंतु, इन लोगों ने अंगरेज़ सरकार द्वारा पैदा की गई कठिनाइयों को चुनौती के रूप में स्वीकार किया।  पहले घर पर ही बच्चों को हिंदी पढ़ाना शुरू किया फिर घर-घर जाकर लोगों को हिंदी और स्वतंत्रता के मह्त्व को समझाना।  इस प्रकार बहुत धैर्य के साथ हिंदी के प्रति सामान्य लोगों का रुझान पैदा किया और हिंदी के पठन-पाठन के लिए विद्यालय खोला।  इस प्रकार मणिपुर में हिंदी प्रचार के आधुनिक इतिहास की आधारशिला रखी गई।

हिंदी प्रचार के इस प्रारम्भीक-काल में तीन नाम अत्यंत महत्वपूर्ण हैं-- श्री भागवतदेव शर्मा, श्री अरिबम पं. राधामोहन शर्मा और श्री द्विजमणिदेव शर्मा।  इनमें से पं. राधामोहन शर्मा को थोकचोम मधु सिंह के साथ मिल कर हिंदी प्रचार के प्रारम्भिक काल में अनेक संकटों का सामना करते हुए हिंदी-विद्यालय शुरू करने और हिंदी का अध्ययन करने का गौरव प्राप्त है।  श्री द्विजमणिदेव शर्मा ने मणिपुर के राजा के शिक्षा-सलाहकार के रूप में हिंदी कि सेवा की।  इन्हीं के प्रयास से कुछ वर्षों बाद पहली बार हिंदी के कार्य के लिए राजकीय सहायता मिली।

मणिपुर का सबसे पहला विद्यालय थोकचोम मधु सिंह के घर में प्रारम्भ किया गया।  श्री थो. मधुसिंह केवल इकतीस वर्ष जीवित रहे, किंतु इस अल्प-अवधि में ही उन्होंने अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक कार्यों से मणिपुरी समाज को नई दिशा देने का भरपूर प्रयास किया।  उस समय हिंदी की दबी-छुपी प्रतियोगिता बंगला भाषा के साथ भी थी।  अंगरेज़ों के साथ काम करनेवाले बंगला भाषी अधिकारी चाहते थे कि यदि अंगरेज़ी हटानी है तो उसके स्थान पर बंगला का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।    थो. मधु सिंह ने इस समस्या से निबटने का एक तरीका निकाला।  उन्होंने वैचारिक आदान-प्रदान के लिए इम्फाल में ‘डिबेटिंग-क्लब’ की स्थापना की।  उस क्लब में कई बार ‘हिंदी की आवश्यकता’ विषय पर वाद-विवाद का आयोजन किया और हिंदी का पक्ष स्वयं प्रस्तुत किया।  अपने ज़ोरदार तर्कों के बल पर वे यह सिद्ध करने में सफल रहे कि मणिपुर की जनता के लिए हिंदी पढ़ना-पढ़ाना सबसे उपयोगी और आवश्यक है।  इस प्रकार वाद-विवाद से जो विचार बने, उन्हें मूर्त रूप देने के लिए थो. मधु सिंह ने अपने संबंधी श्री कुंजबिहारी सिंह कैशाम और पं. राधामोहन शर्मा के सहयोग से अपने ही घर पर ‘हिंदी विद्यालय’ की स्थापना की।  ये तीनों सज्जन इस विद्यालय में निःशुल्क पढ़ाते थे।  स्मरणीय है कि उस काल में श्री बंकबिहारी शर्मा भी अपने कांङपोकपी निवासी मित्र पं. जनार्दन शर्मा के सहयोग से घर पर ही मंदिर के सामने के बैठके में लोगों को हिंदी पढ़ाना शुरू कर चुके थे।

कुछ समय बाद श्री कुंजबिहारी सिंह कैशाम ने मोइराङखोम और तेरा कैथेल में हिंदी स्कूल प्रारम्भ किए।  उन्होंने आगे चल कर ‘राष्ट्रलिपि स्कूल’ की स्थापना भी की, जो अब मणिपुर सरकार के नियंत्रण में चल रहा है।


क्र्मशः -अगली किश्त अंतिम