बुधवार, 8 जून 2011

पुरस्कार-पिपासा


हिदी के पंडों की पुरस्कार-पिपासा

सुबह-सवेरे फोन की घंटी घनघना उठी।  नित्यकर्म से निवृत होकर  अभी अखबार लिए बैठा था कि फोन बजने की आवाज़ सुनकर श्रीमती जी ने किचन से आवाज़ लगाई- ‘ज़रा देखना, किसका फोन है, मैं चाय बना रही हूँ।’  मरता क्या न करता- चाय तो हमें पीनी ही थी, सो अखबार टेबल पर पटक कर फोन तक गए ही थे कि घंटी रुक गई।  पुनः टेबल की ओर लौट ही रहे थे कि फिर घंटी घनघना उठी। कुढकुढाते हुए फोन उठाया तो उधर से पिपासु जी की मृदु आवाज़ सुनाई दी- नमस्ते जी।  

‘अरे पिपासु जी, नमस्कार। कहिए सुबह-सुबह कैसे याद किया।’
‘हम तो सदा ही आप को याद करते रहते हैं सर।  आखिर आप ही के सहारे हमारी कलम चल रही है।’

‘अरे नहीं साहब, हम क्या और हमारी औकात क्या।’ हमने अपनी सदाशयता दिखाते हुए कहा।

पिपासु जी अपने असली उद्देश्य पर उतर आए।  उन्होंने बताया कि एक स्थानीय संस्था वार्षिक पुरस्कार देने की घोषणा कर चुकी है और वे चाहते थे कि इस वर्ष के पुरस्कार के लिए मैं उनका नाम सुझाऊँ।  पिपासु जी का मुझे याद करने का असली उद्देश्य अब मेरी समझ में आया।  

अस्सी वसंत पार कर चुके पिपासु जी के पुरस्कार-पिपासा पर मुझे तरस आता है। जब कभी कहीं भी पुरस्कार की घोषणा होती है तो पिपासु जी का फोन आ ही जाता है और वे चाहते हैं कि हर पुरस्कार उन्हें ही मिले।  एक बार मैंने उन्हें सलाह दी थी कि इस आयु में उन्हें पुरस्कारों का मोह छोड़ना चाहिए तो सकुचाते हुए उन्होंने कहा था- अब यही चाह तो उन्हें जिंदा रखे हुए है और लिखने को मजबूर करती है।

ऐसा नहीं है कि पिपासु जी केवल पुरस्कार के समय ही मुझे याद करते हैं।  अपनी पुस्तक प्रकाशित करते ही वे सूचना देंगे कि उनकी कृति प्रकाशित हो गई है और इसकी एक प्रति वे मुझे भेज रहे है।  पुस्तक भेजने के एक सप्ताह बाद फिर फोन आएगा और पुस्तक मिलने की सूचना लेंगे।  फिर गिड़गिड़ाएंगे कि इसकी समीक्षा फ़लां-फ़लां पत्र-पत्रिकाओं को भेज दीजिए।  एक सप्ताह बीता ही नहीं कि फिर फोन आएगा यह जानने के लिए कि समीक्षा भेजी या नहीं।  समीक्षा छप जाएगी पर धन्यवाद के लिए पिपासु जी फोन करना भूल जाएँगे।

ऐसा नहीं है कि पिपासु जी ही एक ऐसे चरित्र हैं।  ऐसे कई पिपासुओं से आपका भी पाला पड़ा होगा, जो अपनी आयु का लिहाज़ भी नहीं करते और बड़े बेझिझक होकर अपनी पुरस्कार-पिपासा का इज़हार कर देंगे।  वे यह भी नहीं सोंचेंगे कि जिसके सामने वे गिड़गिड़ा रहे हैं वह तो उनके पुत्र की आयु का है।

पुरस्कार-पिपासु किसिम-किसिम के होते हैं।  कुछ पिपासु पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ के फ़न में भी माहर होते हैं।  वे किसी  भी कीमत पर पुरस्कार चाहते हैं भले ही इसके लिए उन्हें कुछ ‘खर्च’ भी करना पड़े।  इन पिपासुओं में लिंग-भेद नहीं होता।  अर्थात, वे पुरुष या महिला- कोई भी हो सकते हैं।  ऐसे पिपासु ‘बैक डोर मेथेड’ का प्रयोग करते हैं।  वे पुरस्कार देनेवाली संस्था से समझौता कर लेते हैं कि पुरस्कृत राशि संस्था को पुनः लौटा दी जाएगी।  संस्था भी ऐसे पिपासुओं का स्वागत करती है क्योंकि ऐसी संस्थाएं इसी जोड़-तोड़ के लिए तो बनती है।

संस्थाओं की बात चली तो याद आया, कुछ ऐसी संस्थाएँ भी होती हैं जो केवल पुरस्कार देने के लिए ही बनाई जाती हैं।  ऐसी संस्थाएँ पुरस्कार-ग्रहिताओं के पैसों से ही चलती है।  ये संस्थाएँ एक साथ कई पिपासुओं के नाम की घोषणा करती है और उनसे पैसे लेकर पुरस्कार का आयोजन करती है।  ऐसी संस्थाओं को लोग भले ही भली-भांति जानते हों पर जब पुरस्कार के रूप में काष्ट का एक टुकड़ा मिलता है तो उसे दिखाते हुए समाचार पत्र में अपनी फोटो डाल कर पिपासु जी पुरस्कृत होने की घोषणा भी करते हैं।  

पता नहीं पुरस्कार की लोकेषणा इन बूढे पिपासुओं में कब जाएगी।  जाएगी भी या नहीं? इस प्रश्न पर एक छोटी सी कथा याद आई।  एक बुढ़ऊ रोज़ लड़कियों के कालेज के पास रिक्शे में बैठ कर दो सुंदर लड़कियों को रिक्शे में जाते हुए देखता और उनके मुहल्ले तक पीछा करके लौट जाता।  कई दिन इस प्रक्रिया को देखती लड़कियों ने एक दिन अपने रिक्शे वाले से चमन की ओर ले जाने को कहा।  चमन में एकांत स्थान पर बैठ कर बुढ़ऊ को इशारा करके बुलाया।  बुढ़ऊ खुशी-खुशी पास पहुँचा।  लड़कियों ने कहा कि वे उसकी तपस्या से प्रसन्न हैं और वह जो चाहे उनके साथ कर सकता है।  बुढ़ऊ ने दोनों लड़कियों के हाथ लिए और आँखों से लगाते हुए कहा- आँखों की प्यास नहीं बुझी थी।

तो क्या इन बुढ़ऊ पिपासुओं की पुरस्कार-प्यास कभी बुझेगी?   

20 टिप्‍पणियां:

डॉ टी एस दराल ने कहा…

पुरुस्कारों पर अन्दर की बात कह दी प्रसाद जी ।

परन्तु क्या करें --ये चलायमान मन है कि मानता ही नहीं । जो नहीं मिलता उसके पीछे दौड़ता है । मिल जाए तो और पाने की चाह भड़क उठती है ।

हालाँकि उस उम्र में ध्यान ईश्वर में लगाना चाहिए ।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

पिपासुओं की कलई खोल कर दी आपने।
जाने की वेला में जितने भी पुरस्कार लपेट लिए जाएंग उतने ही ठीक, क्या पता आगे व्यवस्था न हो।

बहुत की करारा व्यंग्य्।

आभार

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

यह पिपासा घातक है स्वास्थ्य के लिये।

ZEAL ने कहा…

अक्सर ऐसे पिपासुओं से मुलाकात हो जाती है। बहुत सत्य लिखा आपने की वे नियम से फोन करते हैं । request करते हैं , अपडेट लेते हैं , फिर थैंक्स कहना भूल जाते हैं। ऐसे लोग बुढापे में तो क्या , कब्र से भी बाहर आकर पुस्तक की समीक्षा के लिए जिद कर सकते हैं।

SANDEEP PANWAR ने कहा…

प्रसाद जी, मैं भी हमेशा आप को याद करता हूँ।

और उस बुढऊ की प्यास भी बुझ गयी।

लालच बुरी बला कहते है,सब, मानने की बारी आती है तो भूल जाते है।

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

जनाब आपने इतना अच्छा लेख लिखा है कि तारीफ़ के लिए सोचना पड़ रहा है कि लिखें तो क्या लिखें ?
जी बहलाने के तरीक़े हैं ये सब। कोई पुरस्कार लेने का पिपासु है और कोई देने के लिए घोषणा करता फिर रहा है कि अमुक तारीख़ तक अपने लेख ज़रूर भेज दीजिए। अंधे और लंगड़े वाली कहानी हमें भी याद आ ही गई। दोनों मिलकर अपना काम निकालते रहते हैं।
अस्ल बात यह है कि पुरस्कार की इच्छा इंसान के मन में मालिक ने ही रखी है। एक समय आना है जब इंसान अपने प्रभु से मिलेगा और अपने कर्मों के फल के रूप में पुरस्कार पाएगा। यही होगा वास्तव में पुरस्कार जो कि शाश्वत होगा। हम ख़ुद को दंड पाने वाले कर्मों से बचाएं तो हम इस पुरस्कार को पा सकते हैं।
अगर आपको इस्लाम का नाम लेने पर आपत्ति न हो तो मैं यह कहना चाहूंगा कि इस्लाम इस पुरस्कार को पाने की प्रेरणा देता है। क़ुरआन की पहली सूरा में ही बंदे को सिखाया गया है कि वह अपने मन की स्वाभाविक इच्छा को अपनी प्रार्थना में कैसे व्यक्त करे ?
बच्चे जब तक बड़े नहीं हो जाते और वे अपने बच्चों के विवाह नहीं कर लेते तब तक वे गुड्डे-गुड़ियों के नक़ली विवाह रचाते हैं। हर छोटी चीज़ बड़ी की और हरेक नक़ली चीज़ असली की याद दिलाती है। यह पुरस्कार तृष्णा भी मानव की स्वाभाविक इच्छा है। जो हक़ीक़त जानते हैं वे अस्ल पुरस्कार पाने की कोशिश में हैं और जिन्हें इसका बोध अभी तक भी नहीं है वे छोटे और नक़ली पुरस्कार पाने के लिए जुगाड़ कर रहे हैं।
मालिक आपको अस्ली और शाश्वत पुरस्कार पाने की योग्यता, समझ और हौसला दे और मुझे भी।
आमीन !
हम तेरी बन्दगी करते हैं और तुझी से मदद माँगते हैं(5) हमें सीधे मार्ग पर चला (6) उन लोगों के मार्ग पर जो तेरे कृपापात्र हुए, जो न प्रकोप के भागी हुए और न पथभ्रष्ट (7)

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

पोस्ट तो दमदार है ही, अनवर जमाल जी की टिप्पणी भी दमदार है।




लगे हाथ उन्होने टिप्पणी पिपासा ठेल दी है! :)

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बहुत सटीक बात कही आपने.... ज़बरदस्त व्यंगात्मक आलेख

डा० अमर कुमार ने कहा…

.
पुरस्कार पिपासा बदनाम है ही,
लोग इसे मैनेज़ करते देखे गये हैं ।
टिप्पणी पिपासा भी कुछ कम नहीं है ।
यहाँ भी लोग इसे मैनेज़ करते देखे गये हैं ।

Kavita Vachaknavee ने कहा…

अरे साहब ऐसे ऐसे वाकया हैं कि कई लोगों के नाम से तो एकदम तौबा कर ली, एक जनाब कब्र में पैर लटकाए बैठे हैं और जीवन में इतना अपने ऊपर लिखवा चुके हैं, कह कह कर लोगों से, कि क्या तो कहने | परन्तु अभी तक उनकी मैं मैं मैं, मुझे मुझे मुझे और मेरा मेरा मेरा नहीं निपटी | आपने क्या क्या स्मरण करवा दिया | मंच के पीछे अपनी धनराशि देकर मंच पर उसी से अपने आप को पुरस्कृत करवाने वाले हिन्दी लेखकों की सूची भी बड़ी लम्बी है और संस्थाओं के तो वारे न्यारे हैं| पूरा माफिया सक्रिय है इसमें |

लाभ लेने वालों से भरी हुई जमात के रहवासी हैं हम |

Smart Indian ने कहा…

लेख तो लेख, टिप्पणियाँ भी गज़ब की।

Arvind Mishra ने कहा…

पुरस्कार पिपासु -बढियां खबर ली है आपने
एक पैर कब्र में लटकाए ,वैशाखियों के सहारे मंच पर भी चढ़ जाते हैं ये पुरस्कार पिपासु !

रवि रतलामी ने कहा…

कविता जी का कहना - "मंच के पीछे अपनी धनराशि देकर मंच पर उसी से अपने आप को पुरस्कृत करवाने वाले हिन्दी लेखकों की सूची भी बड़ी लम्बी है और संस्थाओं के तो वारे न्यारे हैं" तो क्या ये संस्थाएँ गोपनीय हैं? कुछ नाम-पते हमें भी पता चले तो दर्जन भर पुरस्कार हम भी कबाड़ें! :)

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

Aise pipasuon par apne satik vyangya kiya...

Amrita Tanmay ने कहा…

ये फर्क करना बड़ा मुश्किल हो गया है कि पुरस्कार योग्य को मिलता है या जो योग्य होते हैं वो ले लेते हैं ..बढ़िया पोस्ट ..

Suman ने कहा…

कुछ दिनोंसे बहुत सारे मित्रोंके पोस्ट पढ़ना
नहीं हो रहा है ! आपकी भी इतनी अच्छी पोस्ट
मिस हो जाती ! जो की मै नहीं करना चाहती !
इन पुरस्कार पिपासुपन पर अच्छा व्यंग किया है !
बहुत बढ़िया :)

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

नमस्कार सर.
व्यंग्य बहुत अच्छा लगा. आपकी कलम ने पिपासुओं की प्यास को बढ़ाने और उन्हें मिटाने का नाटक करने वाली संस्थाओं की खोल-पोल करा डाली.

नाम सभी चाहते हैं. बिना कोई काम किए. आसानी से फल मिला जाए तो अच्छा और मीठा है वरना अंगूर खट्टे हो जाते है.

बलविंदर ने कहा…

नमस्कार सर जी ! बहुत ही सुन्दर व्यंग्य लिखने के लिए बधाई।
हाँ, भई पहले-पहल किसी को सम्मानित और प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कार दिए जाते थे, परन्तु आज हर कोई एरा-गैरा पुरस्कार पाना चाहता है और पा भी लेता है। असल में आज के समाज की सोच ने ही व्यक्ति में पुरस्कार पाने की कामना को और अधिक बढ़ाया है। और सच तो यह है कि जिसे एक बार इसका चस्का लग जाता है फिर वह इसे पाते ही रहना चाहता है। खैर ! ये पिपासा चंद लोगों को छोड़कर अधिकतर प्राणियों में व्याप्त है। शायद ये पिपासा स्वयं को न जानने का ही परिणाम है। ऐसा सच बोलने के लिए भी बड़े साहस की ज़रूरत होती है। क्यूँ न हो भई पहले अपने को जो कटघरे में खड़ा करना पड़ता है।

सञ्जय झा ने कहा…

puraskar pipasa.......

tippani pipasa........

dono me kuch samanta hai kya? sayad.....

pranam.

BrijmohanShrivastava ने कहा…

बडी गहरी पकड की सरजी। बहुत संस्थायें है जिनका काम साहित्यकारों को पुरस्कार देना ही है और साहित्यकार चाहता है कि उस पुरस्कार की खबर अखबारों में पत्रिकाओं में छपे सबको जानकारी हो जाय। बुढई की बात अच्छी लगी
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आंखों मे तो दम है
रहने दो अभी सागर ओ मीनामेरे आगे ।