गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

गर्मी-Summer


गर्मी का मौसम

कल ही की बात है जब टेलिफोन पर बात हो रही थी तो डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने पूछा-"क्या बात है, तबियत तो ठीक है ना?  आवाज़ कुछ बदली सी लग रही है"।  मैंने दीनदयाल शर्मा की वो पंक्तियाँ दोहरा दी- 

तपता सूरज लू चलती है
हम सब की काया जलती है॥

प्रो. शर्मा ने सहानुभूति जताते हुए कहा कि "हाँ, मौसम का असर तो है..."  और फिर गर्मी  के कई प्रकार पर बात कहने लगे- मौसम की गर्मी से लेकर मिज़ाज़ की गर्मी, पर्यावरण और पौधों पर उनका प्रभाव वगैरह वगैरह।... और इस प्रकार यह ब्लाग पोस्ट बन गई।

गर्मी के मौसम में आदमी तो आदमी पेड़ भी कहीं अपने पत्ते तज देता है तो कहीं प्रकृति में सौंदर्य बिखेर देता है जैसे गुलमोहर और अमलतास। कहीं ‘फ़्लेम ऑफ़ द जंगल’ है तो कहीं सरसों की तरह पेड़ पर लगे पीले फूल फैले हुए हैं।  गर्मी का मौसम आया तो अम्बुआ के बौर फल बनने लगे, कोयल गाने लगी और बचपन के वो दिन याद आए जब कोयल की कूक के साथ हम बच्चे भी कूकते थे और कोयल और अधिक ज़ोर से कूकती थी।  यह  सौभाग्य की बात है कि कोयल अभी भी कूक रही है जबकि उसके सौंतेले भाई कौवे की काँव-काँव सुनाई नहीं दे रही है।  वो कौवा जब रोज़ मुंडेर पर बैठ कर काँव-काँव करता तो हम बच्चे कहते कि कोई मेहमान आनेवाला है।  अब न वो कौवा दिखाई देता है जो मेहमान का संदेशा लाता और न गौरैया जो आंगन में पड़े चावल के दाने चुगती।  हो सकता है कि भावी पीढ़ी जब कौवे की कहानी पड़ेगी- ‘एक कव्वा प्यासा था...’ तो उस पक्षी को मिथक ही मानगी जैसे हंस के मोती चुगने की बात है।  अब तो कौवा और गौरैया गायब हो गए हैं।

गायब होने की बात पर अशोक वाजपेयी जी की वो बात याद आ गई जो उन्होंने मुनींद्रजी की पुण्यतिथि के व्याख्यान में कही थी।  उन्होंने कहा था कि आज के समय में स्थानीयता गायब हो गई है।  सभी जगह एक सा माहौल दिखाई देता है।  सच है, कभी अतीत की ओर मुड़ कर देखते हैं तो याद आता है कि हमारे गाँव में कितने छोटे-छोटे चट्टान हुआ करते थे जिस पर चढ़ना-उतरना भी हम एक करतब मानते थे।  गाँव में ही नहीं, गाँव के बाहर भी निकल पड़े तो पत्थर का प्राकृतिक सौंदर्य इन चट्टानों में दिखाई देता था।  कहीं एक बड़ा चट्टान दूसरे छोटे चट्टान पर चढ़ा रहता जैसे कोई बच्चा बड़े आदमी का बोझ ढो रहा हो; या फिर, एक चट्टान दूसरे चट्टान पर यूँ बलखाए चढ़ा रहता कि देखने वाले को लगता कि कोई नर्तकी की मुद्रा है। ये चट्टाने हमारे पर्यावरण को भी संतुलित करती थीं।  गर्मी के दिनों में ये चट्टाने गर्म हो जातीं पर सांझ ढलते-ढलते ठंडी हो जाती।  परिणाम यह होता कि दिन की गर्मी साझ ढले ठंडी हवा में बदल जाती।  भला हो इस शहरीकरण का कि इन चट्टानों को काट-काट कर अट्टालिकाएं बनाई गई और अब न वो चट्टानें है और न वह ठंडी हवा।  अब तो बस, गर्म हवा इन अट्टालिकाओं की गलियों से गुज़रते हुए सब को गर्म कर रही हैं।

शहरीकरण की मार में भले ही अमीर अपने एयरकंडीशन्ड कमरे में बंद रहें परंतु दिन भर की गर्मी के बाद शाम की वह प्राकृतिक शीतल वायु का आनंद शायद ही उनके भाग्य में हो।

गर्म और गर्मी पर बहुत कुछ और लिखा जाना है पर ..... आगे फिर कभी... गर्मजोशी के साथ:)

20 टिप्‍पणियां:

डॉ टी एस दराल ने कहा…

ऋतुओं का आना जाना ही जिंदगी को नीरसता से बचाता है । गर्मियों में भी एक बात है ।
फिलहाल इसी को एन्जॉय किया जाए ।

Satish Saxena ने कहा…

वाकई में तेज गर्मियों में नीम और आम के पेंड़ों के नीचे चारपाई डालकर, कोयल की कुहू कुहू के मध्य, सोने में जो आनंद आता था वह कहाँ मिलेगा ! शुभकामनायें !!

Gurramkonda Neeraja ने कहा…

सच में मजा आ गया.एक बार फिर मुझे बचपन में लौटने का अवसर मिला जब हम गर्मियों में कोयल के साथ कूकते थे और आम के पेड़ पर चढ़कर आम चुराते थे. पर आज वह बात कहाँ? चारों और तो कंक्रीट जंगल है. न ही कोयल है और न ही गौरैया. बच्चे भी घंटों इंटरनेट के सामने बैठकर चैटिंग करते रहते हैं.

पर हाँ, कक्षाओं में ग्रीष्म ऋतु के बारे में पढ़ाते हैं. जैसे जायसी के पद्मावत का यह ग्रीष्म वर्णन -

"भा बैसाख तपनि अति लागी. चोआ चीर चंदन भा आगी./ सूरज जरत हिवंचल ताका. बिरह - बजागी सौंह रथ हांका....."

बैसाख का महीना आ गया है. अत्यंत गर्मी पड़ने लगी है. गर्मी इतनी अधिक हो गई है कि सुगंधित पदार्थ, रेशमी वस्त्र और चंदन जैसे शीतल पदार्थ भी शरीर में अग्नि का सा दाह उत्पन्न करते हैं.

Suman ने कहा…

bahut achhi post....mujhe bhi mere gaav ki yad dila di....

Sunil Kumar ने कहा…

आदरणीय प्रसाद जी , आज आपने कोयल और कौवे का एक नया रिश्ता निकाला है यह एक नयी जानकारी है| रही गर्मी की बात उसका तो अंदाज ही निराला है अब पुरानी बातों को याद करके दिल नहीं दुखाना है |

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छा लगा आपका यह आलेख।

राज भाटिय़ा ने कहा…

गर्मी को याद दिला दिया, बाप रे सारा दिन धुप मे घुमना,गर्मी से लाल चेहरा ले कर घर जाना तो मां ने ओर भी लाल कर देना हमारे गाल को तडाक तडाक...

Arvind Mishra ने कहा…

आह कहाँ साथ लेकर चले ..अब लौटायेगा कौन
दिल कहे रुक जा रे रुक जा यहीं पे कहीं
जो बात है यहान वो कहीं पे नहीं
क्या खूब है यह गद्य कविता भी !?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आपका चित्र ही सारी पोस्ट कह गया।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

बहुत दिनों से सुबह घूमने जाने का क्रम बना हुआ है। उदयपुर की प्रसिद्ध झील है फेतहसागर, बस उसी के किनारे घूमते हैं। आज सुबह ही वहाँ से लौटते हुए अमलताश में फूल लदे थे, उसे देखने का आनन्‍द लिया और नीमा भी बौरा रहा था तो उसे भी निहारा। किसी पेड़ पर कोयल भी कुहक रही थी तो उसे भी सुना और फतेहसागर पर बने छोटे-छोटे टापुओं पर पक्षियों का कलरव भी देखा। आज बादल छाए ह‍ुए थे तो फतेहसागर के अन्‍दर बने हुए नेहरू-गार्डन के पीछे से जब सूर्य उदय हुआ तब बादलों के पीछे छिपकर कभी विभक्‍त हो जाता था तो कभी अपनी लाल किरणे बिखेर रहा था। बस ऐसी सुबह रोज जी लेते हैं और सारे दिन की गर्मी को पी लेते हैं। टिप्‍पणी लिख दी है नहीं तो यह पोस्‍ट ही बन जाती।

केवल राम ने कहा…

इंसान ने ही इस धरती के हालातों को बदल डाला है ..और अब दोष सारा प्रकृति को दे रहा है .....क्या विडंबना है ..आपने बहुत गहनता से प्रकाश डाला है वर्तमान हालातों पर ....आपका शुक्रिया

arpanadipti ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
arpanadipti ने कहा…

आपने तो गाँव तथा बचपन की याद दिला दी।

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

तपता सूरज लू चलती हैहम सब की काया जलती है...

दीनदयाल शर्मा जी की ये पंक्तियाँ और ऋषभ देव शर्मा जी से हुई बातचीत ने ....कोयल की कुहुक से होते हुए बचपन में लौटा दिया ....कभी हम भी यूँ ही बोला करते थे कुहुक के साथ ....और एक पक्षी था .....यूँ लगता कहता है ...'' जल्दी करो....जल्दी करो ...'' तो हम जल्दी जल्दी काम करने लगते ..
गुलमोहर और अमलतास यहाँ भी सड़क के किनारे शोभा बढ़ा रहे हैं ....
हमारे यहाँ तो कौवे भी हैं और गौरैया भी ....:))

ZEAL ने कहा…

We do not have better options. We have to manage somehow...be in winters or summers.

Patali-The-Village ने कहा…

जो मजा अखरोट की घनी छाया के निचे है वह एयरकंडीसन में कहाँ | धन्यवाद|

Luv ने कहा…

A friend is spending his summers travelling around Haryana, and another around Jharkhand. They tell me how different people behave just because they are in a different place. This Hyderabadi friend is almost offended by how Jats behave (pardon the generalization).

Plus how important the comforts that city gives are.

Amrita Tanmay ने कहा…

Main to abhi bhi khushnaseeb hun meri jaren ganv me hai..mera aana-jana laga hi rahta hai...khaskar aam khane ke liye ganv hai hi..sundar post...is garmi se rahat deti hui....aabhar....

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

आने वाले मौसम के लक्षण अभी से स्पष्ट हैं. लगता है इस बार फिर से भयंकर गर्मी होगी.

AC ने कहा…

garmiyon ke woh din...aah kya yaad dilaaya aapne! school se chutti, din bhar ka khelna, kachchi kairi par namak aur mirch, meethe beej-bhare tarbooz, kayee tarah ke aam aur thande nimbu ke sharbat ka mazaa. raat me khule aasman ke ta-le sona, aur jab garmi bardaasht nahi hoti tho us par rona!!!"koi lauta de mere bi-te hue din"