डॉ.सुभाष मुखर्जी
भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी- ‘दुर्गा’
डॉ. सुभाष मुखर्जी भारत के ऐसे चिकित्सक हैं जिन्होंने भारत के लिए इतिहास बनाया; परंतु जिसे उनके नादान प्रतिद्वंद्वी उन्हें जीते जी इसके श्रेय से वंचित रखा। डॉ. सुभाष मुखर्जी ने विज्ञान के शोध क्षेत्र में एक ऐसा रिकार्ड बनाया जिसे समस्त विश्व में सराहा गया है। भारत के प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी के रचनाकार थे डॉ. सुभाष मुखर्जी और इस चौंकानेवाले नतीजे को भारत का विज्ञान क्षेत्र हज़म नहीं कर सका।
सन् सत्तर की बात है जब बेला और प्रभात अग्रवाल दम्पत्ति संतान के लिए डॉक्टरों और भाग्य के भरोसे इधर-उधर भटक रहे थे और संतान की इच्छा में दिन बिता रहे थे। सौभाग्य से डॉ. सुभाष मुखर्जी ने कहा कि वे उन्हें संतान तो दे सकते हैं पर इसका कोई भरोसा नहीं कि यह संतान पूर्ण रूप से स्वस्थ ही हो क्योंकि यह मात्र परीक्षण है। न होने से कुछ तो होना ठीक रहेगा- सोच कर दम्पत्ति ने उन्हें इस परीक्षण की स्वीकृति दे दी। डॉ. सुभाष मुखर्जी का यह प्रयोग सफ़ल हुआ और विश्व की दूसरी टेस्ट ट्यूब बेबी ‘दुर्गा’ का जन्म हुआ। [पहली टेस्ट ट्यूब बेबी तीन माह पूर्व ही इंग्लैंड के डॉ. लूइस ब्राउन के परीक्षण से पैदा हुई थी।] इस प्रयोग को गोपनीय रखा गया था क्योंकि अग्रवाल दम्पत्ति नहीं चाहती थी कि इसकी चर्चा के कारण नवजात पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े। परंतु किसी लम्बी नाक वाले प्रेस रिपोर्टर ने यह समाचार सूंघ लिया और बात फैल गई। जब ‘दुर्गा’ बड़ी हुई तो उसका नाम कनुप्रिया रखा गया। वह आज अपने पति के साथ सुखी जीवन बिता रही है पर उसके जन्मदाता डॉ. सुभाष मुखर्जी को आत्महत्या करनी पड़ी।
१६ जून १९३१ को हज़ारीबाग, बिहार में जन्मे डॉ, सुभाष मुखर्जी बचपन से ही ज़हीन थे। १९५८ में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपनी पीएच.डी. ली और १९६० में नमिता से विवाह कर लिया। बंगाल की सरकार ने उन्हें एन्डोक्राइन फिज़ियोलोजी में डॉक्ट्रेट करने के लिए इंग्लैंड भेजा जहाँ उन्होंने एडिनबर्ग में पीएच.डी. की उपाधि १९६४ में हासिल की और वापिस कलकत्ता लौट आए।
३ अक्तूबर १९७८ को भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी को इस धरती पर लाने का श्रेय उन्हें मिला। यह प्रसन्नता और ख्याति उन्हें रास नहीं आई। १९ अक्टूबर १९७८ को डॉ. सुभाष मुखर्जी ने बंगाल सरकार को अपने इस परीक्षण की रिपोर्ट सौंपी। १८ नवम्बर १९७८ को एक ‘एक्स्पर्ट कमिटी’ का गठन किया गया जिसमें इस विषय के जानकार ही नहीं थे। इस कमिटी के अध्यक्ष रेडियोफिज़िक्स के प्रोफ़ेसर थे जिसके सहयोगी एक गैनोकॉलोजिस्ट, एक फिज़ियोलॉजिस्ट और एक न्यूरोफिज़ियोलोजिस्ट थे। इस कमिटी ने डॉ. सुभाष मुखर्जी के परीक्षण को नकार दिया। इसके बाद उनपर सरकार और सहयोगियों की गाज़ गिरी। उन्हें विदेश जाने से मना कर दिया गया। उन्हें उस समय गहरा आगाध लगा जब १९७९ में जापान जाने की स्वीकृति नहीं मिली। १९८० में उन्हें हृदयाघात हुआ। वे गहन अवसाद में चले गए जिससे उबर नहीं पाये और १९ जून १९८१ को आत्महत्या कर ली।
हमारे देश की यह ‘संस्कृति’ रही है कि व्यक्ति के मरने के बाद उसके लिए मूर्ति, मंदिर या इमारत बना दिया जाता है। यही डॉ. सुभाष मुखर्जी के साथ भी हुआ। १९८२ से उनके नाम से इंडियन क्रयोजनिक कौंसिल वार्षिक व्याख्यानमाला रखती है। १९८५ में उनके नाम से डॉ. सुभाष मुखर्जी मेमोरियल रिप्रोडक्टिव बयोलोजी रिसर्च सेंटर’ कोलकाता में खोला गया। २०११ में डॉ. सुभाष मुखर्जी इंस्टिट्यूट ऑफ़ रिप्रोडक्टिव साइंस की स्थापना पंश्चिम बंगाल की सरकार ने किया।
‘दुर्गा’ उर्फ़ कनुप्रिया
उनके परीक्षण का जीता-जागता प्रमाण कनुप्रिया आज भी अपने पति सौरव डिड्वानिया के साथ स्वस्थ और सुखी जीवन बिता रही है।
[साप्ताहिक ‘द वीक’ के अप्रैल २०११ अंक से साभार]
12 टिप्पणियां:
आदरणीय डॉ, सुभाष मुखर्जी जी की उपलब्धियों के विषय में जानकारी देकर आपने सराहनीय कार्य किया है ...उनके इस कार्य ने सच में देश को गौरवान्वित किया है ...और एक नया जीवन ही नहीं बल्कि एक नयी जीवन पद्धति का विकास किया है जो अपने आप में अतुलनीय है ...आपका आभार
वाकई, बधाई के पात्र है वे इस उपलब्धि के लिए !
हमारी यही विडम्बना है । जीते जी धिक्कारते हैं और जाने के बाद पूजते हैं ।
अच्छा लगा यह संस्मरण ।
काफी जानकारी भी मिली । आभार प्रशाद जी ।
आदरणीय चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी
सादर प्रणाम !
भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी- ‘दुर्गा’ उर्फ कनुप्रिया की वर्तमान फोटो देख कर बहुत रोमांच हुआ …
और डॉ.सुभाष मुखर्जी के प्रति मन श्रद्धा और आदर से भर गया … धन्य हैं ऐसी विभूति ! नमन है उन्हें !!
…और श्रेष्ठ पोस्ट के लिए आपके प्रति हार्दिक आभार !
नव संवत्सर की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
यही तो विडम्बना है । हक़दार को उसका श्रेय अक्सर नहीं मिलता।
इतनी उत्तम जानकारी देने का आभार। मुझे तो बड़ा ही अच्छा लग रहा है क्योंकि मेरी बेटी का नाम भी कनुप्रिया है। लेकिन ऐसे विद्वान व्यक्तित्व को आत्महत्या करनी पड़े यह देश के लिए शर्मनाक है।
आज हजारों बेऔलाद आज सुख की सांस ले रहे हैं
यही विडम्बना है, बहुत दुखदायी तथ्य।
दुखद दास्तान!
इस घटना पर एक फिल्म भी बनी थी -नाम अब याद नहीं !
भारतीयों में यह प्रवृत्ति बचपन से दाल दी जाती है.. भले ही तुम कुछ न करो सको पर अगर कोई दूसरा कुछ करना चाहे तो उसे करने न दो और कर ले तो हक़ मार लो..
बहुत दुःख और विडम्बना भरी बात है.. डॉ.सुभाष को नमन..
पढ़े-लिखे अशिक्षित पर आपके विचार का इंतज़ार है..
आभार
गुरुवार
भारत की पहली टेस्ट टूब बेबी के रचनाकार के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद |
प्रथम भारतीय टेस्ट ट्यूब बेबी के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी से अवगत कराने के लिए साधुवाद। डॉ सुभाष मुखर्जी अंतःमन को नमन। हमारे समाज में यही होता आया है, उत्कृष्ट कार्य करने वाले की खिंचाई और टाँग अड़ाई। महज ईर्ष्या के वश ही कई लोग किसी की प्रगति में नाना प्रकार के अवरोध पैदा करते हैं। विशेषकर जनहित के कार्यों में लोग ऐसा क्यों करते हैं समझ में नहीं आता? आप अच्छा कार्य करते हैं तो इसके समाचार मिलने पर आपसे हजारों किलोमीटर के लोग आपकी सराहना करेंगे, लेकिन आपके पड़ोस एवं आपके आसपास के कई करीबी लोग आपसे ज्यादा प्रसन्न नहीं होंगे। यही हमारे सामाजिक व्यवहार की विशेषता है। अच्छे आलेख के लिए बधाई।
भवत्सद्भावी-
प्रकाश जोशी www.rajasthanstudy.blogspot.com
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