शनिवार, 30 अप्रैल 2011

अज्ञेय जन्मशती समारोह


आज मुझे एक और जन्म-शताब्दी समारोह में जाना था। सोचता था कि कितने महान व्यक्तियों को जन्म दिया था १९११ ने- शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, नेपाली, फैज़, केदारनाथ अग्रवाल,अज्ञेय...। या फिर, उस समय की  परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि उन्हें महान बनने का अवसर मिला।  जो भी हो, शताब्दी समारोह में जाना तो है, और यह उस साहित्यकार का समारोह था जिसके बार में मैं अधिक कुछ नहीं जानता। ऐसे महान रचनाकार- अज्ञेय जी के शताब्दी समारोह में जाने का सपना न जाने कितने दिन से संजोये रहा।  हमारे गुरु-तुल्य प्रो. ऋषभ देव शर्मा जी इस संगोष्ठी के निदेशक हों और हम न जायें! और फिर, अरब देश से लौटे अरबपति प्रो. गोपाल शर्मा [जो न जाने फिर कब अरब चले जायें], प्रो. वेंकटेश्वर जी जिनके बोलने की धाराप्रवाह शैली से कोई भी श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता है, जैसे लोगों से मिलने/सुनने का सुअवसर तो है ही।  साथ ही विद्वान वक्ताओं में प्रो. दिलीप सिंह, प्रो. त्रिभुवन राय, डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी, प्रो. जगदीश डिमरी, प्रो. मोहन सिंह, डॉ. आलोक पाण्डेय, डॉ. राधेश्याम शुक्ल जैसों का वक्तव्य कौन श्रोता छोड़ना चाहेगा।  हमारे मित्र डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. नीरजा, डॉ. बलविंदर कौर, डॉ. साहिरा बानू, डॉ. घनश्याम, डॉ. विष्णु भगवान और डॉ. श्रीनिवास राव से भी मुलाकात हो ही जाती।

पर अंग्रेज़ी में वो कहावत है ना- MAN PROPOSES AND GOD DISPOSES। बस, वही हुआ।  बुरा हो इस बुढ़ापे का, कि कहीं भी अपनी लंगड़ी टांग अड़ा ही देता है।  अपने स्वास्थ का क्या भरोसा, कब धोखा दे जाय! सो, आज धोखा दे ही दिया उसने  और अब हम इस सवाल का जवाब पाने से वंचित रह गए जो अज्ञेय जी कभी  किया था।  सवाल आप भी सुन लीजिए और उत्तर मिले तो देने की कृपा करें :)

तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।

एक बात पूछूँ- [उत्तर दोगे]
तब कैसे सीखा डसना
विष कहाँ पाया?


गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

गर्मी-Summer


गर्मी का मौसम

कल ही की बात है जब टेलिफोन पर बात हो रही थी तो डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने पूछा-"क्या बात है, तबियत तो ठीक है ना?  आवाज़ कुछ बदली सी लग रही है"।  मैंने दीनदयाल शर्मा की वो पंक्तियाँ दोहरा दी- 

तपता सूरज लू चलती है
हम सब की काया जलती है॥

प्रो. शर्मा ने सहानुभूति जताते हुए कहा कि "हाँ, मौसम का असर तो है..."  और फिर गर्मी  के कई प्रकार पर बात कहने लगे- मौसम की गर्मी से लेकर मिज़ाज़ की गर्मी, पर्यावरण और पौधों पर उनका प्रभाव वगैरह वगैरह।... और इस प्रकार यह ब्लाग पोस्ट बन गई।

गर्मी के मौसम में आदमी तो आदमी पेड़ भी कहीं अपने पत्ते तज देता है तो कहीं प्रकृति में सौंदर्य बिखेर देता है जैसे गुलमोहर और अमलतास। कहीं ‘फ़्लेम ऑफ़ द जंगल’ है तो कहीं सरसों की तरह पेड़ पर लगे पीले फूल फैले हुए हैं।  गर्मी का मौसम आया तो अम्बुआ के बौर फल बनने लगे, कोयल गाने लगी और बचपन के वो दिन याद आए जब कोयल की कूक के साथ हम बच्चे भी कूकते थे और कोयल और अधिक ज़ोर से कूकती थी।  यह  सौभाग्य की बात है कि कोयल अभी भी कूक रही है जबकि उसके सौंतेले भाई कौवे की काँव-काँव सुनाई नहीं दे रही है।  वो कौवा जब रोज़ मुंडेर पर बैठ कर काँव-काँव करता तो हम बच्चे कहते कि कोई मेहमान आनेवाला है।  अब न वो कौवा दिखाई देता है जो मेहमान का संदेशा लाता और न गौरैया जो आंगन में पड़े चावल के दाने चुगती।  हो सकता है कि भावी पीढ़ी जब कौवे की कहानी पड़ेगी- ‘एक कव्वा प्यासा था...’ तो उस पक्षी को मिथक ही मानगी जैसे हंस के मोती चुगने की बात है।  अब तो कौवा और गौरैया गायब हो गए हैं।

गायब होने की बात पर अशोक वाजपेयी जी की वो बात याद आ गई जो उन्होंने मुनींद्रजी की पुण्यतिथि के व्याख्यान में कही थी।  उन्होंने कहा था कि आज के समय में स्थानीयता गायब हो गई है।  सभी जगह एक सा माहौल दिखाई देता है।  सच है, कभी अतीत की ओर मुड़ कर देखते हैं तो याद आता है कि हमारे गाँव में कितने छोटे-छोटे चट्टान हुआ करते थे जिस पर चढ़ना-उतरना भी हम एक करतब मानते थे।  गाँव में ही नहीं, गाँव के बाहर भी निकल पड़े तो पत्थर का प्राकृतिक सौंदर्य इन चट्टानों में दिखाई देता था।  कहीं एक बड़ा चट्टान दूसरे छोटे चट्टान पर चढ़ा रहता जैसे कोई बच्चा बड़े आदमी का बोझ ढो रहा हो; या फिर, एक चट्टान दूसरे चट्टान पर यूँ बलखाए चढ़ा रहता कि देखने वाले को लगता कि कोई नर्तकी की मुद्रा है। ये चट्टाने हमारे पर्यावरण को भी संतुलित करती थीं।  गर्मी के दिनों में ये चट्टाने गर्म हो जातीं पर सांझ ढलते-ढलते ठंडी हो जाती।  परिणाम यह होता कि दिन की गर्मी साझ ढले ठंडी हवा में बदल जाती।  भला हो इस शहरीकरण का कि इन चट्टानों को काट-काट कर अट्टालिकाएं बनाई गई और अब न वो चट्टानें है और न वह ठंडी हवा।  अब तो बस, गर्म हवा इन अट्टालिकाओं की गलियों से गुज़रते हुए सब को गर्म कर रही हैं।

शहरीकरण की मार में भले ही अमीर अपने एयरकंडीशन्ड कमरे में बंद रहें परंतु दिन भर की गर्मी के बाद शाम की वह प्राकृतिक शीतल वायु का आनंद शायद ही उनके भाग्य में हो।

गर्म और गर्मी पर बहुत कुछ और लिखा जाना है पर ..... आगे फिर कभी... गर्मजोशी के साथ:)

रविवार, 24 अप्रैल 2011

केदारनाथ अग्रवाल





केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी

केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी के अवसर पर आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी में एक समारोह हुआ जिसमें प्रो. ऋषभदेव शर्मा मुख्य वक्ता थे और प्रो. गोपाल शर्मा [गेर यूनिस विश्वविद्यालय, बेनगाज़ी, लिबिया से पधारे ‘शरणार्थी’:)] मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे तथा दैनिक समाचार पत्र ‘स्वतंत्र वार्ता’ के सम्पादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।

प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने केदारनाथ अग्रवाल को बहुआयामी रचनाकार बताते हुए कहा कि आज वे केवल उनकी रचनाओं में प्रेम पक्ष पर ही बोलेंगे।  यूँ तो केदारनाथ अग्रवाल को प्रगतिशील कवि कहा जाता है पर उन्हें प्रगतिवादी क्षेत्र में वह सम्मान नहीं मिला क्योंकि वे प्रेम पर कविताएँ कहते थे।  यह एक अजीब बात है कि भारत की प्रगतिशीलता में प्रेम का कोई स्थान नहीं है जब कि मार्क्स, लेनिन, एंगेल्स और चे गवारा ने भी प्रेम कवितायेँ लिखीं.  प्रो. शर्मा का मानना है कि शोषित और मजदूर भी प्रेम करता है और प्रेम कोई अछूत चीज़ नहीं है।

केदारनाथ अग्रवाल के जीवन पर प्रकाश डालते हुए प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने बताया कि केदारनाथ अग्रवाल व्यवसाय से वकील थे और बांदा में उनकी खेती व मकान है।  उन्होंने आगे बताया कि यह उनका सौभाग्य है कि दो वर्ष पूर्व उन्हें केदार सम्मान के कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला था।  यह भी उन्हें हर्षित करता है कि केदारनाथ अग्रवाल से जब उनकी भेंट १९९२ में चेन्नै में हुई थी तो इसका ज़िक्र केदार जी ने अपनी डायरी में भी दर्ज किया है। 

केदार जी की रचनाएँ छोटी हुआ करती थी पर उनमें सार छुपा होता है।  प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने उनकी छोटी कविताओं के कुछ उदाहरण भी दिये; जैसे,

मेरे गीतों को तब पढना
 बार बार पढ़कर फिर रटना   
सीखो जब तुम प्रेम समझना 
प्रेम पिए बस पागल रहना.

केदार की कविताओं में प्रेम में जो ‘तुम’ दिखाई देता है वह सम्बोधन उनकी पत्नी के लिए है।  प्रायः कवि की कविताओं में प्रेम का सम्बोधन प्रेयसी के लिए होता है परंतु केदारनाथ अग्रवाल का प्रेम केवल उनकी पत्नी के लिए ही सुरक्षित था।

तुमने गाए-
गीत गुँजाए
पुरुष हृदय के
कामदेव के काव्य-कंठ से
उमड़े-घुमड़े;
झूमे, बरसे
तुम शब्दों में स्वयं समाए,
चपला को उर-अंक लगाए,
चले
छंद की चाल, सोम-रस, पिए-पिलाए,
ज्वार तुम्हारे गीतों का ही
ज्वार जवानी का
बन जाता,
नर-नारी को
रख निमग्नकर,
एक देह कर
एक प्राण कर,
प्यार-प्यार से दिव्य बनाता।

प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने बताया कि केदारजी का यह प्रेम उनके हृदय में अपनी जवानी से लेकर बुढ़ापे तक में समानता से प्रवाह करता रहा।  उन्होंने प्रेम पर इतनी सुंदर रचनाएँ लिखी हैं कि प्रो. ऋषभ देव शर्मा उन्हें महाकवि कालिदास की परम्परा का कवि मानते हैं।

केदार जी के बुढ़ापे के एकाकी जीवन के बारे में बताते हुए प्रो. शर्मा उनकी कुछ कविताओं को उद्धृत करते हैं-

मैं पौधों से,
फूलों से, 
करोटन से भी बात कर लेता हूँ.
पत्नी भी ऐसा ही करती है.

इस एकाकी जीवन की विडम्बना यह है कि ले-देकर आखिर ये ही तो सहृदय उदार कुटुम्बी रह गए है. अब पत्नी ही बच जाती है जो उनकी कविताओं की एकमात्र श्रोता हो जाती है।

प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने केदारनाथ अग्रवाल के कविता संग्रह ‘हे मेरी तुम’ की कई कविताओं को अपने भावपूर्ण स्वर में सुनाया तो सारे श्रोता गदगद हो गए।                     
                              
...लेकिन अपना प्रेम प्रबल है
हम जीतेंगे काल क्रूर को
उसकी चाकू हम तोड़ेंगे
और जियेंगे
सुख दुख दोनों
साथ पियेंगे
काल क्रूर से नहीं डरेंगे-
नहीं डरेंगे-
नहीं डरेंगे॥
******

हे मेरी तुम
वृद्ध हुए हम
क्रुद्ध हुए हम
डंकमार संसार न बदला
प्राणहीन पतझर न बदला
बदला शासन, देश न बदला
राजतंत्र का भेष न बदला
भाव-बोध-उन्मेश न बदला
हाड़-तोड़ भू-भार न बदला।

इस सारगर्भित व्याख्यान के बाद प्रो. गोपाल शर्मा ने केदार और शेक्स्पीयर के जीवन कि असमानता पर प्रकाश डाला कि कैसे केदार अपनी पत्नी का साथ जीवन भर निभाते रहे और उनसे रचना की प्रेरणा लेते रहे।

अध्यक्षीय भाषण में डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि प्रेम तो प्रेम होता है चाहे वह किसी से भी हो... पत्नी से या प्रेयसी से।  शर्त यह है कि यह प्रेम वासना मात्र न हो।

एक कवितामयी शाम बिताने का यह लाभ हुआ कि हम भी घर आकर ‘हे मेरी तुम’ कहने लगे:)

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

अज़ीम प्रेमजी - Azim Premji





भारत का गौरव- अज़ीम हाशम प्रेमजी


‘यथा नाम तथा गुण’ को सार्थक करते भारत के इस अज़ीम शख़्सियत का नाम है- अज़ीम हाशम प्रेमजी। इनका जन्म सन्‌ १९४५ में मुम्बई में हुआ था।  पाकिस्तान की स्थापना के बाद इनके पिता को वहाँ के वित्तमंत्री बनने के आह्वान किया गया जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।  अज़ीम प्रेमजी जब स्टेनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय, कैलिफ़ोर्निया में इलेक्ट्रिकल इंजनीयरिंग की पढ़ाई कर रहे थे, उनके पिताजी का निधन हो गया और उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर वनस्पति तेल का  पैत्रिक व्यसाय सम्भालने के लिए भारत आना पड़ा।  २१ वर्ष की आयु में उन्होंने महाराष्ट्र के अमलनेर में स्थापित अपनी वनस्पति तेल कंपनी ‘वेस्टर्न इंडिया वेजिटेबल प्रोडक्ट्स लिमिटेड [विप्रो] का कार्यभार सम्भाला।

वनस्पति तेल से लेकर इंफ़र्मेशन टेक्नोलोज [आइ टी] की लम्बी छलांग लगा कर अज़ीम प्रेमजी भारत के सर्वाधिक सम्पन्न लोगों में अपना नाम दर्ज करा चुके है।  उनकी आइ टी कंपनी लगभग एक लाख करोड रुपये की हो गई है और इसमें लगभग पचपन हज़ार कर्मचारी कार्य कर रहे हैं।

अज़ीम प्रेमजी एक इस्माइली मुसलमान है जो ‘सादा जीवन उच्च विचार’ को सार्थक करने में अपनी कर्मठता समझते हैं।  उन्होंने अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को निभाते हुए अपनी संस्था के माध्यम से कई करोड़ की सहायता गरीबों के लिए दी है।  भारत को ऐसे कर्मठ पुत्र पर गर्व है॥  

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

लेव टॉलस्टॉय - Leo Tolstoy


तीन प्रश्न
मूल: लेव निकोलोविच टाल्सटॉय


[लेव टाल्सटॉय (१८२८-१९१०) रूस के उन प्रसिद्ध साहित्यकारों में से हैं जिनके उपन्यास ‘वार एंड पीस’ और ‘अन्ना कार्निना’ को विश्व के दस सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में गिना जाता है।  उनके लेखन तथा अहिंसा के सिद्धांतों से महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर प्रभावित थे। उनकी कहानी ‘थ्री क्वेश्चन्स’ का भावानुवाद प्रस्तुत है।]

बहुत समय पहले की बात है जब एक रियासत के राजा के मन में यह विचार आया कि अच्छे प्रशासन के लिए क्या किया जाय।  उसने सोचा कि कितना अच्छा हो यदि यह पता चल जाय कि किस कार्य को पहले करना चाहिए, उसे करने के लिए कौन सी शुभघड़ी होती है और किस विद्वान की सलाह पर कार्य सफल होता है।  

ऐसा विचार आते ही उसने राज्य में मुनादी फिरा दी कि जो कोई उन्हें सही समय पर सही कार्य करने के लिए सही व्यक्ति के बारे में सही सुझाव देगा, उसे पुरस्कृत व सम्मानित किया जाएगा।

कई विद्वानों ने राजा के दरबार में आकर अलग-अलग सुझाव रखे।  कोई कहता कि सही समय के लिए पहले से ही निर्धारित कार्यक्रमानुसार कार्य करना उचित होगा;  ऐसे कार्यक्रम द्वारा ही कार्य सुनियोजित समय पर पूर्ण करना सम्भव होगा।  कोई और कहता कि कार्यक्रम बनाने से समय को नियंत्रित नहीं किया जा सकता।  समय को बेकार नहीं गंवाना चाहिए और जिस समय जो कार्य अधिक मुख्य लगे, उसे पहले करना चाहिए।  कुछ और कहने लगे कि राजा कितना भी सतर्क और सक्षम हो, एक व्यक्ति हर समय हर कार्य पर नज़र नहीं रख सकता; इसलिए उसे बुद्धिमान लोगों का एक दल बनाना चाहिए जो राजा को सही समय पर सही कार्य करने का सुझाव दे सके।

कुछ पंडितों का सुझाव था कि मंत्रियों का एक दल बनाया जाय तो कुछ और ने कहा कि भविष्य में क्या होगा इसकी जानकारी तो किसी भविष्यवक्ता को ही होगी, इसलिए भविष्यवाणी करनेवालों की सहायता से ही राजा को सही समय की जानकारी मिल सकती है।

इसी प्रकार दूसरे प्रश्न पर भी कुछ ने मंत्रियों की नियुक्ति का सुझाव दिया तो कुछ ने पंडितों या चिकित्सकों या सैनिकों की सहायता लेने का प्रस्ताव रखा।

मुख्य काम कौन सा है? इस प्रश्न पर किसी ने कहा कि विज्ञान मुख्य है तो किसी ने युद्ध और कुछ अन्य ने भक्ति को प्राथमिकता दी।  सभी के अलग-अलग उत्तर मिले परंतु रजा को कोई सुझाव नहीं भाया और उसने किसी को भी पुरस्कृत नहीं किया।  उसके मन में उत्तर खोजने की जिज्ञासा तीव्र होने लगी।  उसे पता चला कि एक ज्ञानी ऋषि जंगल के एक आश्रम में वास करते हैं।  उसने तय किया कि वह उनसे इन प्रश्नों का उत्तर माँगेगा।  उसे पता था कि यह ऋषि न किसी से मिलते हैं और न ही आश्रम छोड़कर बाहर कहीं निकलते हैं।  इसलिए उसने तय किया कि जंगल के उस आश्रम में वह एक साधारण व्यक्ति की तरह ही जाएगा। 

साधारण वेशभूषा में राजा जंगल की ओर निकल पड़ा।  जैसे ही वह आश्रम के करीब पहुँचा, उसने अपने सैनिक दल को वहीं रुकने को कहा और वह अकेला आश्रम की ओर चल पड़ा।

आश्रम पहुँच कर राजा ने देखा कि एक वृद्ध आंगन में खुदाई कर रहा है।  राजा ने उसे प्रणाम किया।  उस वृद्ध ने प्रणाम का उत्तर दिया और अपने काम में लग गया।  एक सूखी काया के इस श्रम को देख कर राजा ने सोचा कि वह खुदाई करते करते थक गया होगा तो क्यों न उसकी सहायता कर दी जाय।  सहायता के लिए आगे बढ़ते देख कर भी वृद्ध अपने कार्य में जुटा रहा।  राजा पास जाकर नम्रतापूर्वक बोला- "हे ऋषिवर, मैं आपके पास तीन प्रश्नों का उत्तर माँगने आया हूँ।  मैं कैसे जानू कि सही कार्य के लिए सही समय कौन सा होगा और उस कार्य की सफलता के लिए कैसे कार्यकर्ता हों?"

ऋषि ने कुछ उत्तर नहीं दिया और अपने काम में ही लगा रहा।  राजा ने कुछ देर के बाद कहा-"आप थक गए होंगे।  लाइये, यह कुदाल मुझे दीजिए, मैं आपकी मदद कर दूँ।  आप थोड़ी देर विश्राम कर लीजिए।"  ऋषि की सांस फूल रही थी।  उसने राजा को कुदाल दे दी।

कुछ देर खुदाई करने के बाद राजा ने अपने प्रश्न फिर दोहराए।  ऋषि उत्तर देने की बजाय बोले- "लाओ, तुम थक गए होंगे, कुदाल मुझे दे दो और आराम करो।"  परंतु राजा ने खुदाई का काम जारी रखा।

शाम ढलने लगी।  राजा अपना काम जारी रखते हुए फिर कहा-"आप ज्ञानी हैं, इसलिए मैं अपने प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए आपके पास आया हूँ।  यदि आप उत्तर न देना चाहें तो  खाली हाथ लौट जाऊँगा।"

"वो देखो, कोई दौड़ता हुआ इधर आ रहा है।  देखें, कौन है!" कहते हुए ऋषि उठ खड़े हुए।  राजा ने उस ओर मुड़कर देखा।  एक व्यक्ति अपना पेट पकड़े आश्रम की ओर दौड़ा चला आ रहा था।  उसके शरीर से खून बह रहा था।  जब वह राजा के पास पहुँचा तो कराहते हुए गिर पड़ा और बेहोश हो गया।  ऋषि और राजा ने मिलकर उसके वस्त्र ढीले किए तो उसके पेट से खून चू रहा था।

राजा ने उसके ज़ख्म को धो दिया और अपने रुमाल से उस खून के बहाव को दबाने का प्रयास किया।  जैसे ही रुमाल खून से लथपथ हो जाता, उसे पानी से धोकर फिर पेट के उस ज़ख्म पर रख देता।  ऐसा उसने कई बार किया।  अंततः खून का रिसाव बंद हुआ।  राजा ने उस व्यक्ति के चेहरे पर पानी के छींटे मारे और दो घूँट पानी पिलाया।  अंधेरा छा गया था।  घायल व्यक्ति को आश्रम के भीतर ले जाकर लिटा दिया गया।

राजा भी बहुत थक गया था।  एक तो लम्बा सफर और फिर आश्रम में किया गया परिश्रम।  उसे भी नींद आ गई और वह भी वहीं सो गया।  सुबह नींद खुली तो उसे कल का सारा घटनाक्रम याद आया।  उसने आँख खोलकर देखा तो वह घायल व्यक्ति उसकी ओर देख रहा था।

धीमे स्वर में वह घायल व्यक्ति कह रहा था-" मुझे क्षमा करना।"

"मैं तुम्हें जानता भी नहीं; तो फिर, क्षमा किस बात की?"

"आप मुझे नहीं जानते, पर मैं आपको जानता हूँ।  आपके उस दुश्मन का भाई हूँ जिसे आपने मार दिया और उसकी सारी सम्पत्ति छीन ली थी।  मैंने प्रण लिया था कि मैं भी आपकी हत्या करके बदला लूंगा।  इसी इरादे से मैं आश्रम की ओर आ रहा था।  रास्ते में आपके सिपाहियों ने मुझे पहचान लिया और मुझ पर आक्रमण कर दिया।  किसी तरह जान बचा कर भाग आया था। यदि आपने मेरा उपचार न किया होता तो मर ही जाता।  इस जीवनदान के लिए मैं आपका ऋणी हूँ और जीवन भर आपकी सेवा में रहूँगा।  मुझे क्षमा कर दीजिए।"

राजा प्रसन्न हुआ कि उसके एक दुश्मन से आज सुलह हो गई।  जब वह आश्रम से बाहर निकला तो ऋषि को आंगन में बीज रोंपते हुए देखा।  अंतिम बार अपने प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए वह ऋषि के पास पहुँचा और उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा।  कुछ रुककर ऋषि ने कहा-"तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर तो मिल गया।"

"वो कैसे? क्या मतलब?"

"तुम ने देखा नहीं! यदि तुम मेरी थकी हालत पर रहम खाकर मेरी सहायता न करते और लौट जाते तो वह व्यक्ति तुम पर आक्रमण करता।  तब तुम्हें पछतावा होता कि रुक जाते तो इस आक्रमण से बच जाते।  तो सही समय वह था जब तुम रुक गए और मेरे प्रति तुम्हारी सहानुभूति व सहायता मुख्य कार्य बन गए।   बाद में, जब वह घायल व्यक्ति हमारे पास आया तो वह समय और उसकी सहायता मुख्य हो गए।  यदि तुम उसकी सहायता न करते तो वह तुम्हारा मित्र बनने से पहले ही मर जाता।  तो उस समय वह व्यक्ति मुख्य था और जो तुमने किया वह मुख्य कार्य था।  याद रखो, समय वही मुख्य होता है जब तुम्हारे पास शक्ति है, मूख्य व्यक्ति वही होता है जो तुम्हारे साथ खड़ा है और मुख्य कार्य वही है जब तुम उसकी सहायता में जुटे हो क्योंकि नियति ने उसे तुम्हारे पास उसी लिए तो भेजा था।"

एक ही समय महत्वपूर्ण होता है और वह समय है जब हमारे पास कुछ करने की शक्ति है, वह व्यक्ति महत्वपूर्ण है जो उस समय तुम्हारे पास है- भले ही तुम उसे नहीं जानते कि उससे भविष्य में संपर्क रहे न रहे, और सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि तुम उसकी भलाई करो क्योंकि मनुष्य को केवल यही कार्य के लिए यह जनम मिला है।


शनिवार, 16 अप्रैल 2011

आज का समय और साहित्य-Ashok Vajpayee


समय और साहित्य- अशोक वाजपेयी

आज [१६ अप्रैल २०११] हैदराबाद की साप्ताहिक पत्रिका ‘दक्षिण समाचार’ के संस्थापक एवं प्रथम सम्पादक स्व. मुनीन्द्र जी की पुण्यतिथि पर एक आयोजन किया गया था|  आयोजन का आनंद लिया और उसकी समाप्ति पर हस्बेमामूल मैं, प्रो. ऋषभ देव शर्मा और प्रो. गोपाल शर्मा आयोजन स्थल [हिंदी महाविद्याल्य, विद्यानगर] से निकल कर किसी रेटोरेंट की तलाश में निकले।  कुछ दूर स्थित एक रेस्टोरेंट में बैठ कर इडली और चाय के साथ आयोजन की भी बातें होती रहीं। चाय पीने के बाद बिल भी आ गया, प्रो. गोपाल शर्मा [जो अभी-अभी विदेश से आए है और विदेशी मुद्रा का रूपांतरण करके रुपये जेब मे लिए घूमते हैं:)] ने बिल का भुगतान कर दिया।  बैठे-बैठे उनकी निगाह पडोसी टेबल पर रखे गुलाब जामुन पर पड़ी।  ऐसे पकवानों से विदेश में वंचित रहे प्रो. गोपाल शर्मा का दिल ललचाया और कहा कि हम गरमागरम गुलाब जामुन खायेंगे। अब चाय के बाद फिर.....खैर गुलाब जामुन आये पर ... हाय रि किस्मत...वो ठंडे निकले:)  विदा होते समय प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने आज्ञा दी कि  आज के आयोजन के बारे में मैं कुछ संस्मरण लिखूँ। यह उनका तरीका है लिखने के लिए प्रोत्साहित करने का:)...  तो सोच रहा हूँ.....खैर..


अयोजन के मुख्य वक्ता श्री अशोक वाजपेयी दिल्ली से पधारे थे। अध्यक्ष के रूप में चेन्नै से डॉ. बाल शौरी रेड्डी और विशेष अतिथि के रूप में पद्मश्री जगदीश मित्तल और दैनिक समाचार पत्र ‘स्वतंत्र वार्ता’ के सम्पादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल मंचासीन थे।

श्री अशोक वाजपेयी ने ‘समय और साहित्य’ के विषय पर बोलते हुए यह जताया कि मानव इतिहास में आज का समय हिंसा का समय है... यह हिंसा सारे विश्व में व्याप्त है- भले ही वो धर्म के नाम पर हो, राजनीति के नाम पर हो..वगैरह, वगैरह।

साहित्य के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री अशोक वाजपेयी ने कहा कि लोग प्रायः इस मुगालते में हैं कि साहित्य समाज को रास्ता दिखाएगा।  यह धारणा गलत है क्योंकि कोई कालिदास या कबीर को इसलिए नहीं पढ़ता कि वह यह जानना चाहता है कि उस समय का समाज कैसा था।  साहित्य केवल आधा सच होता है और पढ़ने वाले के उस आधे सच को अपने सच से जोडने से अलग-अलग रूप में सच्चाई सामने आती है, अपने-अपने विचारानुसार।

आज के मानव जीवन से जो तीन चीज़े लुप्त हो रही हैं  वो है पड़ोसी, अकेलापन और परिवेश। आज का व्यक्ति अपने पड़ोसी से कोई सम्बंध नहीं रखता।  उसे कभी अकेलापन मुयस्सर नहीं होता क्योंकि वह यथार्थ से दूर   एक वर्चुअल दुनिया में रहता है;  या तो टीवी के सहारे या सेल फोन के सहारे...  अपने को कोलाहल से जोड़े रखता है।  परिवेश की  विशेषता आज छूटती जा रही है क्योंकि हर स्थान पर एक जैसी दुकानें, एक जैसा बेगानापन और एक जैसा माहौल तैयार हो रहा है।  पहले हर स्थान कि अपनी विशेषता होती थी और वहाँ का बाशिंदा इस विशेषता पर गर्व किया करता था।

यह सब सुन कर मैं सोंचने लगा हूँ कि आज का समय, समाज और साहित्य उस समय से कितना भिन्न है जब साहित्य को कंठस्त किया जाता था, आत्मसात किया जाता था; समाज एक परिवार था और ज़रूरत के समय  कोई भी व्यक्ति एक दूसरे के काम आने के लिए तत्पर रहता था।

मन यही कहता है.... कोई लौटा दे मेरे बिते हुए दिन ... बिते हुए दिन वो प्यारे पल छिन॥

[वैसे  इस  आयोजन  की सचित्र  रपट "यहाँ" भी देखी जा सकती है.]

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

मजाज़ - Majaaz


उर्दू का कीट्स- ‘मजाज़’


खूब पहचान लो असरार हूँ मैं।
जिन्से-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं॥
इश्क ही इश्क है दुनिया मेरी।
फ़ित्नाए-अक्ल से बेज़ार हूँ मैं॥
ख़्वाबे-इश्रत में है अरबाबे-खिरद।
और इक शायरे-बेदार हूँ मैं॥ 
ऐब जो हाफ़िज़-ओ-खैय्याम में था।
हाँ कुछ उसका भी गुनहगार हूँ मैं॥
ज़िन्दगी क्या है गुनाहे-आदम।
ज़िन्दगी है तो गुनाहगार हूँ मैं॥

यह सदा देनेवाला शायर था असरार-उल-हक़।  सन्‌ १९०९ में अवध के प्रसिद्ध कसबे रुदौली में जन्मे इसी असरार ने आगे चल कर ‘मजाज़’ तख़ल्लुस अपनाया और उर्दू अदब में उसका नाम शराबी अक्षरों में लिखा गया।  पिता सिराज-उल-हक़ एक ज़मींदार थे और उन्होंने अपने पुत्र असरार को प्रारम्भिक शिक्षा के लिए लखनऊ के अमीनाबाद हाई स्कूल भेजा था।  उच्च शिक्षा के लिए उन्हें आगरा के सेंट जॉन्स कालेज में दाखिल कराया गया था।  यहाँ पर उनकी संगत मुईन अहसन ‘जज़्बी’ और ‘फ़ानी’ जैसे शायरों से हुई और यहीं से उनकी शायरी परवान चढ़ी। बाद में उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय से बी.ए. किया और मजाज़ तख़ल्लुस से शायरी करने लगे। मजाज़ की शायरी में हुस्न-ओ-इश्क के इतने नाज़ुक खयाल रहते थे कि उन्हें उर्दू का कीट्स कहा जाने लगा था।  उन्होंने अपने खयालात को कुछ इस तरह अपनी शायरी में ढाला:

इश्क का ज़ौक़े-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है।
हुस्न खुद बेताब है जल्वे दिखाने के लिए॥

क्या हुआ मैंने अगर हाथ बढ़ाना चाहा?
आपने खुद भी तो दमन न बचाना चाहा॥

यूँ तो अफ़साना-ए-उल्फ़त था अज़ल से रंगीं।
हमने कुछ और भी रंगीन बनाना चाहा॥

मुझसे मत पूछ ‘मेरे इश्क में क्या रखा है?’
सोज़ को साज़ के पर्दे में दबा रखा है॥

वो मेरे शेर जब मेरी ही लय में गुनगुनाती थी
मनाज़िर झूमते थे बामो-दर को वज़्द आता था।

भड़कती जा रही है दम-ब-दम आग-सी दिल में
ये कैसे जाम है साक़ी, ये कैसा दौर है साक़ी।

मुझे पीने दे, पीने दे कि तेरे जामे-लअली में
अभी कुछ और है, कुछ और है, कुछ और है साक़ी॥

मजाज़ न केवल हुस्न के शैदा थे बल्कि व्यंग्य और चुटकुलेबाज़ी का मौका भी कभी नहीं गंवाते थे।  एक बार रास्ते में चलते-चलते न जाने क्या सूझी कि राह में खड़े तांगेवाले से पूछ बैठे-"क्यों मियाँ, कचहरी जाओगे?"  उसने तपाक से कहा-"हाँ जनाब।" "तो फिर जाओ" कह कर मजाज़ अपना रास्ता नापने लगे।

एक बार किसी मित्र की पत्नी के देहान्त पर सांत्वना देने गए मित्रों में एक ने सुझाव दिया ‘अभी लम्बी उम्र पड़ी है तो दूसरा ब्याह क्यों नहीं कर लेते?’ उन महाशय ने बड़ी गम्भीरता से कहा-‘चाहता तो हूँ कि किसी बेवा से कर लूँ।’ ‘इसकी फिक्र मत कीजिए, आप शादी कर लीजिए, वह बेचारी खुद बेवा हो जाएगी।’ तपाक से मजाज़ ने कह दिया।

इस खुशमिजाज़ शायर की दुनिया ने १९३६ में पलटा खाया जब वह ‘आवाज़’ पत्रिका का सम्पादक बनकर दिल्ली आया।  शायद किस्मत ने इसलिए ऐसा गम्भीर मज़ाक किया कि शायर के दिल पर चोट लगे और उसकी शायरी को धार मिले।  उन्हें एक अत्यंत सुंदर लड़की से इश्क हो गया जो एक सम्पन्न घराने की बहू थी।  नदी के दो किनारे तो कभी नहीं मिल सकते।  बस, शायर को गम के सागर में ऐसा डुबोया कि जीवन भर उससे वह उबर ही न सका।  मजाज़ ने उस इश्क की मजबूरी को कुछ इस तरह बयान किया है-

वो मुझको चाहती है और मुझ तक आ भी नहीं सकती।
मैं उसको पूजता हूँ और उसको पा नहीं सकता॥
ये मजबूरी सी मजबूरी, ये लाचारी सी लाचारी।
कि उसके गीत भी जी खोलकर गा नहीं सकता॥
हदें वो खैंच रखी है हरम के पासबानों ने।
कि बिन मुजरिम बने पैगाम भी पहुँचा नहीं सकता॥

इस हादसे के बाद मजाज़ शराब में सराबोर होने लगा।  न खाने की सुध, न कपड़ों का खयाल, न सेहत की फिक्र... बस एक ही धुन कि शराब कब, कहाँ और कितनी मिलेगी।

अब ये अरमाँ कि बदल जाए जहां का दस्तूर
एक-इक आँख में हो ऐशो-फ़रागत का सुरूर
एक एक जिस्म पे हो अतलसो-क़म-ख़ाबो-समूर
अब ये बात और है खुद चाके गिरेबां हूँ मैं।

एक अच्छा शायर एक घटिया शराबी बनकर रह गया।  दोस्तनुमा दुश्मनों ने भी इसका फायदा उठाया।  जाम पर जाम पिलाते और उनसे शायरी सुनते जाते-

हाय वो वक्त कि जब बेपिये मदहोशी थी।
हाय ये वक्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं॥

‘मजाज़’ इक बादाकश तो है यकीनन।
जो हम सुनते थे वो आलम तो नहीं॥

वां इशारे है बहक जाना ही ऐने-होश है।
होश में रहना यक़ीनन सख़्त नादानी है आज॥

मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़्मे गा नहीं सकता।
सुकूँ लेकिन मेरे दिल को मुयस्सर आ नहीं सकता॥
कोई नग़्मा तो क्या अब मुझसे मेरा साज़ भी ले लो।
जो गाना चाहता हूँ आह, वो मैं गा नहीं सकता॥

हालत यह हो गई कि वे दिल्ली छोड़कर वापस लखनऊ चले गए।  दिल के हाथों इतने मजबूर थे कि शराब से घाव भरने की कोशिश करते रहे और हालत यहाँ तक पहुँची कि वे मानसिक रोगी हो गए।  उन्हें अस्पताल पहुँचाया गया।  वहाँ पर उनकी तीमारदारी करनेवाली नर्स के बारे में उनका कहना था-

वो इक नर्स थी चारागर जिसको कहिए
मुदावा-ए-दर्दे-जिगर जिसको कहिए।
सफेद और शफ़्फ़ाक कपड़े पहन कर
मेरे पास आई थी इक हूर बनकर।
कभी उसकी शोक़ी में भी संजीदगी थी
कभी उसकी संजीदगी में भी शोक़ी।
घड़ी चुप, घड़ी करने लगती थी बातें
सिरहाने मेरे काट देती थी रातें।
अजब चीज़ थी वो अजब राज़ थी वो
कभी सोज़ थी वो कभी साज़ थी वो।
दवा अपने हाथों से मुझ को पिलाती
‘अब अच्छे हो’ हर रोज़ मुयदा सुनाती।

मजाज़ भले ही शबाब से धुत्कारे गए थे, शराब में डूब भी गए थे, लेकिन वक्त की रफ़्तार पर भी उनकी नज़र थी, तभी तो वे कहते हैं-

मुफ़लिसी और मज़ाहिर है नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्ताने जाबिर हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़ो-नादिर है नज़र के सामने
ऐ ग़मे-दिल क्या करूँ, ऐ वहशते-दिल क्या करूँ?

सब्ज़ा-ओ-बागो-लाला-ओ-सर्वो-समन को क्या हुआ?
सारा चमन उदास है हाय चमन को क्या हुआ?
कोई बताइये अज़मते-ख़ाके-वतन को क्या हुआ?
कोई बताये ग़ैरते-अहले-वतन को क्या हुआ?

बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना।
तेरी ज़ुल्फ़ों का पेंचो-ख़म नहीं है॥
बहुत कुछ और भी है इस जहां में।
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है।

मुझे आज साहिल पे रोने दो,
कि तूफ़ान में मुस्कुराना है।
ज़माने से आगे तो बढ़िये ‘मजाज़’
ज़माने को आगे बढ़ाना है।

बादल, बिजली, रैन अंधियारी
दुख की मारी दुनिया सारी
बूढ़े बच्चे सब दुखिया हैं,
दुखिया नर है दुखिया नारी।
बस्ती-बस्ती लूट मची है
सब बनिया है सब ब्यौपारी
बोल अरी ओ धरती बोल
राज सिंहासन डाँवाडोल॥

अक्ल के मैदान में ज़ुल्मत का ही डेरा रहा।
दिल में तारीकी, दिमागों में अंधेरा ही रहा॥
ज़हने-इन्सानी ने अब औहाम के ज़ुल्मात में।
ज़िन्दगी की सख्त तूफ़ानी अंधेरी रात में॥...
कुच नहीं तो ख़्वाबे-सहर देखा तो है।
जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है॥

होश की हालत में मजाज़ एक संजीदा और छोटे-बडे का लिहाज़ करने वाले व्यक्ति थे।  महिलाओं के सामने उनकी नज़र नहीं उठती थी।  वे नारी-जाति का सम्मान करते थे और महिलाओं को ऐसी बुलन्दी पर देखना चाहते थे कि वे पुरुषों की भाग्यरेखा बन जाए।

तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मत का तारा है
अगर तू साज़-ए-बेदारी उठा लेती तो अच्छा था...
तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल को इक परचम बना लेती तो अच्छा था॥

हुस्न से मात खाए इस शायर को शराब ने धीरे-धीरे पीना शुरू कर दिया।  शराब के नशे में चूर एक रात शराबखाने की खुली छत पर सर्दी में पड़े रहने के कारण दिमाग की रग फट गई।  सुबह बलरामपुर के अस्पताल में दाखिल कराया गया और ६ दिसम्बर १९५५ को इस अज़ीम शायर ने दुनिया को अलविदा कहा-

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज़ से आखिर
अभी फिर दर्द टपकेगा मेरी आवाज़ से आखिर
अभी फिर आग उठेगी शिकस्ता साज़ से आखिर
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज़ से आखिर॥

कोई दम में हयाते-नौ का फिर परचम उठाता हूँ
बा-ईमा-ए-हमीयत जान की बाज़ी लगाता हूँ
मैं जाऊँगा, मैं जाऊँगा, मैं जाता हूँ, मैं जाता हूँ
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-साज़ से आखिर॥  



सोमवार, 11 अप्रैल 2011

वासिरेड्डी सीता देवी - Vasireddy Seeta Devi



मृगतृष्णा कभी सच नहीं होती- ‘मरीचिका’


तेलुगु साहित्य जगत में वासिरेड्डी सीता देवी (१९३२-२००७) का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। सीता देवी ने अपने उपन्यासों में नगरीय एवं ग्रामीण जीवन का सुंदर वर्णन किया है और जीवन की विसंगतियों को उजागर किया है।  उन्हें ग्रामीण जीवन नज़दीक से देखने का मौका उस समय भी मिला जब वे आंध्र प्रदेश सरकार के युवा सेवा निदेशालय में उप-निदेशक की हैसियत से काम करती रहीं।  अंत में जवाहर बाल भवन निदेशक पद से उनकी सेवानिवृत्त हुई। उन्होंने कई कहानियाँ एवं उपन्यास लिखे जिनमें अडवि मल्ले [जंगली चमेली], वैतरणी और मट्टिमनिषि [माटी का मानव] उल्लेखनीय हैं।  सब से अधिक चर्चा का उनका उपन्यास रहा ‘मरीचिका’ जिसे चार वर्ष तक आंध्र प्रदेश सरकार ने यह घोषित करते हुए प्रतिबंधित किया कि ‘यह उपन्यास युवा पीढ़ी को पथ भ्रष्ट कर उन्हें नक्सलवाद की तरफ जाने की प्रेरणा देता है’।  एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद इसे पुनः प्रकाशन की स्वीकृति दी गई।  इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक डॉ. पोलि विजय राघव रेड्डी तथा डॉ.(श्रीमती) लक्ष्मीकांतम ने मिल कर किया है। 

‘मरीचिका’ उपन्यास में दो सहेलियों के जीवन का वृत्तांत है जिनको उनके माता-पिता ने खुली छूट दे रखी थी।  दोनों सहेलियों के माता-पिता पुराने संस्कार और विचारों के लोग थे जो यह मानते थे कि स्त्री का जीवन विवाह और परिवार के इर्दगिर्द ही सुखी रह सकता है।  परंतु इन दो सखियों- शबरी और ज्योति के विचार कुछ भिन्न थे।  शबरी खुली हवा में, खुले माहौल में बिना रोक-टोक के विचरना चाहती थी।  धन की कमी नहीं थी।  बस, उसे खुला माहौल मिला तो हिप्पियों के जीवन में। चरस, गांजा और एल.एस.डी के ट्रिप में फँस कर रह गई और हिप्पियों की संस्कृति के अनुसार किसी दिन सडक पर ही अंतिम सांस ली। 

सीता देवी ने हिप्पियों के जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला है और वे उस प्रक्रिया का भी वर्णन करती है जिसमें फँस कर व्यक्ति बाहर कभी नहीं निकल सकता।  अपने एक चरित्र के माध्यम से वे बताती हैं कि ‘साधारणतया मरिजुआना से चरस की, चरस से अफ़ीम की, उसके बाद पेथिड्रिन, फिर धीरे-धीरे डेक्सिड्रिन की आदत पड़ जाती है।  उसके बाद एल.एस.डी लेते हैं। एल.एस.डी का प्रभाव नसों पर होता है।  प्रभाव भी धीरे-धीरे होता है, पर हिरोइन का ऐसे नहीं।... हिरोइन को हेच्‌ या हार्स पावर कहते हैं।  इसके आदी होने वाले को भूख ही नहीं लगती।  दुनिया से कोई नाता ही नहीं रहता।  हिरोइन का इंजेक्शन पहले मांसपेशी में लेते है। उसे जॉयपापिंग कहते है।  जॉयपापिंग लेने के बाद वे हिप्पियों से अलग हो जाते हैं, उन्हें जनकीज़ कहते हैं।  तुरंत जनकीज़ का शरीर फूल कर पहचानने लायक नहीं रहता।  वे मृत्यु को चाहने लगते हैं। वे ज़्यादा दिन जीवित नहीं रहते; ज़्यादातर आत्महत्या कर लेते हैं।’

शबरी एक बार अपने दोस्त के साथ इस चक्कर में पड़ती है तो फिर निकल नहीं पाती और दोनों को अंत में सड़क पर ही पाया जाता है।  इस प्रकार बुरी संगत का एक धनाड्य परिवार की पुत्री भी सड़क पर तड़प तड़प कर अपने जीवन का अंत करती है।

शबरी की सहेली ज्योति क्रांतिकारी विचारों की लड़की है।  उसके माता-पिता अमेरिका में बसे उनके ही रिश्तेदार से करना चाहते हैं।  परंतु ज्योति यह सोचती है कि जो व्यक्ति अपना देश छोड़ कर विदेश जा बसा है और केवल पैसे के पीछे ही दौडेगा, उसके साथ जीवन बिताने से अच्छा तो ग्रामीण लोगों की सेवा में अधिक सार्थकता है।  एक दिन वह चुपके से घर छोड़ कर निकल जाती है और क्रांतिकारी जीवन को प्राथमिकता देती है।  इसके लिए वह नक्सलियों से सम्पर्क करती है और उनमें मिल जाती है।  

वहाँ के जीवन के बारे में सीता देवी अपने एक चरित्र के माध्यम से बताती है कि किस प्रकार हर व्यक्ति दूसरे पर शक करता है। ज्योति को अहसास होता है कि क्रान्तिकारी जीवन ही ऐसा होता है।  बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है।  इसके बावजूद यहाँ आत्मीयता और प्रेम भाव भी मिलता है।  सोशलिस्ट व्यवस्था में ही यह साध्य हो सकता है।  जब तक करोड़ों लोगों में जीर्ण हुई कहानियाँ, लोककथाएँ, परम्पराएँ, आदतें, भगवान, शैतान, कुल, मत, जाति-पाँति, पूँजीवादी व्यवस्था के उलट-फेर आदि हैं, समाज को कैसे बदला जा सकता है?  यह सब उनके खून से अलग किए बिना उनमें क्रान्ति के प्रति चेतना नहीं आएगी।  ये अवलक्षण हटाए बिना जनता जागृत नहीं होगी।

अंत में होता यह है कि जब ज्योति और उसका साथी सत्यम एक ज़मींदार की हत्या के लिए जाते हैं तो उसकी खबर पुलिस को लग जाती है।  इसका अर्थ यह है कि एक दूसरे पर शक करना और चौकन्ना रहना किसी भी नक्सली के लिए आवश्यक है।

क्रास फ़ायर में सत्यम घायल हो जाता है और उसके पैर में लगी गोली से लहू टपकने लगता है।  वे जंगल की ओर भागते हैं।  दुर्गम जंगल व पहाडियों को लांघना सत्यम के लिए कठिन हो जाता है।  उधर पुलिस घेराबंदी करती है।  तब सत्यम ज्योति को भागने के लिए मजबूर करता है जबकि वह उसे छोड़ कर नहीं जाना चाहती।[वे दोनों एक-दूसरे से दिल ही दिल में प्रेम करते है]।


सत्यम उसे समझाता है कि उसका बचना मुश्किल है इसलिए ज्योति को भागना ही होगा। वह जानता है कि जंगलों में बैठ कर क्रांति नहीं लाई जा सकती।  वह ज्योति से कहता है-"इन पेड़ों के बीच से हट कर मनुष्यों के बीच चली जाओ।  गाँव में जो मज़दूर हैं, उनके पास चली जाओ।  उनके बीच एक बन कर जीवन बिताओ।  मार्क्सवाद, लेनिनवाद उन्हें समझाओ। पीड़ित जनता में विप्लव की चेतना जगाओ।"

  वह भागते हुए सोचती है कि ‘काम्रेड सत्यम आत्मसमर्पण कर रहा है.. किसके लिए?  मेरे लिए ही।  मेरी रक्षा के लिए ही तो दुश्मन के सामने खड़ा है।... दुश्मनों के बीच में चक्रव्यूह में फँसे अभिमन्यु की तरह ज़मीन पर लुढ़कता हुआ सत्यम, मेरे दिल में सुरक्षित सत्यम को ... काम्रेड सत्यम, प्रणाम! प्रणाम! प्रणाम!

इस उपन्यास के दो सहेलियों ने दो अलग-अलग रास्ते चुने, अलग-अलग प्रेमी चुने। एक का  विक्षिप्त अंत हुआ और दूसरी को जीवन संग्राम की नई उर्जा मिली। सीता देवी के लेखन में इतनी गहराई है कि पाठक एक दम इस उपन्यास में डूब जाता है।

इस उपन्यास का अनुवाद भी मूल का स्वाद देता है।  ऐसा नहीं लगता कि हम अनूदित उपन्यास पढ़ रहे हैं। इसके लिए अनुवादक-द्वय  बधाई के पात्र हैं।  बधाई के पात्र आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी, हैदराबाद भी है जिनके आंशिक अनुदान से इस उपन्यास का प्रकाशन सम्भव हो पाया।


पुस्तक विवरण

उपन्यास का नाम : मरीचिका
उपन्यासकार : वासिरेड्डी सीता देवी
अनुवाद : डॉ. विजय राघव रेड्डी एवं डॉ.[श्रीमती] लक्ष्मीकांतम
मूल्य : ३५० रुपये
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
         २१-ए, दरियागंज, 
         नई दिल्ली- ११० ००२.  

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

सलमान रुश्दी- Salman Rushdie


भारतीय मूल के अंतरराष्ट्रीय लेखक- सलमान रुश्दी 


सन्‌ १९४७ ई. में मुम्बई में जन्में  सलमान रुश्दी अपने अंग्रेज़ी उपन्यासों के माध्यम से अंतरराष्ट्रिय ख्याति प्राप्त कर चुके हैं।  उनका दूसरा उपन्यास ‘मिडनाइट चिल्ड्रन’ भारतीय पृष्ठभूमि में लिखा गया था और इसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली थी।  अपने जीवन के कठिनतम दौर से उन्हें उस समय गुज़रना पड़ा जब उनका पाँचवा उपन्यास ‘द सेटेनिक वर्सेस’ उनके जीवन का जंजाल बन गया।  जब कभी इस पर उनसे कोई बात करता है तो वे कहते हैं कि वो उस दौर को भूलना चाहते हैं और आगे के लेखन पर अपनी उर्जा लगाना चाहते हैं।

सलमान रुश्दी ने अपने साढ़े छः दशक के जीवन में चार शादियाँ कीं पर शायद उन्हें वैवाहिक जीवन रास नहीं आया।  पहले उन्होंने क्लारिया लॉर्ड से, फिर मारियान विग्गिन से, फिर एलिज़ाबेथ वेस्ट से और अंत में भारतीय मूल की पद्मा लक्ष्मी से विवाह किया; परंतु उनका कोई भी स्थाई जीवन साथी नहीं बन सका।

सलमान रुश्दी ने अपने पुत्र के लिए एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक है ‘हरून एण्ड द सी ओफ़ स्टोरीज़’। उन्होंने बाल-कहानियाँ ‘एलिस इन वंडर लैंड’, ‘पीटर पैन’ ‘विन्नी द पू’ जैसी पुस्तकों का हवाला देते हुए कहा है कि वे यह मानते हैं कि बच्चों के लिए लिखी हर पुस्तक बड़ों को भी रोचक लगती है क्योंकि हर मनुष्य में कहीं न कहीं उसका बच्चा व बचपन जीवित रहता हैं।  


रविवार, 3 अप्रैल 2011

शमशेर शताब्दी पर नामवर जी ने उठाए नए सवाल


शमशेर बहादुर  सिंह के शताब्दी वर्ष में हैदराबाद के हिंदी और उर्दू  अदीबों के बीच ३० और ३१ मार्च के कार्यक्रमों को लम्बे समय तक इसलिए  याद किया जाएगा कि हैदराबाद में इस दो दिवसीय सम्मेलन में डॉ. नामवर सिंह ने हिंदी और उर्दू की दो बड़ी राष्ट्रीय संस्थाओं के संयुक्त मंच से शमशेर को याद किया।  उन्होंने और  दूसरे विद्वानों  ने भी अनेक विचारोत्तेजक वक्तव्य दिए जिन पर आगे बहस की दरकार है।  पिछले दो दिन के इस समारोह की विस्तृत रिपोर्ट इसके सूत्रधार प्रो. ऋषभ देव शर्मा के सौजन्य से यहां दी जा रही है।  

शमशेर  शताब्दी समारोह संपन्न
शमशेर  राजनीति नहीं,  सौंदर्य  के कवि हैं    - नामवर  सिंह
हैदराबाद  में   शमशेरियत का पूरा  चाँद  देखने  को मिला -  नामवर सिंह

हैदराबाद, 2  अप्रैल, 2011। (ऋषभदेव    शर्मा)।

‘शमशेर  बहादुर   सिंह   हिंदी और उर्दू  दोनों    भाषाओं   के  बड़े   कवि थे।   गद्यकार भी  वे   उतने  ही बड़े   थे। वे  इकलौते ऐसे  आलोचक  हैं जिन्होंने  हाली की उर्दू    रचना ‘मुसद्दस’   और मैथिलीशरण गुप्त  की हिंदी  रचना ‘भारत  भारती’ की गहराई  से तुलना करते हुए  दोनों   के रिश्ते   की पहचान की। इक़बाल  पर भी हिंदी   में  उन्होंने ही  सबसे  पहले  लिखा।  वे  हिंदी  और  उर्दू  के  बीच  किसी  भी   प्रकार   के  भेदभाव और    टकराव  के   विरोधी थे।  इसीलिए  तो    उन्होंने कहा था  - ‘वो   अपनों  की बातें,   वो  अपनों     की खू    बू / हमारी  ही  हिंदी हमारी    ही उर्दू।’  इतना ही  नहीं, नितांत   निजी क्षणों    में   भी    उन्हें     उर्दू   ज़बान  ही याद आती थी।   उदाहरण  के लिए  मुक्तिबोध  पर उनकी उर्दू  में  लिखी  कविता  को देखा जा सकता है।’’

ये विचार हिंदी   समीक्षा  के  शलाका पुरुष प्रो.  नामवर सिंह  ने  30-31मार्च,  2011 को  हैदराबाद में  आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय  संगोष्ठी  ‘शमशेर शताब्दी समारोह’  के उद्घाटन  सत्र में   बुधवार  को बीज व्याख्यान देते हुए  व्यक्त   किए। यह  समारोह  उच्च शिक्षा  और  शोध संस्थान,  दक्षिण   भारत   हिंदी  प्रचार   सभा और  मौलाना आजाद राष्ट्रीय  उर्दू  विश्वविद्यालय के  संयुक्त  तत्वावधान में   संपन्न हुआ। प्रो. नामवर  सिंह ने  इसे एक अच्छी शुरुआत  मानते  हुए  कहा कि शमशेर हिंदी-उर्दू की गंगा-जमुनी  तहजीब  के  अपने ढंग  के  विरले अदीब थे। हिंदी और  उर्दू  की  राष्ट्रीय  महत्व  की  दो  बड़ी  संस्थाओं  ने  हिंदी-उर्दू  के  इस  दोआब को  पहचाना  है,  यह  बहुत महत्वपूर्ण  घटना  है।  इस बहाने  इन दोनों   भाषाओं   के परस्पर  नज़दीक   आने का जो  सिलसिला  शुरू हुआ है  वह  हैदराबाद से आरंभ होकर देश  भर में  फैलना चाहिए।  डॉ.    नामवर  सिंह ने  याद दिलाया कि शमशेर   बहादुर   सिंह  ने  1948    में  निजामशाही के  खिलाफ  भी    एक छोटी   सी नज़्म लिखी   थी  -   ‘ये   चालबाज हुकूमत    दुरंगियों का गढ़/बनी  हुई  है  अभी  तक फिरंगियों  का  गढ़ / लगे  अवाम  की  ठोकर  निज़ाम  शाही  को।’  साथ  ही  डॉ.  सिंह ने यह भी    ध्यान दिलाया कि आप शमशेर को सियासी  कवि न समझें,  वे   सही अर्थों  में ऐस्थीट  थे - सुंदरता  के कवि थे।  वे   रंगों  से खेलते थे,  शब्दों    से खेलते थे।   उनके रचनाकार  व्यक्तित्व का एक हिस्सा अपने प्यारे शायर मजाज़ का है  पर वे  उतने  पॉलिटिकल   नहीं हैं ।  वे   चित्रकार  भी   थे   और  एक खास किस्म की एम्बिगुइटी,  एक खास किस्म का पेंच,   उनकी  कविताओं   में    है। इसीलिए  वे   उतने    पॉपुलर  नहीं  है     जितने  कि  गर्जन-तर्जन  करनेवाले सियासी  कवि हुआ करते हैं।’’

डॉ.  नामवर सिंह ने शमशेर  के  संकोची  व्यक्तित्व   से लेकर  उनके चित्र और कविताओं  के  संबंध तक की व्याख्या  की और  कहा कि उनकी कविता इशारा ज्यादा करती है,   बोलती  कम  है।   शमशेर   के गद्य  की शक्ति  को भी उन्होंने    वाणी के संयम में   निहित माना।  उन्होंने   कहा कि शमशेर  की समग्र रचनावली आनेवाली है  और   उनकी  रचनाएँ  हिंदी  तथा  उर्दू  दोनों  भाषाओं  का साझा  सरमाया  है। इसलिए  उनके  साहित्य  पर,  उसके  हर  एक पक्ष  पर साझा दृष्टिकोण  से विचार करने की जरूरत है।   अंत  में   उन्होंने      निष्कर्ष  दिया कि दूसरा  शमशेर नहीं हुआ - न हिंदी  में, न उर्दू  में।   उन्होंने    इस बात की ओर  भी   ध्यान दिलाया कि यह  वर्ष मजाज़ का भी   शताब्दी वर्ष  है,परंतु साहित्य   जगत का इस ओर   कोई ध्यान नहीं है जबकि अपने समकालीन फैज  अहमद फैज जैसे शायरों  की तुलना में  वे   कहीं बड़े   शायर हैं।

समारोह का उद्घाटन  करते  हुए  डॉ.  गंगा  प्रसाद विमल  ने  कहा  कि  लोक  में शमशेर लोकप्रिय  कवियों से ज्यादा  रमे  हुए  हैं।  वे    मुकम्मिल  तौर  से हिंदुस्तान में  रचे  बसे ऐसे  कवि हैं जिन्होंने प्रेमचंद   की तरह  उम्दा  हिंदी   और   बेजोड़ उर्दू   में लिखा  है।  उन्होंने हिंदी    की कविताभाषा   को  हिंदुस्तानियत  के  लहजे से पुष्ट किया।  इसी  के  कारण  उनकी  शमशेरियत लोगों  से  अपना  लोहा  मनवा लेती  है। डॉ.  गंगा  प्रसाद  विमल  ने  आगे  कहा कि  यद्यपि शमशेर बहुत मुश्किल कवि हैं लेकिन  उनके  साहित्य  से  यह  पता  चलता  है  कि  वे  हिंदुस्तान से बेइंतहा मुहब्बत  करनेवाले कवि हैं।  यही कारण  है कि गुरबत,  युद्ध  और आतंक के  जो चित्र उन्होंने  अपनी रचनाओं  में उकेरे  हैं वे   ज्यादा  प्रभावी     हैं।  खास तौर से हिंदुस्तानी  भाषा   के  अपने  संस्कार   के  कारण वे   आज हमारे  लिए  बेहद प्रासंगिक  हैं।  गंगा  प्रसाद  विमल  ने  अपने  खास  अंदाज  में  जब  यह  कहा  कि मैं तो  चाहता  हूँ कि हिंदी  और  उर्दूवाले  उनके  लिए  इस तरह  लडें  जिस तरह कभी हिंदू  और  मुसलमान  कबीर  के  लिए  लड़े  थे,  तो  सभाकक्ष   करतल ध्वनियों  से गूँज  उठा।  डॉ.  गंगा  प्रसाद  विमल  ने  अपनी  बात समाप्त  करते हुए  कहा कि जमहूरियत के इलाके  में   सेक्यूलर बनकर  अपनी बातें  कहनेवाले शमशेर  हिंदुस्तानियत  की मुहिम  का आधार  बन सकते  हैं।

उद्घाटन सत्र के   आरंभ में    संयोजक  प्रो.  दिलीप  सिंह  ने   कहा कि शमशेर  जैसी शख्सियत हिंदी-उर्दू दोनों  जबानों  में    दूसरी बहुत  मुश्किल से मिलेगी।  उन्होंने नामवर सिंह   के  हवाले  से कहा कि हम लोग  यहाँ शमशेरियत  की खोज  के  लिए ही   जुटे  हैं। प्रमुख  भाषाचिंतक  दिलीप सिंह    ने  यह  भी    कहा कि  शमशेर   उर्दू काव्यभाषा  के संस्कार  को  हिंदी  में  संभव  बनानेवाले  कवि हैं  इसलिए उन्हें   हिंदी के  साथ  साथ  उर्दू    भाषा  और साहित्य  के पाठ्यक्रम  में   भी   शामिल  किया जाना चाहिए।

विशिष्ट  अतिथि   के रूप में   बोलते हुए  प्रो.   आमिना  किशोर  ने  शमशेर  के साहित्य   को  अंतरअनुशासनीय शोध  का विषय  बनाने की जरूरत बताई  और कहा कि हिंदी-उर्दू  के  ऐसे  रचनाकारों  को खोजा  जाना चाहिए जिनमें दोनों ज़बानों  का मेल है।   उन्होंने  भारत-पाक   क्रिकेट  मैच वाले दिन भी   खचाखच भरे   सभागार की ओर इशारा  करते हुए  यह  कहा कि साहित्य  के  द्वारा  जो  वैश्विक संदेश  दिया जा सकता  है,  कोई  क्रिकेट   वैसा  नहीं कर सकता।

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता मौलाना  आजाद राष्ट्रीय  उर्दू   विश्वविद्यालय  के कुलपति  प्रो.  मोहम्मद  मियाँ ने  की।   अध्यक्षीय वक्तव्य  में    उन्होंने  संगोष्ठी की समसामयिक प्रासंगिकता  और  हिंदी-उर्दू  को  नज़दीक लाने  के लिए इसके स्थायी  महत्व  का  समर्थन  किया  और  कहा  कि  भविष्य  में  शमशेर और  मजाज़  पर संयुक्त  संगोष्ठी  की जानी चाहिए।

उद्घाटन के   बाद    ‘शमशेर की स्मृति’  पर केंद्रित   सत्र में     प्रो.  दिलीप  सिंह  ने 'शमशेर : व्यक्ति    और रचनाकार’  शीर्षक  आलेख  प्रस्तुत  किया। उन्होंने   मुक्तिबोध के  हवाले  से कहा कि शमशेर की जिंदगी ठहराव में  रवानी  की दास्तान है।    अनेक प्रमाणों  के  साथ  उन्होंने    शमशेर   के  इस  वक्तव्य  की भी    परीक्षा की कि ‘सारी कलाएँ एक दूसरे  में    समोई  हुई     हैं’  और  यह  दर्शाया   कि शमशेर चित्र,  संगीत,  नाटक और  नृत्य  को भी   संप्रेषण युक्ति की तरह  इस्तेमाल करते हैं।   प्रो.    दिलीप सिंह  ने जहाँ   एक ओर  यह  कहा कि शमशेर  ने  निराला से आगे जाकर  नए  नए  काव्यरूप  और   भाषा    की संभावना  की तलाश  की है,   वहीं    यह भी    कहा कि निरंतर निज  से संवाद करनेवाले इस कवि की उर्दू  साहित्य  के लिए दीवानगी  अद्वितीय है। डॉ. दिलीप सिंह  के अनुसार  शमशेर  विचलन के  कवि हैं जो  उनकी  मानसिक जटिलता के  साथ  साथ  भाषा कौशल  को जाँचने   की उनकी ताकत का भी   प्रतीक है।     डॉ.  सिंह   ने याद दिलाया कि सुंदरता समशेर की कविता का बड़ा   हिस्सा   घेरती है,   ‘लीला’ उनका  प्रिय  शब्द  है,  वे  विराम  चिह्नों और  रिक्त  स्थान  तक का  बहुत  सतर्कता  से  प्रयोग  करनेवाले  लेखक  हैं तथा   सभी  प्रमुख  कवियों   और  आलोचकों  ने  उन    पर  लिखा  है   और     उन्होंने     भी इन पर लिखा  है    जो  अपने समकालीनों  से उनके रिश्तों   का पता देता   है।

प्रो. तेजस्वी  कट्टीमनी  ने   इसी बात को  आगे   बढ़ाते हुए   ‘लोगों    की स्मृतियों  में बसे  हुए  शमशेर'  पर प्रकाश    डाला। खास तौर    से नरेंद्र  शर्मा,  केदारनाथ  अग्रवाल,   नामवर   सिंह  और   रंजना अरगडे   के  हवाले  से उन्होंने    कहा कि  संकोची   स्वभाव वाले   शमशेर     अपने समय के   सबसे   अधिक  बहुमुखी   प्रतिभावाले   कवि  थे।  उन्होंने   शमशेर की उदारता   के  किस्से  सुनाते  हुए  बताया कि वे   तंगदिल नहीं  थे    और विपन्न   लोगों   के  प्रति उनके मन में  बड़ी   करुणा थी।  चरित्र के  ऐसे  ही गुण शमशेर   को केवल  अच्छा  कवि ही नहीं अच्छा  आदमी   भी  बनाते हैं।

इस सत्र में   डॉ.  गंगा  प्रसाद विमल ने शमशेर बहादुर   सिंह   से जुड़े   कई रोचक  प्रसंग  सुनाए   और उनकी नज़ाकत-नफ़ासत  का खासतौर  पर ज़िक्र  करते हुए  यह  भी    बताया कि उनका  कलाओं के  प्रति   इतना लगाव था   कि प्रायः  कला दीर्घाओं  के  चक्कर  लगाते रहते थे।  फ़ारसी  साहित्य   के प्रति  शमशेर के  प्रेम पर भी   उन्होंने  प्रकाश डाला। 

मुंबई   से पधारे   ‘हिंदुस्तानी’ के  समर्थक  भाषावैज्ञानिक  डॉ.  अब्दुस्सत्तार  दलवी  ने  स्मृति   सत्र की अध्यक्षता करते  हुए  कहा कि ‘‘शमशेर  महात्मा गांधी की हिंदुस्तानी  भाषानीति का सबसे  खूबसूरत उदाहरण पेश   करते  हैं। वे  ऐसे  अदीब  हैं  जिनका  साहित्य  हमारी  तहज़ीबी जिंदगी  का  बड़ा  सरमाया  है,  जिसमें  भारत  की संस्कृति   को पहचाना  जा  सकता है।’’  उन्होंने   कहा कि शमशेर  बहादुर  सिंह  के साहित्य   को  पढ़कर यह  बात समझ  में  आती  है  कि हिंदी.  के  बिना  उर्दू, और  उर्दू  के  बिना  हिंदी,  पूरी  नहीं  हो  सकती।  प्रो.  दलवी  ने  इस  बात की ओर भी   इशारा  किया कि शमशेर की भाषा में   सामाजिक  शैली  की विविधता अहेतुक  नहीं है  बल्कि उनके काव्यरूप  और  भाषारूप  में  गहरा भीतरी  नाता  है।    'शमशेर   की स्मृति’   विषयक  इस  सत्र  का  संयोजन  प्रो. ऋषभदेव  शर्मा  ने  किया तथा  डॉ.  मृत्युंजय  सिंह  ने वक्ताओं के  प्रति   आभार प्रकट   किया।

‘शमशेर की कविता’ पर केंद्रित विचार   सत्र की अध्यक्षता इंदिरा  गांधी  राष्ट्रीय  मुक्त  विश्वविद्यालय से पधारे  प्रो.सत्यकाम  ने  की।   उन्होंने  इस बात पर जोर दिया कि शमशेर   बहादुर सिंह  जैसी बड़ी  प्रतिभा   को  प्रगतिवाद,   प्रयोगवाद या अतियथार्थवाद  जैसे  किसी  खेमे   में कैद  नहीं  किया जा  सकता। उन्होंने    शमशेर को लोककवि  और  जनकवि  बताते  हुए कहा कि उनकी  बहुत सी कविताएँ  सीधे  मजदूर या संघर्ष  करने वालों से जुड़ती हैं, उनकी  कविता में   धर्मनिरपेक्षता   की बातें    निहित हैं और  वे चिंतनपरक  होने    के   बावजूद   अपनी संवेदनशीलता के  कारण हमारे  हृदय  को   भेदती  हैं। डॉ.  सत्यकाम ने  कहा कि शमशेर  एक कवि नहीं, कवियों के पुंज हैं  क्योंकि  उनकी कविताओं  में   परस्पर  विरोधी  प्रतीत होनेवाले कई  कवि झाँकते प्रतीत  होते    हैं।

अलीगढ़ विश्वविद्यालय   से आए डॉ.  अब्दुल  अलीम  ने 'शमशेर : काव्यानुभूति  के  आयाम’  विषय  पर अपने आलेख  में  कहा कि शमशेर की कविताओं  का रेंज  बहुत  व्यापक है,  वे न विषय  का सीमाबंधन स्वीकार कर सकते  हैं  और  न किसी एक भाषारूप  का।  विजयदेव  नारायण  साही  के हवाले से   शमशेर को  बिंबों  का कवि बताते  हुए  उन्होंने कहा कि उनके  काव्य  में  मानवीयता  और  विश्वव्यापी  चेतना  मौजूद     है  जो   यथार्थसापेक्ष है, और   समयसापेक्ष  भी।
  
‘शमशेर की काव्यभाषा’   पर दक्षिण  भारत  हिंदी प्रचार   सभा  के  कुलसचिव प्रो.  दिलीप  सिंह  ने  आलेख   प्रस्तुत   करते हुए  यह  माना  कि भाषा  के  स्तर  पर शमशेर का पाठ-विश्लेषण  कठिन काम है  जो  पाठक की मानसिकता और  भावना  के  बिना  संभव     नहीं    है।  उन्होंने कहा कि शमशेर   की कविता जीवन में    प्रेम  और  सत्य का स्थान खोजती   हुई   कविता है।    प्रो.   सिंह   ने सिद्ध   किया कि  आंतरिक  स्तर पर शमशेर   की समस्त  कविता ‘हिंदवी की लय’ से युक्त है   और उनकी काव्यभाषा  बहुत लचीली  और  संकेतात्मक  है।  इस लचीलेपन  के कारण  ही  वह अर्थ-सघन  और संश्लिष्ट  बन सकी  है।  शमशेर   की काव्यभाषा  में  सूफियाना ढब को रेखांकित  करते हुए प्रो.   दिलीप सिंह   ने कहा कि सांप्रदायिक  सौहार्द को  संभव  बनानेवाली  लोकभाषा  के  साथ  शमशेर   के  पास  उर्दू शब्दावली   ही  नहीं, उर्दू   साहित्य की पूरी  परंपरा और  भाषिक विधान   भी   मौजूद  है। उन्होंने  शमशेर को शैली के संयम  और  भाषा के  नियंत्रण  में कुशल   भाषा-सर्जक कवि सिद्ध किया।

काव्यभाषा विषयक चर्चा  को  आगे   बढ़ाया उच्च  शिक्षा और शोध संस्थान,  हैदराबाद के डॉ. ऋषभदेव शर्मा   ने। उन्होंने समाजभाषाविज्ञान  की एक संकल्पना  का आधार  लेकर ‘शमशेर की कविता में    रंग’  पर पर्चा पढ़ा। डॉ.ऋषभ के  अनुसार ‘‘शमशेर की  कविताओं  में   विविध  रंगों   का विविध  रूपों में   प्रयोग  सर्वथा समाजसिद्ध है  और  यह  सिद्ध  करने  में  समर्थ  है  कि  अपनी  समग्र  निजता  में  कवि  शमशेर बहादुर  सिंह  लोक, समाज और संस्कृति  के विविधवर्णीय  सौंदर्य  से  अनुप्राणित   रचनाकार हैं।  रंगों के  प्रति   उनका   आकर्षण  उनके   विविध अभिप्रायों   की  गहरी  समझ से जुड़ा   हुआ     है।’’  उन्होंने  ख़ासतौर  पर शमशेर  की -  ये  शाम  है,  कत्थई    गुलाब,  पूरा आसमान का आसमान, एक पीली  शाम, यह  गुलदाउदी  शाम,   सूर्यास्त,  उषा, प्रभात, एक स्टिल  लाइफ, फिर गया है समय का रथ,  वसंत आया, शंख पंख, धूप कोठरी   के  आईने में   खड़ी,  दिन किशमिशी ,  पूर्णिमा  का  चाँद, भुवनश्वर, शरीर  स्वप्न, एक नीला दरिया बरस रहा, वो  एक हरा-नीला सा कगार न था,  अम्न का राग, सौंदर्य, होली : रंग  और दिशाएँ  तथा सावन जैसी  कविताओं  का समाजभाषिक विश्लेषण  करते हुए प्रतिपादित   किया कि ‘‘शमशेर  बहादुर  सिंह   की संवेदनशीलता  का प्रसार पौराणिक   और  छायावादी   संस्कारों  से लेकर अंग्रेज़ी और ख़ासतौर   पर उर्दू    परंपरा तक परिव्याप्त  है।   समाजसिद्ध भाषा   के  अनेक धरातलों  और  संस्कारों  को  एक साथ साध  पाने के सामर्थ्य  के कारण  ही वे   बड़े  कवि हैं - महान, कालजयी और अद्वितीय; जिनका अनुकरण नहीं   हो सकता।’’

जोधपुर से पधारे  डॉ.  श्रवण  कुमार   मीणा  ने शमशेर की गज़लों  का विश्लेषण किया और  कहा कि इनमें प्रेम  और  सौंदर्य  के  साथ  साथ  तत्कालीन  कविता के  वर्ण्य  विषयों   मोहभंग,   निराशा   और  आम आदमी  की पीड़ा को   भी    अभिव्यक्ति  प्राप्त  हुई   है।    उन्होंने  यह  भी  दिखाने  की कोशिश  की  कि शमशेर  के  गज़लकार  पर उनका कवि रूप हावी  है।

दिल्ली से पधारे कविवर डॉ. हीरालाल  बाछोतिया के  सुचिंतित   आलेख  का विषय था   ‘शमशेर : शोक गीतों के आईने  में’  जिसमें उन्होंने  जवाहरलाल नेहरु, सुभद्राकुमारी  चौहान,  मुक्तिबोध,  भुवनेश्वर   और   मोहन  राकेश  पर लिखी शमशेर  बहादुर  सिंह की कविताओं  की संवेदनशीलता , गहरे  मानवीय बोध और शैलीय  बुनावट की व्याख्या करते हुए कहा  कि मौत  को  भी   रोमांटिक  रूप में   प्रस्तुत करना केवल  शमशेर  के लिए  ही   संभव    है। अध्यक्ष मंडल  के  सदस्य प्रो. टी.मोहन  सिंह   ने  शमशेर  की जनपक्षधरता और  प्रयोगधर्मिता  को  तेलुगु साहित्यकार श्रीश्री से तुलनीय बताया जो  कि शमशेर के  समवयस्क  और समकालीन  थे।  इस  सत्र  का  संयोजन  डॉ.  जी.वी. रत्नाकर ने  किया  तथा  डॉ. जी.  नीरजा  ने वक्ताओं  और  श्रोताओं का धन्यवाद प्रकट  किया।

दूसरे दिन यानी   31  मार्च, 2011   (गुरुवार)  को  आयोजित विशेष सत्र में   प्रो.  नामवर  सिंह  ने  लगभग   पौन घंटा  शमशेर   से संबंधित संस्मरण   सुनाकर श्रोताओं   को  भावविगलित  तो   किया ही,  वैचारिक  रूप से समृद्ध  भी  बनाया।  उन्होंने   बनारस, इलाहाबाद,  दिल्ली,  उज्जैन   और अहमदाबाद में    शमशेर   से अपनी मुलाकातों  की चर्चा करते हुए  बताया कि एक समय शमशेर   कम्युनिस्ट  पार्टी  के  कम्यून  में    रहते थे  जहाँ  उनकी  घनिष्ठता बच्चन  और   नरेंद्र शर्मा  के अलावा  प्रकाश  चंद्र  गुप्त  और तीन अग्रवाल बहनों  से थी।  नामवर जी ने  बताया कि शमशेर  की आँखों  पर  कम उम्र  में  ही   मोटा चश्मा चढ़  गया था।  वे   नरेंद्र   शर्मा   की गिरफ्तारी और  देवरी कैंट जेल में  कारावास से काफ़ी  विचलित हुए  थे और उस समय आयोजित  कविगोष्ठी  में   उन्होंने अपने से पहले नरेंद्र  शर्मा  की कविता सुनाई   थी। अतीत में   गोता  लगाते  हुए डॉ. नामवर  सिंह ने  याद किया कि शमशेर  थरथराती काँपती सी आवाज  में काव्यपाठ  करते थे  और  उस समय भावावेश के  कारण उनकी इकहरी  काया खुद  बेंत  की तरह थरथराती थी -सरापा खुद   नज़्म हो जैसे।  डॉ.  नामवर  सिंह   ने यह  भी   बताया कि सड़क  साहित्य की रचना  में  भी शमशेर   बहादुर सिंह  का जोड़  नहीं    था।  उनकी सरलता  और  भावुकता के  भी    किस्से  नामवर जी ने  सुनाए  और यह  भी    बताया कि किस तरह  उनका  छोटा   सा कमरा अनेक  साहित्यकारों  का मिलन स्थल  बन गया था।  नामवर  सिंह के  अनुसार  शमशेर  बहादुर सिंह सही अर्थों  में  ‘उखड़े हुए लोग’ थे   जो  कभी कहीं  ढंग  से बस न सके और  जीवन भर शरणार्थी बने रहे।  उन्होंने  कहा कि  ‘‘बेसिकली शमशेर उर्दू  के आदमी  थे,  उनकी  मादरी ज़बान और  पढ़ाई-लिखाई की भाषा उर्दू ही  थी।  इसीलिए  उर्दू  की  उनकी  काबिलियत  को   देखते   हुए  ही ख्वाजा अहमद फारूक़ी ने  उन्हें उर्दू-हिंदी  शब्दकोष के  संपादन  का काम सौंपा  था।’’

दूसरे दिन के   दो विचार  सत्र शमशेर   के  गद्य   को समर्पित रहे।  इन सत्रों  की अध्यक्षता केंद्रीय हिंदी संस्थान   के   प्रो.  हेमराज  मीणा  और  ‘स्वतंत्र    वार्ता’ के   संपादक डॉ.  राधेश्याम  शुक्ल  ने   की तथा  संयोजन डॉ. करनसिंह ऊटवाल और  डॉ. शेषुबाबु  ने  किया।  डॉ.  हेमराज  मीणा  ने  अपने  पीएच.डी. शोध कार्य   के  दौरान तीन वर्ष   शमशेर  के  साथ  रहने  के  मार्मिक  संस्मरण  सुनाए। शमशेर  जी साधारण  चाय के  स्थान पर हल्दी  की चाय खुद  बनाकर  पीते  थे  और  आर्थिक  विपन्नता  का  आलम  यह  था    कि  घिसे  और  फटे  हुए  कुर्ते  को  हाथ  से सिलकर काम चलाना पड़ता   था।

डॉ.  राधेश्याम शुक्ल  ने शमशेर बहादुर सिंह   को हिंदी और  उर्दू   की गंगा  जमुनी तहज़ीब का कवि मानते हुए  उनकी  काव्यभाषा को  हिंदवी   मानने  पर ज़ोर दिया। डॉ. शुक्ल ने  कहा कि भारतेंदु, प्रेमचंद और शमशेर  बहादुर  सिंह जैसे  साहित्यकारों की  भाषा मेलजोल और सामंजस्य  की  भाषा है  जिसे   अपनाकर   देश में सांप्रदायिक  सद्भाव   को  मजबूत किया जा  सकता  है।   उन्होंने   कहा  कि यह मिली जुली काव्यभाषा  संगम  की भाँति   है  जहाँ  भाषारूपी  जल तीर्थ  बन जाता है।

एरणाकुलम (केरल)  से आई  प्रो.  सुनीता मंजनबैल  ने  शमषेर के डायरी लेखन  पर केंद्रित आलेख   में   यह बताया कि  उन्होंने    अपनी डायरी  में  अपनी चिंताएँ, इच्छाएँ, वैचारिकता  और  सपनों    को  स्वभावगत    भावुकता, संवेदनशीलता और संकोच   के   साथ   व्यक्त   किया  है।   उदाहरण  देकर उन्होंने    बताया कि  इनमें लेखक के अकेलेपन,   गहरी पीड़ा,   तनाव और  निजी अनुभूतियों  को  अकृत्रिम अभिव्यक्ति  प्राप्त  हुई    है।   डॉ.  सुनीता  ने  यह भी   जानकारी  दी  कि अपनी डायरी  में शमशेर ने हिंदी नॉवल का ऐसा इतिहास  लिखने की ख्वाहिश  भी   अंकित की है  जिसमें  हिंदी  और  उर्दू   दोनों    के उपन्यास  शामिल हों।

इसके पश्चात   डॉ.  मृत्युंजय  सिंह  ने   ‘घनत्व    और    प्रसार का गद्य’  शीर्षक   अपने आलेख   में      यह प्रतिपादित  किया  कि  शमशेर  का  गद्य  अमूर्तन  से मूर्तन  की  ओर  बढ़नेवाला  गद्य  है  जिसमें  उनका  चिंतन  और अनुचिंतन समाहित है।   डॉ.  सिंह   ने कहा  कि चाहे  कविता हो,  या कहानी,  या  फिर संस्मरण जैसी अकाल्पनिक  गद्य विधा   ही   हो -   तीनों     में  शमशेर   के व्यक्तित्व की निश्छलता, भावप्रवणता,  अध्ययनशीलता और  सौंदर्य दृष्टि के  वैशिष्ट्य  को  साफ साफ पहचाना जा सकता है।

‘शमशेर की कहानियाँ’  विषयक आलेख  में    डॉ.जी.  नीरजा  ने   खासतौर  से युद्ध पर केंद्रित शमशेर की  कहानी    ‘प्लाट  का मोर्चा’    के   वस्तु  और  शिल्प  का विश्लेषण  किया और   बताया कि  इतने    मर्मस्पर्शी ढंग   से महायुद्ध के   प्रभाव को चित्रित करनेवाले  वे    अज्ञेय के बाद  अकेले कहानीकार  हैं।     इस कहानी  की भाषा में  खड़ीबोली  क्षेत्र  का ठेठपन  और खुरदरा अंदाज   पाठक को  आकर्षित  करता  है।

गद्य  संबंधी  इस  सत्र  के  अंत  में डॉ.  बलविंदर  कौर  ने सभी  के  प्रति  धन्यवाद ज्ञापित   किया।

इसी क्रम में     संगोष्ठी के   अंतिम विचार  सत्र में    प्रो. अमर ज्योति  (धारवाड)   ने ‘शमशेर की आलोचना दृष्टि’  शीर्षक  अपने आलेख  में यह  बताया कि शमशेर  एक आलोचक कवि के  रूप में    अत्यंत  अध्ययनशील  और विचारशील  हैं। इसलिए उनके  आलोचना-गद्य  को पढ़ते  हुए  गालिब,  निराला,  त्रिलोचन,  मुक्तिबोध और पाब्लो नेरुदा   को  ढूँढ़ा  जा  सकता है।    उन्होंने   यह  भी    कहा कि  संघर्ष और   चुनौतियों से भरे जीवन को कलात्मक प्रयोगशाला   मानने   के   कारण अन्य कवियों की तुलना  में     शमशेर  की आलोचना  रचनात्मक,  कलात्मक  और सृजनशील है।

अलीगढ़ विश्वविद्यालय   से आए डॉ.  राजीव  लोचन  नाथ  शुक्ल  ने  ‘शमशेर  की भाषादृष्टि’  पर अपने शोधपत्र  में    कहा कि ‘‘शमशेर भाषा  के  व्यावहारिक  रूप को अभिव्यक्ति  का माध्यम  बनाते  हैं।  वे   अभिव्यक्ति  में  निकटता,   आत्मीयता, गंभीरता   और   विस्तार   लाने   के   लिए   सर्वनामों,   संज्ञाओं,   अव्ययों    तथा   अनुवर्तन का रचनात्मक   प्रयोग करते हैं।’’ डॉ. राजीव लोचन ने  आगे   कहा कि शमशेर ‘संवेदना  की भाषा और भाषा की संवेदना’ के  रचनाकार हैं।  इस सत्र के  अंत में    डॉ.  गोरख  नाथ  तिवारी  ने   आगंतुकों  के  प्रति  कृतज्ञता प्रकट की।

समापन  सत्र में  मौलाना   आजाद राष्ट्रीय  उर्दू   विश्वविद्यालय  के   हिंदी विभाग के  अध्यक्ष प्रो.  टी.वी. कट्टीमनी    ने  समाकलन   भाषण  दिया  और   इसआयोजन को  शमशेर के  बहाने  हिंदी-उर्दू   सामंजस्य की नई पहल  बताया। श्रीवेंकटेश्वर विश्वविद्यालय,  तिरुपति  के  डॉ. आई.एन.  चंद्रशेखर  रेड्डी   तथा दक्षिण   भारत   हिंदी प्रचार   सभा  की डॉ.  साहिरा बानू  ने  अपनी टिप्पणियों  में   कार्यक्रम की भूरि   भूरि   प्रशंसा की और  कहा कि शमशेर को  समझने में    इस संगोष्ठी  से बड़ी   सहायता मिली।

कार्यक्रम  के परिकल्पक  प्रो.  दिलीप  सिंह ने  संतोष   जताया कि पूरा   आयोजन योजना   के  अनुरूप  चला और  शमशेर   के  व्यक्तित्व   और  कृतित्व  से संबंधित कई   गुत्थियाँ खुलीं।  उन्होंने  हर्ष  व्यक्त  किया  कि  सभी   शोध  पत्रों  में वादनिरपेक्ष और  पाठकेंद्रित  आलोचनादृष्टि   देखने  को मिली।

समापन  समारोह   के  मुख्य अतिथि   के  आसन  से संबोधित   करते  हुए  डॉ. नामवर सिंह  ने बताया, ‘‘पिछले   दिनों दिल्ली  मैं  तथा  अन्य स्थानों   पर शमशेर   पर कई   गोष्ठियाँ हुईं  परंतु उनमें पुनरावृत्ति  ही  अधिक दिखाई दी  तथा  कविता पर ही  अधिक  ज़ोर  रहा।  इसके विपरीत  हैदराबाद  के  इस समारोह  की यह उपलब्धि रही  कि यहाँ   नई  बातें हुईं;  अलग  अलग  दृष्टि  से बातें  हुईं,  सब विधाओं  की बातें  हुईं  और  एक खास  बात यह है  कि  शमशेर  की  नई  रचनाएँ उद्धृत  की  गईं।  वक्ताओं  ने  हिंदी  और  उर्दू  दोनों  को  उद्धृत  किया।’’  डॉ.  नामवर सिंह  ने  इस  तुलना  को  आगे  बढ़ाते  हुए  कहा  कि  लोग  आधा  चाँद  लिए  नाच रहे थे,   यहाँ  पूरा चाँद  देखने को मिला   -  शमशेर  की शमशेरियत का पूरा  चाँद।   उन्होंने   कहा  कि इस समारोह की सारी सामग्री   को पुस्तक रूप में जरूर छापा जाना चाहिए।  अंत  मे नामवर जी  ने   अपने गुरुवर  डॉ.  हजारी  प्रसाद  द्विवेदी का स्मरण करते हुए  ऋषि विश्वनिंदक  का  पौराणिक  संदर्भ  सुनाया और  कहा कि ‘इतना    अच्छा   होना भी  अच्छा    नहीं’ तो ऑडिटोरियम  तालियों   और  ठहाकों से गूँज  उठा।

समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए  डॉ.  गंगा  प्रसाद  विमल ने  भी   इस  बात  का समर्थन  किया  कि  यह संगोष्ठी विषयकेंद्रित  रही   और शमशेर  की रचनात्मक प्रतिभा  के  जो  आयाम पहले नहीं   देखे  गए थे, उन्हें यहाँ भली प्रकार उद्घाटित किया गया। उन्होंने कहा कि ‘‘शमशेर  जैसी बड़ी सर्जनात्मक  प्रतिभाओं  के  अर्थ खोलना  नई  दुनिया    के दर्शन  सरीखा है।   इस आयोजन  से  यह  भी   स्पष्ट  हुआ है  कि  ''शमशेर   का  काव्य  ही  नहीं,  गद्य भी   कम विस्मय में  डालने  वाला  नहीं है   क्योंकि   वे  भाषिक   संरचनाओं का खेल  खेलनेवाले पहले दर्जे  के  खिलाड़ी हैं।’’

समापन  समारोह का संयोजन  शमशेर की उक्तियों के  माध्यम  से प्रो.  ऋषभदेव शर्मा  ने  इतनी रोचक शैली में   किया कि स्वयं प्रो. नामवर  सिंह ने  उनकी संयोजन शैली  की मंच से मुक्तकंठ  से प्रशंसा   की।

इस द्विदिवसीय  समारोह में    राष्ट्रीय  संगोष्ठी  के  अतिरिक्त तीन अन्य विशिष्ट कार्यक्रम   भी    संपन्न   हुए। एक तो   यह  कि, डॉ.     नामवर सिंह    ने  डॉ. टी.वी. कट्टीमनी   द्वारा   संपादित समीक्षाकृति  ‘दक्खिनी  भाषा  और साहित्य’  तथा हैदराबाद   के   प्रतिष्ठित  क्रांतिकारी  कवि शशि नारायण  ‘स्वाधीन’   की काव्यकृति ‘भूख,    धान  और चिड़िया’  का लोकार्पण किया।   दूसरा  यह  कि, पहले दिन की साँझ एकपात्री नाटक  ‘मैं    राही  मासूम’  का मंचन किया गया जिसके अभिनेता विनय  वर्मा का अभिनंदन  करते हुए  डॉ. नामवर  सिंह  इतने  गद्गद  हो गए कि उनका गला  भर  आया  और आँखें  नम हो  आईं  जब उन्होंने  कहा कि मैं तो हैदराबाद   में   शमशेर  से मिलने आया था   पर मुझे  मालूम   न था   कि आप मुझे यहाँ   मेरे    भाई डॉ.  राही  मासूम  रज़ा  से मिलवा देंगे। और    तीसरा कि, संगोष्ठी के   समापन  सत्र के  उपरांत   ‘अलिफ’   के  तत्वावधान  में    प्रो.     खालिद  सईद ने ‘बहुभाषा  कवि  सम्मेलन’ आयोजित  किया  जिसमें  हिंदी,  उर्दू  और  तेलुगु  के कवियों  ने  डॉ.  नामवर  सिंह,  डॉ.  गंगा  प्रसाद  विमल,  डॉ. अब्दुस्सत्तार  दलवी   और डॉ.  हीरालाल बाछोतिया  के सान्निध्य  में   काव्यपाठ किया।

बेशक  हिंदी  और   उर्दू    की दो   अग्रणी  संस्थाओं  के  संयुक्त   तत्वावधान  में आयोजित यह  समारोह  लंबे समय तक प्रतिभागियों  की यादों  में  गूँजता  रहेग!




(रिपोर्टर :संगोष्ठी स्थल से डॉ.मृत्युंजय सिंह,डॉ जी.नीरजा,डॉ.बलविंदर कौर एवं  डॉ.गोरखनाथ तिवारी)
[चित्र  : डॉ. जी. नीरजा, डॉ. बी. बालाजी एवं राधाकृष्ण मिरियाला]