'स्रवंति' का उत्तरआधुनिकता विशेषांक
मैं ‘स्रवंति’ का विशेष रूप से इसलिए आभारी हूँ कि इस पत्रिका के ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ विशेषांक के माध्यम से उत्तर आधुनिकता के कन्सेप्ट से परिचित हो पाया। यह सही है कि अब भी इस विमर्श को पूरी तरह समझने में विद्वान ही समर्थ नहीं हो पाये हैं, जैसा कि इस पत्रिका में लिखे लेखों से पता चलता है; तो हम क्या पूरी तरह समझ सकेंगे!
‘स्रवंति’ का फरवरी अंक विशेषांक के रूप में आना एक सुखद आश्चर्य रहा। इस अंक के सम्पादकीय में विषय की रूपरेखा और स्वरूप की जानकारी मिलती है जो उत्तर आधुनिकता जैसे पेचीदा विषय की भूमिका के रूप में पाठक की सहायक बनती है।प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने अपने लेख ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ में विषय प्रवेश करते हुए बताया है कि "उत्तर आधुनिकता ने उन समूहों को केंद्र में लाने का प्रयास किया है जो परिधि पर थे - इसे हाशियाकृत की सार्वजनीन स्वीकृति के रूप में देखा जा सकता है। भारतीय साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श और आदिवासी विमर्श जैसी प्रवृत्तियों के उभार की व्याख्या इस दृष्टि से की जानी आवश्यक है।"
प्रो. दिलीप सिंह अपने लेख ‘उत्तर-आधुनिक विमर्श: एक बहस’ में यह स्पष्ट करते हैं कि सारा यूरोप, विशेष कर फ़्रांस और रूस, जिन्हें उत्तरआधुनिक विमर्श के केंद्र में रखा जाता है, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता को दो भिन्न काल खंड में विभाजित चिंतन या परिस्थितियाँ नहीं मानते। वे बताते हैं कि "भारतेंदु और द्विवेदी युग में स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह विरोध, विधवा विवाह समर्थन, दलितोद्धार के जो स्वर साहित्य में मुखरित हैं वे तत्कालीन समाज को निश्चित ही तब उत्तर-आधुनिक विमर्श लगे हों तो कोई अचरज नहीं।"
‘उत्तर आधुनिक विमर्श’ की सैद्धांतिकी के कुछ प्रधान तत्व तथा प्रवृत्तियों पर चर्चा करते हुए अर्जुन चौहान कहते हैं कि "बनाना तथा बिगाड़ना, बसाना तथा उजाड़ना, विकास तथा विनाश ये सब उत्तराधुनिकता की प्रवृत्तियां हैं।... उत्तराधुनिक विमर्श वैध-अवैध या नैतिक-अनैतिक को कोई स्थान नहीं देता।"
प्रो. एम. वेकटेश्वर अपने लेख ‘उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ में बताते हैं कि "उत्तरआधुनिकता उस विश्वव्यापी आधुनिकता के प्रति एक प्रतिक्रिया है जो सामान्यतः प्रत्यक्षवादी प्रौद्योगिकी प्रधान एवं तार्किक मानी जाती है।" उन्होंने देरिदा, ल्योतार, मिशेल फ़ूको, डॉ. सुधीश पचौरी, मनोहर श्याम जोशी जैसे कई विद्वानों को उद्धृत किया है और निष्कर्ष निकाला है कि "उत्तर आधुनिकता के केंद्र में बहुराष्ट्रीय आवारा पूंजी की भूमंडलीयता है, इस तरह पूंजीवाद ने स्वयं को एक विश्व-व्यवस्था सिद्ध किया है।"
डॉ.मृत्युंजय सिंह ने अपने लेख में बताया है कि "उत्तरआधुनिकता एक ऐसी अवधारणा के रूप में हमारे सामने आई, जिसके राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को लेकर प्रायः आरोप-प्रत्यारोप किए जाते रहे हैं।" डॉ.जी. नीरजा ने बताया कि उत्तरआधुनिकता आधुनिकतावाद का नया विस्तार है... वस्तुतः आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता के बीच कोई बड़ी विभाजन रेखा नहीं है। डॉ.बलविंदर कौर का मानना है कि "असल में उत्तर-आधुनिकतावाद एक ऐसा ग्लोबल खेल है, जिसमें हम सब शरीक हैं। वह हमारी ही भूमंडलीय अवस्था की रामायण है; जिसमें हम सबका बोध बदल रहा है और हमारे सभी सांस्कृतिक-ज्ञानात्मक प्रतीक बाज़ारवाद में बिकने को खड़े हैं।"
डॉ.भीमसिंह ने अपने लेख ‘उत्तर आधुनिक साहित्य में दलित-संदर्भ' में यह निष्कर्ष निकाला है कि "उत्तर आधुनिक परिदृश्य में एक ओर समाज एवं राष्ट्र ही दलित नहीं हो रहे, भाषाएँ भी दलित हो रही हैं। अतः ‘दलित संदर्भ’ भारतीय परिप्रेक्ष्य में विमर्श की अपेक्षा रखता है।" स्त्रीलेखन पर अपने विचार रखते हुए डॉ.पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव कहते हैं कि लेखिकाएँ नारी जीवन पर अच्छी तरह लिख सकती हैं क्योंकि इन्होंने नारी के दर्द को भोगा है। डॉ.करन सिंह ऊटवाल अपने लेख में ‘नाटक, रंगमंच और उत्तरआधुनिकता’ पर प्रकाश डालते हैं। डॉ. घनश्याम इस विषय को आदिवासी जीवन से जोड़ कर देखते हैं तो प्रणव कुमार ठाकुर उत्तर आधुनिकता और समकालीन हिंदी कविता में आदिवासी समाज की पड़ताल करते हैं।डॉ. साहिरा बानू बी.बोरगल उत्तरआधुनिक संदर्भ में साहित्यिक भाषा के मुहावरों, कहावतों और सूक्तियों के माध्यम से 'उत्तर' खोजती हैं।
'स्रवंति' का यह अंक पत्रिका नहीं अपितु एक संक्षिप्त से संदर्भ ग्रंथ की तरह संजोने योग्य है। विषयानुसार मुखपृष्ठ पर शौकिया चित्रकार लिपि भारद्वाज ने बडी सूक्षमता और सटीकता से उत्तराधुनिकता का प्रतीक चुना है। इतना सार्थक अंक निकालने के लिए ‘स्रवंति’ टीम बधाई का पात्र है।
समीक्षित पत्रिका का विवरण
पत्रिका का नांम : स्रवंति [मासिक]
सह-सम्पादक : डॉ. जी. निरजा
अंक : फ़रवरी २०११
मूल्य: १५ रुपये
प्रकाशक : दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-आन्ध्र
खैरताबाद, हैदराबाद - ५०० ००४.
8 टिप्पणियां:
उत्तर आधुनिकता ने हमारे जीवन के कई पक्षों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डाला है , जिसे हम उत्तर आधुनिकता कहते हैं ...वास्तव में वह पूंजी का बिस्तार है ...और यह अमेरिका की नीतियों का परिणाम है ..पूंजीवादी व्यवस्था का दुनिया में फ़ैल जाना और बाजार में छा जाना उत्तर आधुनिकता के परिणाम के रूप में देखा जाना चाहिए ...!
कोई ई-संस्करण
डॉ.मृत्युंजय सिंह ने अपने लेख में बताया है कि "उत्तरआधुनिकता एक ऐसी अवधारणा के रूप में हमारे सामने आई, जिसके राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को लेकर प्रायः आरोप-प्रत्यारोप किए जाते रहे हैं।" डॉ.जी. नीरजा ने बताया कि उत्तरआधुनिकता आधुनिकतावाद का नया विस्तार है... वस्तुतः आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता के बीच कोई बड़ी विभाजन रेखा नहीं है। डॉ.बलविंदर कौर का मानना है कि "असल में उत्तर-आधुनिकतावाद एक ऐसा ग्लोबल खेल है, जिसमें हम सब शरीक हैं। वह हमारी ही भूमंडलीय अवस्था की रामायण है; जिसमें हम सबका बोध बदल रहा है और हमारे सभी सांस्कृतिक-ज्ञानात्मक प्रतीक बाज़ारवाद में बिकने को खड़े हैं।
इस प्रकार से उत्तर आधुनिकता के बारे में विस्तार रूप से विश्लेषण करना अत्यंत हर्षदायक विषय है !!!! बहुत बहुत धन्यवाद!!!!
आपका छात्र
राधा कृष्ण मिरियाला
अच्छी रही जानकारी कुछ मिलाप में भी पढ़ा था
फिर भी संक्षिप्त पढना चाहूंगी!
धन्यवाद!
जानकारी के लिए धन्यवाद !
उत्तरआधुनिकता और उसके प्रभाव के बारे में विद्वानों के विचार और उसका विश्लेषण पढ़कर अच्छा लगा !
पत्रिका का अंक निश्चय ही संग्रहणीय होगा !
आभार !
बहुत महत्वपूर्ण पत्रिका की जानकारी दी आपने...बहुत बहुत आभार...
अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी सेवा की लगन देख कर अत्यंत प्रसन्नता होती है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-आन्ध्र इस दिशा में सतत रूप से स्तुत्य कार्य कर रही है। उन्हें हार्दिक बधाई।
आपको सपरिवार रंगपर्व होली पर असीम शुभकामनायें !
गुरूजी,
पाठकों को `स्रवंति' के बारे में विशेष जानकारी देने के लिए आभारी हूँ|
`स्रवंति' के सह संपादक के नाते अब मेरा दायित्व और भी बढ़ गया है|
पाठकों को हिंदी और तेलुगु साहित्य के बारे में ठोस जानकारी प्रदान करने का हमारा प्रयास जारी रहेगा|
प्रोत्साहान के लिए धन्यवाद|
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