ब्लाग-घमासान बंद हो
कुछ दिन से हिंदी ब्लाग जगत में हलचल हो रही है। एक नवब्लागर होने के नाते मैं नहीं जानता कि इसका क्या कारण है। जैसा कि कुछ रोज़ पहले संगीताजी बता रही थीं कि ये सितारों की गर्दिश का खेल है:)। कारण जो भी हो, सौहार्द तो बना रहना चाहिए।
अभी डॉ. बाबूलाल ‘वत्स’ कि एक छोटी सी पुस्तिका हाथ लगी तो उसी में से कुछ वाक्य यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। ऋग्वेद का उद्घोष है -
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनासि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानानां उपासते॥ [ऋक् १०/१९१/२]
अर्थात हे श्रेष्ठ वीर मनुष्यो! तुम सब संगठित होकर एक साथ मिलकर प्रगति करो, उन्नति की ओर बढ़ो। राग-द्वेष तथा बैर भाव आदि से रहित होकर प्रेमपूर्वक परस्पर संवाद करो। तुम सबके मन पवित्र एवं उत्तम संस्कारों से युक्त हों और पूर्व काल के बडे़-बड़े ज्ञानी लोग अपने-अपने कर्तव्य का विभाग करते आए हैं ठीक उसी प्रकार तुम लोग भी अपने-अपने कर्तव्यों का विभाग उत्तम रीति से करो।
इस संदेश से कहीं भी किसी की भावना आहत होती हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ और ‘छोटा मुँह बड़ी बात’ समझ कर क्षमा करें।
हम जैसी कल्पना करेंगे, वैसा संसार रचेंगे।
लिए हमारी कान्त कल्पना, निमिष बरस, युग, कल्प चलेंगे॥
10 टिप्पणियां:
ऐसा ही हो, यही कामना है.
बिल्कुल सही कहा आपने।
वाजिब बात!
सत्य वचन!!
काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय।।
उसी ऋचा में आगे कहा गया है'
समान हृदयानि व:
कामना है कि सबके अंत:करण विरोध में भी अंतर्निहित एकता के सूत्र पहचानें।
..शुभं सभ्यम्
काश कि सब इस बात को समझ पायें...
यह उन ब्लॉगरो की गर्दिश का खेल है जो अपने आप को सितारे समझ् बैठे है
" mai sharad ji ki baaton se sahemat hu sir ....bahut hi acchi post "
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspost.com
आपके अनुवाद अर्थपूर्ण हैं ।
इस शानदार भावना को प्रणाम भाई जी !
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