बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

JNANAPEETH AWARDEE DR.SATYAVRAT SHASTRI

संस्कृत के प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार ग्रहीता- डॉ. सत्यव्रत शास्त्री

सन १९३० ई. में जन्मे, वर्ष २००७ के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित संस्कृत लेखक और विद्वान डॉ. सत्यव्रत शास्त्री पंजाब विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से भर्तृहरि कृत वाक्यपदीय में दिक्काल मीमांसा विषय पर पीएच.डी. हैं।

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने १९५५ में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया। अपने चालीस वर्ष के कार्यकाल में वे विभागाध्यक्ष तथा कलासंकायध्यक्ष का पदभार सम्भाला। वे जगन्नाथ विश्वविद्यालय, पुरी के भी कुलपति रहे। उन्होंने न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी संस्कृत के प्रचार-प्रसार का कार्य किया। इन्हीं के प्रयासों से सिल्पाकोर्न विश्वविद्यालय, थाईलैंड में संस्कृत अध्ययन केंद्र की स्थापना हुई।

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने अब तक तीन महाकाव्य, तीन खण्ड काव्य, एक प्रबंध काव्य और दो खंडों के पत्र काव्य की रचना की है। उनकी समीक्षात्मक कृतियों में ‘द रामायणः ए लिंग्विस्टिक स्टडी’, ‘ कालिदास इन माडर्न संस्कृत लिटरेचर’ तथा ‘न्यू एक्स्पेरिमेंट्स इन कालिदास’ चर्चित रहीं। ‘डिस्कवरी ऑफ़ संस्कृत ट्रेज़र्स के सात खंडों में उन्होंने संस्कृत वाङ्मय के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला है। ‘थाइदेशविलासम्‌’ के बाद ‘श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम्‌’ की रचना की। साहित्य अकादमी ने ‘गुरुगोविंदचरितम्‌’ पर पुरस्कृत किया।

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री अपनी कृति ‘थाईदेशविलासम्‌’ के सृजन के बारे में एक रोचक संस्मरण सुनाते हैं। वे बताते हैं कि "पहली बार जब मैं थाईलैंड गया, मैंने एक बार नेशनल लाइब्रेरी में जाकर पूछा कि यहाँ संस्कृत भाषा में थाईलैंड पर कोई पुस्तक है, तो वहाँ के अध्यक्ष ने कहा- "प्रोफ़ेसर, ह्वाइ डोंट यू राइट वन?" तो यह प्रेरणा थी। ..." इस कृति का थाई अनुवाद वहाँ की राजकुमारी ने किया जो उनकी शिष्या थी।

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री की विशेषज्ञता के बारे में जब एक अंग्रेज़ी महिला पत्रकार ने पूछा तो उनका उत्तर था,"आई एम पोएट बाय इंस्टिंक्ट, लिंग्विस्ट एंड इंडोलोजिस्ट बाय ट्रेड।" शास्त्रीजी की पहली संस्कृत कविता ११ वर्ष की आयु में प्रकाशित हुई थी। जयपुर से निकलनेवाली संस्कृत पत्रिका ‘संस्कृतरत्नाकर’ के यशस्वी संपादक महामहोपाध्याय भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने यह कविता प्रकाशित करते हुए उसके शीर्षक ‘षडऋतुवर्णनम्‌’ के नीचे कवि की आयु पर भी टिप्पणी दी थी। डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के मन में कविता स्वतः फूट पड़ती थी जबकि उनके पिताजी जो व्याकरण के विद्वान थे, का मानना था कि बच्चों को साहित्य से दूर रहना चाहिए। उसका कारण यह था कि संस्कृत साहित्य में श्रृंगार रस बहुत होता है।

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने अपनी शिक्षा काशी के पं. शुकदेव झा से प्राप्त की और नव्य व्याकरण के दुरूह- से- दुरूह ग्रंथों का अध्ययन किया। उन्होंने संपूर्ण महाभाष्य कंठस्थ किया। ब्रह्मसूत्र का अध्ययन अदासीन मठ के निवासी स्वामी सुरेश्वराचार्य से लिया और पं महादेव उपाध्याय से साहित्यशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया।

विदेशी यात्रा के बारे में डॉ. सत्यव्रत शास्त्री बताते हैं कि उन्हें भारत सरकार द्वारा थाईलैंड भेजा गया जहाँ उनकी नियुक्ति वहाँ के सबसे पुराने चुल्लंकोर्ण विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाने के लिए हुई। कारण यह था कि वहाँ की राजकुमारी संस्कृत पढ़ने की इच्छुक थी। उन्हें आश्चर्य तब हुआ जब यह पता चला कि यहाँ थाई भाषा को समझने के लिए संस्कृत पढ़ी-पढ़ाई जाती है क्योंकि इस भाषा में संस्कृत के बहुत से शब्द हैं। वहाँ एक विश्वविध्यालय है- शिल्पाकोर्न[शिल्पकार] विश्वविद्यालय जिसमें शिल्प शास्त्र का उच्च अध्ययन होता है; धम्मसात विश्वविद्यालय में धर्म शास्त्र और कसेरसात विश्वविद्यालय में कृषिशास्त्र का अध्ययन एवं अनुसंधान होता है। इन शब्दों से थाई और संस्कृत की निकटता का आभास होता ही है। इसलिए शास्त्रीजी का मानना है कि दक्षिणपूर्व एशिया की भाषाओं का हमें पठन-पाठन करना होगा क्योंकि ये अधिकांश भाषाएँ संस्कृत के बहुत निकट है।

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है जिनमें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री, इटली सरकार का सम्मान, सहित्य अकादमी पुरस्कार, पंजाब और महाराष्ट्र सरकारों द्वारा पुरस्कार तथा विभिन्न संस्कृत अकादमियों के अनेक पुरस्कार शामिल हैं। अब उन्हें सन्‌ २००७ई. के ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है।

भारत में संस्कृत भाषा की उदासीनता का उदाहरण देते हुए डॉ. सत्यव्रत शास्त्री कहते हैं कि वे अब डेक्कन कालेज, पूणे में संस्कृत डिक्शनरी ऑफ़ हिस्टॉरिकल प्रिन्सिपल्स प्राजेक्ट के अध्यक्ष हैं जो भारत सरकार चला रही है। परंतु दयनीय स्थिति यह है कि वहाँ सत्ताईस पदों के स्थान पर केवल चार की ही नियुक्ति हुई है! ऐसे में प्रगति क्या होगी? वे यह मानते हैं कि यह एक उदाहरण है संस्कृत के प्रति उदासीन रवैये का!! इस स्थिति पर साहित्य जगत का ध्यान जाना चाहिए। सम्भव है कि संस्कृत के विस्तृत अध्ययन से भारत की समस्त भाषाएँ और निकट आ सकती हैं क्योंकि सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत ही है।

संदर्भ एवं साभार- ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के जुलाई-अगस्त २००९ में भारतेंदु मिश्र द्वारा लिया गया साक्षात्कार-‘सत्यव्रत शास्त्री से मुलाकात’॥

3 टिप्‍पणियां:

SACCHAI ने कहा…

" acchi aur saaf jankari ke liye aapka sukriya ."

" ye baat aapne bahut hi dard naak kahi ki hamare bharat ko aaj sanskrit bhasa ki koi kimat nahi hai 27 ki jagah sirf 4 ..hume kuch karna chahiye taki sarkar kuch kadam uthaye apni mahan sanskrit bhasha ke liye ."

" jagrukta bhara lekh .."

----- eksacchai { aawaz }

http://eksacchai.blogspot.com

Raravi ने कहा…

shastri jee ke baare me hame batane ke liye dhanyvaad. maine 10vin tak sanskrit padhi thi. ab bhi kuchh kuchh sanskrit padhta hoon magar mooltah dharmik uddeshya se, sahitya ke drishtikon se nahi. sanskrit vaapa jeevit ho sake yeh kaamna hai
rakesh

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

रोचक और महत्वपूर्ण जानकारी हेतु साधुवाद!!