एक अनोखी दीवाली
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मध्यप्रदेश के जनजातिय बड़वानी , धार, खरगोना, झाबुआ जिलों में आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी लोग दीवाली का त्योहार एक अनोखे ढंग से मनाते हैं। इन पर खोज करके डॉ. एम..एल.शर्मा निकुंज ने बताया है कि इन आदिवासियों में दिवाली मनाने की कोई निश्चित तिथि नहीं होती। जिस माह में कोई दुर्घटना हो, उस माह में दिपावली नहीं मनाई जाती है। इसलिए उनकी दिवाली प्राय: अलग अलग तिथियों पर मनाते हैं।
दीपावली के दिन् घर को गोबर से लीपा जाता है, विशेषकर घर के ओटले को लीपा जाता है। लीपन के बाद् बचे हुए गोबर से कवडे़ [दीपक] बनाए जाते हैं। त्यौहार मनाने से पूर्व नाते/रिश्तेदारों को दीपावली हेतु आमंत्रित किया जाता है। इस दिन ग्राम पटेल के पास गांव का हर व्यक्ति और उसके घर के सामने रखे टोकरी में अपने घर से लाए अंडे, ज्वार , दिवासा और शीशम के कीले आदि उस में डाल देता है।
आयखेडा माता उनकी आराध्य देवी मानी जाती है। ग्राम पटेल के नेतृत्व में सारे लोग माता के मंदिर जाते है जहाँ पूजा के बाद टोकरे से शीशम की कीलें निकाल ली जाती हैं और गांव के काकड़् [बाहरी हिसे] पर पटेल द्वारा गाड़ दिया जाता है। यह माना जाता है कि ऎसा करने से अशुभ आत्माएँ गांव में प्रवेश नहीं करते। आयखेडा माता की पूजा - अर्चना करने के बाद् मशाल जलाई जाती है जिसे पटेल के साथ् पूरे लोग गांव का चक्कर लगाते हुए ’बेरिया बेरिया कुर्रव’ का उद् घोष् करते हैं। पूरे गांव में घूमने के बाद पटेल के घर पर आकर यह् मशाल बुझा दी जाती है। यह प्रकिया दीपावली का प्रारम्भ माना जाता है।
दूसरे दिन मेहमानों को दाल, चावल, हलुआ खिलाने की प्रथा है। रात के समय भोजन के बाद ढोल बजाया जाता है और फ़टाखे जलाए जाते हैं। रात भर नृत्य और् शराब का दौर चलता है। इसी दौरान घर् में बने कवडे[दीप] में क्रास की तरह बाती सजाकर चार कोनों को जलाया जाता है। यह माना जाता है कि इससे समस्त पीडा़ओं से मुक्ति तथा चौतरफ़ा सुरक्षा मिलती है।
दिवाली के तीसरे दिन पशुओं की धुलाई की जाती है। उनको नहलाने के बाद् उनका श्रंगार किया जाता है। पशुऒं के सींगों को दूध् और गेरू से रंगा जाता है। घर का मुख्या तसले [तगारी] में बाजरे का दलिया डालता है और बैलों के पैर छूता है। बैलों का श्रंगार करके उन्हें गांव में दौडाया जाता है। दोपहर में मिट्टी के कुल्हड़ और घोडा खरीदकर आराध्य देव - गुहा बाबा के पास चढाया जाता है। यह माना जाता है कि बाबा उनके पशुओं की रक्षा करेंगे और पशुधन का विकास भी करेंगे।
इस प्रकार दीपावली का पर्व भारत की सभी जातियों के लोग अपने-अपने ढंग से अपनी सुविधानुसार मनाते हैं।
5 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा बताया जी। मैं तो डेढ़ दशक से ऊपर रतलाम में रहा - झाबुआ के करीब। पर मुझे न पता चला।
शहरी समाज आदिवासी से कितना कटा रहता है!
rochak jaankaree dee aapne. nikunj mahoday ke prati abhaar.
कई फिल्मों में ,
बैलों को सजाना और उनकी दौड़ दीखलाई गयी है
जो आपके आलेख में
आपने दिवाली से सम्बंधित बातें बतलाईं हैं
- बहुत अनोखी बातें लगीं -
आभार इस जानकारी के लिए
- लावण्या
बड़ी दिलचस्प जानकारी दी.
बहुत ही मनोराजंक और दिलचस्प जानकारी, प्रसाद जी
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