हिंदी केवल एक भाषा नहीं, भारतीयता की अभिव्यक्ति है
--डॉ. राधेश्याम शुक्ल, सम्पादक -स्वतंत्र वार्ता
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने सभी राज्य शिक्षा परिषदों [स्टेट एजुकेशन बोर्ड्स] से कहा है कि वे सभी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था करें, जिससे कि यह भाषा देश की एक आम फ़हम भाषा [लिंग्वा फ़्रैंका] बन जाए। उनका कहना था कि स्कूलों में हिंदी शिक्षण पर जोर देना चाहिए, जिससे पूरे देश के बच्चे आपस में घुल-मिल सकें और बड़े होने पर उनमें बेहत्तर एकता स्थापित हो। मातृभाषा का ज्ञान जहाँ सांस्कृतिक परंपरा से जोड़ती है, वहीं हिन्दी राष्ट्रीय एकता का माध्यम है और अंग्रेज़ी से दुनिया के अन्य देशों से जुड़ सकते हैं।
उनके सुझाव थे कि अभी देश में प्रचलित करीब ४१ शिक्षा बोर्डों को समाप्त कर क्षेत्रीय आधार पर केवल चार बोर्ड [उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम] का गठन किया जाय, विज्ञान तथा गणित की शिक्षा में पूरे देश में एकरूपता लाई जाए, हाईस्कूल की परीक्षा वैकल्पिक कर दी जाए तथा विश्वविद्यालय के डिग्री स्तर में प्रवेश के लिए पूरे देश में केवल एक परीक्षा की व्यवस्था की जाए। इनमें उनका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वक्तव्य हिंदी भाषा को लेकर था।
उनके स्तर पर यह कहा जाना निश्चित ही बहुत महत्त्वपुर्ण है कि यदि हिंदी देश की ‘लिंग्वा फ़्रैंका’ बन जाए, तो भारत दुनिया के लिए ज्ञान प्रदाता बन सकता है। आज अंग्रेज़ी पर निर्भरता ही इस बात का सबसे बड़ा कारण है कि मौलिक ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भारत पिछड़ा हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया के अन्य देशों, विशेषकर अंग्रेज़ी वालों की मुखापेक्षी है।
भारत कभी ‘जगद्गुरु’ [पूरी दुनिया के लिए ज्ञान का प्रदाता] माना जाता था, तो इसीलिए कि भारत की भाषा संस्कृत न केवल इस देश के पढे़-लिखे लोगों की लिंग्वा फ़्रैंका थी, बल्कि उसे अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा का भी सम्मान प्राप्त था। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों कंबोड़िया, लाओस, वियतनाम, इंडोनेशिया [हिंदेशिया], मलेशिया [मलय], थाइलैंड [श्याम], बर्मा [म्यांमार], श्रीलंका [सिंहल] आदि से लेकर पश्चिम एशिया, तिब्बत व हिमालय से लगे तमाम मध्येशियायी क्षेत्रों तक संस्कृत का प्रसार था। इन प्रायः सारे क्षेत्रों तक संस्कृत के प्राचीन अभिलेख पाए जाते हैं। चीन व अरब देश के विद्वान भी शिक्षा प्राप्ति के लिए भारत आते थे और संस्कृत सीखकर तमाम नया ज्ञान अर्जित करते थे। उस समय संस्कृत केवल धर्म दर्शन के अध्ययन का माध्यम नहीं थी, बल्कि ज्ञान-विज्ञान जैसे चिकित्सा, अर्थशास्त्र, मौसम विज्ञान, गणित, भूगोल, रसायन शास्त्र, ज्योतिष, यंत्रविज्ञान आदि का भी माध्यम थी। हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र तक का भारत देश भले कभी एक राजनीतिक तंत्र में न रहा हो, लेकिन भाषा व संस्कृति की दृष्टि से यह प्रायः सदैव एक देश रहा है। भाषा, शिक्षा और संस्कृति को लेकर पूरे उपमहाद्वीप में कभी कोई विवाद नहीं रहा, जब तक कि अंग्रेज़ों के साथ विदेशी शिक्षा पद्धति यहाँ नहीं आई।
ज्ञान-विज्ञान के शिक्षण की भारतीय परम्परा बहुत पहले टूट चुकी थी। तकनीकी ज्ञान - गणित, ज्योतिष, रसायन, यंत्रविज्ञान, धातुविज्ञान, रत्नविज्ञान, रंगाई, बुनाई, चित्रकला, शस्त्र निर्माण, वास्तुकला, मूर्तिकला, समुद्र विज्ञान, जहाज़ निर्माण, नगर निर्माण, काष्ठकला, खनन, औषधि विज्ञान आदि के अध्ययन अध्यापन की विधिवत श्रृंखला समाप्त हो चुकी थी। तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा जैसे विश्वविद्यालय भी समाप्त हो चुके थे, जहाँ इनकी शिक्षा भी प्राप्त होती थी। मुस्लिम आक्रांताओं का सबसे बडा़ कहर इन शिक्षा केंद्रों पर ही टूटा था। इनके टूटने के बाद उपर्युक्त ज्ञान विज्ञान केवल वंश परम्पराओं में सीमित हो गए। पिता-पुत्र परम्परा ही उपर्युक्त तकनीकी शिक्षा का माध्यम रह गया था। संस्कृत के जो स्कूल, विद्यालय या महाविद्यालय थे, वे कुछ विशिष्ट आचार्यों, मंदिरों तथा धार्मिक समुदायों से जुडे़ हुए थे और वहाँ अध्ययन के विषय केवल वेद, वेदांत, संस्कृत भाषा, साहित्य, व्याकरण, दर्शन, इतिहास, पुराण, ज्योतिष व कर्मकाण्ड तक सीमित हो गए थे। इनमें भी रूढि़ग्रस्तता इतनी बढ़ गई थी कि वे कुछ भी नया स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।
अंग्रेज़ों का राजनीतिक आधिपत्य कायम होने के पहले यहां राजकाज में उर्दू व फ़ारसी की स्थापना हो चुकी थी, इसलिए राजनीति, व्यापार, प्रशासन, शिक्षा आदि में नौकरियों के अवसर केवल उर्दू, फ़ारसी व अंग्रेज़ी में उपलब्ध थे। इसीलिए महत्वाकांक्षी व मेधावी लोगों का रुझान भी इन्हीं भाषाओं व आधुनिक यूरोपीय शिक्षा की तरफ़ था। केवल परम्परानिष्ठ ब्राह्मण परिवार ही वेद, शास्त्र, व्याकरण, दर्शन आदि के लिए संस्कृत पढ़ते थे। मैकाले ने स्वयं लिखा है कि संस्कृत पढ़ने वाले सामान्य लोग इससे परेशान थे कि इसे पढ़कर उन्हें कोई नौकरी नहीं मिल सकती। इस तरह उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी नौकरियों की भाषा बन गई थी, इसलिए शिक्षा का माध्यम भी यही भाषाएं बन गईं। इस प्रकार, केवल मध्यवर्ग का एक छोटा सा तबका, जो संस्कृत भाषा तथा पारम्पारिक भारतीय वांग्मय के सम्पर्क में था, भारत की उच्च परम्परा श्रेष्ठ भाषा ज्ञान, अध्यात्म तथा दर्शन की गौरवगाथा के अध्ययन में लगा रहा। परम्परा के प्रति उसका उत्कट मोह भारतीयता की समृद्ध परम्परा को जीवित रखने में सहायक बना। उसने संस्कृत वांग्मय् के श्रेष्ठ साहित्य को क्षेत्रीय भाषाओं में अनूदित करने या उनके आधार पर नये ग्रंथ लिखने का प्रयास किया। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का उत्थान हुआ, उनमें सहित्य सृजन की चेतना जगी।
अंग्रेज़ी शिक्षित स्वतंत्रचेता भारतीयों ने उस माध्यम की तलाश शुरू की, जो पूरे देश में एकता का भाव, संस्कृति का गौरव और मुक्ति की चेतना भर सके। यह काम न अंग्रेज़ी से सम्भव था और न फ़ारसी से। उर्दू इस देश में ही पैदा हुई भाषा थी, लेकिन उसने अपना अलग रास्ता पकड़ लिया था। वह इस देश में पैदा तो हुई, लेकिन उसने इस देश से कोई सांस्कृतिक या ऐतिहासिक सम्बन्ध नहीं रखा। उसके लिए यह देश एक जागीर से अधिक नहीं था। उसने लिपि भी विदेशी अपनायी और भाव तथा सांस्कृतिक प्रतीकों को भी बाहर से लिया। इसलिए देश के कोने-कोने से सभी राष्ट्रचेता विद्वानों ने संस्कृत के अपभ्रंश तथा देशी भाषाओं के मेलजोल से बनी देश के आम आदमी की संपर्क भाषा को एक राष्ट्रभाषा के रूप में ऊपर उठाने व विकसित करने का बीड़ा उठाया और उसे ही देश के राजकाज की भाषा बनाने का संकल्प लिया। उन दिनों इस भाषा को मध्य एशिया, तुर्की व फ़ारस से आए मुसलमानों ने हिन्दी, हिन्दवी या हिन्दुस्तानी नाम दे रखा था। भारत में इसे ‘भाषा’ के नाम से ही जाना जाता था। विद्वानों व पढे़ लिखे लोगों की देश भर में अपनी संपर्क भाषा संस्कृत थी, तो उसके समानान्तर पूरे देश में आम लोगों, सैनिकों, व्यापारियों, पर्यटकों, मज़दूरों, कारिगरों, नटनर्तकों, साधुओं, तीर्थयात्रियों आदि के परस्पर संपर्क की भाषा यही हिंदी थी। यह हिंदी किसी क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी। यह पूरे देश की भाषा थी और देश के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने वालों द्वारा व्यहृत होती थी। मध्यकालीन संत या भक्त कवियों की जिस भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहा गया है, वही वास्तव में हिंदी थी। इसमें उत्तर भारत की राजस्थानी, ब्रज, अवधी, भोजपुरी व मैथिली से लेकर दक्षिण के मराठी, तेलुगु, कन्नड़ व तमिल तक के शब्द पाए जाते हैं। इसलिए देश के जागरूक राजनेताओं, विद्वानों तथा राष्ट्रभक्तों ने इस संस्कृतोन्मुख भारतीय जन संपर्क भाषा को देश की राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प लिया।
जब देश एक राजनीतिक इकाई नहीं था, तब इसकी सांस्कृतिक एकता व राष्ट्रीयता बरकरार थी, क्योंकि देश एक भाषा व एक संस्कृति से बंधा था, लेकिन आज राजनीतिक एकीकरण के बावजूद देश, भाषा व संस्कृति के वैविध्य में बिखरता जा रहा है। देश की एक अपनी सम्पर्क भाषा के अभाव में वे संवादहीनता की स्थिति में है, जिसके कारण उनमें क्षेत्रीय संकीर्णता पनप रही है। वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि देश की एक जनभाषा को राष्ट्रभाषा व राजभाषा के रूप में स्वीकृति एवं व्याप्ति से देश की एकता व अखंडता कितनी दृढ़ होगी व उसकी विकासगति कितनी तेज़ हो सकेगी।
सवाल केवल मुद्दे को सही परिप्रेक्ष्य में सोंचने और अपनी सोच को बदलने का है।
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स्वतंत्रवार्ता के `साप्ताहिकी 'से साभार उद्धृत सारसंक्षेप
7 टिप्पणियां:
आप द्वारा प्रस्तुत हिन्दी दिवस पर विचार थोडे लम्बे थे पर सटीकता के साथ उचीत लगे- बधाई।
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मै यह नही कहता हू कि हिन्दी कि स्थिति सुधरी नही है। भाषा के प्रति लोगो कि जागरुकता बडी है। हिन्दी हमारी पहचान है। मै एक ऐसे भारत की कल्पना नही करता हू, जहॉ हिन्दी सारे देश मे समान रुप बोली जाऍ, लिखी जाऍ। मगर ऍसे देश की कल्पना जरुर करता हू जहॉ हिन्दी के प्रति हीनभावना खत्म हो जाऍ। (हे प्रभू यह तेरापन्थी)
आप को हिदी दिवस पर हार्दीक शुभकामनाऍ।
पहेली - 7 का हल, श्री रतन सिंहजी शेखावतजी का परिचय
हॉ मै हिदी हू भारत माता की बिन्दी हू
हिंदी दिवस है मै दकियानूसी वाली बात नहीं करुगा
विचारणीय आलेख है.
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
कृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य का एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरू करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये.
आपने हिन्दी से जुडे महत्वपूर्ण विंदुओं पर सुंदर विश्लेषण किया .. ब्लाग जगत में कल से ही हिन्दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्छा लग रहा है .. हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!
आपका हिन्दी में लिखने का प्रयास आने वाली पीढ़ी के लिए अनुकरणीय उदाहरण है. आपके इस प्रयास के लिए आप साधुवाद के हकदार हैं.
आपको हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.
" aapko hindi divas ki subhkamnaye , bahut hi sahi farmaya hai aapne aapke lekh me ...sunder vishleshan humne aaj dekha aur padh bhi is liye hum aapke sadaiv aabhari rahenge "
----- eksacchai { aawaz }
http://eksacchai.blogspot.com
http://hindimasti4u.blogspot.com
विस्तार से यहाँ हिन्दी की महिमा जानने का अवसर प्राप्त हुआ । धन्यवाद ।
पता नहीं, विश्व की अन्य भाषायें भी अंग्रेजी से इतनी आतंकित हैं? पता नहीं अन्य जगहों पर भी राष्ट्र और संस्कृति की पहचान मर रही है?
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