सोमवार, 6 जुलाई 2009

हिंदी का उद्भव

‘समकालीन भारती साहित्य’ [मई-जून०९] के आमुख का अंश
हिंदी भाषा और उसके साहित्य का इतिहास अत्यंत पुराना है। हिंदी साहित्य की प्रारम्भिक रचनाएँ ८वीं-९वीं सदी से हमें प्राप्त होने लगती हैं। विद्वानों का मानना है कि हिंदी का सम्बन्ध संस्कृत की अपेक्षा पालि से अधिक है। लगभग समस्त आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास अपभ्रंश भाषाओं से हुआ है, इसलिए उनमें एक गहरा रिश्ता है।
आज जिसे हम ‘हिंदी’ के नाम से व्यवहृत करते हैं, वह नाम उसे बहुत बाद में मिला। प्रारम्भ में इसे ‘भाषा’ के नाम से व्यवहृत किया जाता रहा है। हिंदी के उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है। कबीर ने संस्कृत और हिंदी अथवा ‘भाषा’ की तुलना करते हुए कहा था ‘संस्किरत है कूप जल, भाषा बहता नीर’। तुलसी और सूर भी इसे भाषा ही पुकारते हैं [भाषा भनिति थोर मति मोरी-तुलसी /लिखि भाषा चौपाई कही-सूर]। केशवदास की उक्ति का ध्यान करें तो यह प्रतीत होता है कि उनके समय में हिंदी या भाषा गँवारों की भाषा मानी जाती थी और उसमें रचना करना एक तरह से अपना अवमूल्यन करना था:
भाषा बोलि न जानही जिनके कुल के दास
तेहि भाषा कविता करी जड़मति केशवदास।
मुसलमानों के आगमन के पश्चात ही इसे हिंदुई, हिंदवी और हिंदी कहा गया। अमीर खु़सरो [१२५३-१३२५ई।] ने ‘हिंदवी’ और ‘हिंदी’ दोनों शब्दों का उपयोग भाषा के अर्थ में किया है। वह पहले भारतीय कवि थे जिन्होंने इस भाषा को ‘हिंदवी’ और ‘हिंदी’ कहा। जायसी भी इस देसी भाषा के लिए ‘हिंदवी’ शब्द का उपयोग करते हैं। [तुर्की, अरबी, हिंदवी भाषा जेति आहि। जामे मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि।]

मध्यकाल में हिंदी ‘हिंदवी’ नाम से ही लोकप्रिय रही। १८०० में फ़ोर्ट विलियम कालेज की स्थापना तक ‘हिंदी’ के लिए ‘हिंदवी’ नाम ही सुनाई पड़ता है। आज इसे हिंदुस्तान की भाषा के रूप में ‘हिंदुस्तानी’ कहा गया। फ़रिश्ता [१६०७], टेरी [१६१६ई।] और केटलियर[१७१५] और बाद में महात्मा गांधी ने इसके लिए ‘हिंदुस्तानी’ शब्द ही व्यवहृत किया।

दिल्ली और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों की भाषा को पहले ‘हिंदी’ कहा गया और बाद में उसे ‘खड़ी बोली’ का नाम दिया गया। जब वह दक्खिन में पहुँची तो पहले इसे ‘हिंदवी’ और ‘हिंदी’ कहा गया, बाद में इसे ‘दक्खिनी’ नाम से पुकारा गया। यही परिनिष्ठित हिंदी का पूर्व रूप है।
एक प्रश्न यह भी सामने आता है कि हिंदी का प्रथम ग्रंथ किसे माना जाए। राहुल सांकृत्यायन स्वयंभू द्वारा रचित पुमउ चरउ को हिंदी की पहली कृति मानते हैं। स्वयंभू अपभ्रंश के प्रतिष्ठित लेखक थे और गोदावरी के दक्षिण के रहने वाले थे तथा दक्षिण में प्रचलित यापनिप संप्रदाय के थे। पुष्पदंत ने भी स्वयंभू की शैली में महापुराण लिखा। वे राष्ट्रकूट दरबार के राजकवि और कृष्णराज तृतीय [९३९-९६८] के समकालीन थे। इससे स्पष्ट है कि दक्षिण में हिंदी के आदि रूप अपभ्रंश में रचनाएँ की गई।

4 टिप्‍पणियां:

विवेक सिंह ने कहा…

अरे वाह ! आप ब्लॉग लिखने लगे ?

कब से ?

सच ?

और इतना अच्छा लिखते हैं !

तो पहले से क्यों नहीं लिखा ?

Unknown ने कहा…

umda
bahut umda aalekh !

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण ने कहा…

हिंदी के उद्भव के संबंध में प्रचलित गलत धारणाओं को ही आपने दुहराया है।

डा. रामविलास शर्मा ने भाषा-विज्ञान के संबंध में गहन अध्ययन किया है और उसका परिणाम "भाषा और समाज", "भारत के भाषा परिवार (3 खंड)" आदि महा ग्रंथ हैं।

वे मानते हैं कि यह कहना कि हिंदी, मराठी, बंगाली आदि भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, मूर्खता है। पहले के विद्वान यही कहते थे कि आधुनिक भाषाओं का विकास-क्रम ये हैं - संस्कृत-प्रकृत-अपभ्रंश-आधुनिक भाषाएं।

पर डा. शर्मा कहते हैं कि यह सब बकवास है। उनका मानना है कि संस्कृत, हिंदी, मराठी, बंगला, गुजराती आदि उत्तर भारत की तमाम भाषाओं का अस्तित्व साथ-साथ था। राजनीतिक कारणों से उनमें से एक संस्कृत प्रमुखता पा गई, उसी तरह जैसे हिंदी प्रदेश में राजनीतिक कारणों से पहले ब्रज और बाद में खड़ी बोली प्रमुखता पा गई। इस तरह संस्कृत और हिंदी मां-बेटी नहीं हैं, बल्कि बहनें हैं।

उन्होंने इस विचार को अनेक अकाट्य तर्कों से सिद्ध किया है।

उनकी ये पुस्तकें राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

>भाई विवेकजी, ये ब्लाग आप जैसे प्रेमियों की देन है।
>भाई बालसुब्र्ह्मणियम जी, आपके विचार से अवगत हुआ। यह अंश साहित्य अकादमी द्वारा निकलने वाली द्वैमासिक पत्रिका ‘समकालीन साहित्य’के मई-जून अंक के सम्पादकीय का अंश है। सूचनार्थ॥
> भाई अलबेलाखत्री- आभार॥