गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

मजाज़ की कविता

Mother calms the sad daughter  Stock Photo - 9626488


गुरुदयाल अग्रवाल के माध्यम से

कई दिनों बाद गुरुदयाल अग्रवाल जी की कविता आई... मेरा मतलब है उनके द्वारा चयनित कविता, जिसकी भूमिका भी उन्होंने लिखी है।  तो अब मैं और क्या कहूं?  मैं तो कुछ नहीं कहूंगा, हां, डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी के विचार से आपको अवगत करा सकता हूँ।  उनका मानना है-
कविता तो सचमुच अच्छी है , और सच्ची भी है.
लेकिन एक संकेत इसमें छिपा है कि हिंदू  माताएं अपनी नासमझ बेटियों को गुड़ियों से खेलने की उम्र में मंदिर और पूजा में ठेल देती हैं जबकि उन्हें इनके अर्थ और विधि का कुछ भी पता नहीं होता है. पता नहीं कि उस महान शायर ने गोद के बच्चों को कभी देवमूर्तियों को प्रणाम करते देखा था कि नहीं. मैंने देखा है. इसीलिए मुझे यह कविता हिंदू  धर्म का मखौल उडाती प्रतीत होती है. प्रगतिवादी नज़रिए से यही ठीक भी है कि बच्चे के स्वविवेक के विकसित होने से पहले उसे आस्तिक बनाना अन्धविश्वास फैलाना ही है. 


गुरुदयाल अग्रवाल जी कहते हैं--
कुछ शायरों  की गजलो की pocket books अक्सर पढ़ता रहता हूँ! इनमें एक मजाज साहब भी हैं. इन गजलो के बीच में एक कविता भी है जो मैंने कभी पढ़ी नहीं.  हमेशा छोड़ दिया करता था कि मजाज कविता क्या लिखेंगे.  कल ऐसे ही इसको पढ़ लिया और तबसे ही अफसोस हो रहा कि पहले क्यों नहीं पढ़ी.  बहुत लज्जा सी लग रही है.  हाँ पढ़कर आप को सुनाने का लोभ संवरन   नहीं कर पा रहा हूँ.    
लीजिये हाजिर है:
           इक नन्ही-मुन्नी सी पुजारिन 
                     पतली बाहें, पतली गर्दन 
           भोर भये मन्दिर आई है 
                    आई नहीं है माँ लाई  है 
           वक्त से पहले जाग उठी है 
                     नींद अभी आँखों में भरी है 
            ठोड़ी तक लट आई हुई है        
                     यूँही सी लहराई हुई है 
            आँखों में तारों की चमक है 
                     मुखड़े पर चाँदी की झलक है
             कैसी सुंदर है क्या कहिये 
                     नन्ही सी इक सीता कहिये 
             धूप चढ़े तारा चमका है
                    पत्थर पर इक फूल खिला है
             चाँद का टुकड़ा, फूल की डाली 
                     कमसिन, सीधी भोली भाली 
              कान  में चांदी की बाली  है 
                     हाथ में पीतल की थाली है 
              दिल में लेकिन ध्यान नहीं है 
                     पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है 
               कैसी भोली और सीधी है 
                     मन्दिर की छत देख रही है 
               माँ बढ़कर चुटकी लेती है 
                      चुपके-चुपके हंस देती है 
               हंसना रोना उसका मजहब 
                      उसको पूजा से क्या मतलब 
               खुद तो आई है मन्दिर में 
                      मन उसका है गुडिया-घर में         
 
वाह मजाज साहब वाह, आफरीन  
 

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

गंभीरता से न लें




आग


आज के समाचार पत्र में पढ़ा कि नगर के सितारा होटल में आग लग गई।  उसी के निकट एक मित्र का घर है, तो चिंता हुई कि हालचाल पूछ लें।  फ़ोन पर उन्होंने बताया कि उस हादसे के वे चश्मदीद गवाह रहे हैं।  भयंकर आग की लपेटें देखकर वे दूर जा खड़े हुए और वहाँ की गतिविधियों को देखते रहे।  लोग इधर उधर भाग रहे थे।  होटल से बाहर निकलने वाले अपने अज़ीज़ों की तलाश कर रहे थे तो कुछ उनकी खोज में फिर अंदर जाने की जुस्तजू में थे जिन्हें वहाँ के कर्मचारी रोक रहे थे।  समाचार से पता चला कि कोई हताहत नहीं हुआ है और सभी सुरक्षित है।  

हमारे मित्र बता रहे थे कि इस हादसे की प्रतिक्रियाएं भी वहाँ ऐसी मिलीं कि इस गम्भीर परिस्थिति में भी व्यक्ति हँसने को मजबूर हो जाता है।  जिन लोगों के परिजन मिल गए वे खुश थे और उन्हें किसी अन्य की कोई चिंता नहीं थी।  दर्शकों में खड़े लोग भी उस आग को एक तमाशे की तरह देख रहे थे।  एक ने कहा कि हमारी फ़ायर ब्रिगेड को तैयार रहना चाहिए, इतनी देर लगा दी [इसकी सूचना देने की उन्होंने कोई पहल नहीं की, केवल ज़बानी जमा खर्च करते रहे]।  एक ने अपने मित्र के कांधे पर हाथ रखते हुए कहा कि आग की इतनी लम्बी कतार मैं तो पहली बार देख रहा हूँ! [उसके चेहरे पर ऐसी आनंद की लहर दिखाई दे रही थी मानो उसे इतना अच्छा दृश्य अपने जीवन में पहली बार देखने को मिल हो।]

मुझे पुरानी कहावत याद आई कि किसी का घर जलता है तो कोई हाथ सेंक लेता है। तभी तो, दुष्यंत ने भी कहा था- 
खडे हुए थे अलावों की आँच लेने को
सब अपनी-अपनी हथेली जला के बैठ गए॥  

आग भी किसिम किसिम की होती है।  एक वो आग है जो अपने आगोश में आई हर चीज़ को जला कर राख कर देती है, तो एक वो आग भी होती है जो सीने में सुलगती है और अरमानों को जला देती है।  तभी तो किसी दिलजले शायर ने कहा था- सीने में सुलगते हैं अरमान, आँखों में उदासी छायी है।  

एक ऐसी आग भी होती है जो एक को जलाती है तो दूसरे को ठंडक पहुँचती है।  यह त्रिकोणीय प्रेम में अधिक देखने को मिलता है। यह  आग भारतीय फ़िल्मों की आधारशिला मानी जाती है। तभी तो महमूद ने अपनी एक फ़िल्म में गाया भी था-  ‘अजब सुलगती हुई लकड़ियाँ है ये जगवाले, जले तो आग लगे, बुझे तो धुआँ करे’।  

रिश्तों में एक वो आग भी होती है जो महिलाओं में अक्सर सुलगती देखी गई है।[स्त्री-सशक्तीकरण का दम भरनेवालों से क्षमा माँगते हुए, वर्ना मैं उनके प्रकोप की आग में झुलस जाऊँगा।]  सास-बहू ही क्या, ननंद-भावज, जेठानी-देवरानी... सभी में यह आग कभी न कभी देखी गई है, भले ही अदृश्य रूप में हो।

वैसे तो आग लगाने-बुझाने के काम अनादि काल से चला आ रहा है और ऐसे लोगों के कुलदेवता नारद जी को माना जाता है।  घर की छोटी-मोटी झड़पों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय लड़ाइयों में भी ऐसे लोगों की एक अहम भूमिका देखी गई है।  अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस लगाऊ-बुझाऊ काम को ‘डबल क्रास’ का नाम दिया जाता है।  कुछ मसाले के साथ इधर की उधर और उधर की इधर लगा दो और तमाशा देखो।  इसे ही तो कहते हैं- आम के आम, गुठलियों के दाम।

कवियों और शायरों ने भी इस आग का बहुत लाभ उठाया है।  किसी उर्दू शायर ने इश्क की हिमाकत को क्या खूब बयान किया है- 
ये इश्क नहीं आसां, बस इतना ही समझ लीजे। 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।  

हमारे हिंदी के अज़ीम शायर दुष्यंत कुमार ने भी तो कहा है- 
                                                         मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी ही चाहिए।

आग के इन विविध आयाम में जो कुछ छूट गया है, उसे मित्रगण अपनी टिप्पणियों के माध्यम से भर देंगे, ऐसी आशा है।  इस बीच, दुष्यंत ने  सितारा होटल के मालिक को एक ट्रेड सीक्रेट भी बता गए हैं-

थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो
कल देखोगे कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे॥


बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

World Hindi Secretariat, Mauritius



हिंदी की जानकारी देती- विश्व हिंदी पत्रिका-२०११

विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस हर वर्ष विशेषांक के रूप में विश्व हिंदी पत्रिका का वार्षिक अंक निकालती है जिसमें विश्व में हो रही हिंदी गतिविधियों की जानकारी मिलती है। इस वर्ष के ‘विश्व हिंदी पत्रिका-२०११’ में भी समस्त विश्व में हिंदी भाषा की गतिविधियों  की जानकारी दी गई है।  इस पत्रिका की छपाई आर्ट पेपर पर की गई है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में रखने योग्य कही जाएगी।


‘विश्व हिंदी पत्रिका-२०११’ को पाँच खण्डों में बाँटा गया है। पहले खण्ड में हिंदी को लेकर दस विभिन्न देशों के लेखकों के लेख दिए गए हैं।  दूसरे खण्ड में सूचना प्रौद्योगिकी और विश्व में हिंदी पर चर्चा की गई है।  तीसरे खण्ड ‘विश्व में हिंदी: विविध आयाम’ के अंतर्गत विभिन्न देशों में चल रही भाषा गतिविधियों कि जानकारी वहाँ के सात विद्वानों ने दी है। ‘डायस्पोरा साहित्य के इतिहास पर विशेष आलेख’ के अंतरगत विश्व के साहित्यिक परिवेश की चर्चा पाँच विद्वानो ने की है और अंत में ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी निबंध प्रतियोगिता २०१० के विजेताओं के तीन निबंध’ संकलित हैं।

 लेखों में सब से प्रथम हिंदी के उस मूधन्य लेखक का लेख है जो अब हमारे बीच नहीं है। फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के ने जीवाकी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में १९६८ में दिए गए भाषण को उद्धृत किया गया है जिसमें उन्होंने हिंदी भाषियों को यह स्मरण कराया कि भाषा के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी उन पर है और केवल अंग्रेज़ी ्व अन्य भाषाओं से बैर रख कर हिंदी का भला नहीं हो सकता।  उन्होंने कहा था- "हम हिंदी के प्रश्न को प्रचार तथा आंदोलन का विषय बनाकर वास्तविकता का ध्यान नहीं रखते।  कठोर सत्य यह हि कि हिंदी प्रांतों में हिंदी और उसके साहित्य का समादर नहीं किया जाता है।  बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि प्रांतों के बुद्धिजीवी अपनी भाषा पर जितना गौरव करते हैं, अपने साहित्य से जितना प्रेम रखते है, उतना हम हिंदी वाले नहीं करते।’  इस खण्ड के अन्य रचयिता हैं डॉ. सुरेंद्र गम्भीर, प्रो. तेज कृष्ण भाटिया, डॉ. महावीर सरन जैन, डॉ. हीरालाल बाछोतिया, डॉ. कामता कमलेश, अजामिल मताबदल, धनराज शंभु, राकेश कुमार दुबे, प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी और राज हीरामन।

अंतरजाल के आगमन के बाद लेखन का नया माध्यम प्रचलित हो गया है। हिंदी भाषा में अभिव्यक्ति का नवीनतम माध्यम ब्लागिंग है जो अल्पावधि में बहुत प्रचलित हो गया है।  ब्लागिंग [चिट्ठा] करने वाले को ब्लागर कहा जाता है जिसे हिंदी में चिट्ठाकार का नाम दिया गया है।  यह विधा शिशु अवस्था में है और अपना  अस्तीत्व ढूँढ रही है।  इसी मुद्दे को लेकर दूसरे खण्ड में प्रसिद्ध ब्लागर बालेंदु शर्मा दधीच ने ‘हिंदी ब्लॉगिंग:कुछ पुनर्विचार’ में अपने विचार व्यक्त करते हुए बताते हैं कि "हिंदी ब्लागिंग के भीतर और बाहर एक सवाल बार-बार उठाया जाता है कि क्या ब्लागिंग लेखन साहित्य है?  इसी से जुड़ा एक अन्य प्रश्न भी चर्चा में रहता है कि हिंदी ब्लागिंग ने हिंदी साहित्य में कितना योगदान दिया है?" जहाँ वे यह तो मानते हैं कि हिंदी ब्लागिंग ने एक बड़ा योगदान इंटरनेट को समृद्ध करने में दिया है, वहीं वे यह भी कहते हैं-"जहाँ तक साहित्य और ब्लागिंग का मुद्दा है, सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है।  हिंदी ब्लागिंग में उस किस्म के स्तरीय तथा उत्कृष्ट लेखन की मात्रा कम है, जिसे ‘साहित्य’ की श्रेणी में गिना जा सके।"  यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि जितना आज साहित्य के नाम पर छप रहा है क्या वह उच्च कोटि का है या जैसा किसी प्रसिद्ध साहित्यकार ने कहा है आज हिंदी में ९०प्रतिशत कूडा ही छप रहा है!

अंतरजाल के आगमन के बाद अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने भी अपने पर वेब पत्रकारिता के माध्यम से अपने पर फैलाए हैं।  इसी मुद्दे को लेकर अनुभूति-अभिव्यक्ति’ वेब पत्रिका की संस्थापक डॉ. पूर्णिमा वर्मन ने अपने लेख में वेब पत्रकारिता के अतीत और भविष्य के साथ आज की स्थिति का भी जायज़ा लिया है।  अपने लेख ‘वेब पत्रकारिता:कल आज और कल’ में वे बताती हैं कि चिन्नै से निकलने वाला दैनिक ‘हिंदू’ सब से पहले १९९५ में वेब पर अपना पत्र डाला था और उसके बाद मुम्बई के टैम्स ऑफ़ इंडिया का अंतरजाल संस्करण १९९६ से आने लगा।  आज हैदराबाद का दैनिक ‘स्वतंत्र वार्ता’ भी अंतरजाल पर उपलब्ध है।

‘विश्व में हिंदी:विविध आयाम’ खण्ड में हंगरी, स्पेन, ऑस्ट्रेलिया, बेलारूस आदि में हो रही हिंदी की गतिविधियों की जानकारी दी गई है।  इसी खण्ड में केंद्रीय हिंदी संस्थान, हैदराबाद की डॉ. अनिता गांगुली ने अंडमान निकोबार द्वीप-समूह की हिंदी पर चर्चा की है और कुछ उदाहरण देकर बताया है कि वह मुख्यधारा के कितने करीब है।

आज साहित्य को खानों में बाँटा जा रहा है- जैसे स्त्री विमर्श, दलित साहित्य या मुस्लिम साहित्य आदि।  इसी मुद्दे को लेकर डेनमार्क में बसी श्रीमती अर्चना पैन्यूली का मानना है कि "इसी कडी में प्रवासी हिंदी साहित्य को भी जोड़ लिया जाए तो विसंगति तो नहीं है मगर लक्षणों के आधार प्र साहित्य की यह खेमेबाज़ी कई साहित्यकारों को सीमा तक ही ठीक लगती है।  अधिकांश प्रवासी लेखक स्वयं के लिए एक ‘प्रवासी लेखक’ क लेबल गुच्छ समझते हैं।  जब लेखकों और लेखन के बारे में चर्चा होती है तो स्वयं को प्रवासी लेखक खेमे में पाना उन्हें क्षुब्ध करता है।’

इस पत्रिका के प्रधान सम्पादक डॉ. पूनम जुनेजा ने अपने सम्पादकीय में हिंदी की स्थिति पर निष्कर्ष निकालते हुए कहा है कि "अन्य एशियाई देश जैसे कि चीन, जापान, कोरिया आदि ने भी संसार के विभिन्न देशों में अपनी भाषाई पहचान बनाई ह।  इसके बावजूद कि हिंदी जननेवालों की संख्या विश्व में तीसरे स्था न पर है; भारत और मॉरिशस से इतर देशों में चीनी, जापानी इत्यादि की हस्ती अधिक बुलंद है।"  इसी क्रम में पत्रिका के संपादक डॉ.गंगाधर सिंह सुखलाल ने हिंदी सैनिकों को अगली पंक्ति में सामने आने का आह्वान किया है।  वे यह मानते हैं कि युवा पीढ़ी को सैनिकों की तरह एकनिष्ठ होकर हिंदी की सेवा में रत रहने पर ही हिंदी विश्व की भाषाओं में अपना नाम दर्ज करा सकती है और एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप मेम संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा बन सकती है।  इसके लिए अभी समय भले ही हो पर समय को फिसलने भी नहीं देना होगा।  जैसा कि मॉरिशस के प्रसिद्ध कवि सोमदत्त बखोरोज़ी ने कहा है-

कुरुक्षेत्र में युद्ध जारी है
हे अर्जुन
गांडीव को हाथ से फिसलने न दो!

पुस्तक परिचय

पुस्तक का नाम: विश्व हिंदी पत्रिका-२०११
प्रधान संपादक : डॉ. पूनम जुनेजा
संपादक : गंगाधर सिंह सुखलाल
प्रकाशक : विश्व हिंदी सचिवालय
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मॉरिशस