सोमवार, 23 जनवरी 2012

शुद्ध हास्य


लोकार्पण पिपासा

डिस्क्लेमर: इस लेख के सभी पात्र काल्पनिक हैं।  यदि ऐसा कोई पात्र इस धरती पर चलता फिरता दिखाई दे तो उसकी ज़िम्मेदारी लेखक पर नहीं है :)


हाल ही में तिरबेनी परसाद से रास्ते में भेंट हुई थी।  उन्होंने बताया कि वे एक पुस्तक रच रहे हैं जिसका शीर्षक है ‘महापुरुषों की कारस्तानी’।  फिर उन्होंने उसके प्रकाशन में आने वाली कठिनाइयों का भी ज़िक्र किया। मैं जानता था कि तिरबेनी परसाद उन रचनाकारों में से हैं जो आपको किसी भी नुक्कड़ पर ठोक के भाव मिल जाते हैं।  वे यदाकदा रास्ते में मिल जाते थे तो मेरा हस्बे-आदत यही प्रश्न रहता है- क्या नया लिख डाला!  तब वे अपनी नई रचना के बारे बताते और बात कभी हास-परिहास तक भी पहुँच जाती।

अब देखिए ना, जब उन्होंने अपनी नई पुस्तक ‘महापुरुषों की कारस्तानी’ के बारे में बताया तो निश्चय ही मेरा पूछना लाज़मी था- अरे तिरबेनी बाबू, आपको इनकी कारस्तानियों के बारे में कैसे पता चला जिसको हमारे मीडिया के खोजी कुत्ते भी नहीं सूंघ सके; उन्हें तो ऐसी कारस्तानियों की गंध तो सब से तेज़ लग जाती है।   

उन्होंने बड़े राज़दाराना इस्टाइल में बताया कि यही तो घुंडी है।  हम ठहरे इन महापुरुषों के चमचे जो उनके घर में तो क्या, हमाम में भी घुस जाते हैं।  इनके बारे में हमसे ज़्यादा और कौन जाने है भला।

‘सो तो ठीक है, पर ऐसी पोशीदा बातें तो आम पब्लिक में बताना कापीराइट का उल्लंघन होगा।’  

‘अरे नहीं सा’ब, यही तो असली फ़ंडा है।  हमारे महापुरुष तो जानते हैं कि ऐसी ही बातें उन्हें समाचार में बनाए रखती हैं।’  

मैंने पूछा कि प्रकाशक कौन है?  उन्होंने प्रकाशन की कठिनाइयों का विस्तार से वर्णन करना शुरू किया। उन्होंने बताया- ‘पहले तो प्रकाशक मिलते नहीं और मिलते हैं तो उनका डिमांड बड़ा होता है।  यह कहाँ का इन्साफ़ है कि हम लिखो भी और छापने के लिए उन्हें पैसा भी दो।  अब हमें अपना पैसा लगाना ही है तो हम ही प्रकाशक बन जाते हैं।  इसलिए हमने अपनी पत्नी गंगा बाई के नाम से गंगा प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्था खोल रखी है।  इसी प्रकाशन से अपनी सारी पुस्तकें निकलेंगी।’


कुछ दिन बाद तिरबेनी परसाद फिर निक्कड़ पर मिल गए।  मैंने उनकी पुस्तक की अवस्था के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि अभी वह गर्भावस्था में ही है।  कुछ और कारस्तानियों का बखान उसमें आना है, इसलिए उसकी छपाई पूरी नहीं हो पाई है।

राह चलते एक दिन तिरबेनी बाबू सिर झुकाए चिंतामग्न आ रहे थे।  मुझे देखते ही तपाक से हाथ मिलाया और बताया कि पुस्तक तो छप गई है।  अब लोकार्पण की चिंता में ही भटक रहा था और आप ही के बारे में सोच रहा था। अच्छा हुआ आपसे समय पर भेंट हो गई।

कहिए, मैं क्या सेवा कर सकता हूँ?

ऐसा है सा’ब, आप तो बडी-बडी गोष्ठियों की अध्यक्षता करते रहते हैं, और साहित्य के बडे तोपों से आपका परिचय है;  तो क्यों न आप इस पुस्तक के बढिया लोकार्पण का जुगाड़ करें।  आप ही उस समारोह की अध्यक्षता कर लीजिए।

यह तो ‘आ बैल मुझे मार’ की स्थिति हो गई।  मैं जानता हूँ कि तिरबेनी बाबू बड़े चिपकू हैं और पीछा नहीं छोड़ेंगे।  मैंने कहा कि मुझे अध्यक्षता करने में कोई ऐतेराज़ नहीं है पर सवाल यह है कि इसका संयोजन कौन करेगा?  

‘मैं तो चाहता था कि आप ही सारे कार्यक्रम की रुपरेखा बनाएं और अतिथियों को बुलाने का ज़िम्मा भी लें।’

मैंने कहा कि यह सब मुझ से नहीं होगा।  मेरी अपनी ज़िम्मेदारियां ही बहुत हैं।

‘नहीं साब, आपको मेरी खातिर तो इतना करना ही पड़ेगा।  आपका नाम रहेगा तो लोकार्पण धूम से हो जाएगा, इतना तो साहित्य का बच्चा बच्चा जानता है।’  

मरता क्या न करता, मैं ने कहा कि आप हाल बुक करा लीजिए, मंच पर आसीन अथितियों के लिए अच्छे से स्मृतिचिह्न ला लीजिए।  संचालन के लिए वर्माजी को बुला लीजिए और संयोजन का काम शर्मा जी को सौंप दीजिए।  आपका काम सफल हो जाएगा।

अब क्या था, तिरबेनी बाबू की बांछे खिल गई।  मार्गदर्शन के लिए आभार प्रकट किया और भावी कार्यक्रम की सफलता का अरमान लेकर चले गए।

आखर वो दिन भी आ गया। बहुत सारे लोग इस लोकार्पण के लिए पदार्पण करने लगे।  तिरबेनी बाबू प्रसन्न थे कि कार्यक्रम सफल जा रहा है।  अंत में उन्होंने चमकीली पन्नी में लिपटे पुस्तकों का बंडल लोकार्पणकर्ता को दिया।  उस बंडल से चार पुस्तकें निकली और मंच पर आठ अतिथि थे।  अब लोकार्पणकर्ता किंकर्तव्यविमूढ़ थे। उनकी समस्या यह थी कि किस को पुस्तक दें और किसको नहीं।  इस झंझट से छुटकारा पाने के लिए एक पुस्तक उठाई और दर्शकों को दिखा दिया।  क्लिक, क्लिक... फोटो खींचे गए और दर्शकों ने ताली बजाई।  तिरबेनी बाबू ने मंचासीन अतिथियों को स्मृतिचिह्न दिए।  कार्यक्रम समाप्त हुआ।  

दर्शकों को निराशा हुई कि ताली बजाने के एवज़ में उन्हें चाय तक नहीं मिली।  अतिथियों ने कार्यक्रम की समाप्ति के बाद अपने स्मृतिचिह्न का अनावरण किया तो निराश हुए कि उसमे सड़कछाप पच्चीस रुपये का फ़ोटोफ़्रेम था।  सब के चेहरे मुर्झा गए।  किसी का चेहरा खीला था तो वो तिरबेनी परसाद का था जिन्हें लोकार्पण की सफलता की प्रसन्नता थी। आखिर हींग लगी न फिटकरी, रंग चोखा जो हो गया था।

16 टिप्‍पणियां:

  1. हींग लगी न फिटकरी, रंग चोखा जो हो गया था।
    वाह वाह यह इस्टाइल बड़ी पसंद आई है !
    बढ़िया व्यंग्य .....

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  2. खुद ही लेखक , खुद ही प्रकाशक और लोकार्पण भी खुद ही कर डाला ।
    ये तो सचमुच न हींग लगी न फिटकरी । रंग का क्या है , आ ही जायेगा ।
    बढ़िया कहानी ।

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  3. महापुरुषों की कारस्तानी बेस्टसेलर हो न हो, तिरबेनी परसाद की कारस्तानी जरूर बेस्टसेलर होगी! आप लिख डालिये!

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. मार गए बाजी तिरबेनी बाबू -एक पुस्तक की आत्मकथा श्रृंखला की आपकी यह विशिष्ट कड़ी भी पसंद आयी ...पुस्तक की समीक्षा पर आप पहले ही लिख चुके हैं .....एक पुस्तक इसी शीर्षक पर हो जाए!

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  6. बिना चाय के ही सलट गए! यह तो आपका ही कमाल है। वैसे साहित्‍यकार बनने की धुन में यह सब हो रहा है। जयपुर फेस्‍टीवल में ही देख लें। कितने साहित्‍यकार चले आए हैं!

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  7. सारी गलती तो आपकी थी, न आप अध्यक्षता स्वीकारते और न दर्शकों को मायूस होना पड़ता :)

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  8. बहुत ही सुंदरता से आपने लेखकीय प्रवृति की व्याख्या की है |बढ़िया और मजेदार भी रहा..

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  9. वाह जी वाह..... कमाल के है तिरबेनी बाबू .....

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  10. Oh! This is such a "wonderful" time. Everybody knows somebody who is writing a book, or has written one!

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आपके विचारों का स्वागत है। धन्यवाद।