संयुक्त परिवार क्यों टूट रहे हैं?
संयुक्त परिवार का यह चित्र ‘समय-live' से साभार
आजकल एकल परिवार का चलन हो चला है और संयुक्त परिवार लुप्त होने के कगार पर हैं। एक समय था जब संयुक्त परिवार भारत की जीवन पद्धति का अभिन्न अंग था। तो फिर, अब यह बदलाव कैसा?
यह सच है कि आजकल संयुक्त परिवार का चलन कम होता जा रहा है। इसका कारण न तो कोई सामाजिक उथल-पुथल है और ना ही पाश्चात्य सभ्यता पर इसका भांडा फोडा जा सकता है। इसका मुख्य कारण हमारी अर्थव्यवस्था में बदलाव दिखाई देता है।
भारत एक कृषि-प्रधान देश था और परिवार के उदर-पोषण का मुख्य स्त्रोत। कृषि के लिए ज़्यादा हाथों की आवश्यकता होती थी तो सारा परिवार इसी में जुट जाता था। तब परिवार की परिभाषा के अंतरगत चाचा, भाई, भतीजे, पुत्र-पौत्र सभी आ जाते थे। औद्योगिकरण ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, परिवार बँटने लगे। कृषि में भी मशीनों ने हाथों का काम ले लिया जिसके कारण हाथों की ज़रूरत कम होने लगी। तब परिवार में सम्पन्नता के साथ बेरोज़गारी भी बढ़ने लगी। चाचा-भतीजे अब भार लगने लगे। रोज़गारी के लिए वे गाँव छोड़कर शहर की ओर जाने लगे। परिवार में बँटवारा होने लगा और संयुक्त परिवार आहिस्ता आहिस्ता बिखरने लगा।
स्वतंत्रता मानव प्रकृति का अभिन्न अंग है। जब पालन पोषण की निर्भरता नहीं रही तो हर सदस्य अपनी स्वतंत्रता के लिए छटपटाने लगा। हर सदस्य की आकांक्षाएँ व अपेक्षाएँ बढ़ने लगी और यह मानसिकता हर पुरुष में पनपने लगी कि वह परिवार का अर्थ सिर्फ़ ‘मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे’ समझने लगा।
कदाचित अर्थशास्त्री इसे प्रकृति के उस नियम का अनुसरण कहेंगे, जहाँ कोई भी इकाई बढ़ते-बढ़ते चरम सीमा पर पहुँच कर फिर सिमटने लगती है। गठन और विघटन एक प्राकृतिक प्रक्रिया जो है!!
Thik baat he.
जवाब देंहटाएंऔद्योगिकरण ही मुख्य कारण है बहुत ही अच्छी सार्थक पोस्ट आभार
जवाब देंहटाएं"मैं" का हद से ज्यादा हावी हो जाना , स्वतंत्रता को गलत परिभाषित करना , कम शिक्षा तो नहीं कहूंगा मगर लिटिल नौलेजे का हावी रहना , कभी कभार घर के बूढ़े खूसटों अड़ियल स्वभाव और युवा पीढी की भावनाओं को न समझना, संस्कारों की कमी इत्यादि-इत्यादि !
जवाब देंहटाएंव्यक्तिवाद इस तरह से हावी हो गया है कि अब तो युग्म बनाकर रहने में भी परहेज है तो परिवार की बात तो कैसे करे?
जवाब देंहटाएंमेरे ख्याल से मामला साइकलिक है। समय पुन: आयेगा सन्युक्त परिवार का। शायद अर्थशास्त्र उस ओर धकेले मानव को।
जवाब देंहटाएं' गठन और विघटन एक प्राकृतिक प्रक्रिया जो है!' !बिलकुल सही सर ! इसमे अपना स्वार्थ भी खेल - खेलने लगा है !
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा है आपने !
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ आपसे भाई जी ....
समय की मजबूरी है ।
जवाब देंहटाएंरोज़ी रोटी ने घर तो क्या देश भी छुड़ा दिया ।
समय समय की बात है जी !
जवाब देंहटाएंजब चटनी समोसे से मन भर जाएगा तो खिचड़ी भी खाई जायेगी ही ...पर कब ?
सारा अर्थतन्त्र एक ही स्थान पर केन्द्रित कर देने से यह विकार आ रहा है..
जवाब देंहटाएंबड़ा ही सार्थक आलेख
स्वतंत्रता का ज्यादा लाभ स्त्रियाँ लेना चाहती हैं - एकल परिवार के रूप में .
जवाब देंहटाएंग्रामीण क्षेत्रो में अब भी संयुक्त परिवार को खुश देखा जा सकता है भले ही मन में गहरी दरार हो . अब भी परिवार का टूटना शर्म की बात होती है .
जवाब देंहटाएंदुखद है ये विघटन ! ज़रुरत से ज्यादा आजादी चाहिए लोगों को !
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही लिखा है सर आपने ! सार्थक आलेख धन्यवाद
जवाब देंहटाएंडॉ साहब की बात से सहमत हूँ सार्थक एवं सारगर्भित आलेख ...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
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