गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

एक समीक्षा




ऐतिहासिक उपन्यास- रानी लचिका

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर कई उपन्यास लिखे गए हैं और कई उपन्यासकारों को इनसे ख्याति प्राप्त हुई है।  पृथवीवल्लभ, जय सोमनाथ, विराटा की पद्मिनी, विशाद मठ- ऐसे ही कुछ उपन्यास हैं जिन्हें आज भी बड़े चाव से पढ़ा जाता है।  अनिरुद्ध प्रसाद ‘विमल’[१९५०] ने इतिहास के सहारे ही ‘रानी लचिका’ नामक उपन्यास रचा है, जिसमें ११वीं शताब्दी के जमुई, गिद्धौर, खड़गपुर, छोटानागपुर और संतालपरगना जैसे स्थानों पर खेतौरियों का शक्तिशाली साम्राज्य रहा।  

इसी खेतौरी राजवंश की चौदहवीं पीढ़ी के प्रीतम सिंह वारप्पा की गद्दी पर १७९० में आसीन हुए।  प्रीतम सिंह की पत्नी थी रानी लचिका जो देखने में इतनी सुंदर - मानो कोई अपसरा धरती पर उतर आई हो।  राजा प्रीतम सिंह अपनी रूपसी पत्नी को निहार-निहार कर निहाल हुए जा रहे थे।  रानी ने राजा को अपना राजधर्म याद दिलाया और उन्हें राजपाट में ध्यान लगाने को कहा।  राजा अपनी पत्नी लचिका के बुद्धिकौशल का लोहा मान गए।

राजमाता चंद्रावती अब निश्चिंत थी कि पुत्र और पुत्रवधु राज्य की भलाई में कार्यरत हैं और इस शक्तिशाली राज्य में अमन-चैन से लोग जी रहे हैं।  उनकी इच्छा थी   कि शीघ्र ही एक पौत्र राजमहल में किलकारियाँ भरे, जिसके लिए उन्होंने रानी लचिका को योगिनी एकादशी व्रत रखने को कहा।  रानी लचिका ने इस व्रत का निष्ठापूर्वक पालन किया और सिंहवाहिनी अष्टभुजा मां दुर्गा के आशीर्वाद से गर्भवती हुई।  पंडितों को भावी राजकुमार के भविष्य की जानकारी के लिए बुलाया गया।  उन्होंने राजकुमार के प्रतापी होने की भविष्यवाणी तो की, पर.... कुछ झिझक कर कहा कि उन पर संकट आएगा जिसका निवारण भी वे खुद ही करेंगे।  यह जानकर राजमाता की चिंता कुछ दूर हुई।

एक दिन जब रानी लचिका नौरंग सरोवर में स्नान कर रही थी तो पडोसी राज्य लखिमापुर का राजा जयसिंह देव पेडों की आड से उस सुंदरी को निहार रहा था।  अपसरा जैसी सुंदरी को देख उसके होश उड़ गए।  वह इस सुंदरी को प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठा।  राजकाज छोड़कर वह गुमसुम रहने लगा।  जयसिंह की पत्नी रानी जयमंती उसकी इस हालत को देख महामंत्री से मंत्रणा की और यही उचित समझा कि रानी लचिका को पटरानी बना कर लाया जाय।  पर इसके लिए युद्ध करना अनिवार्य था और खेतौरी राजवंश अपने पराक्रम के लिए प्रसिद्ध था ही।  छल की लड़ाई का सहारा लिया गया। कुटनी बुढिया माया को गुप्तचर बना कर भेजा गया और अचानक आक्रमण करके राजा प्रीतम सिंह और उसकी सेना को हलाक कर दिया गया।  रानी लचिका को बंदी बना कर पालकी में लाया गया।  राजमाता चंद्रावती और दो वर्षीय पौत्र बच निकले।  

रानी लचिका को राजमहल में रखा गया पर उसे तो अपने राज्य और पुत्र की याद आ रही थी।  इधर राजा जयसिंह रानी लचिका का दिल जीतने को बेचैन था।  स्थिति को देखते हुए रानी लचिका ने शर्त रखी कि वह व्रत रखते हुए बालिशानगर से लखिमापुर दान-पुण्य करते हुए पैदल जाना चाहती है और जब वह लखिमापुर पहुँचेगी तो वह जयसिंह को पति के रूप में स्वीकार कर लेगी।  इसके लिए जयसिंह को सफर का सारा इंतेज़ाम करना होगा... डेरे-खेमे से लेकर दान-पुन तक का।  राजा उसकी शर्त मान गया और आयोजन की तैयारी होने लगी।  आयोजन इतना सरल नहीं था।  डेरे-तम्बू लगाने में ही बरस बीत गया, फिर रानी के एक कोस  पैदल चलने में एक वर्ष बीत जाता।  जयसिंह अधीर होता पर वह बेबस था।  आखिर उसे लखिमपुर पहुँचने में बारह वर्ष लगे जब तक युवराज चौदह वर्ष का योद्धा तैयार हो चुका था।  गुप्तचर रानी लचिका से नियमित संपर्क बनाए रहे।  जब रानी लचिका लखीमापुर पहुँची तो युवराज रणवीर  ने अपनी सेना को लेकर आक्रमण किया और जयसिंह का वद्ध कर दिया।  रानी लचिका की युक्ति सफल हुई।

इन उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार अनिरुद्ध प्रसाद ‘विमल’ ने इतिहास के पन्ने ही नहीं उकेरे बल्कि स्त्री-विमर्श, व्रत-त्योहार, कच्चे-पक्के भोजन की सूची जैसे कई मुद्दों से पाठक को परिचित कराया है।  स्त्री-विमर्श पर बात करते हुई रानी लचिका के माध्यम से कहा गया है कि ‘स्त्रियाँ अपने को छिपाती हैं।  त्याग करती हैं और पुरुष को उसके दायित्व का बोध कराती हैं।  स्त्री अपनी सुकोमल कंचन काया और उदात्त प्रेमिल हृदय से पुरुष को प्रेम करती है।’[पृ.११]  स्त्री का जीवन पुरुष के भाग्य के साथ बंधा होता है।  तभी तो एक महिला पात्र कहती है-‘हम स्त्रियों का जीवन कुछ इस कदर पुरुषों के साथ बंधा होता है कि उसके बिना जीना और मरना दोनों कठिन।  अधिकारों के इस संघर्ष में स्री हमेशा हारती रही है।....  लचिका हो या जयमंती, प्रताडित तो होगी आखिर स्त्री ही।  विधाता ने हम स्त्रियों का भाग्य ही कुछ ऐसा लिख दिया है कि कोमलांगी और उदात्त सुकुमार भावनाओं की होकर भी हम कठोरतम जीवन जीने को विवश होते हैं।’[पृ.६५]

वट सावित्री व्रत के बारे में उपन्यासकार बताते हैं कि पति की लम्बी उम्र की कामना करती स्त्रियाँ वट वृक्ष की विधिवत पूजा करती हैं।  सोलहों श्रृंगार कर अंग-अंग में बत्तीसों आभरण, माँग में लक-दक गहरा सिंदूर पहन जब ब्याहता वटवृक्ष को लाल धागों से घेरती फेरे लगाती है तो देखते ही बनता है।  गीतों में प्रार्थनाएं होती हैं- जब तक जीवित रहूँ यह सिंदूर माथे पर हो।  कलकंठी महिलायें झुंड की झुंड मिलकर उच्च स्वर में मंगल गीत गाती हैं।

इस उपन्यास के माध्यम से वारप्पा राज्य के राजस्व के बारे में बताया गया है।  प्रचुर मात्रा में धन-सम्पदा, बेशकीमती हीरे, मोती, मूंगा, नीलम, पुखराज आदि पत्थरों के व्यापारी देश-विदेश से यहाँ आते रहते थे।  ११वीं सदी से पूर्व वारप्पा पर नट राजाओं का शासन था।  उस समय तक भारत में मुगल साम्राज्य की भी स्थापना नहीं हुई थी।  जमुई, हवेली खड़गपुर से लेकर बारकोप तक जंगल ही जंगल थे।... लोकगाथाओं में वर्णित लखिमापुर आज का लक्ष्मीपुर है जो बौंसी से बारह कोस की दूरी पर है।  चौरंगी चौक जिसे बालिशानगर भी कहा गया है।  इसी लक्ष्मीपुर राज्य का राजा था जयसिंह देव।

इन ऐतिहासिक स्थानों से गुज़रते हुए इस उपन्यास में  रानी लचिका की कहानी बड़े रोचक ढंग से बयान करने के लिए अनिरुद्ध प्रसाद ‘विमल’ को बधाई और आशा की जा सकती है कि इस उपन्यास को अन्य ऐतिहासिक उपन्यासों की तरह ऐतिहासिक दर्जा प्राप्त होगा।

पुस्तक परिचय

पुस्तक का नाम : रानी लचिका
उपन्यासकार : अनिरुद्ध प्रसाद ‘विमल’
प्रथम संस्करण : २०११ ई.
मूल्य : १७५ रुपए
प्रकाशक : शब्दसृष्टि
एस-६५८ए, गली नं.७,
स्कूल ब्लाक, शकरपुर
दिल्ली - ११० ०३२

18 टिप्‍पणियां:

  1. एक स्त्री की जिंदगी न जाने कितने ही राहों से गुजरती थी और कितना कुछ वह सहती चली जाती थी , उसके कई रूपों का वृतांत इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर लिखी रानी लचिका के माध्यम से देखने को मिली..
    ....सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार!

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  2. अनिरुद्ध जी को इतनी सुन्दर कहानी लाने के लिये विशेष शुभकामनायें। भारत की नारियों ने मर्यादा और बुद्धिमत्ता के जो मापदण्ड स्थापित किये हैं, वे अनुकरणीय हैं।

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  3. उपन्यास के माध्यम से कई अच्छी जानकारियां मिली ।
    सुन्दर समीक्षा की है प्रसाद जी ।

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  4. 'सार' (संक्षिप्त में) पूरा उपन्यास पढ़ लिया ऐसा लग रहा है……अत्यंत मार्मिक विषय को लेकर लिखा गया उपन्यास! प्रस्तुति के लिये धन्यवाद व आभार!!!!

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  5. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-737:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  6. aapke is prayas se itihaas ke ek unchue pahlooo ko baaare me jaankari mili..bahut he shandaar tareeke se aapne katha ka saarash batakar ise padhne ke liye man me jigysa paida kar dee..sadar badhayee aaur apne blog par amantran ke sath

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  7. बढ़िया समीक्षा है !
    अक्सर अच्छी समीक्षा करते है
    आभार !

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  8. मार्मिक विषय पर लिखा बहुत सुंदर उपन्यास....
    सार्थक प्रस्तुति,....उम्दा पोस्ट.........

    मेरे पोस्ट के लिए "काव्यान्जलि" मे click करे

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  9. विषय वस्तु की एतिहासिकता बनाये रखते हुए स्त्री सोंदर्य के साथ मर्यादित सुझबुझ अनुकरणीय है .आपकी समीक्षाएं सर्वदा पठनीय है .

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  10. ऐतिहासिक कृति से परिचय और समीक्षा के लिए आभार ..आपका ब्लॉग ऐसी श्रेष्ठ समीक्षाओं का आगार है !

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  11. काल इतिहास की गोद में भी बैठ जाए या अब की हो , तो भी कहानी नहीं बदलती है ..खासकर स्त्री जाति की . वैसे बड़ा ही रोचक समीक्षा किया है आपने .

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  12. इतनी सुन्दर और विस्तृत समीक्षा के लिये आभार!

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  13. रानी लचिका के चरित्र के माध्यम से नारी की इच्छा शक्ति को खूबसूरती से उभारा है इस उपन्यास में ... अच्छी समीक्षा है ...

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  14. सार्थक प्रस्तुति,सुन्दर समीक्षा

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  15. इसमें कोई शक नहीं कि स्त्री का मनोबल पुरुष के मनोबल से ऊंचा होता है.
    वह व्यवहार कुशल भी होती है. समय की नब्ज और नजाकत अच्छी तरह समझती है.
    इसी बात का प्रमाण है 'रानी लचिका' का जीवन. अच्छी समीक्षा और उपन्यास के सार की प्रस्तुति के लिए आभार.

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  16. रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । नव वर्ष -2012 के लिए हार्दिक शुभकामनाएं । धन्यवाद ।

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  17. बहुत सुंदर सार्थक प्रस्तुती बेहतरीन समीक्षा ,.....
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाए..

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आपके विचारों का स्वागत है। धन्यवाद।