दाढ़ी मूँछ का प्रभाव
हाल ही में हैदराबाद के वरिष्ठ व्यंग्यकार भाई भगवानदास जोपट जी से बुद्धिजीवियों की जानकारी के साथ-साथ मूँछ-दाढ़ी के संबंध में भी ज्ञान की श्रीवृद्धि हुई। उनका मानना है कि "बुद्धिजीवी को अलग से पहचाना जा सकता है क्योंकि ये दूसरों से अलग होते हैं। आमतौर से चेहरे पर विराजमान गम्भीर मनहूसियत और बढ़ी हुई फ़्रेंच दाढ़ी इन्हें सामान्य लोगों से अलग करती है।"
जब दाढ़ी-मूँछ की बात आई तो एक पुराना किस्सा याद आया। कहते हैं कि एक बस्ती में दो शायर रहते थे जिनमें से एक के चेहरे पर दाढ़ी थी तो दुसरे के चेहरे पर रौबदार मूँछें। दोनों को अपनी शायरी के साथ-साथ अपने-अपने चेहरे पर भी बड़ा गुमान था। एक बार दोनों में बहस हो गई कि दाढ़ी अच्छी होती है या कि मूँछ। लम्बी बहस के बाद दोनों ने अपना तीर शे’र के रूप में छोड़ा जो इस प्रकार रहा-
दाढ़ी वाले ने दाढ़ी पर कसीदा पढ़ दिया-
दाढ़ी वो दाढ़ी जिस दाढ़ी पे हो गुमां
दाढ़ी शेरों के हुआ करती है बकरों के कहाँ॥
अब मूँछ वाला शायर भी कहाँ पीछे हटने वाला था! उसने भी लाइन मिलाई-
मूँछ वो मूँछ जिस मूँछ पे हो गुमां
मूँछें मर्दों के हुआ करती है हिजड़ों के कहाँ॥
कहते हैं कि तब से यह चलन शुरू हो गया है कि लोग दाढ़ी-मूँछ एक साथ पालने लगे हैं।
अब रही बात दाढ़ी-मूँछ के प्रभाव की, तो एक पुलिसवाले की याद आती है जो दशकों पहले हैदराबाद की सड़क के एक चौराहे पर खडा होता था। [उस समय लाल-पीली-हरी बत्ती का चलन नहीं था।] अपने काले भारी-भरकम चेहरे पर उन गलमूंछों के कारण वह उस चौराहे पर चलनेवालों के लिए आकर्षण का केंद्र भी बना रहा। इस रौबीले पुलिसवाले को आंध्र प्रदेश सरकार ने पुरस्कृत भी किया था और उसे ‘मूँछ भत्ता’ भी दिया जाता रहा।
मूँछों का एक लम्बा इतिहास भी है। पुराने ज़माने में घनी कड़कदार मूँछे पाली जाती थी जिनको मोम आदि से संवारा और दमदार बनाया जाता था। ‘इतिहासकार’ बताते हैं कि मूँछों पर निंबू खडा करने की प्रतियोगिताएं भी हुआ करती थीं। हाय! अब न वैसी मूँछें दिखाई देती हैं न वैसे जवाँ मर्द!
‘इतिहासकार’ यह भी बताते हैं कि मुस्लिम काल तक भारत में दाढ़ी-मूँछ का चलन अधिक रहा। अंग्रेज़ों के आगमन के साथ ही हमारी संस्कृति और सभ्यता के साथ पुरुष के चेहरे से दाढ़ी-मूँछ भी गायब होने लगे। तभी तो हैदराबाद के अंग्रेज़ रेसिडेंट किर्कपैट्रिक ने मुस्लिम नवाबों की तरह जब मूँछे रखना शुरू किया तो बात इंग्लैंड तक पहुँच गई कि कहीं वो मुसलमान तो नहीं हो गए हैं और नतीजा यह हुआ कि उन्हें इंग्लैंड लौटना पड़ा।
फिल्म जगत में भी मुग़लेआज़म की अकबरी मूंछों से लेकर करण दीवान व राजकपूर कट मूँछें प्रसिद्ध हुईं। यह अलग बात है कि करण दीवान को उतनी प्रसिद्धि नहीं मिली जितनी कि राज कपूर को। अब तो दाढ़ी-मूँछ देश या प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम पर भी जानी जाती हैं; जैसे, फ़्रेच, जर्मन या फिर लिंकन,लेनिन जैसी दाढ़ी।
वैसे तो दाढ़ी-मूँछ बढ़ा लेना मर्द की खेती कही जाती है परंतु इनकी देखभाल करना सरल काम नहीं है। कैंची ज़रा फिसली नही कि दाढ़ी का संतुलन बिगड़ गया; ब्लेड की थोड़ी सी शरारत मूँछ का सफ़ाया कर देगी। ऐसी हालत में व्यक्ति बड़ी दयनीय स्थिति में पड़ जाता है। रुमाल से मुँह छिपाए घूमता है कि कहीं उसे सफ़ाई न देनी पड़े कि यह खैंची या ब्लेड की शरारत है न कि पत्नी से शर्त हारने का कारनामा! परंतु लोग भी बड़े शातीर होते हैं, एक रहस्यभरी मुस्कान से समझा देते हैं कि अंदर की बात वे जानते हैं॥
आज काफी दिनों बाद मूछों पर ताव दिया :)
जवाब देंहटाएंहमने भी कई स्टाइल में दाढ़ी और मूंछें रखी थी कभी ।
जवाब देंहटाएंअब भ्रष्टाचार के नाम पर कुर्बान कर दी हैं । :)
उफ, बस यही शौक न पाल पाये।
जवाब देंहटाएंहम तो रखे हैं अभी...
जवाब देंहटाएंयह भी खूब रही ... पर इस विषय पर कहने को ही नहीं है हमारे पास तो :(
जवाब देंहटाएंबढ़िया व्यंग्य काफी दिनों बाद पढने को मिला है !
जवाब देंहटाएंयह सिलसिला तो जारी रहेगा |
जवाब देंहटाएंरहस्यमयी मुस्कान मुस्काने का जी हो आया.. बहुत बढ़िया लिखा है.
जवाब देंहटाएंमूछों का सवाल भी होता है, जबकि दाढी में तिनका ढूंढा जाता है :)
जवाब देंहटाएंहम भी अपनी मूंछ देखते हैं ....
जवाब देंहटाएं:-)
मूँछे हो तो नत्थूलाल जी जैसी वरना न हों.रोचक पोस्ट,....
जवाब देंहटाएंमेरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
आपकी प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा ।
जवाब देंहटाएंमूँछ और दाढ़ी को क्या समझे अनाड़ी।।
जवाब देंहटाएंभारत माता की जय
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