अन्ना हज़ारे, भ्रष्टाचार और आर एस एस
भारत में कई राष्ट्रीय दल हैं और उनके अपने-अपने कार्यकर्ताओं के संगठन भी हैं। इन संगठनों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की एक पृथक भूमिका रही है जो स्वतंत्रता संग्राम से अपना कार्य कर रही है। यद्यपि इस संगठन का जुडाव भूतपूर्व राजनीतिक पार्टी जनसंघ और वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी से रहा है परंतु वह देश के राजनीतिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप नहीं करती। यह संघटन भारतीय संस्कृति, विचारधारा तथा भारतीयता के प्रति समर्पित है।
कई राजनीतिक कारणों से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को एक अछूत संस्था के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। इसका एक मुख्य कारण सत्ता में रहे राजनीतिक दल की मानसिकता रही। चाहे वो सुभाष चंद्र बोस हो या सावरकर या गोलवलकर या कोई मदन मोहन मालवीय, आचार्य कृपलाणी- जो भी उनकी विचारधारा से भिन्न मत रखता, उसे अछूत बना दिया जाता! विदेशी संस्कृति में पले-बड़े नेता भारतीयता से दूर अंग्रेज़ियत को अपनाते रहे और यह सिलसिला आज तक भी चला आ रहा है।
इन परिस्थितियों में भारतीय संस्कृति के घटते मूल्यों में सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर कभी आक्रोशित होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सड़कों पर भी उतरना पड़ा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस संस्था में राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी हुई है जो प्राकृतिक अपदाओं के समय दिखाई भी देती है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को एक हिंदू संस्था कहा जाता है, परंतु क्या हिंदू के मूल में कोई जाकर झांकता है कि यह शब्द ‘हिंदू’ उन आक्रांताओं का दिया हुआ है जिनकी भाषा में ‘स’ शब्द ही नहीं था; और रहे भी कैसे जब वे ‘सहयोग’ और ‘सहिष्णुता’ जैसे मानवीय संवेदनाओं से परिचित ही नहीं थे। इन आक्रांताओं के पदार्पण के पूर्व इस देश में सांप्रदायिकता नाम की कोई भावना ही नागरिकों के मन में नहीं थी। सभी मिल-जुल कर रहते और इस विशाल देश में सब के लिए स्थान था- आक्रांताओं के लिए भी जो समय के साथ इस देश की मिट्टी में रच-बस गए।
मातृभूमि का सम्मान करने वाली इस संस्था को सत्ता में रहे राजनीतिज्ञों ने एक अछूत संस्था का रूप दे दिया है। ऐसा प्रमाणित किया गया कि जो भी इस संस्था से जुड़ेगा वह भी अछूत है।[और यही हाल भाजपा का भी किया जा रहा है!]
यही मानसिकता अब अन्ना साहब ने अपने भ्रष्टाचार उन्मूलन अभियान के समय भी दिखाई जब उन्होंने कहा कि उनका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से कोई लेना-देना नहीं है। यदि ऐसा था ही, तो फिर इस संस्था से जुड़े भाजपा के नेताओं के घर के चक्कर क्यों लगाए गए? अन्ना साहब- जो शतप्रतिशत सत्यवादी होने का दावा करते हैं, क्या इसका उत्तर देंगे?
भ्रष्टाचार का मुद्दा केवल राजनीतिक सहयोग से हल किया जा सकता है। इसे पूरी तरह जड़ से उखाड़ना तो ईश्वर के हाथ में भी नहीं है क्योंकि उन तक पहुँचने के लिए उनके ‘द्वारपाल’ को भी कुछ दान-दक्षिणा देना पड़ता है! परंतु इसके उनमूलन के लिए नेता-अधिकारी के गठजोड़ को तोड़ना होगा। इस गठबंधन को तोड़ना है तो सामाजिक और राजनीतिक संगठनों का सहयोग लेना ही होगा।
अन्ना हज़ारे को यह याद रखना चाहिए कि उनके अनशन में सभी वर्गों, विचारधाराओं और धर्मों के लोगों का योगदान रहा और इन सबसे अलग होकर किसी भी ध्येय को नहीं प्राप्त किया जा सकता। अच्छा हो कि अपनेआप को किसी संस्था से परे रखकर या अछूत बताकर दूर रहने से बेहत्तर यह होगा कि वे हर उस संगठन और संस्था का सहयोग लें जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध है। तभी उनके जनान्दोलन को बल मिलेगा। ऐसे में, तेजराज जैन का यह प्रश्न अपनी जगह है कि ‘आर एस एस से इतनी नफ़रत क्यों?’
11 टिप्पणियां:
बढिया है।
सहमत
1. विदेशी आक्रांताओं का दिया हुआ नाम स्वीकार्य नहीं होना चाहिए जबकि वेद महान में ऋषिगण इस जाति का नामकरण पूर्व में ही कर चुके हैं।
नाम रखने का अधिकार केवल बाप को या दादा आदि को होता है।
विदेशी आक्रांता भारतीय जाति का नाम बदल दें और यहां कि आर्य विद्वान उस नाम को शिरोधार्य भी कर लें, यह तो आत्मविस्मृति की इंतेहा है।
2. विदेशी आक्रांताओं से पहले भी यहां जातिगत नफ़रतें कूट कूट कर भरी हुई थीं।
3. जहां द्वारपाल को कुछ देना लाज़िमी हो, वहां कुछ और मिलता है जिसे ईश्वर कह दिया जाता है लेकिन वह ईश्वर नहीं होता।
4. ‘आरएसएस से इतनी नफ़रत क्यों ?‘
यह सवाल वाक़ई एक मासूम सवाल है।
सटीक छिद्रान्वेषण ,लालबुझ्क्कर बुझे तब न.
अत्यंत तथ्यपरक एवं सारगर्भित लेख ...अच्छा विश्लेण किया है आपने...
Great analysis Sir ! I fully agree with you in this regard.
छूत अछूत के बहुत ऊपर है देश का हित।
अच्छा प्रश्न है। निहित स्वार्थों की नफ़रत और दोस्ती सब मौके के हिसाब से बदलती रहती है।
कांग्रेस की कूटनीति रही है कि जिससे उसे सबसे ज्यादा खतरा हो उसका चरित्रहनन करो। इसी कारण आजादी के पूर्व ही उसे अंग्रेजों ने समझा दिया था कि यह राष्ट्रवादी संगठन तुम्हें तारे दिखा सकता है, इसकारण आज इतना विषवमन किया जा रहा है। अन्नाहजारे जी का बारबार यह कहना कि मेरा उनसे कोई सम्बंध नहीं है, दिल को ठेस पहुंचाता है। जब देश का प्रत्येक नागरिक और संस्थाएं उनके साथ खड़ी थी तब उन्हें यही कहना चाहिए था कि मुझे उन सभी का समर्थन प्राप्त है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। नकारात्मकता से कभी भी बात नहीं बनती, आखिर संघ के अनुयायियों को ठेस तो लगी ही है। आज उनके आंदोलन को यदि भाजपा का खुला समर्थन नहीं मिलता तो इस आंदोलन की हवा निकल जाती। लेकिन दुख होता है जब किरण बेदी यह कहती हैं कि आंदोलन का टर्निंग पोइंट था जब मुझे अडवाणीजी का फोन आया और उन्होंने कहा कि "बेटी आज होगा", इसे भी उनके अन्य सहयोगियों ने नकार दिया।
जो भी संगठन राजनीति में उतरते हैं, उनमें कमियां होती ही हैं लेकिन किसी को भी अछूत बना देना देश के लिए घातक है। इससे आपसी संवाद समाप्त होता है और केवल प्रहार शेष रह जाते हैं।
बहुत सार्थक
एक तथ्यपरक दिशा निर्देशक चिंतन ...
सारगर्भित लेख ......
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