शनिवार, 10 सितंबर 2011

एक विचार


बाद मेरे मरने के....

एक अर्से बाद कल मेरे मुलाकात एक दोस्त से हुई।  उसका शरीर कमज़ोर पड़ गया था।  हाल पूछने पर उसने कहा,"बस... मौत का इंतेज़ार कर रहा हूँ।"  चौंक कर मैंने पूछा कि सब खैरियत तो है, तो उसने बताया कि अब तो शरीर बार बार शरारत कर रहा है और मानसिक तकलीफ़ भी बर्दाश्त नहीं होती।   परिवार का हाल यह है कि भाई-भतीजे इंतेज़ार में है कि कब यह खूसट सटके और कब ज़मीन-जायदाद का बटवारा हो।
"भाई भतीजे?"
"हां भई, संयुक्त परिवार है।  बाप-दादा की जायदाद को अब तक सम्भाल कर लाया हूं।  अब वे अलग होना चाहते हैं और अपना हिस्सा मांग रहे हैं।  मेरा कहना है कि एकजुट रह कर ही परिवार की गरिमा बनी रहती है। अब आगे जो भाग्य मे लिखा है सो होगा ही!"

बहुत दिन बाद मिले और उसके मानसिक दुख को देखते हुए मैं ने यह तय किया कि किसी होटल में बैठ कर बात करेंगे ताकि उसका दुख कुछ हल्का हो।  हम होटल के एक कोने के टेबल पर बैठ कर अपना सुख दुख बाँटने लगे।  यकायक मित्र गम्भीर हो गया और अपने मौत की बात करने लगा।  फिर एक दार्शनिक की तरह वह अपने मरने का चित्र खींचने लगा-
"मैं अपने  मरने के बाद के उस सारे सीन को देख रहा हूं। मेरा पर्थिव शरीर ज़मीन पर रखा गया है। सिरहाने एक दिया जलाया गया है।  कहते हैं कि यह दिया शरीर की सारी उर्जा समेट लेगा।  पास में गमज़दा पत्नी बैठी रो रही है।  बेटा सब को फोन पर सूचना दे रहा है और रोता भी जा रहा है।  भाई इस रुदन को सुन कर अपने कमरे से निकल आया है।  उसके भाव मेरी समझ में नहीं आ रहे हैं।  वह खुश है या दुविधा में है या भावी नीति उसके मस्तिष्क में रेंग रही है।  मेरा भतीजा भी यह सारा माहौल देख कर कमरे के बाहर निकल गया है।

"अब जान-पहचान के लोग आने लगे हैं।  घर के बाहर ही मेरा भाई उनको बता रहा है कि यह सब कब और कैसे हुआ। मेरे बेटी और दामाद भी आ पहुँच हैं।  मुझे मालूम है कि बेटी मुझसे बेहद लगाव रखती है।  वह बहुत रो रही है और मैं यह भी जानता हूँ कि उसके एक एक आँसू पर मेरा दिल भी रो रहा है।  

"दोस्त और रिश्तेदार मेरी नेकियों के चर्चा कर रहे हैं तो कुछ उन खामियों का भी दबी ज़ुबान में ज़िक्र कर रहे हैं।  शायद मेरे पाप-पुण्य का लेखा-जोखा हो रहा है।  सब अपनी-अपनी तरह से अनुमान लगा रहे हैं।  परंतु जो मेरे अपने थे, उनके मन में जो हो रहा है, उसे जानकर दुखी हूँ।

"मेरा भाई सोच रहा होगा कि हमें अधर में लटका कर भाई साहब चले गए।  अब शायद हम अपनी ज़िंदगी खुल कर जी सकेंगे।  भतीजा सोच रहा है कि अब तक हाथ खुला नहीं था, अब शायद हम खुल कर खर्च कर सकेंगे।  अब हमें टोकने के लिए ताऊ नहीं रहेंगे।  उनकी तेरहवीं भी बडी धूमधाम से मनाएँगे।"

इस तरह का सीन खींच कर मेरा मित्र कुछ देर चुप रहा।  फिर उसने अपना दर्द उँडेलते हुए कहा, "जो कुछ मैंने आज तक किया, वह परिवार की भलाई के लिए किया।  मेरे परिवार वाले समझते हैं कि मैं सब जोड़कर रख रहा हूं, समाज में भी मेरी हैसियत एक धनाड्य की है।  वे समझते है जिसके पास पचास एकड़ ज़मीन है, वह सम्पन्न ही होगा।  उन्हें क्या पता कि किस तरह एक किसान जुआरी की तरह  सब कुछ दाव पर लगा कर मौसम के भरोसे पर बैठ जाता है।  मौसम ने साथ दिया तो लाभ और....।  

"परिवार के इस भरम को तो मैंने अब तक बनाए रखा  पर लगता है कि अब आगे इसका निभाव कठिन है।  अब तो परिवार के लोग ही साथ नहीं दे रहे हैं, इसलिए भी मुझे यह दुख सालता है।  देखें, अब भविष्य में क्या लिखा है। "

वह दुखी मन से उठा और चलने लगा।  मुझे भी दुख हुआ कि एक व्यक्ति अपना जीवन घर-परिवार के लिए समर्पित कर देता है और वही लोग उस पर आरोप लगा कर उसका दामन छोड़ देते हैं।  क्यों कोई उस परिवार के मुखिया के दर्द समझ नहीं पाता!!!




18 टिप्‍पणियां:

  1. देहांत उपरांत दृश्य की रूपरेखा तो ईमानदारी से बनाई है । यही होता भी है ।
    लेकिन समय के साथ न सिर्फ सोच बदलती है , बल्कि रहन सहन और कानून व्यवस्था भी बदल जाती है । पहले कोई सोचता था कि पैत्रिक सम्पति में बेटी का भी हिस्सा होगा ? लेकिन अब इसी बात पर परिवारों में दीवारें खिंच जाती हैं ।

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  2. बहुत मार्मिक लगा !
    घर के मुखिया का दर्द समझने के लिये
    किसको फुर्सत है सबको अपनी अपनी पड़ी है !
    बहुत दुखद ..

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  3. बेहद दुखद लगा यह सब पढ़कर। लालच में अंधे होकर अपनों को भी भुला देते हैं लोग। कितना दुःख और संताप उठाते हैं बुज़ुर्ग। ये दुःख देने वाले जब स्वयं बुज़ुर्ग होंगे तभी समझेंगे अपनी कुटिलता को

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  4. दुख तो होना स्वाभाविक मगर एक सच्चाई से रूबरू करवा दिया आपने ......

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  5. दुखद पर सच है...... न जाने क्यों होता है पर होता तो ऐसा ही है

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  6. दरअसल एक हद के बाद परिवार को संयुक्त रखने की जिद अलोकतांत्रिक हो जाती है और परिवार के अंतर्विरोध कल तक के मुखिया को डिप्रेस करने लगते हैं; इसलिए समय रहते अधिकारों का सटीक हस्तांतरण कर ही देना चाहिए.

    हाँ, यह तो ध्यान रखना पड़ेगा कि कल को किसी अन्य पर निर्भर न होना पड़े.

    मुझे लगता है कि जवानी में ही हमें बुढ़ापा-प्रबंधन भी सीखना चाहिए अन्यथा .............

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  7. मुखिया के मन का भार मुखिया ही समझ सकता है।

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  8. यही तो विडम्बना है जीवन की....
    लालच बुरी बलाय....

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  9. बहुत सुन्दर लिखा है आपने ! गहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ ज़बरदस्त प्रस्तुती!

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  10. मेरी GRAND MA का एक पेट डायलोग हुआ करता था " आगे से जली हुई लकड़ी की आग पीछे को ही खिसकती है" !

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  11. अपनी मौत का भी कुछ ऐसा ही दृश्य चल गया आँखों के आगे..

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  12. अपनी मौत का भी कुछ ऐसा ही दृश्य चल गया आँखों के आगे..

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  13. तभी तो कहते हैं कि कोई किसी का सगा नहीं होता बस सब मतलब के यार होते हैं। भगवान से यही प्रार्थना करो कि मोह कम से कम हो जाए।

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आपके विचारों का स्वागत है। धन्यवाद।