अज्ञेय पर ‘स्रवंति’ के तीन विशेषांक
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-आंध्र ने अज्ञेय जन्मशती के अवसर पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी रखी, जिसमें मुख्य भूमिका दक्षिण के विद्वानों की रही। इन लेखों/विचारों को संजोकर सभा की मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘स्रवंति’ के तीन विशेषांक निकाले गए जिनमें अज्ञेय के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का जायज़ा लेते हुए उसके पुनर्पाठ का सफल प्रयास किया गया.
पुनर्पाठ के सूत्र तलाशते हुए डॉ. त्रिभुवन राय ने 'अज्ञेय की रस चेतना' को परखने की ज़रुरत बताई है - "अज्ञेय ने भारतीय साहित्य का ही अध्ययन नहीं किया, भारतीय चिंतन और दर्शन परंपरा का ही अध्ययन नहीं किया, पश्चिम का भी अध्ययन किया था। बहुत गहरे यात्री रहे अज्ञेय। यात्रा क्रम में उन्होंने भारत के पहाड़ों को ही नहीं छाना था, समुंदर के किनारों को ही नहीं देखा था, घने वनों को भी देखा था। उनके सौंदर्य को भी निहारा था। उनके भीतर की गहरी रसवत्ता को भी अपने जीवन में उतारा, अपने कृतित्व में उतारा, यानि अपने रचनात्मक धर्म में उतारा। डॉ. नगेंद्र ने उनके उपन्यासों पर लिखते हुए कहा था कि अज्ञेय नास्तिक नहीं, आस्तिक बुद्धिवादी हैं।अज्ञेय की साहित्य यात्रा सत्य की यात्रा है। वे सत्य के अनुसंधाता हैं। उनका कहना है, ‘मैं बार-बार सत्य का अन्वेषण करता हूँ। बार-बार अपनी रचना में सत्य को प्रस्तुत करता हूँ और फिर उसे झुठलाता भी हूँ।’ हम यह नहीं कहते कि अज्ञेय में अहं का विस्फोट नहीं है। हम यह नहीं कहते कि अज्ञेय में क्षणवाद की स्मृतियां नहीं हैं। लेकिन उनमें सत्य की आकांक्षा है। इसी आकांक्षा की तृप्ति के लिए, सत्य की प्राप्ति के लिए, यहाँ-वहाँ, इस देश में, उस देश में, हिमालय पर, समुद्र के किनारे, चीन में, जापान में वे यात्रा करते हैं।" अंत में डॉ. राय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अज्ञेय हमारी संस्कृति और सौंदर्य चेतना के प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में सामने आते हैं।
अज्ञेय का लेखन एक विशाल साहित्य भंडार है जिसमें कहानी, उपन्यास, कविता, संस्मरण, साक्षात्कार, संपादकीय आदि सभी कुछ तो है। ऐसे रचनाकार के साहित्य को समेटने का प्रयत्न करते हुए डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने लिखा है कि "कवि के रूप में अज्ञेय लम्बी कविताओं के रचनाकार के रूप में नहीं जाने जाते बल्कि छोटी कविताओं के रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। वे भाषा से अधिक मौन के प्रति समर्पित थे। वे कहते हैं -मेरी खोज केवल भाषा की खोज नहीं, केवल शब्दों की खोज है और कविता शब्दों के बीच की नीरवता में होती है। मौन के द्वारा भी संप्रेषण होता है।" डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी अज्ञेय के निबंधों पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि "समसामयिक विषयों में उन्होंने सबसे अधिक भाषा और संस्कृति पर लिखा है।..साहित्यिक समीक्षा से जुड़े अज्ञेय के कई निबंध विवाद के घेरे में रहे हैं। जहाँ तक बात रही उनके ललित निबंधों की तो उसमें उनका कोई मुकाबला नहीं है।"
प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ‘शेखर:एक जीवनी’ के पुनर्पाठ की आवश्यकता पर जोर देते हुए लिखा है कि "हमें अज्ञेय का महत्व निर्धारित करने के लिए उनकी संपूर्ण औपन्यासिक उपलब्धि को सामने रखना होगा; सिर्फ़ यह नहीं देखना होगा कि फ़्रायडीय अथवा असामान्य मनोविज्ञान से प्रमाणित अंतश्चेतना का उद्घाटन अज्ञेय की कृतियों में कितना हुआ है या कि पाश्चात्य उपन्यास की कथा विधान प्रविधियों के ये कितने बड़े प्रयोगकर्ता हैं।"
प्रो. दिलीप सिंह अज्ञेय की संवेदना और भाषा के बारे में बताते हैं कि "उनकी रचनाओं में प्रभावित करने की अपार शक्ति है।.. अज्ञेय की अधिकांश क्रांतिकारी कविताएँ जेल में ही लिखी गई हैं। संवेदना की गहराई को कम शब्दों में व्यक्त करने की कला में निष्णात अज्ञेय श्रेष्ठ कवि हैं।.. चिंतन और चिंतक का रूपांतरण जो रचना में होता है, हिंदी में अज्ञेय इसके भी अप्रतिम उदाहरण हैं।.. निबंधों, साक्षात्कारों, उपन्यासों में उनके जो विचार हैं, उनमें जीवन, मनुष्य और शब्द के संबंध में बार-बार उनकी अन्वेषी वृत्ति दीख पड़ती है।.. अज्ञेय से मिलने, उन्हें सुनने, उनसे बात करने का अवसर मुझे कई बार मिला और मैंने पाया कि अज्ञेय का व्यक्तित्व अत्यंत ही सुलझा हुआ और शालीन है।"
प्रो. दिलीप सिंह ने अपने एक और अत्यंत सुलझे हुए तथा चुनौतीपूर्ण लेख ‘है, अभी कुछ और जो कहा नहीं गया’ में प्रतिपादित किया है कि "अज्ञेय की निजता इतनी सघन है कि उसे भेद पाना; एकबारगी, सहज नहीं है।.. अज्ञेय का बाहरी व्यक्तित्व भी ठीक से पहचाना नहीं गया है। व्यक्तित्व का आकर्षण उनमें भरपूर है। उनका व्यक्तित्व भी निजता लिए हुए था। हिंदी में संभवतः एक भी कवि नहीं है जो क्रांतिकारी हो। जिसने बम बनाए हों, जेल गया हो और जेल में अपनी और देश कि अस्मिता के गीत गाए हों।.. वे आधुनिक भाषा विज्ञान के गंभीर अध्येता भी थे। भाषा के प्रति अपनी सार्थक दृष्टि के चलते ही अज्ञेय कवि के स्थान पर कविता को प्रतिष्ठित कर सके।.. अज्ञेय एक भाषा चेता, प्रौढ और सजग रचनाकार हैं, इसमें कोई संदेह नहीं।"
डॉ.आलोक पाण्डेय ने अज्ञेय की पत्रकारिता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि "हिंदी की यह तस्वीर है जहाँ जीवन भर सामाँन्य और साहित्यिक पत्रकारिता करनेवाला एक बड़ा रचनाकार लगभग उपेक्षित है। अज्ञेय का दुःखी होना गलत नहीं था, क्योंकि वे यह नहीं कह रहे थे कि मुझे पढ़ो और मेरे नाम के झंडे गाड़ो। वे सिर्फ़ यही चाहते थे कि आप उन्हें पढ़ लें, फिर गाली दें। जो खरी कसौटी पर खरा है वही मूल्यवान है। अज्ञेय अपने पत्रकार कर्म में चाहे वह साहित्यिक हो या सामान्य, बहुत उच्च कोटि के आदर के अधिकारी हैं।"
इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के सूत्रधार और इन विशेषांकों के परिकल्पनाकार प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने अज्ञेय को क्रांतद्रष्टा साहित्यकार के रूप में देखते हुए लिखा है- "कविता के क्षेत्र में उनकी दो विशिष्ट उपलब्धियाँ मेरी दृष्टि में उन्हें विशिष्ट और अपरिहार्य युगचेता रचनाकार बनाती हैं। पहली तो यह कि उन्होंने छायावाद और प्रगतिवाद के दबाव के दौर में, उत्तर छायावादी काल में, कविता को एक ओर तो अतिरिक्त या अतिशय भावुकता से मुक्ति दिलाते हुए बौद्धिकता को उसके केंद्र में प्रतिष्ठित किया तथा दूसरी ओर विचारधारा के नाम पर सतही अभिव्यक्ति और अभिधाप्रधानता की ओर बढ़ रही काव्यधारा को शब्द और अर्थ के सही साहचर्य अर्थात व्यंजना और प्रतीयमानता की ओर अभिमुख करते हुए काव्यार्थ की गरिमा को पुनःप्रतिष्ठित किया।.. कहानी के हलके में भी उन्होंने अपने से पहले की, और अपने समय की, कहानी से भिन्न तेवर को संभव करके दिखाया।.. इसमें दो राय नहीं कि ‘शेखर:एक जीवनी’ प्रेमचंद और जैनेंद्र के उपन्यासों से एक कदम आगे का उपन्यास है। इस प्रकार अज्ञेय ने संप्रेषण को रचना की केंद्रीय समस्या के रूप में स्थापित करके अपनी ओर से साहित्य का एक प्रतिमान भी स्थापित किया।"
डॉ. गोपाल शर्मा ने अज्ञेय के डायरी लेखन पर प्रकाश डालते हुए बताया कि "अज्ञेय की डायरियों से पहली बात तो यह उभरकर आती है कि वे हद दर्जे के संतोषी रहे। अकेलापन उन्हें सहर्ष स्वीकार्य था। लेखक के नाते उनकी जीवन-यात्रा अकेली रही इसलिए वे इन डायरियों के माध्यम से अपने पाठकों को अपने साथ रखने की चेष्टा करते रहे।
पृष्ठों की संख्या की सीमा के बंधन के कारण ‘स्रवंति’ ने अज्ञेय जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व को सभी कोण से देखने-परखने के लिए उन पर तीन विशेषांक निकाले हैं , यह भी प्रकारांतर से अच्छा ही रहा; क्योंकि सारी सामग्री एक अंक में आने पर अंक बोझिल हो सकता था लेकिन अब पूरा संयोजन अपेक्षाकृत अधिक पठनीय प्रतीत हो रहा है. उपर्युक्त विद्वानों के अलावा इन विशेषांकों में अज्ञेय के लेखन और व्यक्तित्व पर प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी, डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. पी. श्रीनिवास राव, डॉ. टी.मोहन सिंह, डॉ. बलविंदर कौर, डॉ. साहिराबानू बी.बोरगल, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. राधेश्याम शुक्ल, डॉ. जी.नीरजा, चंदन कुमारी,चंद्र मौलेश्वर प्रसाद, दिनेश कुमार सिंह, आर. शमशाद बेगम, इला प्रसाद, एम.डी.कुतुबुद्दीन तथा एम.राजकमला के आलेख भी पर्याप्त विचारोत्तेजक हैं तथा अज्ञेय के विविध विधाओं के लेखन को वादमुक्त और भारतीय चिंतन सापेक्ष दृष्टि से पुनः देखने-परखने तथा आस्वादित करने के लिए प्रेरित करते हैं.
इनके अलावा इन अंकों मे डॉ. जी. नीरजा के लिखे सारगर्भित संपादकीय भी अलग से उल्लेख के अधिकारी हैं, जिनमें अज्ञेय को अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के तुलनीय मूल्यांकित करने तथा भाषा एवं संस्कृति विषयक उनके चिंतन को उकेरते हुए उनके सम्प्रेषण सम्बन्धी विचारों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है।अंततः प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी की यह स्थापना भी अज्ञेय के पुनर्पाठ का आधार बन सकती है कि अज्ञेय वस्तुतः आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त और भर्तृहरि की परंपरा के साहित्यकार, काव्यशास्त्री और वैयाकरण हैं। प्रसन्नता की बात है कि 'स्रवंति' के ये विशेषांक मुद्रित संस्करण के साथ साथ इन्टरनेट पर भी http://srawanti.blogspot.com/ पर उपलब्ध हैं. अज्ञेय की जन्मशती पर दक्षिण भारत द्वारा उनके पुनर्पाठ के इस सफल आयोजन के लिए स्रवंति-परिवार अभिनंदनीय है.
9 टिप्पणियां:
इतने बड़े साहित्यकार के बारे में जानकार अच्छा लगा।
अज्ञेय जी के बारे में इतने बड़े लोगों के विचार जानकर अच्छा लगा आपका आभार ........
इस महत्वपूर्ण आयोजन के बारे में इस सुन्दर सी पोस्ट के लिए आभार!
पत्रिका के बारे में जानकर अच्छा लगा. आपकी निगाह शायद "मुक्ताकाश" ब्लॉग पर नहीं गयी. इस गोष्ठी में अधिकांश वे लोग शामिल थे, जिन्होंने अज्ञेय को केवल पढा है. मुक्ताकाश के स्वामी, श्री आनंद वर्धन ओझा ने तो लम्बा समय उनके साथ बिताया है, जिसे उन्होंने अज्ञेय जी पर आधारित अपनी संस्मरण-माला में बड़ी खूबसूरती से संजोया है.
http://avojha.blogspot.com/2009/10/blog-post_16.html
यह पत्रिका हिन्दी के मूल सम्मान को सुस्थापित करेगी।
इतने महान साहित्यकार को नमन !
पत्रिका के बारे में जानकर अच्छा लगा ......
अज्ञेय जी को नमन...
सुन्दर प्रतुती के लिए आभार....
इतनी बहुमूल्य जानकारी भरी पोस्ट के लिए आभार . और हाँ ! लिंक देने के लिए भी.
बढ़िया जानकारी के लिये
आभार भाई जी....
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