सोमवार, 15 अगस्त 2011

एक कहानी


प्रवासी पुत्र


दो बरस बाद गौतम घर आ रहा था।  माँ कि प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था।  वह घर की सफाई में लग गई।  उसने सुन रखा था कि विदेश में मक्खी भी नहीं रहती; और यहाँ तो मक्खियों का अम्बार है।  उस पर आंगन में गिरती नीम की पक्की निम्बोलियों के कारण मक्खियां भिनभिना रही थी।

आज गौतम आ रहा है।  माँ ने पौ फटने से पहले ही आंगन बुहार दिया ताकि निम्बोलियों से बेटे के पैर बचे रहें।  फिर चौके की ओर लपकी।  उसे पता है कि गौतम को गरमागरम कचौडियां बहुत पसंद हैं।  मैदे को गूंध कर बेसन की पिट्ठी के गोले बनाए और मैदे की लोई में भर कर रख दिया।  बेटा आएगा तो तुरंत बेलकर गरमागरम कचौरी उसे खिलायेगी।  आखिर दो बरस बाद वह अपने माँ के हाथ का खाना खाएगा।  कल ही उसने पूरनपूरी भी बना कर रखी थी।  बेटे को अपने हाथ का खाना दो वर्ष बाद खिलाने का संयोग जो बना है।

गेट पर टैक्सी के हार्न की आवाज़ सुनकर माँ दौड़ पड़ी।  बेटे ने ड्रायवर की सहायता से अपने सूटकेस टैकसी से उतार लिए थे और भीतर आंगन में खड़ा था।  माँ से मिलते ही उसने झुक कर पैर छुए और लिपट गया।  माँ प्रसन्न थी कि बेटे ने भारतीय संस्कार नहीं भुलाए हैं।

गौतम को आए पंद्रह दिन हो गए थे।  अगले सप्ताह उसे लौटना था।  इन दिनों भागदौड़ करते करते माँ थक गई थी परंतु बेटे को नित नए पकवान बना कर खिला रही थी और सफ़ाई का भी विशेष ध्यान रख रही थी।  इस पर भी कभी गौतम की ऐसी टिप्पणियां होतीं जो उसके हृदय को चोट पहुँचाती। फिर भी, वह अपनी थकान और दर्द को सीने में छिपाए लगातार काम कर रही थी।  थकान तो यदाकदा झलक जाती और कुछ आराम करने पर मिट भी जाती परंतु गौतम की उन बातों का क्या करें जो उसे चुभती पर कोई जान नहीं पाता!

पक्की निम्बोलियों पर मक्खियां भिन्नाती तो गौतम चिढ़ जाता और कहता कि इस गंदगी में कैसे जी रहे हैं लोग।  माँ को उसका बचपन याद आता।  कैसे छोटे-छोटे पैरों से दौड़ता गौतम इस नीम के इर्दगिर्द खेलता था और वह उसे निहार-निहार कर प्रसन्न होती थी।  उसे याद है कि गौतम उन पक्की निम्बोलियों को आम की तरह चूसता था।  कड़वी लगने पर थू-थू कहता तो माँ खिलखिला उठती थी।  आज वही निम्बोलियां बैरन गंदगी बन गईं!

गौतम खाने बैठता तो माँ को समझाता कि इतना तेल-घी का प्रयोग मत करो, इससे स्वास्थ बिगड़ जाता है; नमक कम करो-इससे ब्लड प्रेशर होता है, मिर्च से अल्सर हो सकता है।  वह सोचती कि क्या यह वही गौतम है जो माँ के पकवानों को चटकारे लेकर खाता था और आज....?  आज भी यहाँ के लोग वही भोजन खा रहे हैं बिना किसी बीमारी के और वहाँ लोग फूँक-फूँक कर खाते हैं बीमारी के डर से। 

अब तो गौतम को पानी में भी गंदगी दिखाई देने लगी। माँ उदास  हो जाती।  अपने देस की हवा-पानी में भी उसे गंदगी दिखने लगी है। फिर भी, माँ उसके निर्देशों का चुपचाप पालन करती, यह सोचते हुए कि कुछ ही दिनों की तो बात है।  

गौतम के लौटने का दिन भी आया।  लगभग एक माह से माँ दौड़-धूप कर रही थी, बेटे को सुख-सुविधा देने के लिए।  आज वह जा रहा है तो माँ के मन में बेटे से बुछुड़ने का दुख तो था ही।  टैक्सी में बैठकर माँ से बिदाई लेकर गौतम एयरपोर्ट के लिए निकल पड़ा।  माँ आगन के नीम के तले बने चबूतरे पर बैठ गई।  यह कहना कठिन था कि वह पुत्र की विदाई से दुखी होकर बैठी है या महिने भर की भाग-दौड़ से निश्चिंत होकर सुकून की साँस ले रही है।


17 टिप्‍पणियां:

केवल राम ने कहा…

जीवन विरोधाभासों का संगम है .....लेकिन फिर भी हम अनचाही आसें लगाये बैठते हैं .....! लेकिन जो व्यक्ति जमीं से जुड़ा होता है वह हर परिस्थिति में वैसा ही रहता है जैसे वह पहले था और यह वास्तविक जीवन की निशानी है ...सोचने पर विवश करती कहानी ...प्रासंगिक बन पड़ी है .....आपका आभार

राधा कृष्ण मिरियाला ने कहा…

धन्यवाद गुरूजी !!!
बहुत दिन के बाद एक परिवार का वास्तविक चित्रण को आप की कहानी में पढ़कर बहुत खुश हुवा !!!!
आभार!!!

संगीता पुरी ने कहा…

ऐसे व्‍यवहार के बाद वह महिने भर की भाग-दौड़ से निश्चिंत होकर सुकून की साँस ही ले सकती है .. बहुत अच्‍छी प्रस्‍तुति !!

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

ऐसे व्‍यवहार के बाद वह महिने भर की भाग-दौड़ से निश्चिंत होकर सुकून की साँस ही ले सकती है ..

बहुत अच्‍छी प्रस्‍तुति !!

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डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

न जाने क्यों आते हैं यह बदलाव...... सच की बानगी कहानी

Sunil Kumar ने कहा…

किसको दोष दें गौतम को या बदलते वक्त को , संवेदनशील रचना , आभार

Arvind Mishra ने कहा…

सकून की सांस! बेहतरीन रचना !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

प्रेम का स्वरूप अजब होता है, प्रेम लुटाने वाला सदा ही संतुष्ट ही रहेगा।

Satish Saxena ने कहा…

उफ़ ....

मार्मिक...इस माँ से पूंछ कर देखिये !

यह नव कुबेर समय के साथ माता पिता को भी इन्फेक्शियास समझाने लगेंगे ! माँ बेचारी आखिर माँ ही है वह क्या कर पायेगी शक्तिशाली पुत्र के आगे और बेटा मूर्ख माँ से क्या समझेगा ?

आपको हार्दिक शुभकामनायें !

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

मार्मिक ...बहुत ही मार्मिक कहानी....

डॉ टी एस दराल ने कहा…

समय के साथ बदलाव आना तो निश्चित ही है .
गौतम वापस आया और महीना भर वहां रहा भी , यही बहुत है .
वर्ना बहुत से लोग तो होटल में रह कर चले जाते हैं .

विकसित और विकासशील देशों में जो फर्क है , वह तो नज़र आएगा ही .
मेरे विचार से भावुक होकर गौतम को दोष देना पूर्णतया सही नहीं है .

Suman ने कहा…

बहुत बढ़िया मार्मिक कहानी !
आभार भाई जी...

Asha Joglekar ने कहा…

यह कहना कठिन था कि वह पुत्र की विदाई से दुखी होकर बैठी है या महिने भर की भाग-दौड़ से निश्चिंत होकर सुकून की साँस ले रही है।
यही है जिदगी ।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

गहरी अनुभूति से निकला सच। बच्‍चे जब आते हैं तो हम मशीन बन जाते हैं। हम उनकी हर खुशी का ध्‍यान रखते हैं लेकिन वे नश्‍तर चुभोने में ही अपनी शान समझते हैं। अभी माँ इन्‍तजार करती है, पकवान बनाती है, लेकिन कुछ वर्षों के बाद शायद यह इन्‍तजार समाप्‍त हो जाएगा। बस सब मशीन बन जाएंगे। छोटी कहानी के माध्‍यम से बहुत कुछ कह दिया है। इस सच को बहुत गहराई से अनुभूत कर रही हूँ।

Dr.Sushila Gupta ने कहा…

bhav-vibhor kar dene wali marmik prastuti. thanks.

G.N.SHAW ने कहा…

माँ ने अपने फर्ज निभाए , किन्तु बेटा कुपूत निकला !

Abhishek ने कहा…

भैया आज तो आपने रुला ही दिया