जब मैं सोलह साल की थी
रुपहले सुनहरे सांझ सवेरे और छोटे पंखों की ऊँची उड़ान-
पद्मा सचदेव
कितनी आशाएं, कितने सुखद स्वप्न ले कर युवती का सोलहवां साल आता है। गलियों में रस्सी कूदती, छज्जों-चौबारों पर गिट्टे खेलती और गुडियों का ब्याह रचाती अबोध बालिकाओं को क्या पता इनमें से कौन किसी राजा के ऊँचे महल-चौबारों की दीवारों में चिनी जायेगी, किसके भाग्य में फटी चूनर पसार कर चौराहे में भीख मांगना लिखा है। कौन ससुरालवालों के अत्याचार और अकारण क्रोधाग्नि में भस्म हो जाएगी। और कौन भाग्यशालिनी अपनी सास के दुलार और पति के प्यार में जी उठेगी।
सोलहवां साल लगने पर गुड़िया का ब्याह रचाने की प्रवृत्ति नहीं होती। बचपन में खेल, खेल में ही माँ, पत्नी, बहन, सास, ननंद और दादी माँ तक सारे रोल निभा लेनेवाली युवती की आँखों में सचमुच का एक नया घर बनाने का स्वप्न साकार करने की आशा तीव्र हो उठती है। पग-पग कोई अनजानी सूरत लाज में भिनो-भिगो जाती है।
सन सैंतालीस में बंटवारे के दिनों में जो गोलियां चली थी, उनमें से एक हमारे घर भी आ लगी थी। पिता जी संस्कृत और हिंदी के प्राध्यापक थे। मीरपुर कालेज से जम्मू कालेज में तबादला हो कर आ रहे थे। रास्ते में ही उनकी अकाल मृत्यु हुई। तब मैं सात वर्ष की रही होऊँगी। मुझ से छोटा भाई आशुतोष छह बरस का और ज्ञानेश्वर छह महीने का। जब भी किसी के मुँह से सुनाई देता ये प्रो. जयदेव बड़ू जी के बच्चे हैं, तो कलेजे में एक छुरी-सी चभने जैसी वेदना होती।
चौबीस-पच्चीस वर्ष की अपूर्व सुंदरी, दुनियादारी से अनभिज्ञ मेरी भोली माँ के कंधों पर वैधव्य का ये बोझ असहनीय था। उस दिन से आज तक मैं बूढ़ी ही रही। बचपन बचपन की तरह नहीं बीता और सोलहवां साल बिलकुल ही सुखद न था। लेकिन मन में जो अकांक्षाएं थी, अपनी अतुल क्षमता का जो झूठा छलावा था, उसे सहेलियों व उन रुपहले-सुनहले सांझ-सवेरों को याद कर के आज भी यह मन होता है कि वे दिन अभी एक बार एक पल के लिए लौट आयें तो उन्हें आँखों में बंद कर लूं, बाहों में भींच लूँ और कभी कभी जाने न दूँ।
डोगरी में कविता लिखने के मेरे वे नये-नये दिन थे। उन दिनों रोज़ ही एक न एक गीत या कविता मैं लिखा करती थी। डोगरी संस्था के हमारे श्री रमनाथ शास्त्री कहते, बेटा तुम्हें परीक्षा भी तो देनी है, कविता बाद में लिख लेना। लेकिन कविता कोई लिखता थोड़े ही है। वह तो कोइ हाथ में कलम पकड़वा कर लिखवा जाता है। कपड़े धोते समय डंडे के ताल पर मैंने एक गीत लिखा था-
निक्कड़े पन्गडू, उच्ची उड़ान
जाईयै थम्मना, कियां शमान
चानणियां गलें कियां लानियां।
[मेरे पंख छोटे हैं, उड़ान बहुत ऊँची है, मैं आसमान को कैसे थाम लूँ । चांदनी को कैसे गले लगाऊँ।]
जिस अंधेरी और बरसाती रात में मैंने डोगरी में पहला गीत लिखा था, उस रात यूँ लगा था, जैसे मैं आकाश में उड़ रही हूँ। और दूसरे दिन की सांझ को डोगरी के एक विशाल कवि सम्मेलन में मैंने वह गीत गाया, तो उसके तुरंत ही बाद अपने कांपते और ठंडे जिस्म के साथ मैं स्टेज से नीचे आ गई थी और अपनी प्यारी सहेली चन्नी के साथ [जो आजकल डॉ. चंद्र रामपाल है] पानी पीने एक चायवाले की दुकान पर चली गई थी। दूसरे दिन कालेज में वह गीत उर्दू के एक अखबार में प्रकाशित हुआ पड़ा था। तब मैं उर्दू पढ़ लिख नहीं सकती थी। लेकिन एक लड़के ने हिम्मत करके बताया था, इसमें मेरा छोटा सा परिचय और कविता छपी है। सारा दिन मुझे यूँ लगता रहा, जैसे किसी लड़के से प्रेम करने की मेरी चोरी पकड़ी गई हो, मेरे भाई आशु ने माता जी को पढ़कर सुनाने की चेष्टा भी की थी, लेकिन मैंने वह पर्चा फाड़ दिया था और रोती हुई अन्यत्र यह कह कर चली गई थी कि यह मेरा नाम नहीं है मैंने कुछ नहीं लिखा। अभी कुछ महीने पहले मेरी कविता की पहली पुस्तक प्रकाशित हुई, तो मैंने खुद माताजी को चिट्ठी लिखी है। यही अंतर है उन दिनों में और आज के दिनों में।
वे दिन जब भी याद आते हैं, याद आता है मन और आँखों में बसा हुआ मेरा पुरमंडल गाँव। तीर्थ स्थान होने की वजह से बैसाखी, चैत्र चतुर्दशी, अमावस्या और शिवरात्री को वहाँ हज़ारों की संख्या में लोग आते हैं। जिस पहाड़ी पर हमारा घर है, वहाँ उन दिनों घूमते-घूमते मैं घंटों बिता देती थी। एक एक पौधा, एक एक चट्टान मेरे जाने पहचाने थे। बरसात के दिनों मे पुष्या देविका में आई बाढ़ का पानी देखना बहुत ही सुखद लगता था। वे दिन बीते एक ज़िंदगी ही बीत गई लगती है, लेकिन एक वेदना, एक कसक लिए वह याद कभी नहीं भूलती।
कानों में उंगलियां डाल कर लंबी तानों में डोगरी गीत गाते डोगरा गबरु जवोनों को जिसने सुना, जिसने मेले में युवतियों की, घूंघट की ओट में से शीशे का गजरा पसंद करती बांकी चितवन देखी, पानी की बावलियों पर ननंद और भाभियों की छेड़खानी में जो सम्मिलित हुआ, जिसकी नींद छाछ बिलोती भाभी की लाल पीली चूड़ियों की झंकार से टूटती थी, और दूर कहीं लद्दाक,ल्हासा, असकर्दू या ऐसे ही बर्फ़िले प्रदेश में सीमा पर तैनात डोगरा वीर की पत्नी का विरह गीत सुन कर, जो कांप-कांप जाता था, वही मेरा सोलहवां साल था।
अपने पिछड़े हुए और बीमार समाज में त्याग, प्यार और बलिदानों से घर-बार संजोती ममतामयी ललनाओं के दुखी जीवन से दुखी होकर मैं रोती रही हूँ। मैं सोचती हूँ समाज के अत्याचारों का जो नरक हमारी माताओं-बहनों व दादियों-नानियों ने देखा वह नरक क्या हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ भी देखेंगी? कई बार समाज से विद्रोह करने को मन हुआ है।
आज भी अपनी स्नेहमयी पूज्या सास और पति के प्रेम में मैं अपनी उन असहाय लाचार बहनों को नहीं भूल पाती हूँ, जैसे बचपन के वे दिन नहीं भुलाए जा सकते॥
[लेख का आयोजन आशारानी व्होरा ने ‘धर्मयुग’ के लिए किया था]
11 टिप्पणियां:
अच्छा संस्मरणात्मक आलेख....
प्रस्तुति के लिए आभार.
पिता का साया सर से उठने के बाद अल्हड़पन एवं खिलंदड़ापन तिरोहित हो जाता है, उपर देखने पर छतरी नजर नहीं आती, जो ढंक कर रक्षा करती थी आने वाली विपदाओं से, सिर्फ़ आसमान ही नजर आता है।
अच्छा संस्मरण है
आभार
परिस्थितियाँ समय के पहले ही बूढ़ा कर देती हैं।
बहुत भावपूर्ण
बहुत सुंदर भाई जी,
पढ़ते पढ़ते कई पंक्तियाँ मन को बहुत
भावुक कर गई ! आभार आपका !
बहुत मर्मस्पर्शी लेख .
जिंदगी में बहुत से पछतावे रह जाते हैं . इसलिए आगे की ओर देखना ही सही है .
अच्छा संस्मरणात्मक आलेख....
प्रस्तुति के लिए आभार.
अहाहा.. कि भालो टॉपिक !
फिरे आश्छी, ताड़पॅड़ विस्तृत विबेचन कोरते होबो !
पद्मा सचदेव जी का जीवन भी काफी कष्टमय रहा .....
तभी उनकी लेखनी भी दर्द उगलती है .....
मेरे पास उनका संकलन है ....
पर ये नई जानकारी थी .....
आभार .....
एक ह्रदयस्पर्शी संस्मरण से अवगत कराने का आभार.
बहुत ही मर्मस्पर्शी संस्मरण है, साथ ही एक विशेष समय के स्त्री विमर्श संबंधी मुद्दें को इतने सहज संस्मरणात्मक रूप में प्रस्तुत करना बहुत ही प्रभावशाली है।
दूसरे औसतन व्यक्ति अपने अतीत की स्मृतियों में ही क्यूँ सुख पाता है ये सोचने की बात है।
तीसरे पद्मा सचदेव के इस संस्मरण से उनके लेखन के संघर्ष पर भी काफी प्रकाश पड़ता है। ज्ञानवर्धन करने के लिए आपका आभार।
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