मणिपुर में हिंदी का इतिहास-३
प्रो. देवराज
[पिछली पोस्ट की टिप्पणी में आदरणीय डॉ अमर कुमार जी ने कहा है कि मैं ‘अपने विचार रखूं कि इस बयान के पीछे निहित सोच का पता चले’। प्रो. देवराज जी की इस पुस्तक की भूमिका पढ़कर मुझे लगा कि इसमें मणिपुर में हो रहे हिंदी के विकास का संपूर्ण इतिहास दिखाई देता है। हाल ही में यह बवाल मचाया गया था कि हिंदी का लेखन तो उत्तर में ही होता है। वैसे, लोगों की सोच यह भी रही है कि लेखन तो मात्र दिल्ली में ही होता है और बाकी सब कूड़ा है!! ऐसे लोग शायद हिंदी के इतिहास की जानकारी कम ही रखते हैं; या फिर, उससे विमुख हैं। इस लेख से उन जैसे तथाकथित साहित्यकारों को पता चलेगा कि देश के कोने-कोने में लोग अपने-अपने तरीके से, अपनी-अपनी क्षमतानुसार अपना तन-मन-धन लगा कर भी राष्ट्रभाषा हिंदी की सेवा करते आ रहे हैं- तब से, जब राष्ट्रभाषा शब्द बोलना भी वर्जित था। इस लेख से पता चलता है कि किन विपरीत परिस्थितियों में हिंदीतर कहे जानेवाले प्रांतों में लोग अपने प्राण की बाज़ी लगा कर भी देश और भाषा की सेवा के लिए कृतसंकल्प रहे। उस छोटी सी शुरुआत ने अब विशाल तरु का रूप धारण कर लिया है।] मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल हिंदी की व्यवस्थित शिक्षा देने के लिए १९३३ में इम्फाल के व्यापारी-समाज के विशेष प्रयास से सेठ भैरोदान मोहता [बिकानेरवासी] के नाम पर ‘भैरोदान हिंदी स्कूल’ की स्थापना हुई। इसकी मुहूर्त पूजा पं. राधामोहन शर्मा ने की और समाज के आग्रह पर वे इसी विद्यालय में हिंदी का अध्यपन भी करने लगे। मणिपुर में हिंदी शिक्षण की समस्त सुविधाओं से युक्त यह पहला विद्यालय था, जिसमें अध्यापकों को नियमित वेतन भुगतान पर नियुक्त किया गया। श्री टी. बिशेश्वर शास्त्री के प्रयास से १९५१ में इसका सरकारीकरण हुआ। संस्थागत हिंदी-प्रचार आंदोलन की दृष्टी से मणिपुर में हिंदी-प्रचार का कार्य १९२७-२८ में ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ द्वारा प्रारम्भ हुआ। पहले से ही मणिपुर के जो कार्यकर्ता राष्ट्रीय चेतना से युक्त हो चुके थे, उन्होंने सम्मेलन के कार्य को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। अंगरेज़ सरकार के अनेक विरोधों के बावजूद सम्मेलन ने इस क्षेत्र में परीक्षा केंद्र चलाया तथा हिंदी के प्रचार का कार्य किया। ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा’ के अंतर्गत मणिपुर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की स्थापना १९३९-४० में हुई। यह उल्लेखनीय तथ्य है कि प्रारम्भ में अंगरेज़ सरकार ने ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द पर आपत्ति करते हुए इस नाम से कार्य करने की मनाही कर दी थी। इस पर, मूल उद्देश्य को मह्त्व प्रदान करते हुए हिंदी प्रचारकों ने इसका नाम ‘मणिपुर हिंदी प्रचार समिति’ रखकर कार्य करना शुरू किया और जैसे ही अनुकूल अवसर मिला, पुनः ‘मणिपुर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ नाम रख लिया। इस संस्था द्वारा ५१ राष्ट्रभाषा विद्यालय, १३ राष्ट्रभाषा महाविद्यालय तथा ५० से अधिक परीक्षा केंद्र प्रारम्भ किए गए। १९५९ में इम्फाल जेल में भी एक परीक्षा केंद्र शुरू किया गया, जिससे बंदी लोग हिंदी सीख कर परीक्षा दे सकें। ‘मणिपुर हिंदी प्रचार सभा’, ‘नागरी लिपि प्रचार सभा’, ‘नागा हिंदी विद्यापीठ’, ‘मणिपुर ट्राइबल्स हिंदी सेवा समिति’ आदि अन्य संस्थाएँ हैं, जिन्होंने इस राज्य में हिंदी-आदोलन की जड़ें मज़बूत करने का कार्य किया। ‘अखिल मणिपुर हिंदी शिक्षक संघ’ और ‘मणिपुरी हिंदी शिक्षा संघ’ आदि भी हिंदी का वातावरण तैयार करने का प्रयास करते हैं। केंद्रीय हिंदी शिक्षण योजना [गृह मंत्रालय के नियंत्रण में संचालित कर्मचारी हिंदी शिक्षण योजना], हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान, हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण महाविद्यालय, आकाशवाणी की हिंदी शिक्षण एवं हिंदी कार्यक्रम योजना आदि को भी यदि सम्मिलित किया जाए, तो इस राज्य में हिंदी की अच्छी तस्वीर उभरती है। मणिपुर विश्वविद्यालय में एक समृद्ध हिंदी-विभाग कार्य कर रहा है। यह १९७९ में तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू विश्विविद्यालय विस्तार केंद्र के नियंत्रण में प्रारम्भ हुआ था। इसमें स्नातक कक्षाओं के अध्यापन के साथ ही उच्च स्तरीय शोध कार्य भी किया-कराया जाता है। मणिपुर राज्य में हिंदी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता है। ‘युमशकैश’ और ‘महिप पत्रिका’ यहाँ से प्रकाशित होनेवाली नियमित - मासिक एवं त्रैमासिक - पत्रिकाएँ हैं। इसके साथ ही ‘कुन्दोपरेङ्’ नामक पत्रिका अनियतकालीन रूप में प्रकाशित होती हैं। स्कूल-कालेज से लेकर विश्वविद्यालय की वार्षिक पत्रिकाओं में भी सम्बंधी सामग्री का स्वतंत्र विभाग होता है। ये प्रयास हिंदी-प्रचार के इतिहास में उल्लेखनीय मह्त्व रखते हैं। मणिपुर राज्य में राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार प्रसार में जुटी ‘मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल’ अन्य सभी संस्थाओं से विशिष्ट है। कारण यह, कि इस संस्था ने हिंदी भाषा के प्रचार अथवा परीक्षा संचालन तक ही अपना कार्यक्षेत्र सीमित न रख कर हिंदी एवं मणिपुरी भाषाओं के भाषायी एवं साहित्यिक विकास का स्मरणीय प्रयास किया है। [साभार- ‘संकल्प और साधना’ पुस्तक में प्रो. देवराज द्वारी लिखी गई भूमिका] पुस्तक विवरण पुस्तक का नाम : संकल्प और साधना [‘मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल’ और उसके प्रमुख आधार स्तंभों का मूल्यांकन] लेखक : देवराज मूल्य : ८० रुपए प्रकाशक : पत्रिका विभाग, मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल विधानसभा मार्ग, इम्फाल - ७९५ ००१ [मणिपुर] |
हिन्दी पट्टी से इतर हिन्दी के प्रचार प्रसार पर यह एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है -आभार !
जवाब देंहटाएंहिन्दी सेवा में रत इन संस्थाओं को ढेरों साधुवाद।
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जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र, पर...
मैं इतना भी आदरणीय नहीं हूँ, कि आप सरे-आम यह कहते फिरें :)
मणिपुर में हिन्दी के स्थापना और विकास की यह ऋँखला निश्चय ही ज्ञानवर्धक है, साथ ही इसको सामने लाने में आपका निस्वार्थ श्रम प्रशँसनीय है ।
मेरी अपेक्षा यह थी कि हिन्दी प्रसार के प्रयासों में मूल मणिपुरी समाज की क्या प्रतिक्रिया रही ? क्या उन्होंने इसे नार्थ के कॉलोनिज़्म के रूप में तो नहीं लिया... मुझे आशँका है कि ऎसा हुआ होगा ।
वहाँ मूलतः उत्तर भारत की भाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किये जाने को लेकर लोगों में कैसी भावना है ? हिन्दीभाषी क्षेत्र में जन्म लेने और मातृभाषा हिन्दी होने से मुझे हिन्दी के प्रसार से हर्ष ही होता है, किन्तु इसे राष्ट्रभाषा मान लिये जाने से मैं पूर्णतः सहमत नहीं हो पाता..... इस नीति ने लोगों को भड़काया ही है, कई जगह उन्होंनें हिन्दी को गले नहीं लगाया बल्कि मज़बूरी में अपनाया है !
इँडिया एज़ अ स्टेट राष्ट्रभाषा सत्ताधीशों की मातृभाषा ही रही है... मसलन पहले फारसी, फिर अँग्रेज़ी और अब हिन्दी... दूसरी तरफ
इँडिया एज़ अ कन्ट्री देखें तो हिन्दी जनभाषा तो दूर सम्पर्क-भाषा भी नहीं बन पायी है । अतः हमें हिन्दी के प्रसारनीति और भाषाई आधार पर प्रान्तों के निर्धारण किये जाने दुबारा सोचना चाहिये ।
राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी प्रश्रय और नीतियों के चलते ही हिन्दी राष्ट्रभाषा.. जनभाषा और सम्पर्क-भाषा के बीच ही कहीं झूल रही है ।
हिन्दी की सेवा करना मज़ाक का एक विषय रह गया है ।
सार्थक जानकारी , आँखें खोलने में सक्षम आभार
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्द्धक जानकारी....
जवाब देंहटाएंकलम की ताल
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